जब भी चाहो ज़िंदगी का, रुख बदल कर देख लो
पार क्या है आसमाँ के, बस उछल कर देख लो
माना तेरी ताब से, पत्थर पिघल सकता मगर
हम भी तो कुछ कम नहीं, पाला बदल कर देख लो
एक गुब्बारे की जिद फिर, फैलना बाज़ार में
एक बच्चे की तरह तुम भी मचल कर देख लो
दोस्त या दुश्मन हो पहला, वार मैं करता नहीं
आज़माना जब भी चाहो, मुझको छल कर देख लो
जिस पे बीते वो ही जाने, तुम भी जानोगे कभी
पैर नंगे शूल पथ पे, तुम भी चल कर देख लो
प्रेम तो जल की तरह निर्मल ही रहता है ‘प्रदीप’
गर यकीं तुमको नहीं तो, मुझमें ढल कर देख लो
-प्रदीप देवीशरण भट्ट-15.05.2023