Saturday, 20 April 2024

प्रोफेसर मां के लाल

सत्य कहने का नहीं, साहस अगर तुममें "प्रदीप"
यूं करो कि हाथ पकड़ी, कलम तत्क्षण तोड़ दो 

         गोरखपुर का कार्यक्रम अटेंड करके लखनऊ वो भी बस द्वारा बस पूछो मति। लखनऊ आएं और मित्रों से ना मिले तब तो ये अन्याय ही होगा न लेकिन 5 घण्टे में सबसे मिलना मुनासिब नहीं था सो अवध बस स्टेंड उतरकर ऑटो किया और सीधे आलमबाग स्थित प्रिय मनीष के निवास स्थान। लगभग एक घण्टे की मुलाकात में प्रथम स्वागत दो प्यारे श्वानों ने किया। इत्तेफ़ाक देखिए मेरे और डॉक्टर दोनों के कदम साथ साथ ही घर की दहलीज पर पड़े। डॉक्टर दोनों श्वान को इंजेक्शन देने जो आए थे। बेसाख्ता अप्रैल 2022 की नेपाल यात्रा की स्मृतियां उभर आईं। चूंकि मुझे 6 बजे हज़रत गंज स्थित केरल रेस्टोरेंट में मित्र दर्शन बेजार जी की पुस्तक लोकार्पण में सम्मिलित होना था सो मनीष से विदा ली तो मनीष ने अपनी पुस्तक "प्रोफेसर मां के लाल" सप्रेम भेंट की। मैने वायदा किया की पहली फुर्सत में इसकी समीक्षा कर अपने ब्लॉग और फेसबुक पर पोस्ट करूंगा। समीक्षा लिखूं उससे पहले यह स्पष्ट कर दूं कि हर लेखक का नज़रिया अलग अलग होता है। मेरे समीक्षा लिखने को लेकर भी इसी बात को दृष्टीगत रक्खा जाना चाहिए।

अनंत समीक्षा
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33 पृष्ठों में शब्दों के उठान गिरान, अनंत समीक्षा की कहानी एक बलखाती खाती नदी की तरह पहाड़ो से उतरकर जंगलों और मैदानों में अपना वजूद तलाशती अंतत: सागर से जा मिलती है एक वाक्य या संवाद असरदार है।"समीक्षा भले ही आत्मनिर्भर और आत्मविश्वास से भरी महिला हो लेकिन अनंत की मौजूदगी में समीक्षा को स्त्रीत्व का अहसास होता था"

रियूनियन 
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एक युनिवर्सिटी में साथ पढ़े फिर अपने अपने काम में मशगूल हो गए कुछ दोस्तों कहानी है जो एक लम्बे अंतराल के बाद मिलते हैं। युनिवर्सिटी में सिर्फ़ पढ़ाई नहीं होते वरन वहां रिश्ते पनपते भी हैं, हदें पार भी करते है। कुछ अटकाव कुछ भटकाव का बोध कराती अच्छी कहानी किन्तु अंत में सस्पेंस जैसा कुछ भी नहीं।

उत्तराधिकार
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एक ऐसे गांव की कल्पना जो हमें अधिकतर दक्षिण भारत की फिल्मों में ही देखने को मिलते हैं। कहानी कहीं कहीं विरासत फिल्म के सीन क्रिएट करने की भरकस कोशिश करती नजर आती है। 

प्रोफेसर मां के लाल
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पूरी कहानी lost & found पर आधारित है। कुछ नाटकीय घटनाक्रम है। कहानी पढ़ते हुए जैसे जैसे पृष्ठ बदलते हैं कहानी का अगला सीन स्वत: सामने आ खड़ा होता है।  अब इस तरह की कहानियों पर यदा कदा ही फिल्में बनती हैं। ममता दीक्षित अगर ममता दीक्षित ही हैं तो अनिल दीक्षित अनिल कैडी कैसे हो गए। समझ से परे की बात है।

मां की दिशा
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एक अच्छी कहानी अगर इसे थोड़ा और शिंक्र कर दिया जाए तो एक अच्छी लघु कथा हो सकती है।

उम्मीदों का चौका
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एक और उम्दा कहानी। जो लोग हर जगह जेंडर ढूंढते उनके लिए अच्छी नसीहत।

बदल दी तकदीर
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अंतिम कहानी में फिर वही जेंडर की असमानता का मुद्दा उठाया गया है। बेटे बेटी में भेद विभेद। अपनी ही लिखी पंक्तियां याद हो आईं।

"जन मानस का ये ही मत है
 औरत की दुश्मन औरत है "

प्रदीप डीएस भट्ट 25424







Thursday, 18 April 2024

"लोकतंत्र की अलख जगाती आंग सान सू "

      "लोकतंत्र की अलख जगाती आंग सान सू"

         दैनिक अख़बार के बारहवें प्रष्ठ के एक कोने में एक समाचार कि म्यांमार में प्रचंड लू के कारण आंग सान सू  को जेल से नज़रबंद करने का फ़ैसला लिया। आज जब ये ख़बर ट्रेंड कर रही है कि 15,16,17 अप्रैल को दुबई में हुईं लगभग 120 सेंटीमीटर बारिश ने पूरे दुबई की हालात ख़राब कर दी है। बाढ़ के हालात से निपटने के लिए वहाँ का प्रशासन जहाँ एड़ी चोटी का ज़ोर लगा रहा है वहीं म्यांमार में भयंकर लू का चलना एकदम विपरीत ख़बर है। आगे बढ़ने से पहले थोड़ा म्यांमार के इतिहास के विषय में कुछ जानकारी।

        9वीं शताब्दी में बामर लोगों द्वारा इरावदी घाटी में प्रवेश फ़िर1050 बुत परस्त समाज की स्थापना थेरवा बौद्ध धर्म फ़िर मंगोलों द्वारा बुतपरस्ती की खिलावत, 16वीं सदी में ताउन्ग राजवंश द्वारा बर्मा को पुनः एक छातरी के नीचे लाना।19वीं सदी में कोनबांग शासन का आना।19वीं सदी में ही एंग्लो बर्मी युद्ध के बाद ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा म्यांमार पर कब्ज़ा किया गया। 1937 में अंग्रेजों द्वारा बर्मा को भारत से अलग कर दिया। दूसरे विश्वयुद्ध के मध्य जापानी कब्ज़े के बाद 4 जनवरी-1948 को म्यांमार ने आजा़दी -1947 अधिनिमय के तहत आजा़दी का ऐलान कर दिया।1962 में तख़्ता पलट के बाद सैन्य शासन फ़िर 1988 के सैन्य शासन के विद्रोह के दो वर्ष बाद सैन्य परिषद ने सत्ता छोड़ने से इंकार।2011 के आम चुनाव के बाद सैन्य जुंटा को भंग कर दिया गया। इसी दौरान आंग सान सू को भी अन्य राजनैतिक कैदियों के साथ रिहा कर दिया गया।2015 में आम चुनाव हुए।इस दौरान बौद्ध और रोहिंग्या संघर्ष हुआ।2020 में फ़िर आम चुनाव है जिसमें आंग सान सू की पार्टी ने दोनों सदनों में बहुमत प्राप्त किया किंतु बर्मी सेना (टाटमाडॉ) ने तख्ता पलट कर दिया। इस तख़्ता पलट की अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर ख़ूब आलोचना हुईं। तख़्ता पलट से अब तलक लगभग 6 लाख लोग विस्थापित हुए हैं। आंग सान सू को फ़िर से जेल भेज दिया गया। वो तो भला हो म्यांमार में चलने वाली प्रचंड लू का जिसने अन्य कैदियों के अतिरिक्त राजनैतिक क़ैदी के तौर पर बंद आंग सान सू को जेल से नज़रबंदी में शिफ़्ट किया गया है।

आंग सान सू सिर्फ़ एक राजनेता ही नहीं हैं वरन बल्कि वे राजनयिक भी हैं और साथ ही लेखक भी हैं। 79 वर्षीय आंग सान सू को नॉर्वेजियननोबेल समिति द्वारा 1991 में लोकतंत्र एवम् मानवाधिकारों के लिए सततअहिंसक संघर्ष के लिए नोबेल पुरुस्कार प्रदान किया गया है।

         आंग सान सू का (आंग सान उनके पिता का नाम, सू उनकी दादी का नाम व की उनकी माँ खिन की) जन्म 19 जून-1945 को बर्मा की राजधानी रंगून में हुआ था। कालांतर में इनके पिता को ही इंग्लैंड से बर्मा की आजा़दी के विषय में बात चीत का श्रेय जाता है। इनके पिता द्वारा ही आधुनिक बर्मी सेना की स्थापना की थी। यहाँ ये उल्लेखनीय है कि म्यांमार का पुराना नाम बर्मा (Burma) है जिसकी राजधानी यांगून थी किंतु 1989 में तात्कालिक जुंटा सरकार द्वारा लोकतंत्र समर्थकों को बेरहमी से कुचल दिया गया और अगले ही वर्ष बर्मा का नाम बदलकर म्यांमार कर दिया गया।आंग सान सू म्यांमार में लोकतंत्र स्थापित करने के लिए जहां कटिबद्ध हैं वहीं सैनिक सरकार अपनी सरकार बरकरार रखना चाहती है। इसी लिए आंग सान सू को बार बार जेल में बंद कर दिया जाता है।

         अंत में विश्व में लगभग 40 प्रतिशत देशों में लोकतांत्रिक व्यवस्था है। भारत विश्व में सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश है। भारत को मदर ऑफ़ डेमोक्रसी भी कहा जाता है। पिछले कुछ वर्षो में भारत विश्व पटल पर इस स्थिति में आ गया है जहाँ वह अन्य देशों को विदेश निति के तहत प्रभावित कर रहा है। अमेरिका को विश्व का दूसरे सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश का तमग़ा मिला हुआ है तो फ़िर क्या कारण है कि पड़ोसी देश में एक राजनेता को जो कि स्त्री है को लोकतंत्र की अलख जगाने के लिए बार बार जेल में ठूस दिया जाता है और दुनिया की दो शक्तियां अपना प्रभाव डालने में असफ़ल रही हैं।अमेरिका जोअपने को दुनिया का थानेदार बताने का कोई मौक़ा नहीं चूकता वह भी मौन धारण किए हुए है।  किसी भी देश में लोकतंत्र होना अच्छा है किंतु लोकतांत्रिक देशों की यह भी ज़िम्मेदारी है कि वे इस लोकतंत्र को अपने पड़ोस में भी पनपनेदें। उम्मीद है भारत और अमेरिका चुनाव के बाद इस पर ध्यान देंगे।

-प्रदीप डीएस भट्ट-19424
लेखक,कवि, ब्लॉगर,स्तंभकार

Wednesday, 17 April 2024

"नाम में क्या रक्खा है"

रिपोर्ताज

    "नाम में क्या रक्खा है"
          कथा रंग का आठवां रंग


अरे भाया नाम में ही तो सब कुछ रक्खा है। अगर अमिताभ का नाम बलराम या ऊदल सिंह होता या नरेंद्र मोदी का नाम प्रणीत राणा होता या अरविंद केजरीवाल का नाम बिंदु मल्होत्रा होता या या या।😁 बच्चा अपनी मां को बाप को दादा दादी को चाचा मामा को अगर इन संबोधनों से न पहचानकर किसी ऐसे रिश्ते से पहचाने जो समाज को स्वीकार न हो। या फिर हमें ही रुचिकर न लगे तो सोचिए क्या होगा।😉 मैं जिस डिपार्टमेंट में था वहां एक अधिकारी महोदया निश्चित रूप से बेहतरीन पेंटिग करती थीं और हम ठहरे शब्दों के बाजीगर तो एक बार चर्चा में उन्होंने कहा कि अपने मन की प्रसन्नता या अप्रसन्नता को अभिव्यक्त करने में चित्रकारी के द्वारा जो इंपैक्ट पड़ता है वह किसी अन्य माध्यम से नहीं। महत्त्वपूर्ण दर्द है खुशी है उसे किसने तूलिका के माध्यम से कैनवास पर उकेरा महत्त्वपूर्ण नहीं है।  हमने कहा आप अपना नाम तो नीचे लिखती हैं एग्जिबिशन में भी अपने नाम का उपयोग करती हैं। उन्होनें बताया मजबूरी है। हमने भी चुटकी लेते हुए कहा मैम ऑफिस की गैलरी में जो चित्र लगे हैं उन्हें मालती महुआ ने बनाया है वास्तव में सुन्दर चित्र हैं। वे एकदम चमक कर बोलीं🤣 वे चित्र मेरे द्वारा बनाए हुए हैं नीचे नहीं देखा मेरा नाम भी लिखा है। मैं सिर्फ़ मुस्कुरा दिया तो उनको बात चुभ गई वे समझ चुकी थीं मैंने उनकी फिलासफी की हवा निकाल दी थी। ख़ैर अब आते हैं असली मुद्दे पर ये तो रिपोतार्ज का स्टार्टर था मेन कोर्स अभी बाक़ी है।

         हैदराबाद से मेरठ आए हुए लगभग 9 महीने होने को आए हैं। हैदराबाद और मुंबई प्रवास के दौरान देश के कई शहरों में प्रस्तुति दी। हैदराबाद में साढ़े चार वर्ष के प्रवास में मैंने और सुहास भटनागर जी ने मिलकर "कहानीवाला" के लिए काफ़ी काम किया और कोशिश की कि लीक से हटकर कुछ किया जाए।💪 निश्चित रूप से हमें कामयाबी मिली भी। सिर्फ़ गीत गजल ही नहीं वरन छोटी छोटी कहानियों का प्रस्तुतिकरण भी किया गया। किस्सो कहानियों के लिए मुझे इसके अतिरिक्त और कोई मंच नहीं दिखाई दिया। दिल्ली, गुरुग्राम केरल, लखनऊ, वड़ोदरा, जयपुर,नासिक मुंबई एवम नागपुर की अपनी साहित्यिक यात्राओं के सिलसिले में कई बेहद उम्दा लोगों से मिलना जुलना हुआ। कई संस्थानों द्वारा आमंत्रित किया गया था। गोरखपुर को छोड़ दूं तो सभी अनुभव बेहतरीन रहे। 😏किंतु कहानी कहने सुनने समझने और सीखने की लिए कोई मंच नहीं। तभी फ़ेसबुक पर रिंकल शर्मा जी 🌹ने एक लिंक साझा किया। जुड़ा तो देखा "कथा रंग" सच कहूं तो मुझे इसके नाम ने ज्यादा आकर्षित किया बिल्कुल यूनिक। सो दरियाफ़्त की और जुड़ गए। अब प्रतीक्षा थी प्रथम मीटिंग में उपस्थिति दर्ज़ करवाने की सो मौका मिला 13 अप्रैल को एस डी कॉलेज गाजियाबाद में। अब समस्या आन पड़ी कि एक दिन में दो मीटिंग कैसे अटेंड की जाए। रामगोपाल भारतीय जी ने एक माह पूर्व ही आमंत्रित किया हुआ था सो सुबह 10 से 1.40 तक वहां उपस्थिति दर्ज़ कराई फिर आज्ञा ली और 3.40 पर गाजियाबाद स्थिति शंभू दयाल इंटर कॉलेज जा पहुंचे।


के पी सक्सेना जी के अवतरण दिवस पर इससे अच्छा और क्या हो सकता है की कथा रंग की मीटिंग में लेखकों द्वारा दर्शकों को सभी नौ रसों का रसास्वादन कराया जाए। के पी सक्सेना मेरे पसंदीदा रहे हैं उनका गद्य को पढ़ने का स्टाइल गज़ब गज़ब और गज़ब !

         बेहतरीन माहौल में तीसरी पंक्ति में सीट पकड़ी और संयत होकर सांय 7.40 उपस्थिति बरक़रार रक्खी। कुछ ही देर में एक सज्जन ने रजिस्टर आगे कर दिया हमने नाम वगैरह दर्ज़ कराए फिर एक एक कर श्रोताओं में से कहानीकार मंच पर अपनी कहानी पढ़ते गए और श्रोताओं में बैठे अन्य कहानी कार उनकी कहानियों पर टिप्पणी देते। फिर उस कहानीकार से उन टिप्पणियों पर टिप्पणी देने को कहा जाता। कुछ कहानियों पर हुए पोस्टमार्टम से असहज भी दिखे। ये दौर लगभग 7.15 तक चला जब तक मंचासीन अतिथियों को अपने विचार रखने हेतु आमंत्रित नहीं किया गया। एक लड़की ने शायद पहली बार कहानी पढ़ी जिस कारण वो थोड़ा घबरा रही थी शायद कांप भी रही थी। नवोदित के साथ ऐसा होता है। जिसका आभास रिंकल शर्मा जी को हुआ और उन्होनें संचालक का महत्त्वपूर्ण कर्तव्य निभाते हुए उन्हें सांत्वना दी। 🌷🌷एक अच्छा साइन। चूंकि एक दो को छोड़कर मेरे लिए सभी नए चेहरे थे इसलिए मैं पीछे की पंक्ति में आ बैठा ताकि पूर्ण आनंद ले सकूं। मैं पानी पीने के लिए बाहर आया तो एक सज्जन को देखकर सहसा चौंक गया उनका काफ़ी कुछ चेहरा स्वर्गीय के पी सक्सेना जी से मिलता जुलता मिला (मुझे तो मुंबई में नेपाल में दिल्ली में भी और अभी गोरखपुर में जगजीत सिंह का भाई समझ लिया गया) ख़ैर उनसे परिचय हुआ तो उन्होनें शायद सुभाष चंद्र नाम बताया जिनकी अब तक , 53 पुस्तकें आ चुकी हैं। उनसे काफ़ी देर गुफ्तगू होती रही। दूसरी बार पानी पीने उठा तो यात्री जी से परिचय हुआ।  एक मोहतरमा नाम याद नहीं अपनी कहानी की समीक्षा से थोड़ा असहज हो गई थीं किंतु उनको दूसरों की कहानियों पर टिप्पणी करते देख मन बड़ा आनंदित हो गया ? शायद वो जैसे को तैसा फिल्म से प्रभावित थीं। 🙆‍♂️मेरे बराबर में एक सज्जन ने मुझसे मेरा परिचय पूछा तो मैंने बताया तो कहने लगे सर आपको भी कहानियों पर समीक्षा करनी चाहिए। हमने हाथ जोड़ते हुए उत्तर दिया हुज़ूर अभी हम इस लायक नहीं। वैसे भी कथा रंग के कई रंग हैं इसलिए कम से कम आज तो हमें सिर्फ श्रोता बने रहने दीजिए।
फिर उन्होंने एक मोहतरमा की तरफ इशारा कर पूछा इन्हें जानते हैं। हमनें ह्यूमर का प्रयोग करते हुए कहा जी बहुत बड़ी व प्रसिद्ध लेखिका हैं। इनके बस्ते लगभग 7,8 कहानियां जमा हो चुकी हैं ।😵 उन्होंने हमारी तरफ देखते हुए कहा काफ़ी गुरू टाइप के व्यक्ति हो आप। मैंने कहा ना जी ना ऐसा कुछ भी नहीं है हुजूर उन्होनें केला और खरबूजों के कुछ टुकड़ों को खाते हुए हमे अपना यही परिचय दिया है। वो फिर मुस्कुराए और हाथ जोड़ दिए।

अब कार्यक्रम समाप्त हो चुका था हमने जाने से पहले रिंकल जी से मिलना मुनासिब समझा। मिले परिचय हुआ तो उन्होंने भेंट स्वरूप अपनी पुस्तक बुरे फंसे की एक प्रति हमे दे दी। फिर यात्री जी से थोड़ा और गुफ्तगू की। एक बात जो आज की सभा में अच्छी लगी वो ये थी कि किसी को जाने की जल्दी नहीं सभी ने अपना पूरा समय दिया (2,4 को छोड़कर)। मैं इस बात पुनः दोहरा रहा हूं साहित्य से सिर्फ़ लेना नहीं उसे देना भी सीखिए। कम से कम समय तो दीजिए !!!! 

कथा रंग और टीम को सुन्दर संचालन के लिए, अच्छी व्यव्स्था के लिए ढेरों बधाई।।।🌷🌷🌹🌹🍁🍁🍁🍁

प्रदीप डी एस भट्ट -17424

Sunday, 14 April 2024

" थोड़े लिखे को ज्यादा समझना"

रिपोतार्ज

"थोड़े लिखे को ज्यादा समझना"


      आप भी सोच रहे होंगे ये क्या शीर्षक हुआ। 🙃ना ना भैया मैं तो सोशल मीडिया के उद्भव से पूर्व जब खुशी हो या गम बस एक ही जरिया था अपनी बात एक दूसरे तक पहुंचाने का और वो था पत्र/पाती/रुक्का/चिट्ठी/ चिट्ठिया या अंग्रेज़ी में लेटर। गांव में जिसने चार अक्षर अंग्रेज़ी के पढ़ लिए वो पूरे पत्र में कहीं न कहीं अंग्रेज़ी की टांग ज़रूर तोड़ता था। 😊इधर डाकिए की साईकिल की घंटी की आवाज़ और उधर लगभग पूरा मोहल्ला इस आस में कि शायद हमारी भी चिठिया हो दरवज्जे पर आ खड़ा हो जाता था और जब डाकिया हाथ के इशारे से बताता तोहार लेटरवा नहीं है तो मन मायूस होकर कोने में दुबक जाता था। ऐसा लगता था जैसे सब कुछ लुट गया हो और पार्श्व में किशोर दा का गाना कानों में गूंजने लगता था।😌

          कोई हमदम न रहा कोई हमारा न रहा 
          हम किसी के न रहे कोई हमारा न रहा ।

और अब आते हैं शीर्षक पर तो भैय्या पत्र की शुरुआत कुछ यूं हुआ करती थी। अत्र कुशलाम तत्रास्तु तदुपरांत समाचार यह है कि......घर परिवार की सुखद दुःखद घटनाओं का विवरण इसकी उसकी चुगली वगैरह😝 वगैरह और अगर प्रेम पत्र होता था तो लड़का हो या लड़की जान छोड़कर सब कुछ पत्र में उडेल देते थे फिर भी लगता था पत्र में कुछ कमी रह गई और अंत में एक पंक्ति चिपका देते थे। "कम लिखे को ज्यादा समझना" 🤝
और उस ज़माने में पोस्ट कार्ड, नीले रंग का इनलैंड लेटर या फिर लिफाफा। जिसमें प्रेम पत्र लिखने वाले कॉपी के पन्ने ठूस ठूस कर भर देते थे। जब प्रेमी या प्रेमिका को पत्र मिलता डाकिया कहता लाओ भैय्या इतने वजन के इतने एक्स्ट्रा पैसे दो तब प्रेम पाती मिलेगी। जिन्हें सब खुशी खुशी चुका भी देते थे किन्तु एक आध केस में जिसे समंध विच्छेद करना होता था वो पत्र वापिस उसी पते पर और भैय्या गजब तो तब होता जब डाकिया वो पत्र मां बाप को दे देता था। आप खुदई कल्पना कर लो तब क्या सीन होता होगा।😆🥹

तो हुआ यूं कि लखनऊ से मित्र ने फुनवे पर बताया कि गोरखपुर में एक कार्यक्रम है आ जाओ एक पंथ दो काज हो जायेंगे गोरखपुर भी घूम लेना और कार्यक्रम भी अटेंड कर लेना। म्ंबई के 12 बरस के प्रवास के दौरान जब हमने 2016 में ब्लॉग लिखना शुरु किया तो पहला ब्लॉग गोरखपुर पर "जाग मछिंदर गोरख आया" शीर्षक से लिखा था सो मन में प्रबल इच्छा थी कि गोरखपुर घूमेंगे सो प्रस्ताव मुफीद लगा और हमने तुरंत टिकिट कटवा ली। लेकीन दो दिन पहले ही मित्र ने अन्यत्र कारणों से आने में असमर्थता प्रकट कर दी। 😂लेकिन हम तो हम ठहरे सोच लिया जाएंगे तो 6 अप्रैल को सुबह दिल्ली पहुंच गए। हमारी मित्र स्कूल निबाटकर हमें लेने गाड़ी सहित लाजपत नगर पहुंच गई। वहां से मण्डी हाउस में पूर्व निर्धारित मीटिंग अटेंड की फिर थोड़ी सी पेटपूजा साथ में आवारागर्दी फिर सीधे मेट्रो द्धारा आनंद विहार और लीजिए हुज़ूर अगले दिन सुबह 9.30, गोरखपुर की पावन धरती को नमस्कार किया। ये सोचकर कि क्या पता संस्था ने रहने का इंतज़ाम कैसा किया हो ऑनलाइन होटल बुकिंग टटोली फिर वही दूसरी यूनिवर्सिटी में कार्यरत्त Mr XYZ से बात की उन्होंने अगले दिन स्टेशन पर लेने आने का आश्वासन दिया। और वादे के मुताबिक़ वे हाज़िर भी हुए। रहने की व्यवस्था अच्छी नहीं जानकर उनकी बाइक पर बैठकर दो तीन होटलों की ख़ाक छानी तो पता चला ऑनलाइन में जितने अच्छे वास्तविकता में उतने ही भद्दे। ख़ैर होटल पार्क रीजेंसी में डेरा डाला फ्रेश हुए और सीधे गोरखपुर यूनिवर्सिटी जहां प्रोग्राम था। रास्ते में Mr XYZ जनाब ने अपनी कई गजले कविता सुनाई। हमने कहा हुज़ूर "भूखे भजन न होई गोपाला पकड़ ये अपनी कंठी माला " कुछ नाश्ता हो तो इस ब्राह्मण की जान में जान आए। ख़ैर माफ़ी मांगते हुए उन्होंने यूनिवर्सिटी गेट पर ही नाश्ता करने में सहयोग दिया ।🥘🫕🍰🌶️

      मीटिंग हॉल में पहुंचते ही वही चिर परिचित नज़ारा महिला मित्रों का फोटो सेशन। राम राम श्याम श्याम के बाद सूचना मिली कि कार्यक्रम के अध्यक्ष अतिथि वगैरह अभी तक नहीं आए हैं । 11.30 जैसे तैसे बिना सरस्वती वन्दना के कार्यक्रम शुरु हुआ। मंच पर 9 कुर्सियां बैनर पर रवि शुक्ला, सांसद का फ़ोटो साथ में कुछ अन्य का भी। तभी वे दो भद्र महिलाएं जो कार्यक्रम संचालित करने का असफल प्रयास कर रही थी उनमें से एक ने आकर निवेदन किया आप काव्य पाठ के लिए तैयार रहें। मैंने अचकचा कर उन्हें निहारा फिर कहा मंच खाली पड़ा है मैम आप मुझे बख्श दें। 🙊उन्होंने पुन: आग्रह किया तो मैंने पुन: विनम्रता से उन्हें मना कर दिया। डेढ़ घंटे बाद दो तीन अतिथि आए, कार्यक्रम अध्यक्ष पैर फैलाकर पसर गए जैसे फिल्मी नेता जी। सच कहूं तो पूरे दिन कार्यक्रम में अराजकता फैली रही कोई कहीं भी आ जा रहा था। मंच पर अतिथि आए और गए और दर्शक दीर्घा से लोग उठे मंच पर बैठे फ़ोटो खिंचवाए फिर कोई और फिर कोई और शानदार लगातार अराजक माहौल। बार बार आग्रह पर हमने भी प्रस्तुति दे दी और Mr XYZ ने भी। मेरी प्रस्तुति छोड़िए हुज़ूर Mr XYZ पर ध्यान दें। सुबह से कई कविताओं का डोज पिलाने वाले Mr XYZ ने 1996 में आई दो कैसेटों में गजलों "सजदा" की एक गजल
हर तरफ हर जगह बेशुमार आदमी
फिर भी तन्हाइयों का शिकार आदमी
सुबह से शाम तक बोझ ढोता हुआ
अपनी ही भीड़ का ख़ुद मकाम आदमी
😈
भई Mr XYZ का कॉन्फिडेंस देखकर जगजीत भी बंदे के पैर छू लेते। मुझे सहसा जनवरी 2024 में मुंबई में आयोजित गज़ल कुंभ याद हो आया जहां दो दिनों में 150 से अधिक लोगों ने गज़लें पढ़ी। एक मोहतरमा नज़्म पढ़ गई। दीक्षित दनकौरी जी जो मेरे पास ही बैठे थे, टोका तो बोली ये गज़ल ही है। कॉन्फिडेंस है भई कॉन्फिडेंस। मैं जहां स्तब्ध था वहीं ये देखकर और स्तब्ध हो गया कि क्या दर्शक क्या संचालिकाएं क्या सो कोल्ड जाजिस किसी को पता ही नहीं बंदा क्या पढ़ रहा है। मेरे बाजू में एक मोहतरमा ने मुझे कहा सर क्या हुआ आपने माथे पर क्यूं हाथ मारा तो मैंने कारण बताया, बोली अच्छा सर ऐसा है क्या वैसे ये जगजीत क्या गाने लिखते हैं।😡 अब सहन करना मुश्किल हो रहा था। सो Mr XYZ को बाहर ले जाकर जब अवगत कराया कि आपने जगजीत सिंह की गज़ल पढ़ी है तो तुरन्त बोले ये मैने लिखी है ये देखिए और उन्होंने मुझे तीन चार सादे कागज़ों में तरतीब से लिखी कई गज़लें दिखाई उनमें ये भी थी मैंने पूछा कब लिखी तो बोले ढ़ाई तीन साल पहले। भई सच कहूं मन किया सरयू में अपना तर्पण कर दें। 😢बस भैय्या अब आगे कुछ न "थोड़े लिखे को ज्यादा समझना"।

वैसे तो रिपोतार्ज को इसी नोट पर छोड़ना मुनासिब होगा किंतु पिक्चर अभी बाक़ी है मेरे दोस्त। कार्यक्रम से रूखसती लेकर गोरखपुर भ्रमण पर निकल गया। शाम को होटल पहुंचा चूंकि ट्रेन 8 की सायं 7.15, पर थी सो फ्रेश हुए और पैर फैलाकर सीधे बैड पर। अभी कमर सीधी भी नहीं की थी फ़ोन घनघना उठा। बैंगलौर से वरिष्ठ दर्शन बेज़ार जी लाइन पर थे। राम राम के बाद सूचना मिली की उनकी नई तेवरी पुस्तक " खतरे की भी आहट सुन "का लोकार्पण 18 जून=2024( रानी लक्ष्मीबाई का जन्मदिन) के स्थान पर 8 जून=2024 ( मंगल पाण्डेय की पुण्यतिथि) पर हज़रत गंज स्थित केरल रेस्टोरेंट में होगा। हमने कहा हुज़ूर हम तो गोरखपुर में हैं तो तय हुआ कि वे स्वयं मेरठ आ जाएंगे। लेकिन लेकिन लेकिन वादा तो वादा है हुजूर। जुट गए व्यस्था में और लखनऊ चंडीगढ़ एक्सप्रेस में टिकिट लेकर ही माने। अब ये और बात की कंफर्म टिकिट लखनऊ से सहारनपुर की मिली गोरखपुर से दिल्ली की ट्रेन कैंसल की। 🚂 सोचा कट फट के रेलवे जो देगी ले लेंगे। होटल तो दो दिन के पूरे 6000 पहले ही ले चुका था सो रात्रि साढ़े ग्यारह बेजार जी को सूचना दी कि कल सुबह बस से लखनऊ पहुंच रहा हूं। उन्होंने भी वही कहा जो इस स्थिति में मैं कहता कि इसकी क्या ज़रूरत है। लेकिन अपनी गज़ल का ही मतला है भई 

       खता मेरी मुझको, बतानी पड़ेगी
      अगर दोस्ती है, निभानी पड़ेगी 

सो बस में बैठे और पांच घण्टे बाद लखनऊ। आलमबाग स्थित पत्रकार मित्र मनीष शुक्ल से संक्षिप्त मुलाकात फिर मेट्रो पकड़कर सीधे केरल रेस्टोरेंट। बढ़िया प्रोग्राम एक से बढ़कर एक हस्ती। हैदराबाद प्रवास की याद ताज़ा करते हुए डिनर में डोसा फिर गुलाब जामुन खाकर आत्मा और पेट दोनों तृप्त किए। टैक्सी पकड़ी और सीधे स्टेशन। ट्रेन से गजरौला फिर बस द्वारा सीधे मेरठ।खाया पीया और जय श्रीराम। अगले दिन बेड से उठे तो उठा न जारिया। उठते बैठते लेटते कमर में आहा उह्हु क्या कहूं। बस आहा उह्हू पर ही जय श्रीराम!!!🌹🌹🌹😊

प्रदीप डी एस भट्ट=14227