Thursday, 13 September 2018

कोउ नृप होय हमें का हानि






“कोउ नृप होय हमै का हानी”
चेरी छांडि न त होबै रानी

          जब तक स्थिति हमारे विपरीत न हो जाए तब तक हम उन्नीदे से रहते हैं हमें लगता हैं जो कुछ देश या विदेश में हो रहा है जब तक हमें उससे कुछ नुकसान नहीं हो रहा हम क्यों अपना माथा फोड़ें। समान्यतया गली मुहल्ला क़स्बा जिला प्रांत देश कोई भी हो हार व्यक्ति तब तक कोई प्रतिक्रिया नहीं देता जब तक उस पर ही कोई विपत्ति ना आ जाए। एक छोटी सी कहानी है। एक बार एक देश का राजा युद्ध में मारा गया तब उस देश के बुद्धिजीवियों ने देश के सभी नागरिकों को समझाया कि जो जिसमें निपुण है वह उस अनुसार अपनी तैयारी कर ले ताकि विपत्ति आने पर एक साथ विपत्ति का मुक़ाबला किया जा सके किन्तु सभी ने एक ही बात कही, किसान ने कहा राजा मर गया तो क्या हुआ कोई दूसरा राजा बनेगा मुझे तो खेती ही करनी है,वैश्य ने कहाँ मुझे क्या फर्क पड़ता है देश का राजा कोई भी मुझे तो व्यापार ही करना है इसी प्रकार सभी क्षेत्रों के लोगों ने यही शब्द दोहराए कि राजा कोई भी हमे तो हमारा यही काम करना है,हमें क्या फ़र्क पड़ने वाला है पुराने राजा के समय में भी यही काम करते थे कोई नया राजा बनेगा तो भी यही काम करना पड़ेगा इसलिए “कोउ नृप होय हमै का हानी” जब कि वास्तविकता ऐसी कभी होती ही नहीं यदि उस देश पर दुश्मन देश का राज हो जाए तो वो हारे हुए देश के लोगों के साथ बुरे से बुरा व्यवहार ही करेगा और प्रयास करेगा कि इस देश को बर्बाद कर दिया जाए ताकि उसका राज्य खुशहाल हो जाए।

            अब जब अगले चुनाव में कुछ ही माह शेष हैं तो हम सबको उपरोक्त बातों को पढ़कर कुछ सबक लेना चाहिए। कहीं ऐसा ना हो कि हमलोग फिर से उन्हीं लोगों के बहकावे में आकार देश को पुन: उन्हीं लोगों को ना सौप दें जिनसे पिंड छुड़ने में हमे 10 वर्ष (2004-2014) तक कठोर परिश्रम करना पड़ा।  माना कि हमे वर्तमान सरकार से कुछ शिकायतें हैं किन्तु क्या ये निजी शिकायतें देश से ऊपर हैं ?निश्चित रूप से नहीं। बड़े लक्ष्यों के लिए धैर्य रखना आवश्यक है। हम सभी आजतलक रोटी कपड़ा मकान से आगे की ना सोच पाए या हमें अन्य कुछ सोचने ही ना दिया गया हो ताकि वे सामंतवादी सत्ता के सिहासन पर निर्विवाद रूप से क़ाबिज़ रहें। किन्तु समय एक सा कब रहता है। 13 दिन 13 महीने फिर 5 वर्ष फिर 10 वर्षो का मौन और पुन: सनातन धर्म का सूर्योदय हुआ। किन्तु हमें फिर वही पढ़ाया सिखया जा रहा है कि ये इस लायक नहीं कि देश को चला सके जैसे उन लोगों के कोई विशेष यंत्र (भ्रष्टाचार के अतिरिक्त और क्या ) है जिससे वे देश की हार समस्या को चुटकी बजाते ही सुलझा देंगे असलियत में वे पिछले 60 वर्षों में ऐसा कुछ ना कर पाए या करने का प्रयत्न किया। हाँ एक काम ज़रूर हुआ कि ये भी अब अपने को मर्यादा पुरुषोत्तम राम का वंशज बताने लगे हैं (और कितने अच्छे दिन चाहिए भाई)। देर आयद दुरुस्त आयद किन्तु सब जानते हैं कि जिस प्रांत में भी ये सत्ता में हैं या सहयोग से हैं वहाँ राम के वंशजों के साथ कैसा सुलूक किया जा रहा है और सब मौन धारण किए बैठे हैं।

             देश की वर्तमान स्थिति कुछ ऐसी बनाने का प्रयास किया जा रहा है जैसे 2014 से पूर्व इस देश में दुध दही  की नदियां बहती थी, समस्त जनता खुशहाल थी किसी को कोई कष्ट ही नहीं था विदेशी भी ये देखकर ईर्ष्या से मरे जाते थे कि काश हमारा जन्म भारत में हुआ होता तो कितना अच्छा था। वे अपने देश के कर्णधारों को कोसते कि क्यों नहीं उन्होने भारत जैसी तरक्की हासिल की। 1947 से आजतक के काल को अगर मैं अलग अलग खंडो में विभाजित करूँ तो पाऊँगा कि 1947 से 1964 तक जवाहर लाल नेहरू इस देश के निर्विवाद रूप से सफल प्रधानमंत्री माने जाएंगे क्यों कि उन्हें चुनौती देने वाला कोई था ही नहीं देश अंग्रेज़ो के शासन से निकलने का प्रयास कर रहा था । इन 17 वर्षो में भारत को 1948 जब पाकिस्तान द्वारा अपने सैनिकों को काबालियों के भेष में कश्मीर में भेजकर उसे हड़पने का एक कुत्सित प्रयास किया था एवं 1962 का युद्ध जिसे नेहरू जी की अतिवादी सोच कि “ चीन कभी भी हिमालय को पार नहीं करेगा “ झेलना पड़ा था। उन दोनों ही युद्धों में भारत को जान माल का भारी नुकसान उठाना पड़ा था। 1962 की जंग तो हम चीन की धोखाधड़ी के लिए याद करते ही हैं किन्तु इससे ज्यादा नेहरू द्वारा अपने खासम खास जनरल क़ौल को मोर्चे की स्थिति का गलत आकलन करने के लिए भी याद किया जाता है सब कुछ जानते हुए भी नेहरू ने जनरल नहीं बदला यहाँ तक कि क़ौल के बीमार होने पर भी ? आख़िर इसका परिणाम युद्ध में भारत की बुरी तरह से हार के रूप में सामने आया।

            1964 में लाल बहादुर शास्त्री ने देश की कमान संभाली और कमान संभालते ही उन्हें भी पाकिस्तान द्वारा 1965 में थोपा गया युद्ध लड़ना पड़ा किन्तु उस दरमियान उन्होने जो निर्णय लिए वे अभूतपूर्व थे। उनकी आवाज देश की आवाज बन गई । देश में अनाज की कमी होने पर उन्होने नारा दिया “जय जवान जय किसान” जो आज भी भारत के जनमानस की यादों में जीवित है । उनकी एक आवाज पार होटल सोमवार को बंद हो गए लोगों ने सोमवार का व्रत रखना शुरू कर दिया क्यों कि लाल बहादुर शास्त्री कर्मशील व्यक्ति थे । उन्हे पता था “यथा राजा तथा प्रजा“  अगर वे उन बातों का अनुसरण नहीं करते तो प्रजा में गलत संदेश जाता जो उन्हें गवारा नहीं था। जब देश का नेता ऐसा हो तो निश्चित ही प्रजा भी उसके साथ कंधे से कंधा मिलकर खड़ी हो जाती है। किन्तु 1966 में सोवियत संघ में शास्त्री जी की संधिग्ध हालत में मौत के बाद इस देश में ऐसा कोई नेता नहीं रहा जिसकी कथनी करनी एक जैसी हो या उसके आस पास भी हो, तो फिर हम कैसे भारत देश को अजेय और महान बनाएँगे ? इससे पहले कि मैं इस लेख के शीर्षक को जस्टिफाइएड़ करूँ। पिछले कुछ वर्षों में जो कुछ इस देश में हुआ है उस पार एक तिरछी सी नज़र डालते हैं।

            पिछले दिनों मैं इंडिया टुडे पढ़ रहा था जिसमें शिक्षा के विषय में लॉर्ड कर्ज़न उनके उच्च शिक्षा अधिकारी महोदय एवम जमशेद जी टाटा की गुफ़्तगू का ब्योरा मैं जू का तू यहाँ दे रहा हूँ निश्चित रूप से आपको भी इसे पढ़कर आनंद आएगा। “ वर्ष 1898 में जब जमशेद जी टाटा ने भारतीय विज्ञान संस्थान की स्थापन का प्रस्ताव वाइसराय लॉर्ड कर्ज़न के समक्ष रखा तो उन्होने पूछा “इस संस्थान में शामिल होने योग्य छात्र कहाँ से आएंगे और उनके लिए नौकरियाँ के मौके कैसे पैदा होंगे ?” जमशेद जी अपनी बात पर अड़े रहे और फिर 1901 में कर्ज़न के सबसे वरिष्ठ शिक्षा अधिकारी जोइल्स ने जब अपने भाषण में कहा कि “ भारतीय शिक्षा के बारे में मेरे 40 वर्ष के अनुभव को देखते हुए “ तो उनकी बात को काटकर कर्ज़न ने कहा कि महाशय  आपके 40 वर्ष के अनुभव को सुधारने के लिए ही हम यहाँ हैं”।

            इसी के साथ मैं यहाँ छान्दोज्ञा उपनिषद में दिये गए  एक उदाहरण पर प्रकाश डालना चाहूँगा । ईसा से कई सदियों पुराना है ये किस्सा जब सत्यकाम को गौतम हरिमुद्र्त के गुरुकुल में प्रवेश दिलाया गया तो उनके पूज्य गुरु जी ने आदेश दिया कि तुम कुछ मवेशियों को लेकर जंगल जाओ और जब तक वापिस नहीं लौटना है जब तक की इसमें एक निश्चित मात्र में बढ़ोत्तरी ना हो जाए । वास्तव में ये संसार से जुड़ी एक उद्मशीलता परियोजन थी जिसके लिए तमाम प्रकार के हुनर की आवश्यकता थी और यह पक्का करना था कि माविशोयोन को सेहतमंद कैसे रखा जाए जंगल के लुटेरों से कैसे निपटा जाए अपनी एवं मवेशियों की रक्षा कैसे की जाए, माविशियों को अपना हुक्म मानने के लिए प्रशिक्षित कैसे किया जाए अपनी स्वंम की आवश्यकताओं की पूर्ति कैसे की जाए। जब सत्यकाम निश्चित समय के बाद गुरुकुल वापिस लौटता है तब गौतम हरिमुद्रत सत्यकाम की शख़्सियत पर प्रकाश डालते हैं। प्राचीन काल में भारतीय शिक्षा पद्धति का ये एक सुंदर उदाहरण है जहां शिष्य को गुरु द्वारा सांसरिक ज्ञान से परिचय कराया जाता था।

            अब आते हैं एक ताज़ातरीन विषय पर “राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर” वर्ष -2005 में जब ममता बनर्जी अवैद्य बांग्लादेशियों घुसपैठियों के  मुद्दे पर  काँग्रेस द्वारा संसद में उनकी बात न सुने जाने पर उन्होने बकायदा लोकसभा स्पीकर के बिलकुल निकट जाकर संबन्धित पर्चे उनकी तरफ उछाल दिये थे। उनका कहना था कि ये अवैद्य लोग राष्ट्र के लिए खतरा हैं किन्तु चूंकि ये  काँग्रेस के वोट बैंक हैं अतएव काँग्रेस इस मुद्दे को राष्ट्रीय सुरक्षा से ऊपर रख रही है।किन्तु आज आज 2017-18 आते आते वही ममता बनर्जी स्वंम वही सब कर रही हैं जिसके विरुद्ध वे खड़ी थी।  आखिर 12-13 वर्षो में ऐसा क्या बदल गया जो ममता बनर्जी वोट बैंक को राष्ट्रीय सुरक्षा के ऊपर तरजीह दे रही हैं । बात सिर्फ 40 लाख घुसपैठियों की नहीं रह गई है वरन ये 40 लाख वोटरों को हो गई है वैसे भी ममता बनर्जी जब से पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री बनी हैं वे मुस्लिम तुष्टीकरण  के लिय ही ज्यादा जानी जाती  रही हैं। और सिर्फ ममता बनर्जी ही नहीं वरन मुस्लिम तुष्टीकरण की शुरुआत तो काँग्रेस ने ही की है। आज़ादी के बाद से आज तक वह छोटे बेटे को बड़े बेटे पर तरजीह देती रही है काँग्रेस को लगता रहा है कि देश का 80% हिन्दू वॉटर तो हमारी मुट्ठी में है तो क्यों ना मुस्लिम तुष्टीकरण कर लिया जाए ताकि अगर काल कुछ प्रतिशत हिन्दू छिटका भी तो मुस्लिम वोट उंसकी पूर्ति कर देंगे यही कुत्सित विचार काँग्रेस को लेकर डूब रहे हैं।

            काँग्रेस को भारत में सिर्फ हिन्दू और मुसलमान ही क्यों दिखते हैं । पारसी समाज, जैनी समाज,बुद्ध समाज आदि क्यों नहीं ? इसलिए कि उसे पता है देश में इनकी जनसंख्या है ही कितनी।ये हमारा क्या बिगड़ लेंगे। इसी कारण काँग्रेस शुरू से मुस्लिम तुष्टिकरना में लग गई जब उसे लगा कि बीजेपी हिंदुओं को वोट झटक सकती है तो उसने तुरंत हिंदुओं को जातियों में बांटना शुरू कर दिया और प्रचारित करना शुरू कर दिया और लगभग 30 वर्षों पूर्व आरक्षण का जिन्न खड़ा कर दिया साथ ही नये नये शब्द तक गढ़ दिये । “दलित” “महादलित”। मतलब यहाँ भी  वास्तविक दबे कुचले लोगों को मुख्यधारा में लाने का प्रयास न करके उन लोगों को आरक्षण का लाभ दिया जाता रहा जो इस लाभ को प्राप्त करके कबके मुख्य धारा में आ गए थे। ऐसा इसलिए भी कि आरक्षण का लाभ जिसे भी एक बार मिल गया वो अपने भाई बंधुओं को वो हर्गिज नहीं लेने देना चाहता क्यों कि जो भी भर्ती निकलेगी उंसमें वही लोग चुने जाएंगे जो उनके भाई भतीजे बेटा बेटी होंगे भले ही वे मुख्य धारा से पहले ही जुड़ चुके हैं । दूर दराज में आज भी वो दबे कुचले लोग समान्यतया उसी अवस्था में रहने को अभिशप्त हैं।

            वर्तमान में जो बीजेपी सरकार सत्ता में है वो किसी भी कारण से सही (चाहे वोट के कारण या वास्तव में महिलाओं के अधिकारों के लिए) कुछ कर तो रही है इसी क्रम में उसने तीन तलाक जैसे मुद्दे पर प्रखर रुप से मुस्लिम समाज़ में  प्रचलित “तीन तलाक“ जैसे  कुप्रथा को ख़त्म करने का बिड़ा उठाया तो सही । आख़िर एक कल्लू कितनी बार निकाह करेगा और कितनी कल्लने पैदा करके छोड़ेगा। पंचर लगा कर गुजर बसर करने वाला कल्लू क्यों नहीं समझता कि ज़्यादा निकाह और बच्चे पैदा करने से इस्लाम का कुछ भी भला नहीं होने वाला अलबत्ता वो मुस्लिम औरतें जो तलाक देकर छोड़ दी जाती हैं वो वो कितने कल्लुओं को कैसे और क्यूँ कर पालेगी। और उनका अपना मुस्लिम समाज़ उन औरतों के साथ किस तरह पेश आएगा ये कभी उसने क्यों नहीं सोचा? ऐसा इसलिए कि कल्लू का बाप,उसके दादा और उसके  परदादा सब इस्लाम के नाम पर बस औरतों का शोषण करते रहे हैं ।चूंकि वे सब भी अनपढ़ रहे इसलिए ये प्रथा वो अपने पोते तक ले आए अब कल्लन का लौंडा भी बड़ा होकर यही सब करेगा। कारण साफ़ है इस समाज़ में पढ़ाई लिखाई के नाम पर बस 1400 वर्ष पुरानी शिक्षा दी जाती रही है।

            दुनियाँ कहाँ से कहाँ निकाल गई लेकिन मुस्लिम समाज़ आज भी उन्हीं प्राचीन बेड़ियों में जकड़ा हुआ हुआ और वो इनके जकड़ा ही रहना चाहता है क्यों कि इस समाज़ के छ्द्म बुद्धिजीवी और मुल्ला मौलवी भी यही सब चाहते हैं उन्हें पता है कि अगर कल्लू पढ़ लिख गया तो वो हमारे काबू में नहीं रहेगा इसलिए वो इस्लाम,शरीया का वो चेहरा उन्हें दिखाते हैं जो वास्तव में वैसा है ही नहीं।मुस्लिम समाज़ में तलाक़ ही अकेली कुप्रथा नहीं है वरन हलाला (बहुविवाह-जिसमें शादी शुदा जोड़ा यदि तलाक लेता है और तलाक के बाद पुन: विवाह करना चाहता है तो महिला को पहले किसी और से निकाह करना पड़ता है फिर उसके साथ कम से कम एक रात बितनी होती है तब जाकर वो औरत पुराने पति से पुन: निकाह कर सकती  है )मूता और मिसयर (कांट्रैक्ट मैरीज़) जिसका अरबी लोग सबसे ज़्यादा फायदा उठाते हैं। अजीब बात ये है कि कुरान में तीन तलाक कहीं कोई जिक्र नहीं है इसी प्रकार हलाला का भी कुरान और हदिम में कहीं कोई उल्लेख नहीं है बहू विवाह भी सशर्त विकल्प है अनिवार्यता नहीं हैं। जहां तक मिस्यार का ताल्लुक है ये कुछ अपवाद भर हैं।अजीब बात ये है कि अरब और अन्य मुस्लिम देशों में इस प्रकार की कुप्रथा प्रचलन में नहीं है किन्तु भारत चूंकि एक लोकतान्त्रिक देश है अतएव यहाँ किसी भी मसले को राजनैतिक और हिन्दू मुस्लिम रंग देने में लोग महिर हो गए हैं।

            पिछले दिनों सोश्ल और प्रिंट/एलेक्ट्रोनिक मीडिया पर उत्तरा पंत बहुगुणा छाई रहीं कारण वे अपनी एक अरदास लेकर कि “ वे पिछले 25 वर्षो से उत्तराखंड के उत्तरकाशी के नौगांव ब्लॉक के आगे ज्येतवादी नमक स्थान पर पिछले 25 वर्षों से दुर्गम क्षेत्र में शिक्षिका के पद पर तैनात हैं  एवं अब सुगम क्षेत्र में तैनाती चाहती थीं “ 28 जून -2018 को जब वे मुख्यमंत्री से मिलने उनके आवास पर आई तो उनकी अरदास न सुने जाने पर वे उत्तेजित हो गईं जिससे तिवेन्द्र रावत भी क्रोध में भर गए और वहीं उन्हें निलंबित करने और उन पर अनुशासनात्मक कार्रवाई करने का आदेश दे दिया। रघुनाथ सिंह नेगी जो जान संघर्ष मोर्चा के अध्यक्ष हैं ने इस पर घोर आपत्ती जताई और कहा कि जब स्वंम मुख्यमंत्री की पत्नी श्रीमति सुनीता रावत 26 वर्ष की सेवा में से 22 वार्ष सुगम क्षेत्र में सेवाएँ दे रहीं हैं तो फिर उत्तरा पंत क्यों नहीं जब कि उत्तरा पंत के पति का देहावसान हो चुका है।पहले अरविंद पांडे का उत्तरा को फोन पर खेद जाताना और राहत दिलाने का आश्वासन देना किन्तु बाद में मुकर जाना और अनुसास्नात्क कार्रवाई करने का आदेश देना क्या दर्शाता है। चलिए उत्तरा पंत तो विधवा हैं 25 वर्षों से दुर्गम स्थान पर तैनात हैं उनकी झुंझलाहट स्वाभाविक है किन्तु क्या मुख्यमंत्री को इतना क्रोध करना वाजिब था निश्चित रूप से नहीं। इस प्रकार कि घटनाएँ सत्ता में रहते भले ही अच्छी लगती हैं किन्तु ये दूर तलक आवाज करती हैं और सत्ता के मठाधीशों को सावधान भी कि भविष्य  के प्रति देखकर कार्य और व्यवहार करों।

            प्रश्न यही है कि सत्ता किसी के भी हाथ में रहे पीसना तो जनता को ही है। राजा कोई भी बने उसे चुननाव के अतिरिक्त जनता से कोई लेना देना नहीं होता । एक बार सत्ता आ गई तो भैंस को तो पानी में ही जाना ही होगा । कुछ समय बीत जाने पर जनता को पिछली सरकार ही सोने की लगती है और वर्तमान पीतल की। क्यों कि समान्यतया जनता अपने छोटे छोटे लाभ ही देखती है उसे ऐसा ही प्रतीत होता है कि जैसा पुरानी सरकार ने हमारा हाल बेहाल किया है ये सरकार उससे भी ज़्यादा बेहाल करेगी जब कि कभी कभी सरकार भी ईमानदारी का परिचय देती है और सदइच्छा से किए जा रहे जनता की भलाई के कामों को  करने का यत्न करती है किन्तु जनता समान्यतया उस सदइच्छा के प्रयासों को और बड़े लक्ष्यों पर लगने वाले समय और ऊर्जा का अंदाजा नहीं लगा पाती और पुन: उन्हीं लोगों को चुन लेती है जिन्होने जनता के हितों को कभी समझा नहीं।

-प्रदीप भट्ट –
13th सितंबर-2018