Saturday, 24 September 2016

राजभाषा हिन्दी




"अपनी अस्मिता के लिए लड़ती हमारी राजभाषा “हिन्दी”

      पिछले कई दशकों से सरकारी कार्यालयों मे हिन्दी पखवाड़ा मनाया जाता है या ये कहें की हम प्रत्येक वर्ष अपनी राजभाषा का “जन्मदिन मानते हैं” कहना ज्यादा श्रेयस्कर होगा। 14 सितंबर ,1949 को भारत की सवींधन सभा ने हिन्दी को संधि की राजभाषा घोषित किया आखिर 26 जनवरी 1950 जब से इसे राजभाषा का दर्जा प्राप्त हुआ तब से अब तक हम क्यों की पूरे भारतवर्ष में अपनी राजभाषा को स्थापित नहीं कर सके? इसके लिए बहुत से तर्क-वितर्क दिये जा चुके हैं और आगे भी दिये जाते रहेंगे। लेकिन पिछले साढ़े छे साल में अगर आज भी अपना वजूद तलाश रही है तो इसके लिए और कोई नहीं सिर्फ हम भारत के लोग ही ज्यादा दोषी हैं और उससे भी ज्यादा हिन्दी भाषी प्रदेश के लोग। बात कुछ अटपटी सी लगेगी किन्तु सत्य है। हिन्दी प्रदेशों को छोडकर अन्य प्रदेशों के लोगों को इसके लिए इसलिए दोष देना ठीक नहीं क्यों कि वहाँ उन्हें अँग्रेजी भाषा भारत के अन्य प्रदेशों के लोगों से संवाद स्थापित करने में हिन्दी से ज्यादा सहज लगी। वो तो भला हो 1991 में आए उदारीकरण का जिसने विश्व व्यापार के लिए भारत के दरवाजे खोल दिये और जिन जिन देशों के लोगों को भारत में व्यापार करना था उन्होने अपने उत्पाद बेचने और उन्हें आम जन तक लोकप्रिय बनाने हेतु अपने देश के लोगों को भारत में भेजने से पूर्व हिन्दी भाषा का ज्ञान अनिवार्य कर दिया और इसके लिए उन्होने अपने अपने देश में हिन्दी के संक्षिप्त कोर्स प्रारम्भ किए। इसमें दक्षिण कोरिया प्रमुख रहा जिसने इसकी अगुवाई की। भारतीय जनमानस में अँग्रेजी एक भाषा न होकर प्रतिष्ठा की भाषा बन गई है।अगर आपको अँग्रेजी का ज्ञान नहीं है तो आप अनपढ़ समान समझ लिए जाएंगे और अगर आपको अच्छी अँग्रेजी आती है तो आपको सभी विषयों का जानकार मन लिया जाएगा।मैं व्यक्तिगत रूप से इसे एक बीमार मानसिकता मानता हूँ॥ जिसमें हमारे समाज के ज़्यादातर लोग जकड़े हुए हैं। इससे पहले कि मैं हिन्दी भाषा के विषय में कुछ जानकारी साझा करूँ ये जानना आवशयक है कि भारत में क्यों लोग इंग्लिश भाषा के इतने दीवाने हैं या ये उनकी मजबूरी है।




      आपको जानकार आश्चर्य होगा कि सन 1540 तक ग्रेट ब्रिटेन कि आधिकारिक राजभाषा फ्रेंच थी। ये तो भला हो वहाँ की कुछ ताकतवर लॉबी का जिन्होने तय किया कि वे अबसे फ्रेंच को राष्ट्र भाषा के रूप में स्वीकार नहीं करेंगें। इसी क्रम से वहाँ एक बिल लाया गया जिसमें फ्रेंच भाषा और फ्रेंच लोगों को देश निकाला दे दिया गया और 1540 अंगेजी इंग्लैंड की आधिकारिक राष्ट्र भाषा बन गई।  इंग्लिश एक West जर्मेनिक भाषा है जिसकी उत्पत्ति एंग्लो Frisian   और  Lower Saxon बोलियों से हुई है। इन बोलियों को Britain में 5 वीं शताब्दी में जर्मन खानाबदोशों और रोमन सहायक सेनाओं द्वारा वर्त्तमान के उत्तर पश्चिमी जर्मनी और उत्तरी Neither Land के विभिन्न भागों से लाया गया था। इन जर्मेनिक जनजातियों में से एक थी Angles, जो संभवतः Angolan   से आये थे।बीड लिखते हैं कि उनका पूरा देश ही, अपनी पुरानी भूमि को छोड़कर, ब्रिटेन आ गया था। 'इंग्लैंडऔर 'इंग्लिश ' नाम इस जनजाति के नाम से ही प्राप्त हुए हैं।Anglo Saxon ने 449 ई. में  डेन्मार्क और Jutland से आक्रमण करना प्रारंभ किया था।उनके आगमन से पहले इंग्लैंड के स्थानीय लोग ब्रायोथिनिक  सेल्टिक भाषा बोलते थे। ये विषय अलगा हैं कि बोली में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण परिवर्तन 1066 के  नॉर्मन आक्रमण  के पश्चात् ही आये, परन्तु भाषा ने अपने नाम को बनाये रखा और नॉर्मन आक्रमण से  पूर्व की बोली को अब पुरानी अँग्रेजी  कहा जाता है।शुरू शुरू में विविध बोलियों का एक समूह थी जो की ग्रेट ब्रिटेन के एंग्लो-सेक्सन राज्यों की विविधता को दर्शाती है। इनमें से एक बोली, लेट वेस्ट सेक्सन, अंततः अपना वर्चस्व स्थापित करने में सफल हुई. मूल पुरानी अंग्रेज़ी भाषा फिर आक्रमण की दो लहरों से प्रभावित हुई। पहला जर्मेनिक परिवार के  उत्तरी जर्मेनिक  शाखा के भाषा बोलने वालों द्वारा था ।उन्होंने 8 वीं और 9 वीं सदी में ब्रिटिश द्वीपों के कुछ हिस्सों को जीतकर उप-निवेश बना दिया. दूसरा 11 वीं सदी के नोर्मस  थे, जो की पुरानी नॉर्मन भाषा बोलते थे।समय बीतने के साथ, इसने अपने विशिष्ट नॉर्मन तत्व को पैरिसियन फ्रेंच और, तत्पश्चात, अंग्रेजी के प्रभाव के कारण खो दिया. अंततः यह एंग्लो फ्रेंच  विशिष्ट बोली में तब्दील हो गयी। इन दो हमलों के कारण अंग्रेजी कुछ हद तक "मिश्रित" हो गयी (हालाँकि विशुद्ध भाषाई अर्थ में यह कभी भी एक वास्तविक मिश्रित भाषा नहीं रही; मिश्रित भाषाओँ की उत्पत्ति अलग अलग भाषाओँ को बोलने वालों के मिश्रण से होती है। वे लोग आपसी बातचीत के लिए एक मिली जुली जबान का विकास कर लेते हैं) आठवीं और नवीं सदी में उत्तर से वाइकिंग्स और नोर्स क़बीलों के हमले भी आरंभ हो गए थे और इस प्रकार वर्तमान इंगलैंड का क्षेत्र कई प्रकार की भाषा बोलने वालों का देश बन गया और कई पुराने शब्दों को नए अर्थ मिल गए। जैसे ड्रीम (dream) का अर्थ उस समय तक आनंद लेना था लेकिन उत्तर के वाइकिंग्स ने इसे सपने का अर्थ दे दिया। इसी प्रकार स्कर्ट का शब्द भी उत्तरी हमलावरों के साथ यहाँ आया। लेकिन इसका रूप बदल कर शर्ट (shirt) हो गया। बाद में दोनों शब्द अलग-अलग अर्थों में प्रयुक्त होने लगे और आज तक हो रहे हैं।स्कैंदिनेवियंस के साथ सह निवास के परिणामस्वरूप अंग्रेजी भाषा के एंग्लो-फ़्रिसियन कोर का शाब्दिक अनुपूरण हुआ; बाद के नॉर्मन कब्जे के परिणामस्वरूप भाषा के जर्मनिक कोर का सुन्दरीकरण हुआ, इसमें रोमैन्स भाषा से कई सुन्दर शब्दों को समाविष्ट किया गया। यह नोर्मन प्रभाव मुख्यतया अदालतों और सरकार के माध्यम से अंग्रेजी में प्रविष्ट हो गया। इस प्रकार, अंग्रेजी एक "उधार" की भाषा” के रूप में विकसित हुई जिसमें लचीलापन और एक विशाल शब्दावली थी।

      आपको जानकार आश्चर्य होगा कि अँग्रेजी भाषा हिन्द-यूरोपीय भाषा परिवार में आती है और इस प्रकार हिन्दी उनर्दू फारसी आदि भाषाओं के साथ इसका दूर का सही लेकिन समन्ध तो है ही। इसे दुनिया की सर्वप्रथम अन्तर्राष्ट्रीय भाषा माना जाता है। ये दुनिया के कई देशों की मुख्य राजभाषा है और आज के दौर में कई देशों में (मुख्यतः भूतपूर्व ब्रिटिश उपनिवेशों में) विज्ञान, कम्प्यूटर, साहित्य, राजनीति और उच्च शिक्षा की भी मुख्य भाषा है। इतिहास की दृष्टि से, अंग्रेजी भाषा की उत्पत्ति 5वीं शताब्दी की शुरुआत में इंग्लैंड  में बसने वाले  एंग्लो सेकसन  लोगों द्वारा लायी गयी अनेक बोलियों, जिन्हें अब  OLD ENGLISH  कहा जाता है, से हुई है। वाइकिंग हमलावरों की  पुरातन नोर्स भाषा का अंग्रेजी भाषा पर गहरा प्रभाव पड़ा है। नॉर्मन विजय के उपरांत पुरानी अंग्रेजी का विकास  Middle English के रूप में हुआ, इसके लिए नॉर्मन शब्दावली और वर्तनी के नियमों का भारी मात्र में उपयोग हुआ। वहां से Modern English का विकास हुआ और अभी भी इसमें अनेक भाषाओँ से विदेशी शब्दों को अपनाने और साथ ही साथ नए शब्दों को गढ़ने की प्रक्रिया निरंतर जारी है। एक बड़ी मात्र में अंग्रेजी के शब्दों, खासकर तकनीकी शब्दों, का गठन प्राचीन ग्रीक और लैटिन की जड़ों पर आधारित है।

      हिन्‍दी भाषा का इतिहास लगभग एक हजार वर्ष पुराना माना गया है। हिंदी शब्द की उत्पति 'सिन्धु' से जुडी है। 'सिन्धु' 'सिंध' नदी को कहते है। सिन्धु नदी के आस-पास का क्षेत्र सिन्धु प्रदेश कहलाता है। संस्कृत शब्द 'सिन्धु' ईरानियों के सम्पर्क में आकर हिन्दू या हिंद हो गया। ईरानियों द्वारा उच्चारित किये गए इस हिंद शब्द में ईरानी भाषा का 'एक' प्रत्यय लगने से 'हिन्दीक' शब्द बना है जिसका अर्थ है 'हिंद का'। यूनानी शब्द 'इंडिका' या अंग्रेजी शब्द 'इंडिया' इसी 'हिन्दीक' के ही विकसित रूप है। हिंदी का साहित्य 1000 ईसवी से प्राप्त होता है। इससे पूर्व प्राप्त साहित्य अपभ्रंश में है इसे हिंदी की पूर्व पीठिका माना जा सकता है। आधुनिक भाषाओं का जन्म अपभ्रंश के विभिन्न रूपों से इस प्रकार हुआ है:-

अपभ्रंश 
आधुनिक भाषाएं
शौरसेनी
पश्चिमी हिंदी, राजस्थानी, पहाड़ी , गुजराती
पैशाची
लहंदा, पंजाबी
ब्राचड
सिंधी
महाराष्ट्री
मराठी
मगधी
बिहारी, बंगला, उड़िया असमिया
पश्चिमी हिंदी
खड़ी बोली या कौरवी, ब्रिज, हरियाणवी, बुन्देल, कन्नौजी
पूर्वी हिंदी
अवधी, बघेली, छत्तीसगढ़ी
राजस्थानी
पश्चिमी राजस्थानी (मारवाड़ी) पूर्वी राजस्थानी
पहाड़ी
पश्चिमी पहाड़ी, मध्यवर्ती पहाड़ी (कुमाऊंनी-गढ़वाली)
बिहारी
भोजपुरी, मागधी, मैथिली 

       प्रारंभिक, 1000 से 1100 ईसवी के आस-पास तक हिंदी अपभ्रंश के समीप ही थी। इसका व्याकरण भी अपभ्रंश के सामान काम कर रहा था। धीरे-धीरे परिवर्तन होते हुए और 1500 ईसवी आते-आते हिंदी स्वतंत्र रूप से खड़ी हुई। 1460 के आस-पास देश भाषा में साहित्य सर्जन प्रारंभ हो चुका हो चुका था। इस अवधि में दोहा, चौपाई ,छप्पय दोहा, गाथा आदि छंदों में रचनाएं हुई है। इस समय के प्रमुख रचनाकार गोरखनाथ, विद्यापति, नरपति नालह, चंदवरदाई, कबीर आदि है।अपने प्रारंभिक दौर में हिंदी सभी बातों में अपभ्रंश के बहुत निकट थी इसी अपभ्रंश से हिंदी का जन्म हुआ है। आदि अपभ्रंश में अ, , , , उ ऊ, , औ केवल यही आठ स्वर थे।ऋ ई, , स्वर इसी अवधि में हिंदी में जुड़े।
मध्यकाल -(1500-1800 तक) इस अवधि में हिंदी में बहुत परिवर्तन हुए। देश पर मुगलों का शासन होने के कारन उनकी भाषा का प्रभाव हिंदी पर पड़ा। परिणाम यह हुआ की फारसी के लगभग 3500 शब्द, अरबी के 2500 शब्द, पश्तों से 50 शब्द, तुर्की के 125 शब्द हिंदी की शब्दावली में शामिल हो गए। यूरोप के साथ व्यापार आदि से संपर्क बढ़ रहा था। परिणाम स्वरूप पुर्तगाली, स्पेनी, फ्रांसीसी और अंग्रेजी के शब्दों का समावेश हिंदी में हुआ। मुगलों के आधिपत्य का प्रभाव भाषा पर दिखाई पड़ने लगा था। मुगल दरबार में फारसी पढ़े-लिखे विद्वानों को नौकरियां मिली थी परिणामस्वरूप पढ़े-लिखे लोग हिंदी की वाक्य रचना फारसी की तरह करने लगे। इस अवधि तक आते-आते अपभ्रंश का पूरा प्रभाव हिंदी से समाप्त हो गया जो आंशिक रूप में जहां कहीं शेष था वह भी हिंदी की प्रकृति के अनुसार ढलकर हिंदी का हिस्सा बन रहा था। इस अवधि में हिंदी के स्वर्णिम साहित्य का सृजन हुआ। भक्ति आंदोलन ने देश की जनता की मनोभावना को प्रभावित किया। भक्ति कवियों में अनेक विद्वान थे जो तत्सम मुक्त भाषा का प्रयोग कर रहे थे। राम और कृष्ण जन्म स्थान की ब्रज भाषा में काव्य रचना की गई, जो इस काल के साहित्य की मुख्यधारा मानी जाती हैं। इसी अवधि में दखिनी हिंदी का रूप सामने आया। पिंगल, मैथिली और खड़ी बोली में भी रचनाएं लिखी जा रही थी। इस काल के मुख्य कवियों में महाकवि तुलसीदास, संत सूरदास, संत मीराबाई, मलिक मोहम्मद जायसी, बिहारी, भूषण हैं। इसी कालखंड में रचा गया 'रामचरितमानस' जैसा ग्रन्थ विश्व में विख्यात हुआ।  हिंदी में क, , , , , ये पांच नई ध्वनियां, जिनके उच्चारण प्रायः फारसी पढ़े-लिखे लोग ही करते थे। इस काल के भक्त निर्गुण और सगुन उपासक थे। कवियों को रामाश्रयी और कृष्णाश्रयी शाखाओं में बांटा गया। इसी अवधि में रीतिकालीन काव्य भी लिखा गया।आधुनिक काल (1800 से अब तक )हिंदी का आधुनिक काल देश में हुए अनेक परिवर्तनों का साक्षी है। परतंत्र में रहते हुए देशवासी इसके विरुद्ध खड़े होने का प्रयास कर रहे थे। अंग्रेजी का प्रभाव देश की भाषा और संस्कृति पर दिखाई पड़ने लगा। अंग्रेजी शब्दों का प्रचलन हिंदी के साथ बढ़ने लगा। मुगलकालीन व्यवस्था समाप्त होने से अरबी, फारसी के शब्दों के प्रचलन में गिरावट आई। फारसी से स्वीकार क, , , , फ ध्वनियों का प्रचलन हिंदी में समाप्त हुआ। अपवाद स्वरूप कहीं-कहीं ज और फ ध्वनि शेष बची। क, , ग ध्वनियां क, , ग में बदल गई। इस पूरे कालखंड को 1800 से 1850 तक और फिर 1850 से 1900 तक तथा 1900 का 1910 तक और 1950 से 2000 तक विभाजित किया जा सकता है।

      संवत 1830 में जन्मे मुंशी सदासुख लाल नियाज ने हिंदी खड़ी बोली को प्रयोग में लिया। खड़ी बोली उस समय भी अस्तित्व में थी। खड़ी बोली या कौरवी का उद्भव शौरसेनी अपभ्रंश के उत्तरी रूप से हुआ है। इसका क्षेत्र देहरादून का मैदानी भाग, सहारनपुर, मुजफ्फरनगर, मेरुत , दिल्ली बिजनौर ,रामपुर ,मुरादाबाद है। इस बोली में पर्याप्त लोक गीत और लोक कथाएं मौजूद हैं। खड़ी बोली पर ही उर्दू, हिन्दुस्तानी और दक्खनी हिंदी निर्भर करती है। मुंशी सदा सुखलाल नियाज के आलावा इंशा अल्लाह खान इसी अवधि के लेखक है। इनकी रानी केतकी की कहानी पुस्तक प्रसिद्ध है। लल्लूलाल, इस काल खंड के एक और प्रसिद्ध लेखक हैं। इनका जन्म संवत 1820 में हुआ था कोलकाता के फोर्ट विलियम कॉलेज के अध्यापक जॉन गिलक्रिस्ट के अनुरोध पर लल्लूलाल जी ने पुस्तक 'प्रेम सागर' खड़ी बोली में लिखी थी। प्रेम सागर के आलावा सिंहासन बत्तीसी, बेताल पचीसी, शकुंतला नाटक भी इनकी पुस्तकें हैं जो खड़ी बोली में, ब्रज और उर्दू के मिश्रित रूप में हैं। इसी कालखंड के एक और लेखक सदल मिश्र हैं। इनकी नचिकेतो पाख्यान पुस्तक प्रसिद्ध है। सदल मिश्र ने अरबी और फारसी के शब्दों का प्रयोग न के बराबर किया है। खड़ी बोली में लिखी गई इस पुस्तक में संस्कृत के शब्द अधिक हैं। संवत 1860 से 1914 के बीच के समय में कालजयी कृतियां प्राय: नहीं मिलती। 1860 के आसपास तक हिंदी गद्य प्राय: अपना निश्चित स्वरुप ग्रहण कर चुका था। इसका लाभ लेने के लिए अंग्रेजी पादरियों ने ईसाई धर्म के प्रचार-प्रसार के लिए बाईबल का अनुवाद खड़ी बोली में किया यद्यपि इनका लक्ष्य अपने धर्म का प्रचार-प्रसार करना था। तथापि इसका लाभ हिंदी को मिला देश की साधारण जनता अरबी-फारसी मिश्रित भाषा में अपने पौराणिक आख्यानों को कहती और सुनती थी। इन पादरियों ने भी भाषा के इसी मिश्रित रूप का प्रयोग किया। अब तक 1857 का पहला स्वतंत्रता युद्ध लड़ा चुका था अतः अँग्रेजी शासकों की कूटनीति के सहारे हिंदी के माध्यम से बाइबिल के धर्म उपदेशों का प्रचार-प्रसार खूब हो रहा था। भारतेंदु हरिश्चंद्र ने हिंदी नव-जागरण की नींव रखी। उन्होंने अपनें नाटकों, कविताओं, कहावतों और किस्सा गोई के माध्यम से हिंदी भाषा के उत्थान के लिए खूब काम किया। अपने पत्र 'कविवचन सुधा' के माध्यम से हिंदी का प्रचार-प्रसार किया। भारतेंदु हरिश्चंद्र ने कविता को ब्रज भाषा से मुक्त किया उसे जीवन के यथार्थ से जोड़ा। 

     
सन 1866 की अवधि के लेखकों में पंडित बद्री‍नारायण चौधरी, पंडित प्रताप नारायण मिश्र, बाबू तोता राम, ठाकुर जगमोहन सिंह, पंडित बाल कृष्ण भट्ट, पंडित केशवदास भट्ट ,पंडित अम्बिका दत्त व्यास, पंडित राधारमण गोस्वामी आदि आते हैं। हिंदी भाषा और साहित्य को परमार्जित करने के उद्देश्य से इस कालखंड में अनेक पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन प्रारंभ हुआ। इनमें हरिश्चन्द्र चन्द्रिका, हिन्दी बंगभाषी, उचितवक्ता, भारत मित्र, सरस्वती, दिनकर प्रकाश आदि। 1900 वीं सदी का आरंभ हिन्दी भाषा के विकास की दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण है। इस समय देश में स्वतंत्रता आंदोलन प्रारंभ हुआ था। राष्ट्र में कई तरह के आंदोलन चल रहे थे। इनमें कुछ गुप्त और कुछ प्रकट थे पर इनका माध्यम हिंदी ही थी अब हिंदी केवल उत्तर भारत तक ही सीमित नहीं रह गई थी। हिंदी अब तक पूरे भारतीय आन्दोलन की भाषा बन चुकी थी। साहित्य की दृष्टि से बांग्ला, मराठी हिन्दी से आगे थीं परन्तु बोलने वालों के लिहाज से हिन्दी सबसे आगे थी। इसीलिए हिन्दी को राजभाषा बनाने की पहल गांधीजी समेत देश के कई अन्य नेता भी कर रहे थे। सन 1918 में हिंदी साहित्य सम्मलेन की अध्यक्षता करते हुए गांधी जी ने कहा था की हिंदी ही देश की राष्ट्रभाषा होनी चाहिए। सन 1900 से लेकर 1950 क हिंदी के अनेक रचनाकारों ने इसके विकास में योगदान दिया इनमे मुंशी प्रेमचंद ,जयशंकर प्रसाद, माखनलाल चतुर्वेदी , मैथिलीशरण गुप्त, सुभद्राकुमारी चौहान, आचार्य रामचंद्र शुक्ल, सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला, सुमित्रानंदन पन्त, महादेवी वर्मा आदि।

      और अब अंत में 2004 के आंकड़ो पर यदि द्रष्टि डाली जाए तो इस समय देश में भाषायी अनुपात इस प्रकार है:-
भाषा
बोलने वाले प्रतिशत में (2004 के अनुसार)
वर्ष 2016 अनुमान के आधार पर
हिन्दी
80.5 करोड़
100 करोड़ से ऊपर
उर्दू
6 करोड़
6.5 करोड़
मैथिली
2.4 करोड़
2.75 करोड़
मारवाड़ी
1.2 करोड़
1.3 करोड़
मगधी
1.1 करोड़
1.5 करोड़
हरियाणवी
1.3 करोड़
1.7 करोड़
छतीसगढ़ी
1.1 करोड़
1.4 करोड़

 अगर हम विशुद्ध हिन्दी बोलने वाले देखना चाहे तब भी ये आंकड़ा लगभग 63 करोड़ बैठता है।

      2015 के आंकड़े के अनुसार 50 मिलियन या उससे ज्यादा बोली जाने वाली 26 भाषाओं में हिन्दी 5वें नंबर पर है, बंगाली भाषा 7वें पायदान पर,  उर्दू 12 स्थान पर, पंजाबी 13वें स्थान पर,तमिल सत्तरहवें स्थान,  तेलगु 20 वें स्थान पर और मराठी 23वें पर अपना कब्जा जमाये हुए हैं।

       चलते चलते एक खुशखबरी ये कि मध्य प्रदेश देश का पहला राज्य बन गया है जहां engineer की पढ़ाई अब हिन्दी माध्यम से भी की जाएगी।



::: प्रदीप भट्ट :::

Tuesday, 13 September 2016

आवा का आवा ही बिगड़ा हुआ है




“आवा का आवा ही बिगड़ा हुआ है”
     पिछले दिनों मे IT मे छपे एक लेख जिसमे झारखंड के एक गाँव का जिक्र था जो कि आजकल  साइबर क्राइम का गढ़ बना हुआ हुआ है को पढ़ रहा था तो अकस्मात मुझे वर्षों पहले पढ़ी गई एक किताब के कुछ अंशों जिनमें मध्य प्रदेश के गाँव का जिक्र था कि याद हो आई। तो आइये आज कुछ इस पर प्रकाश डालते हैं   
उत-खोपड़ी

     कई वर्षो पहले मैंने मध्य प्रदेश के एक पुलिस अधिकारी (शायद उनका रैंक एसपी या एजीपी रहा होगा) द्वारा लिखी गई पुस्तक के कुछ अंश पढ़े थे जिसमें इस बात का जिक्र था कि कैसे वो अधिकारी जहां भी उनकी पोस्टिंग होती थी वे पूरा प्रयास करते थे कि उस इलाके में अपराधों का ग्राफ कम हो और इस बात को लेकर वो इतने ज्यादा संवेदनशील थे कि स्वम कुछ लोगों को लेकर दूर दराज के गाँव में जाकर लोगों को समझाते थे और उनका ये प्रयास काफी हद तक कामयाब भी रहा। इसी प्रयास के दौरान उनको एक ऐसे गाँव का चला जो पूर्णतया अपराधियों का गढ़ था।उस गाँव मे सभी स्त्री हों या पुरुष सभी अपरराधों मे लिप्त थे। जब वे अपने लाव लश्कर के साथ वहाँ पहुंचे तो पहले तो कोई भी व्यक्ति ये जानकार कि ये पुलिस मे बड़े साहब हैं कुछ कहने को ही तैयार नहीं हुआ। बड़े साहब द्वारा उस गाँव कि महिलाओं को भी समझने का प्रयास किया गया किन्तु कोई कुछ सुनने को ही तैयार नहीं था और सभी एक ही रट लगाए हुए थे कि हम अपना काम (चोरी चकारी,उठाईगीरी) नहीं छोडने वाले। पुलिस टीम के साथ गई कुछ महिलओं ने बड़ी मुश्किल से बात करने के लिए राज़ी किया। बड़े साहब ने उन्हें अच्छा नागरिक (गाँववासी) बनने के लिए तरह तरह के प्रलोभन दिये किन्तु फिर भी अपने काम धंधे को छोडने के लिए तैयार नहीं हुए तब बड़े साहब ने सख़्ती दिखाते हुए कहा कि वे सारे गाँव वालों जेल मे डलवा सकते हैं तब तो स्थिति और भी विकट हो गई ।खैर जैसे तैसे बहुत समझने-बुझाने के पश्चात जो स्थिति सामने आई उस स्थिति की तो बड़े साहब ने कल्पना तक न की थी। उस गाँव के एक व्यक्ति (शायद प्रधान) ने जो बताया उसका लब्बो-लुआब ये था कि “साहब हम तो पीढ़ी दर पीढ़ी ये चोरी चकारी का काम ही करते आ रहे हैं, हमारे दादाओं ने हमारे पिताजी को ये गुण दिया और अब हम अपने बच्चो को अपना यही हुनर सिखला रहे हैं कारण स्पष्ट है साहब हमें और कोई काम आता ही नहीं। वर्षों पश्चात पढ़ी हुई उस किताब के अंश मुझे आज भी रोमांचित कर देते हैं।
     इसी किताब के अंश मे एक और घटना का जिक्र था कि चंबल के आस पास अपराध जाने अनजाने कैसे पनपते हाँ। इस बात का जिक्र करते हुए उदरहरण का तौर पीआर वो अधिकारी लिखते हैं कि “ एक गाँव मे चाचा और भतीजा अपने अपने खेत जोतकर, भरी दुपहरी में पेड़ के नीचे खाना खाते हैं और खाना खाने के बाद वो समय काटने के लिए (दोपहर के वक़्त ज्यादा तेज़ धूप होती हैं) वो पास पड़ी हुई पेड़ से गिरि टहनी उठाकर जमीन पर अपने-अपने खेत बनाते हैं फ़िर भतीजा या चाचा पकड़ी हुई टहनी को एक दूसरे के खेत मे ये कहकर घुसेडते हैं कि ले चाचा मैंने अपनी भैंस तेरे खेत मे घुसेड़ दी अब तो तेरी फसल का सत्यानाश कर देगी ,चाचा अपनी वाली टहनी से उस टहनी नुमा भैस को खदेड़ने कि कोशिश करता है और दोनों मे तू तू मैं मैं (मज़ाक मे) शुरू हो जाती है जो धीरे धीरे भयंकर रूप ले लेती है। उसका परिणाम होता है कि अब वो जमीन पर खिचीं हुई लकीरों को अपना अपना खेत समझ लेते हैं और नौबत हाथा पाई तक आ जाती हैं और अंत में या तो चाहा या भतीजा एक दूसरे का सर फोड़ देते हैं और कभी कभी तो मामला इतना बढ़ जाता है कि वे गंडासे या फावड़े से एक दूसरे पर वार कर देते हैं और दोनों मे से एक कि मौत हो जाती है और फ़िर पुलिस-थाना,कोर्ट-कचहरी तक जा पहुँचती है।  इस घटना के द्वारा वो श्रीमान ये समझाना चाहते थे कि सामान्यतया अपराध कभी कभी जानबूझकर नहीं किए जाते वरन मनुष्य आवेग और आवेश मे आकर भी कर बैठता है।


    

                          "बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ"
कोई इनको भी बचाओ और पढ़ाओ
     इसी प्रकार कुछ रूढ़िवादी परम्पराएँ सदियों से इस देश में चली आ रही है जिनमें से एक है प्रथा है देह व्यापार।आपको जानकार आश्चर्य होगा कि सदियों से चली आ रही इस प्रकार कि विक्रत प्रथा आज भी देश के विभिन्न हिस्सों मे पाई जाती है जहां बचपन से ही लड़कियों को इस गलीच प्रथा को मानने के लिए मजबूर होना पड़ता है। मध्य प्रदेश की लगभग छत्तीस जातियों में सदियों से ये प्रथा चली आ रही है। इस जाति को बेड़िया नाम से पुकारा और जाना जाता है किन्तु मध्य प्रदेश मे बेड़िया जाति की महिलाएं एक अनुमान के अनुसार पूरे भारत में इस समय लगभग  पाँच लाख से भी अधिक है। यह मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, राजस्थान, बिहार और बंगला देश में पाये जाते हैं। इसी समुदाय की एक मशहूर महिला जिनका नाम गुलाब बाई है नौटंकी की मशहूर अदकारा मनी जाती है राष्ट्रीय पुरस्कार (पद्म श्री) से सम्मानित भी किया गया। इस जाति की लड़कियों को 10-14 वर्ष की हो जाने पर लड़की को राई का प्रशिक्षण देकर बेडनी बना दिया जाता है।मध्य प्रदेश के बुंदेलखंड क्षेत्र में प्रसिद्ध लोक नृत्य 'राई' बेड़िया जाति के द्वारा ही किया जाता है।राई के साथ ही देह व्यापार भी जुड़ा हुआ है इस जाति मे नियमानुसार घर की पूंजी (लड़की) से देह व्यापार करवाया जाता है। नृत्य के लिए एक बार तैयार हुई लड़की जीवन में कभी व्याह नहीं कर सकती है। अर्थात उसके लिए लौटने का कोई और रास्ता नहीं होता है। बस वह किसी की रखैल (बिन व्यही औरत बन के) रह सकती है।

     बेड़िया जाती (समुदाय) की अर्थव्यसथा परिवार की स्त्रियों द्वारा किए जाने वाले देह व्यापार और राई पर ही निर्भर होती है। सामान्य तौर पुरुष छोटे मोटे अपराध भी करते हैं इस जाति में शिक्षा का प्रतिशत काफी कम है। अशिक्षा के अंधकार मे डूबे इन लोगों को समाज की घोर उपेक्षा का शिकार भी होना पड़ता है। ग्रामीण परिवेश में रहने वाली यह जाति के लिए अलग-अलग कई गाँव बसाये गए हैं। जिससे ये मुख्य धारा में नहीं जुड़ सके। बेड़िया समाज के बच्चों की स्थिति अन्य बच्चों की तुलना में कई तरह से बदतर है ये बच्चे समानयता हीन-भावना से ग्रस्त रहते हैं। लड़के तो किशोर अवस्था तक अपराधी बन जाते हैं। या घर छोड़ कर चले जाते हैं।
     आजादी के बाद इस समुदाय को अनुसूचित जाति की श्रेणी में तब्दील कर दिया गया आजादी से पहले ये लोग जन-जाति के तौर पर अपना जीवन बिताते थे। चूंकि इनके संबंध सामन्ती लोगों के साथ थे, साथ ही यह किसी नई जाति के साथ अपने संबंध भी नहीं बनाते है। शायद यही कारण है कि इस जाति में लोक नृत्य 'राई' की परंपरा विकृत होकर  कई स्थानो पर अब सिर्फ देह व्यापार में तब्दील हो गई है।अब निर्धन हो चुकी बेड़िया जाति स्वयं अपना शोषण करवाने को मजबूर है। पुराने समय में तो राजा महाराजा और जमींदार इन्हें संरक्षण देते थे। जमींदारी समाप्त होने पर यह खाना-बदोश जाति जहाँ तहाँ बस गयी और रोजगार के लिए सिर्फ देह व्यापार पर ही आश्रित हो कर रह गयी। लेकिन इसकी निर्मिती में मुख्य समाज की भूमिका काफी अहम नजर आती है। 


                                "एकला चलो रे"

मैं अकेला ही काफी हूँ
     यूँ तो क्षेत्रफल के हिसाब से राजस्थान मध्य प्रदेश के बाद दूसरा सबसे बड़ा राज्य हैं किन्तु इस राज्य में भी कुछ अजीबो गरीब किस्से सुनने या देखने को मिल जाएंगे। पिछले दिनों चुरू जिले का एक श्याम पँड़िया नामक गाँव (2011 की जनगणना के अनुसार) काफी चर्चित रहा। श्याम पँड़िया नामक गाँव नेठवा ग्राम पंचायत के तहत आता है।इस गाँव  में सिर्फ एक मंदिर है अन्य कोई व्यक्ति यहाँ निवास नहीं करता।यहाँ एक मात्र  एक ही व्यक्ति निवास करता है और वो भी एक पुजारी जिसका नाम ज्ञानदास है। इससे पूर्व इस गाँव मे राजेश गिरि पुजारी थे। चूँकि ये गाँव मात्र डेढ़ बीघा जमीन पर है। गाँव नेठवा ग्राम पंचायत के सरपंच लीलाधार प्रजापति बताते हैं कि इस गाँव मे बरसों से केवल एक आदमी ही रहता है जो की इस मंदिर का पुजारी है।आश्चर्य तब होता है जब उस व्यक्ति अर्थात पुजारी के नाम से राशन कार्ड और वोटर आई डी कार्ड भी इश्यू किया गया है।पुजारी महोदय आसपास के गाँवों से अनाज और अन्य सामग्री एकत्रित करता है ताकि उसकी गुजर बसर हो सके। गाँव के इस मंदिर की मान्यता भी काम नहीं है भद्रपद मास की अमावस्या को यहाँ एक बड़ा मेला लगता हैं और इसे देखने के लिए सैकड़ों गाँवों के लोग इक्कट्ठे होते हैं।

                           सौ मे एक 

और पप्पू पास की जगह फ़ेल हो गया (100 गाँवों का गोरखधंदा)

     अब बात करते हैं उस गाँव की जो कि आजकल साइबर क्राइम का गढ़ बना हुआ है। आजकल सभी लोगों के पास जो की मोबाइल धारक हैं के पास कभी न कभी इस प्रकार के फोन कॉल अवश्य आए होंगे कि मैं आरबीआई ,एसबीआई या किसी बीमा कंपनी से फोन आए होंगे कि मैं फलां फलां कंपनी या बैंक से बोल रहा हूँ। बैंक का सर्वर डाउन हो गया है हम नहीं चाहते कि आपका एटीएम कार्ड का इस्तेमाल गलत लोग कर पाएँ अतएव आप कृपया अपना डेबिट या क्रेडिट कार्ड नंबर बताएं।जब आप अपने कार्ड का नंबर बताते हैं तो फ़िर आपसे कहा जाता है कि सुरक्षा के लिहाज से कृपया आप अपना पिन नंबर बदलवा लें ताकि कोई इसका गलत इस्तेमाल न कर सके।जब आप उस अंजान कॉल करने वाले व्यक्ति को अपना पिन नंबर देते है  ताकि वो सिस्टम में डालकर आपको दूसरा पिन नंबर दे तो कॉल करने वाला व्यक्ति आपको कहता है कि आपकी जानकारी कम्प्युटर द्वारा चेक की जा रही है कुछ देर आपको बताया जाता है कि 15-30 मिनिट के अंदर आपको अपने मोबाइल पर नया पिन देने से पहले एक नंबर भेजा जाएगा ताकि चेक किया जा सके कि आप ही सही ग्राहक हैं। अब आप जैसे ही अपना पिन नंबर उसको देते हैं वो उस कार्ड का इस्तेमाल कैश निकालने से लेकर ख़रीदारी करने तक कर डालते हैं जैसे ही आपके मोबाइल पर ओटीपी आता है फर्जी कॉल वाला आपसे कहता है कि मैंने अभी जो नंबर आपको भेजा है वह क्या है जब आप उसको वो ओटीपी नंबर बताते हैं वो अपना काम कर जाते हैं और बस आप गए काम से जब तक आप कुछ समझे तब तक तो आपके मोबाइल नंबर कि दूसरी सिम तैयार कर आपके द्वारा दी गई डिटेल्स के आधार पर वो ठग दूसरा एटीएम कार्ड बनाकर आपको लाखों का चुना लगा चुका होता है।आप पुलिस में जाए या कहीं और लेकिन पता कुछ नहीं चल पाता।

     खैर ऐसे ही दो कॉल मैंने स्वम रिसीव कीं थीं और चूँकि मेरे मोबाइल में TRU Caller लगा हुआ है तो मैं बच गया और मैंने उल्टा उससे ही पूछ लिया कि एसबीआई का हैड्क्वार्टर बिहार में कब से शिफ्ट हो गया भाई। कहने कि आवश्यकता नहीं की दूसरी ओर से तुरंत फोन काट दिया गया। चूँकि मैंने उस कॉल को रेकॉर्ड कर लिया था और अपने ऑफिस के प्रांगण मे स्थित (केवीआईसी मुख्यालय) एसबीआई के मैनेजर को इसकी सूचना दी तो मैनेजर साहब ने बताया कि वो खुद इस प्रकार की कॉल रिसीव कर चुके हैं।  आखिर ये माजरा क्या है। आइये समझते हैं।

     झारखण्ड राज्य का पूर्वी इलाका है जो कि आज जन जीवन से काफी हद तक कटा हुआ हैं। बात अगर कम्प्युटर शिक्षा की की जाए तो जामताड़ा पूरे झारखण्ड राज्य मे सबसे निचले पायदान पर है। जामताड़ा जिलें में 1161 गाँव हैं सभी गाँव पूर्ण रूप से बरसात पर निर्भर है।  बिजली आने की दर भी 24 घण्टों में से मात्र 4-5 घंटे ही है किन्तु जामताड़ा जिले के लगभग 100 गाँवों के निवासी लगातार दमदार तरीके से साइबर ठगी में पारंगता हासिल कर चुके हैं। इनमें भी कालाझरिया और दुधनिया गाँव तो साइबर ठगी के तौर पर पहचने जाते हैं । 24 साल का सीताराम मण्डल जिसने ये धन्दा 2012 में शुरू किया और आज उसके पास गाँव में सभी सुख सुविधाएं मौजूद हैं 2 पक्के मकान, महिंद्रा Scorpio और 12 लाख से ज्यादा की नकदी।आश्चर्य तब होता है जब उसके पिता उसके गाँव वाले इसमें कुछ भी गलत नहीं मानते। जब कुछ पत्रकारों ने इन दोनों गाँवों का दौरा किया तो कोई भी इन पत्रकारों से बात नहीं करना चाहता था कारण ये दोनों गाँव जहाँ 2010 से पहले निर्धनतम गांवो के क्ष्रेणी मे थे वहीं 2010 से 2014 तक इन चार वर्षों में यहाँ के लड़कों ने साइबर ठगी कर कर के दोनों ही गाँवों के काया ही पलट दी ।अब सब तरफ खुशहली छाई हुई है जिसके ग्रहण के लिए ये इन पत्रकारों को दोषी मानते हैं।

     आखिर इस साइबर ठगी का पटाक्षेप कैसे हुआ। वैसे तो 16 राज्यों की पुलिस इस साइबर धोखाधड़ी से परेशान थी ।इस ठगी में तो देश के लगभग सभी राज्यों के लोग शिकार भी हुए जिनमें कुछ पुलिस वाले भी थे। पप्पू मण्डल जो कि इस काम में अपने को मास्टर मानता था गलती से उसने केरल के संसद सदस्य प्रेमचंद को आरबीआई का अधिकारी बनकर फोन करने कि गलती कर बैठा और उन्हें एक लाख साथ हजार कि चपत लगाने में कामयाब भी हो गया।कहते है न लालच बुरी बाला एक बार कामयाब होने पर उसने कई बार उस संसद को फोन पर ओटीपी मांग मांग कर परेशान कर दिया और संसद महोदय ने वो कॉल दिल्ली पुलिस को स्थानांतरित कर दी। इसी के बाद पुलिस ने अपनी जांच ज्यादा तेज़ कर दी और जांच के दौरान ये पाया गया कि जो गाँव पिछड़ों में है उन गाँवों पर लगे टावरों पर सबसे ज्यादा कॉल आ और जा कैसे रही है। और पप्पू पास की जगह फ़ेल हो गया ।  इसी सिलसिले में पश्चिम बंगाल पुलिस ने भी 1 जुलाई को जामताड़ा कि सोनाबाद पंचायत के उप-मुखिया 32 साल के सद्दाम हुसैन को गिरफ्तार कर लिया उस पर कोलकतता के शंकर कुमार बोस को 1 लाख से ज्यादा कि चपत लगाने का इल्ज़ाम है।

::: प्रदीप भट्ट :::13:09:2016


































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