Tuesday, 14 February 2023

हैदराबाद के मुक्ति आंदोलन में कोराराम भीम


आलेख 

 “हैदराबाद आंदोलन के मुक्ति आंदोलन में स्वतंत्रता सेनानी एवम भारतीय भाषाएँ” 

            इससे पहले कि हैदराबाद आंदोलन के मुक्ति आंदोलन में स्वतंत्रता सेनानियों एवम भारतीय भाषाओं के विषय में लिखा जाए, ये आवश्यक है कि स्पष्ट किया जाए कि स्वतंत्रता के पूर्व हैदराबाद की स्थिति क्या थी। ब्रिटिश भारत के समय में कुल 562 रियासतें थीं। ब्रिटिश हुकूमत के अधीन हैदराबाद स्टेट सबसे बडी एवम आर्थिक दृष्टी से सम्पन्न रियासत थी इसे हैदराबाद डेक्कन के नाम से भी जाना जाता था। यहाँ कि मुख्य भाषा तेलगू एवम उर्दु थी। पूर्व समय से यहाँ महाराष्ट्र और उत्तरी कर्नाटक के राज्य भी लगते थे इसी कारण यहाँ मराठी और कन्नड भाषा भी प्रचलित थी। अगर मैं ब्रिटिश हुकूमत से पहले की बात करुँ तो हैदराबाद स्टेट पर कुल दस निज़ामों ने अपनी अपनी निज़ामियत कायम की जिनका विवरण नीचे दिया जा रहा है:- 


1. मीर कमरुद्दीन खान जिनका जन्म 20 अगस्त 1671 को हुआ। वो 31 जुलाई-1724 को निज़ाम बने और 1 जुलाई 1748 तक (मृत्यु पर्यंत तक) इस पद पर बने रहे। 
2. मीर अहमत अली खान का जन्म 26 फरवरी 1712 को हुआ। उन्होंने 1 जुलाई 1748 से 16 जुलाई-1750 तक अपनी निज़ामियत कायम रखी।

 3. मीर हिदायत मुहिउद्दीन सादुल्लाह खान 16 जुलाई 1750 से 13 फरवरी 1751 तक निज़ाम के पद पर बने रहे। 

4. मीर साइड मुहम्मद खान 24 नवम्बर-1748 को पैदा हुए। 13 फरवरी 1751 को निज़ाम बने लेकिन उन्हें 8 जून 1762 को अपदस्थ कर दिया गया। उनकी मृत्यु 16 जून 1763 को हुई। 

5. मीर निज़ाम अली खान जिनका जन्म 7 मार्च 1734 को हुआ, 8 जून 1762 को निज़ाम बने और 6 अगस्त 1803 को उनकी मृत्यु हो गई। 

6. मीर अकबर अली खान 11 जुलाई 1768 को पैदा हुए, 6 अगस्त को निज़ाम बने और 21 मई 1829 तक निज़ाम रहे। 

7. मीर फरखुंदा अली खान का जन्म 25 अप्रैल-1794 को हुआ, 21 मई 1929 को निज़ाम बने और 16 मई 1857 को मृत्यु होने तक इस पद पर बने रहे।

 8. मीर तेहनीयत अली खान का जन्म 11 अक्टूबर 1827 को हुआ, 16 मई 1857 को निज़ाम बने एवम 26 फरवरी, 1869 तक निज़ामियत करते रहे। 

9. मीर महबूब अली खान 17 अगस्त 1866 को पैदा हुए, 26 फरवरी, 1869 को निज़ाम बने एवम 29 जुलाई,1911 तक निज़ामियत करते रहे।

 10. हैदराबाद निज़ामियत के अंतिम निज़ाम मीर उस्मान अली खान का जन्म 6 अप्रैल,1886 को हुआ, 29 जुलाई, 1911 को निज़ाम बने और 17 सितम्बर,1948 अपद्स्थ होने तक निज़ाम रहे। इनकी मृत्यु 24 फरवरी,1967 को हुई। 
                                         (साभार गूगल) 

           जब पूरे भारत में अंग्रेजो के विरुद्ध स्वतंत्रता आंदोलन अपने चरम पर था। विदेशी वस्तुओं का त्याग किया जा रहा और स्वदेशी की भावना प्रबल की जा रही थी उसी समय हैदराबाद स्टेट के अंतिम निज़ाम मीर उस्मान अली खान हैदराबाद स्टेट को भारत या पाकिस्तान में नहीं वरन वे उसे स्वतंत्र रखने के लिए अंग्रेजों की चाटुकारिता कर रहे थे। इसी समय ये तय हो गया कि धर्म के आधार पर भारत से अलग होकर एक अलग देश बनेगा जिसमें सिर्फ मुसलमान ही होंगे। जहाँ पूरे भारत में अंग्रेजी राज का विरोध आम जन से लेकर मर मिटने को तैय्यार स्वतंत्रता सेनानी कर रहे थे वहीं हैदराबाद स्टेट में स्थिति अलग ही थी। यहाँ के निज़ाम ने मुस्लिम लीग के नेता मौहम्मद अली जिन्ना के प्रभाव में काज़मी रज्मी (मजलिसे एत्हुद मुसलमीन के प्रमुख लीडर) के नेतृत्व में लगभग दो लाख रजाकारों की फौज तैय्यार कर ली थी। इस दो लाख की सेना में हिंदुओं का प्रतिनिधित्व बस नाम मात्र का ही था। सभी बडे पदों पर मुस्लिमों का कब्ज़ा था।

           हैदराबाद स्टेट के हिंदुओं द्वारा अब ये माँग की जाने लगी थी कि चूँकि हैदराबाद भारत के लगभग मध्य में है अतएव निज़ाम को इस राज्य का विलय भारत में कर देना चाहिए न कि पाकिस्तान में न ही इसे स्वतंत्र रखना चाहिए। दिन-ब-दिन जब विरोध बढने लगा तो निज़ाम ने काज़मी रज्मी को इस विरोध को दबाने के लिए कहा और उसे पूरी आजादी दे दी कि वो जो चाहे करे लेकिन विरोध दबना ही चाहिए। काज़मी ने अपने सिपह सलारों को आदेश पारित कर दिया कि इन हिंदुओं को ऐसा सबक सिखाओ कि इनकी सात पुश्तें भी विरोध करना भूल जाएँ। उन सिपहसलारों ने सिर्फ हैदराबाद शहर में ही नहीं वरन गाँव देहातों में भी जुल्म करने के सभी रिकार्ड ध्वस्त कर दिये। सरे आम रजाकारों की सेना खेतों में घुसने लगी लूट पाट करती महिलाओं और लडकियों का बलात्कार करती, जो भी विरोध करता उनका सर कलम कर दिया जाता था। निज़ाम के आदेश पर जुल्म की कभी न ख्त्म होने वाली दास्तानें कभी इस गाँव से बाहर आती कभी उस गाँव से। रौगटे खडे कर देने वाली इन दास्तानों की चर्चा जब महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश पहुँची तो कुछ राजपूर राजाओं ने अपनी छोटी छोटी गुप्त सेनाएँ भी इसी दौरान रजाकारों की सेना से लडने के लिए भेज दीं। जुल्म दिन- ब -दिन बढते जा रहे थे। बाहर की मदद न के बराबर मिल रही थी तब हैदराबाद और उसके आस पास के क्षेत्रों में कुछ लोगों ने हथियार एकत्र कर रजाकारों का मुकाबला भी किया किंतु इसका उल्टा असर हुआ। अब काज़मी रज्मी ने अपने सैनिको को ज्यादा से ज्यादा काफिरों को इस्लाम धर्म अपनाने के लिए मजबूर करने के लिए कहा इसके लिए उसके कई सैनिक एक साथ एक औरत के साथ बलात्कार करते और उन्हें इस्लाम धर्म अपनाने को कहते न मानने पर उन्हें मारकर पेडों पर टाँग देते थे। कितने ही स्वतंत्रता सेनानियों ने इसी दौरान अपनी जान गँवा दी। मीरपुर नौखालिया नरसंहार जग प्रसिद्ध है जहाँ रजाकारों की सेना ने दस हजार से ज्यादा हिंदुओं को मौत के घाट उतार दिया उनकी औरतों और लडकियों के साथ बलात्कार किया बच्चों की गर्दन पे तलवार रखकर औरतों और लडकियों को जबरन इस्लाम धर्म अपनाने के लिए मजबूर किया । इस्लाम धर्म अपनाने के बाद उन्हीं के सामने उनके बच्चों को मार दिया गया। 

           कहते है न जब जुल्म हद से ज्यादा बढ जाए तो उसको रोकने के लिए ईश्वर कोई न कोई उसका विरोध करने के लिए भेज देते हैं। कोमाराम भीमकोमाराम भीम का जन्म 22 अक्टूबर को जोदेघाट जिले के अलिदाबाद के जंगलों में गोंडा आदिवासी समुदाय में हुआ था। इनका पालन पोषण चंदा और बल्लालपुर राज्यों के आदिवासी इलाके में हुआ। इनका परिवार जीवन भर एक स्थान से दूसरे स्थान पर आता जाता रहता था। ये जहाँ भी जाकर बसते स्थानीय जमींदार और व्यवसायी स्थानीय गोंडी लोगों की मदद से इनका शोषण करते थे।इनके पिता जंगलों में ही रहते थे और वहीं जमीन के एक टुकडे पर खेती करके अपना और परिवार का भरण पोषण करते थे। गोंडी क्षेत्र में खनन गतिविधियाँ बढने के कारण गोंडी आदिवासियों को उस क्षेत्र में आने और उनकी आजीविका पर प्रतिबंध लगा दिया गया। गोंडी लोग अपने पारंपरिक गांवों से पलायन करते रहे जिसके कारण ऐसे जमींदारों के खिलाफ प्रतिशोध और विरोध हुआ करता था। कोमाराम के पिता को विरोध के दौरान वन अधिकारियों ने मार डाला। अपने पिता की मृत्यु के पश्चात कोमा राम का परिवार अन्य गोंडा परिवारों के साथ सांकेपल्ली से करीमनगर के निकट सार्दापुर चला गया। गोंडों समुदाय के लोगों ने वहीं पर लक्षमण राव जमींदार की बंजर भूमि पर खेती करनी शुरु कर दी। 1920 में जब लक्ष्मण राव ने देखा कि बंजर भूमि पर अच्छी फसल हो रही है तो उसने फसल को जब्त करने के लिए सिद्द्की साब नाम के एक अधिकारी को भेजा जहाँ बात ज्यादा बढने पर कोमाराम ने सिद्द्की की हत्या कर दी। जब पुलिस उन्हें गिरफ्तार करने आई तो कोमाराम भीम अपने दोस्त दोस्त कोंडल के साथ पैदल ही एक गाँव से दूसरे गाँव भागते रहे। इस दौरान उनकी मुलाकात प्रिटिंग प्रेस चलाने वाले विटोबा से हुई जो उस समय क्षेत्रीय रेलवे में ब्रिटिश-विरोधी और निजामत-विरोधी नेटवर्क का संचालन कर रहा था। कोमाराम भीम ने विटोबा के साथ बिताए गये समय के दौरान अंग्रेजी, हिंदी और उर्दू भाषा बोलना और पढ़ना सीखा।लेकिन वे विटोबा के सरंक्षक में ज्यादा दिनों तक न रह पाए। विटोबा को पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया और कोमाराम भीम अपने मित्र कोंडल के साथ असम भाग गए। वहाँ उन्होंने चाय बागान में काम किया। असम में रहने के दौरान कोमाराम भीम ने 1922 के रम्पा विद्रोह को सुना, जिसका नेतृत्व अल्लूरी सीताराम राजू ने किया था। भीम ने बचपन में रामजी गोंड से राम विद्रोह की कहानियाँ भी सुनीं थी। अपने विद्रोही स्वभाव के कारण जल्दी ही उन्होंने श्रमिक संघ की समस्याओं पर अपना विरोध प्रकट करना शुरु कर दिया, जिस कारण उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया लेकिन वे चार दिन बाद ही जेल से फरार होकर बल्लारशाह लौट आए। बल्लारशाह लौटने के तुरंत बाद कोमाराम भीम ने अपने दम पर संघर्ष करके आदिवासियों के अधिकारों के लिए अपनी आवाज उठाने का फैसला किया। इसके लिए वे परिवार सहित बल्लारशाह से काकन घाट चले गये। वहाँ पर उन्होंने लच्छू पटेल के लिए काम किया। काम के दौरान ही भीम ने श्रम अधिकार सक्रियता के दौरान असम में अर्जित अनुभव को लागू करते हुए आसिफाबाद एस्टेट के खिलाफ भूमि कानूनी कार्रवाइयों में उनकी सहायता की। लच्छू पटेल से अनुमति मिलते ही जल्द ही कोमाराम भीम ने सोम बाई से शादी कर ली और भाबेझरी में बस गए। पत्नि के प्रति अपनी जिम्मेदारियों को देखते हुए वहीं जमीन के एक छोटे से टुकडे पर उन्होंने खेती करनी शुरु की। किंतु अधिकारियों से वाद विवाद होने पर उन्होंने हिंसा का रास्ता न चुनकर इस बार सीधे निज़ाम से सम्पर्क करने का मन बनाया और उनको सभी समस्याएँ लिखकर भेज दीं किंतु वहाँ से कोई उत्तर प्राप्त न होने पर कोमाराम भीम ने जमींदारों के खिलाफ सशस्त्र क्रांति शुरू करने का फैसला किया। उन्होंने भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के साथ अपनी गुप्त भूमिगत सेना बनाई और छापामार युद्ध करने लगे। इसके बाद कोमाराम भीम ने जोदेघाट (अब तेलंगाना राज्य) में आदिवासी क्रांतिकारियों को संगठित करना शुरू किया और राज्यों के बारह अंकुसापुर, भाबेझारी, भीमनगुंडी, चलबारीडी, जोड़ाघाट, कालेगांव, कोशागुडा, लाइनपट्टर, नरसापुर, पटनापुर, शिवगुडा और टोकेनवड़ापारंपरिक जिलों के आदिवासी नेताओं का भी इस कार्य में स्वागत किया। उन्होंने भूमि की रक्षा के लिए एक गुरिल्ला (छापामार) सेना का गठन किया और अपनी सेना को एक स्वतंत्र गोंड राज्य घोषित किया। 

           1928 में इस गोंड साम्राज्य के बाद गोंडी क्षेत्र में बड़ी संख्या में लोग आए और इन लोगों ने झाबेझारी और जोडेघाट जिलों के जमींदारों पर हमला करना शुरू कर दिया। रोज़ रोज़ के हमलों से तंग आकर आखिर हैदराबाद के निज़ाम ने कोमाराम को गोंड साम्राज्य का नेता घोषित कर किया। निज़ाम ने कोमाराम भीम से बातचीत के लिए आसिफाबाद के कलेक्टर को भेजा और आश्वासन दिलाया कि निज़ाम गोंडों को भूमि वापस दे देंगे। इस समय तक पूरे हैदराबाद राज्य में और बाहर भी कोमाराम भीम की ख्याति चारों तरफ फैलने लगी थी। इसलिए कोमाराम ने अपनी सेना का विस्तार करने का फैसला किया और लगभग 300 लोगों को और जोडा तदुपरांत इस सेना के साथ जोडेघाट से बाहर भी काम करना प्रारम्भ कर दिया। उनके कामों को देखते हुए ही लोगों ने उन्हें एक आदिवासी क्रांतिकारी के रूप में मानना शुरु कर दिया। कोमाराम भीम ने वहीं पर एक नारा भी लगाया। “जल, जंगल, ज़मीन हमारी है”। जब हैदराबाद राज्य के निज़ाम के अत्याचार हिंदुओं पर ज्यादा बढने लगे तो उन्होंने हिंदू किसानों के परिवारों को बचाने के लिए संघर्ष करना शुरु किया। उनकी खुद की बनाई सेना ने रजाकारों की सेना को काफी क्षति पहुँचानी शुरु कर दी थी। जिससे निज़ाम काफी नाराज़ हो गया और उसने कोमाराम भीम को जिंदा या मुर्दा पकडकर लाने का फरमान अपने सैनिको को दिया। कई बरसों तक निज़ाम की सेना उन्हें ढूँढती रही लेकिन वे निज़ाम की सेना पर अपने साथियों के साथ आक्रमण कर जंगल में छुप जाते थे। ये लुका छिपी का खेल बरसों तलक चलती रहा। आख्रिर कोमाराम का पता गोंड सेना में काम कर रहे हवलदार कुर्डु पटेल ने लगाया। निज़ाम की सेना के आसिफाबाद के तालुकदार अब्दुल सत्तार जब नब्बे पुलिस कर्मियों के साथ वहाँ पहुँचे तो दोनों तरफ काफी देर तलक युद्ध होता रहा। इस बार कोमाराम बचकर जंगलों में भागने में विफल हुए और अब्दुल सत्तार की पुलिस के नब्बे जवानों ने उन पर ताबद तोड गोलियाँ दाग दी। अब्दुल सत्तर और पुलिस कर्मी इतने डरे हुए थे कि उन्होंने कोमाराम पर तब तक गोलियों की बौछार जारी रखी जब तक उनका शरीर गोलियों से छलनी नहीं हो गया फिर उनको वहीं मुठभेड स्थ्ल पर ही दफना दिया गया। कोमाराम भीम को हैदराबाद के सामुदायिक क्रांतिकारियों के खिलाफ लड़ने के लिए जाना जाता है। कोमाराम भीम द्वारा बनाई गई विद्रोही सेना का विलय उनके मरने के छ: साल बाद यानि 1946 में तेलांगना विद्रोह में विलय हो गया।। उनकी हत्या को आदिवासी और तेलुगु लोक कथाओं के बीच विद्रोह के प्रतीक के रूप में याद करते हैं। आंध्र और तेलांगना में उनकी पूजा एक देवता के रुप में की जाती है। कोमाराम भीम की मृत्यु के हैदराबाद के निज़ाम ने विद्रोह पर अध्य्यन के लिए क्रिस्टोफ वॉन फ़्यूरर हैमडॉर्फ जो कि आस्ट्रेलियाई थे को नियुक्त किया। क्रिस्टोफ वॉन फ़्यूरर हैमडॉर्फ ने अध्यन के बाद एक रिपोर्ट दी साथ ही एक टिप्प्णी भी कि-ये सरकार के अधिकार के विरोध में आदिवासी समाज द्वारा नैतिक विद्रोह था। इसमें शासक और शोषित के मध्य हुआ दु:खद संघर्ष है। 2014 में आंध्र प्रदेश की सरकार ने कोमाराम भीम के नाम पर एक बाँध और जलाशय का नामकरण किया इसे श्री कोमाराम भीम परियोजना के नाम से जाना जाता है साथ ही 2014 में तेलांगना सरकार ने भी जोडेघाट में कोमाराम भीम संग्रहालय के निर्माण के लिए 25 करोड की राशि स्वीकृत की यह संग्रहालय 2016 में बनकर तैय्यार हुआ। इसी के साथ टैंक बंड पर कोमाराम भीम की एक प्रतिमा भी स्थापित की गई एवम आदिलाबाद जिले का नाम बदलकर कोमाराम भीम जिला भी किया गया है। कोमाराम के कारनामों पर कई फिल्मों का निर्माण किया गया है किंतु 2022 में आई आर आर आर में जुनियर एन टी आर द्वारा निभाये गये कोमाराम के किरदार को मुस्लिम रुप देने पर इस फिल्म के डायरेक्टर राजा मौली की बहुत आलोचना भी हुई। उन्हें मुस्लिम तुष्टीकरण के लिए दोषी माना गया। अंत में हैदराबाद के मुक्ति आंदोलन में अनेक स्वतंत्रता सेनानियों ने अपने प्राणों की आहुति दी किंतु इन सबमें कोमाराम भीम का नाम अग्रणी है। हैदराबाद मुक्ति में सिर्फ स्वतंत्रता सेनानियों ने ही वरन आम जनता ने भी तन मन धन से इस आंदोलन की सेवा की। इस आंदोलन में किसी एक भाषा विशेष का वर्चस्व न होकर अनेक भाषाओं का समावेश ज्यादा कारगर रहा। फिर हिंदी हो, उर्दु हो, दक्खिनी हिंदी हो, कन्नड गोंड्वी भाषा (आदिवासी भाषा) मराठी हो या फिर अंग्रेजी। कोमाराम भीम ने भी इस बात को बेहतर ढंग से समझ लिया था कि यदि आंदोलन को सफल बनाना है और अंग्रेजो एवम हैदराबाद के निज़ाम को घुटनों पर लाना है तो किसी विशेष भाषा के मोह को त्यागना पडेगा। इसलिए उन्होंने विटोबा के सानिध्य में रहते हुए हिंदी अंग्रेजी एवम उर्दु भाषा को सीखा। 

 -प्रदीप देवीशरण भट्ट-27.01.2023 
अधीक्षक, 
खादी और ग्रामोद्योग आयोग, सुक्ष्म लघू एवम उद्यम मंत्रालय, (भारत सरकार) ‘A’ ब्लॉक, नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ एस एस एम ई प्रांगण, युसूफगुडा, हैदराबाद-500 045 (तेलांगना)

Monday, 6 February 2023

गुलमोहर तुमने दामन क्यूं बिखेरे

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रिपोतार्ज़

“गुलमोहर तुमने दामन क्यूँ बिखेरे”

स्थितियाँ कभी भी हमारे हाथ में नहीं रहती इसलिए मैं बार बार कहता हूँ “मन चाहा होता नहीं प्रभु चाहें तत्काल” प्रिय शिल्पी भटनागर (अनुजा) की प्रथम पुस्तक “गुलमोहर तुमने दामन क्यूँ बिखेरे” का लोकार्पण नवम्बर-2022 में होना तय हुआ किंतु परिस्थितियाँ कुछ ऐसे बनी कि अंतिम समय में प्रोग्राम रद्द करना पडा। थोडी निराशा आनी लाज़मी है सो मैंने तुरंत प्रिय शिल्पी को फोन मिला दिया राम राम शाम शाम के बाद मुझे जल्दी ही अहसास हो गया कि उसका स्वर तो नमी लिए हुए है। मैंने सांत्वना देते हुए अपने कुछ अनुभव साझा किये फिर बताया कि निराशा के गर्द से ही आशा का जन्म होता है। अतएव जो नहीं हुआ उस पर माथा पच्ची करने से बेहतर है कि क्या अच्छा किया जा सकता है उस पर फोकस करते हैं। मेहनत रंग लाई और प्रिय शिल्पी हल्के से ही सही मुस्कुराई। कहते हैं न बाँटने से दु:ख आधा हो जाता है तो कुछ ऐसी ही अनुभूति शिल्पी और मुझे दोनों को ही हुई। चूँकि उससे रिश्ता अनुजा का है तो तकलीफ तो मुझे भी हुई ज्यादा न सही कम लेकिन हुई तो ज़रुर्। खैर जैसी प्रभु की इच्छा! मैंने कहा न ईश्वर जो चाहते हैं वो सदैव अच्छा ही होता है तो हुज़ूर अब ये कार्यक्रम जनवरी-14-2023 को तय किया। कादम्बिनी क्ल्ब के तत्वाधान में नवजीवन बालिका विद्यालय, रामकोट, हैदराबाद में। इसी बीच मेरी पुस्तक “असलियत में चाँद मेरे पास है” गुजरात के गाँधी नगर में 29 दिसम्बर-2022 को लोकार्पित भी हो गई।

इसी बीच मेरी प्रिय मित्र डॉक्टर राशि सिन्हा जो हिन्दी अंग्रेजी दोनों ही भाषाओं में लिखती है (उनकी एक साथ आठ पुस्तकें प्रकाशित होने वाली हैं) एवम अभी हाल ही में बिहार से यहाँ हैदराबाद में शिफ्ट हुई हैं, से बात चीत हुई तो मैंने उन्हें साहित्यिक माहौल से परिचित कराने के उद्देश्य से इस कार्यक्रम में आमंत्रित करने के लिए प्रिय शिल्पी से आग्रह किया जिसे उन्होंने सहर्ष स्वीकार भी कर लिया। मैं नियत समय पर वहाँ पहुँच भी गया। प्रिय सौरव व शिल्पी दोनों बच्चों के साथ कार्यक्रम की तैय्यारियां में व्यस्त थे और  इधर मैं राशि सिन्हा एवम मोहिनी गुप्ता से सम्पर्क कर उन्हें वैन्यू तक पहुँचने के विषय में गाइड कर रहा था। आखिर कुछ ही देर में मोहिनी जी अपने पतिदेव के साथ प्रकट हो ही गईं और उसके कुछ देर बाद डॉक्टर राशि सिन्हा अपनी बेटी अद्रिका कुमार के साथ वैन्यू पर आ पहुँची। प्रोफेसर ऋषभदेव शर्मा, डॉक्टर अहिल्या मिश्रा शुभ्रो मोहन्ता केंदीय हिंदी संस्थान के निदेशक गंगाधर वानोडे डॉक्टर कृष्णमूर्ती एवम बी के कर्णा एवम मेरी अनुजा शिल्पी के विराजमान होते ही कार्यक्रम का शुभारम्भ सरस्वती वंदना एवम दीप प्रज्ज्वल के साथ  शुरु हुआ। 
प्रिय शिल्पी की पुस्तक “गुलमोहर तुमने दामन क्यूँ बिखेरे” के विषय में डॉक्टर सुषमा व्यास ने अपने विचार प्रकट किये तत्पश्चात मंचासीन सभी अतिथियों ने अपने अपने विचार व्यक्त किये। कार्यक्रम का प्रथम सत्र कुछ ज्यादा ही लम्बा हो गया जिस कारण उपस्थित सुधीजन स्वादिष्ट भोजन की खुशबू से ही काम चलाते रहे।

दूसरे सत्र में प्रोफेसर ऋषभदेव शर्मा एवम श्री भट्ट्ड की अध्यक्षता में कवि सम्मेलन का आयोजन निश्चित था। ज्योति नारायण (स्वास्थ्य ठीक न होने के बावजूद) , सुनीता लुल्ला, चंद्रप्रकाश दायमा, रवि वैद्य, संतोष पाण्डेय, वर्षा शर्मा, विनोद अनोखा, दर्शन सिंह, सुहास भटनागर,उमा सोनी, शिल्पी भटनागर, प्रदीप देवीशरण भट्ट, डॉक्टर राशि सिन्हा, मोहिनी गुप्ता, डॉक्टर आशा मिश्रा,प्रवीण प्रणव, डॉक्टर राजीव सिंह एवम  अद्रिका कुमार (राशि सिन्हा की बिटिया) ने भी कविता पाठ किया। कार्यक्रम लगभग सात सांय 7 बजे तक चला। एक बात जो विशेष रही वह ये कि डॉक्टर अहिल्या मिश्र कादम्बिनी क्ल्ब की सर्वेसर्वा दूसरे सत्र में हॉल के बाहर बैठकर पूरे कार्यक्रम का आनंद लेती रहीं। मैं पिछले चार वर्षो के अनुभव के आधार पर यह कह सकता हूँ कि विविध तरह की व्याधियाँ उनको तंग करने का प्रयास करती हैं किंतु उनकी जीवटता के आगे उन व्याधियों को ही हार माननी पडती है। उनकी ये जीजिविषा कई लोगों को उत्साहित कर सकती है। हार न मानने का जबरदस्त माद्दा है उनमें इसके लिए वे निश्चित रुप से प्रणम्य हैं। 

मैंने ऊपर ही कहा है ईश्वर जो चाहता है वह अच्छा ही होता है अब देखिए न मेरी पुस्तक मेरठ लिटरेरी फेस्टिवल में लोकार्पित होनी थी किंतु किन्ही कारणों वश वहाँ न हो सकी क्यूँ कि उसे गुजरात के गाँधी नगर में लोकार्पित होना था। इसी प्रकार प्रिय अद्रिका कुमार (डॉक्टर राशि सिन्हा की बिटिया) का जन्म दिन 16 नवम्बर को है। मुझे वहाँ उपस्थित होना था किंतु 14 की रात्रि में फोन पर ज्ञान हुआ कि माता जी को हॉस्पिटल में भर्ती किया है तो तुरंत फ्लाइट पकडी और दिल्ली होता हुआ मेरठ जा पहुँचा। वहीं से सारी वस्तु स्थिति से राशि और अद्रिका को अवगत कराया। चूँकि बच्चे के लिए गिफ्ट पहले ही खरीदा जा चुका था और वापिस दिल्ली आने के बाद भी उसे नहीं दिया जा सका तो तय किया गया आज जब वे इस कार्यक्रम में आएंगी तो ये शुभकार्य कर दिया जाएगा। और देखिए न ईश्वर की लीला अद्रिका का जन्मदिन का गिफ्ट अहिल्या मिश्र जी एवम अन्य की उपस्थिति में उसे प्रदान किया गया। मेरे अतिरिक्त उसे अन्य का भी आशिष मिल गया। अनुजा की पुस्तक के लोकार्पण के मौके पर मैंने भी अपनी पुस्तक “असलियत में चाँद मेरे पास है” कुछ विशिष्ट साहित्यकारों को स-प्रेम भेंट कर एक पंथ दो काज की कहावत को सार्थक कर दिया। 

एक अच्छा कार्यक्रम मीना मूथा जी के कुशल संचालन में सम्पन्न हुआ।

-प्रदीप देवीशरण भट्ट-20.01.2023

ऊहापोह


" ऊहापोह   "

सुनो एक बात कहूँ
तुम बहुत अच्छे हो
शायद हद से ज्यादा
तुम अपना अच्छा पन
बरकरार रखना ऐसे ही
तुम्हें मेरी कसम है!

सुनो मेरी इक उम्र बीत गई
एक अच्छे की तलाश में
कुछ तल्ख अनुभवों से
बाबिस्ता भी हुई हूँ बारहा
बस एक उम्मीद के सहारे
कभी कोई मिलेगा अच्छा!!

कुछ अच्छे मिले, कुछ बुरे भी
खुछ खोटे मिले कुछ खरे भी
जैसा जिसने दिया लौटा दिया
बुरे को बुरा औ अच्छे को अच्छा
मगर खुद को न लौटा सकी
कभी भी अपना अच्छा पन !!!

मगर भाग्य की बलिहारी
मैं और मेरी टूटती उम्मीदें
कभी मिल न सके एक दूजे से
जैसे नहीं मिलते नदी के किनारे
तल्ख अनुभवों से मैं भी तल्ख हो गई
दूसरों के बनिस्पत खुद से ज्यादा!!!!

कहते हैं न भाग जागते हैं कूड़ी के
मेरे भी जगे पर बारह बरस में नहीं
पूरे पैंतीस बरस गुजरने के बाद
तुम मुझे मिले समन्दर के तीर!!!!!!
मेरी उम्मीदें फिर से बलवती हुई
और मैं बन गई तुम्हारी प्रिय प्रिया

पर ये चित्त है न थोडा बावरा है
अच्छा मिले तो और अच्छा माँगता है
मैं भी इस चित्त के फेर में आ गई
निकल पडी ढूँढने तुमसे अच्छा
पर तुमसे अच्छा कोई हो तो मिलता
सो टिका दी सभी उम्मीदें तुमसे!!!!!

कभी इससे कभी उससे
न जाने बातें की किस किस से
तुम समझते रहे मग़र रहे मौन
कभी न पूछा मेरे इलावा कौन
पर अब और कहीं नहीं जाना है
तेरा दिल ही अब मेरा ठिकाना है

बहुत हुई ऊहापोह की स्थिति
अब कुछ नहीं चाहिए किसी से
बस तुम और सिर्फ तुम ही हो
मेरे जीवन रुपी नाव के खिवैय्या
अब न कोई प्रश्न न कोई उत्तर
‘दीप’ तुम ही हो मेरे वृहत्तर

-प्रदीप देवीशरण भट्ट-16:01:2023