Wednesday, 29 August 2018

और कितने कालिदास




“और कितने कालिदास?


            इंसान की फ़ितरत ही ऐसी है कि उसे चैन से बैठकर खाना सोना या जीना पसंद नहीं आता वह कुछ न कुछ ऐसा करता रहता है जिससे वह चर्चा में बना रहे। फिर वो कोई भी विषय हो प्लैटफ़ार्म हो उसे अपनी ही करनी है बिना ये जाने और सोचे कि इसका परिणाम उसके लिए समाज के लिए या देश के लिए कितना घातक हो सकता है। इसका जीता जागता उदाहरण कोंग्रेस के दिग्विजय सिंह, मनीष तिवारी,संदीप दीक्षित,मणिशंकर अय्यर हैं इनके बीच एक नया नाम जुड़ गया है नवजोत सिंह सिद्धू का।इन सभी महारिथियों की समझ/बुद्धि  कोई भी वक्तव्य देते समय शायद क्या घास चरने चली जाती है। पिछले कुछ समय के इन लोगों के वक्तव्यों को उठाकर देखिए ये लोग अनाप शनाप कुछ भी बोल रहे हैं बिना ये समझे जाने की ये लोग अंजाने में अपने ही गोल पोस्ट में गोल कर रहे हैं या हो सकता है कि ये सब जान बूझकर किया जा रहा हो ? जिस पेड़ की छाँव में ये पलकर ये बड़े हुए हैं ये सब मिलकर उसी पेड़ को उसकी डालियों को कालिदास बनकर काटे जा रहे हैं। जब तक इन्हें पता चलता है कि इनके गोल से इनकी ही टीम हार गई है तो ये सारा दोष मीडिया पर मढ़ देते हैं । आख़िर प्रिंट मीडिया और एलेक्ट्रोनिक मीडिया को ही सदैव हर बात के लिए दोषी क्यों बताया जाए । क्या ये मूर्ख हैं या फिर ये अपनी मूर्खता को छिपाने के लिए मीडिया रूपी मोर का सहारा ले रहे हैं। याद रखें मोर जब नाचता है तो सब उसका नाच देखकर प्रसन्न होते हैं किंतु नाचते हुए मोर खुद नंगा भी हो जाता है जिसका मोर को पता नहीं चलता।

            अब उपरोक्त महानुभावों के टीम लीडर की बातें कर लेते हैं । जनाब राहुल गांधी ? पूरे भारत में और शायद विदेशों में भी उनके इतने उपनाम पड़ गये हैं जितने आजतक किसी के नहीं पड़े। मैं या उन उप नामों का खुलासा न ही करूँ तो बेहतर है। इन महाशय ने तो ऐसे ऐसे वक्तव्य दिये हैं जिनकी तुलना करना ही बाईमानी होगा । ये समझना भी मुश्किल है कि इस बंदे को इस तरह के वक्तव्य देने के लिए कौन शय दे रहा है। कुछ नमूने देखिए :-

1)     एक तरफ से आलू डालो दूसरी तरफ से सोना ?
2)     कोककोला बनाने वाला पहले शिकंजी का बेचता था।
3)     मैक्डोनल्ड वाला पहले पकौड़े बेचता था ?

            इस तरह के ना जाने कितने वक्तव्य जिनका कोई सिर पैर है ही नहीं । अब ऐसा व्यक्ति अगर यह घोषणा करे कि वह देश का प्रधानमंत्री बनना चाहता है तो उस देश के भविष्य की आप कल्पना स्वंम कर सकते हैं। भारतीय राजनीति में इतने बचकाने और गैर जिम्मेदार वक्तव्य कुछ गिने चुने लोगों ने ही दिये हैं जिनमें दिल्ली सरकार के एक मंत्री द्वारा हरियाणा द्वारा दिल्ली को भाखरा डैम का पानी छोड़े जाने पर यह कहकर सनसनी मचा दी थी कि अगर हरियाणा ने पानी से सारी बिजली निकाल ली तो वो पानी किस काम का रह गया (कुछ ऐसा ही कहा था)  आजकल तो फैशन चल गया है कोई भी कुछ भी किसी को भी कुछ भी कह देता है जब वो मैसेज वायरल हो जाता है तो सारा दोष मीडिया पर मढ़ दिया जाता है। आख़िर ये सब कब तक और क्यों ?
            परसों प्रधानमंत्री पद के प्रबल दावेदार श्रीमान राहुल गांधी ने एक विवादित बयान दे डाला कि “1984 के सिख दंगों के लिए काँग्रेस जिम्मेदार नहीं है” अरे भाई कुछ सोच समझ कर तो बोल , जब ये दंगे हुए तुम्हारी उम्र क्या थी शायद 13-14 वर्ष ? अब इस बयान के बाद कुछ चैनल वालों को 2-3 दिन का मैटीरियल तो मिल ही गया ताकि वे इस पर प्राइम टाइम पर बहस कर सके साथ ही ये बहस भी चल निकली कि आखिर सिख दंगों के उपर बयान देकर राहुल साबित क्या करना चाहते हैं। ये सत्य है कि सिख दंगों के बाद राजीव गाँधी को ज्ञानी जैल सिंह जो उस समय राष्ट्रपति थे ने तुरत फुरत प्रधानमंत्री पद की शपथ दिला दी थी निश्चित रूप से ये सब दबाव में किया गया होगा वरना उस समय काँग्रेस में कितने दिग्ग्ज़ नेता थे जो दंगों के बाद उपजी दंगों की विभीषिका को सही तरीके से संभाल सकते थे किन्तु काँग्रेस के डीएनए में ही कुछ ऐसा दोष है कि उसे विश्वास है कि यदि कोई गाँधी परिवार का सदस्य प्रधानमंत्री बनेगा तब ही काँग्रेस सही सलामत रहेगी साथ ही देश भी सुरक्षित रहेगा।अब आप इसे अतिशयोक्ति नहीं तो और क्या कहेंगे।

            1984-1989  तक  जब काँग्रेस की सरकार थी शायद ही किसी ने दंगों की विभीषिका से उपजी नफ़रत को समझने की कोशिश की । कभी भी किसी भी काँग्रेस के नेता ने इस दुखद घटना पर अफ़सोस जाहिर नहीं किया। और मेरा तो मानना है कि हज़ारों मौतों के बाद अगर किसी राजनीतिक पार्टी ने अफ़सोस जाहिर कर भी दिया या माफ़ी मांग भी ली तो क्या उसे उस नरसंहार के लिए माफ़ कर देना चाहिए ? निश्चित रूप से कभी नहीं । आखिर जिस सरकार को हम आम जनता के विकास और रक्षा के लिए चुनकर संसद में भेजते हैं और वो सब सांसद/विधायक जो बड़े ही मनोयोग से अपने अपने धर्म ग्रंथो की सौगंध खाकर भारतीय जनता के लिए काम करने की शपथ लेते हैं क्या वे ऐसा करते हैं कभी नहीं । यही वे लोग हैं जो अपने निजी स्वार्थ सिद्धि के लिए उसी जनता को कष्ट देते हैं जो उनकी जय जय कर करती है । प्रश्न ये नहीं है कि किस नेता ने corruption  के माध्यम से कितना धन कमाया यक्ष प्रश्न ये है कि उसी पैसे के बल पर ये बार बार संसद में चुनकर आते रहते हैं और जनता को नए नए ढ़ंग से लूटते रहते हैं ,रक्षा करने की बात तो जाने ही दीजिए।

            स्वतंत्रता से पूर्व जलियाँवाला बाग का नरसंहार तो सभी को याद है उसके बाद 1947 में देश के विभाजन के समय जो गदर हुआ वो तो अभूतपूर्व था गिनना मुश्किल याद रखना मुश्किल कि कुल कितने लोग मारे गए कितनी संपत्ति का नुकसान हुआ इसका भी अंदाजा लगाना मुश्किल है। आज़ादी मिलने के बाद भी हिंदू मुस्लिम दंगों का एक अलग इतिहास रहा है किन्तु 1984 के सिखों को सरेआम जिस तरह मारा गया जिस तरह उन्हें जलाया गया उनकी संपती लूटी गई वो निंदनीय है। ये वही सिख कौम है जिसे हिंदुओं कि रक्षार्थ बनाया गया था। कुछ लोग ये कहकर पल्ला झाड़ने की कोशिश करते हैं कि हरियाणा और पंजाब में सरेआम हिंदुओं को बसों से उतारकर मारा गया तब कोई क्यूँ नही बोला। बात तो ठीक है किंतु मैं इसे तर्क न कहकर कुतर्क कहूँगा आप एक गलत काम कोप दूसरे गलत काम से justified नहीं कर सकते। ये सही है कि जब भी किसी जाति धर्म में कुछ गलत होता है तो ये उस कौम के बुद्धिजीवियों की ज़िम्मेदारी होती है कि वे गलत को गलत और सही को सही कहें किंतु कुछ शूद्र स्वार्थ के कारण वे ऐसा नहीं करते और परिनिती यही होती है। लेकिन 1984 के नरसंहार के बाद 34 वर्ष बीत गए दोषी आज़ भी खुले आम और बेधड़क छुट्टे घूम रहे हैं और कोई भी उनका कुछ भी नहीं बिगाड़ पा रहा आखिर क्यों?

  किसी भी आतंकवादी को फांसी हो जाएँ तो कुछ गद्दार किस्म के लोग आधी रात को सूप्रीम कोर्ट खुलवा देते हैं, वर्तमान या भूतपूर्व मुख्यमंत्री को कहाँ दफनाना है इसके लिए भी सूप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश फैसला लेने देने के लिए आधी रात तक भी कार्य करेंगे किंतु 34 वर्ष पूर्व हुए जघन्य हत्याकांड के लिए इसकी ज़रूरत महसूस नहीं की जाती क्यों ? आखिर इन सब बातों से साबित क्या होना है कोई नहीं जनता और और कोई भी ये जानने की कोशिश नहीं करता  कि इस फालतू की बहस से उन हज़ारों  लोगों के दिलों पर क्या बीत रही होगी  जिनके साथ तीन दिनों तक बर्बरता होती रही और 34 वर्ष बीत चुकने के बाद भी आज़ भी उन परिवारों के लोग न्याय के लिए भटक रहें हैं।उस भयानक हादसे को जिसको याद करके सिर्फ़ पीड़ित ही नहीं वरन उन पीड़ितों के पड़ोसी  एवं मित्रों पर क्या बीतती होगी। कष्ट तब होता है जब इतने संवेदनशील मुद्दे पर भी लोग राजनीति करने से बाज़ नहीं आते।
-प्रदीप भट्ट –
29th अगस्त -2018