Friday, 24 June 2022

"“मिस्टर XYZ” (शर्म इनको मगर नहीं आती)"

 


“मिस्टर XYZ

(शर्म इनको मगर नहीं आती)


घोंघे तो आप सबने देखें ही होंगे कुछ लोग इन घोंघे जैसे ही होते हैं या शायद इनसे भी दस बीस कदम आगे। अब आप सोच रहे होंगे ये भट्ट साहब आज घोंघे का जिक्र क्यूँ कर रहें हैं या आप ये भी सोचें आज कुछ लम्बा स्यापा होने वाला है। हाँ दोस्तों काफी दिनों से एक विषय पर लिखने की सोच रहा था किंतु सुसरा मूड ही न बन रहा था, अब भैय्या बिना मूड के तो कुछ हो नही सकता और वो भी लेखन! तो जो इस प्रजाति के हैं उन्हें ये अच्छी तरह से पता होगा कि लेखक प्रजाति में सनकी होने को थोडा मक्खन लगा कर फिलोस्फर कहा जाता है। अब फिलोस्फर में तो पहला शब्द ही फिल है तो सोचिए जिसके दिमाग में कछु होय्ये न करी वो फिल का करेगा ऐं।  खैर जोक सपाट। बात आगे बढाते हैं। पिछ्ले वर्ष दिसम्बर-2021 में मैं एक कार्यक्रम के सिलसिले में भोपाल गया हुआ था। कार्यक्रम चूँकि हिंदी भवन में रखा गया था और संस्था द्वारा सभी के रहने के लिए भी हिंदी भवन में ही  इंतज़ाम किया गया था सो ट्रेन से उतकर पहुँच गये सीधे हिंदी भवन, ‘महादेवी वर्माहॉल जिसमें कार्यक्रम तो कुल मिलाकर ठीक ही था किंतु अतिथि गृह के कमरे में प्रवेश करते ही आभास हो गया कि मध्य प्रदेश सरकार द्वारा हिंदी भवन के लिए अभी बहुत कुछ किया जाना शेष है। खैर सोचा फिलहाल फ्रेश हो जाते हैं फिर दूसरी व्यवस्था देखेंगे किंतु बॉथरुम में घुसना और निकलने में मात्र दस सेकेंड लगे। ऐसा नही सिर्फ हमारा ही ये हाल था वरन जितने भी लोग अब तक पहुँचे हुए थे सब की राय एक थी कि हमसे न हो पाएगा सो एक मित्र को साथ लेकर निकल पडे अच्छे होटेल की तलाश में ये तलाश ख्तम हुई एम पी नगर के  होटेल निसर्ग पर। अच्छा होटेल सबसे अच्छी बात वहाँ की सर्विस जिसनें हम सभी को प्रभावित किया।

 

खैर अगले दिन हिंदी भवन के प्रोग्राम को अटेंड किया शाम को एक दुसरे कार्यक्रम के लिए निकल ही रहा था कि कुछ लोकन न्यूज़ वालों ने घेर लिया और बाइट की माँग की मैंने बडी सहजता से बाइट दे दी फिर एक लडके ने कहा सर हम पाँच लोग हैं देर से आए थे तो खाना भी नही खाया अगर आप ठीक समझें तो कुछ दें दे ताकि हम कुछ खा पी लें। चूँकि बात खाने की थी सो मैंने अपनी ओर से पाँच सौ रुपये दे दिये। तीसरे दिन जब हम ट्रेन से वापिस जा रहे थे तो मेरे मित्र का फोन आया चूँकि वो अपने गंतव्य पहुँच चुके थे तो हमारे बारे में जानने के उत्सुक थे, यहाँ वहाँ की बातें हुई फिर बातों बातों में उस सो कॉल्ड मीडिया टीम का जिक्र हो आया, जानकारी लेते लेते जानकर आश्चर्य हुआ कि वो लोग दस-ग्यारह हजार रुपये बटले कर ले गये थे, फिर मित्र ने पूछा तुमने भी दिया क्या ? हमने पूरी स्थित बयाँ कर दी तो हँसते हुए कहने लगे पंडित जी आप भी न, एक तो आप पंडित दूसरे कवि, कहीं पंडितों से कोई पैसे लेता है क्या और चलो जमाना बदल गया है लेकिन कवियों से न बाबा न, कवि और पुलिस वाले पैसे देते नही लेते हैं। हमने एक लम्बी श्वाँस भरते हुए कहा अगर वस्तु स्थिति पता होती तो उसे एक हज़ार की ऑफर करते लेकिन एक शर्त के साथ कि भैय्या दो ठो कविता सुननी पडेगी, वो हाँ भरता फिर हम चार पाँच कविताएँ मिलाकर उसे पहले एक कविता सुनाते, उसे सुनते सुनते वो आधा टेढा हो जाता फिर जैसे ही दूसरी सुनाने लगते वो निश्चित दो हजार हमें उल्टे देकर जाता और पैर अलग छुता। खैर आगे सावधान रहेंगे। अब ये किस्सा यहीं समाप्त किंतु इस घटना को हमने अपने स्मृति पटल से कभी ओझल नही होने दिया।

 

दिसम्बर के बाद काफी प्रोग्राम अटेंड किये कुछ अच्छी कुछ अच्छी यादों के साथ हम नेपाल के चार दिन के प्रवास होकर आए तो एक मित्र ने हमें एक संस्था से जोड दिया वहाँ काफी नये लोगों से परिचय हुआ कुछ पुराने हमें देखकर हर्षित भी हुए। कुछ दिनों बाद उसी संस्था से जुडे एक सज्जन मेरे द्वारा पोस्टिड कविताओं/गज़लों पर अपनी राय जाहिर करने लगे फिर कुछ दिनों बाद  मेसेंजर पर मेसेज किया कि सर आप अपना मोबाइल नम्बर दे दें आपसे बात करनी है। मैंने इसे नोर्मल मानते हुए नम्बर दे दिया। तीन चार दिन बाद ही उनका फोन आ गया। इधर उधर की बात करते हुए मेरी प्रोफाइल, कविताओं इत्यादि की काफी तारीफ की मैंने भी प्रत्युत्तर में कहा, ऐसा कुछ भी नही है हुज़ूर सब माँ सरस्वती की कृपा है, वो चाहती हैं तो लिखा जाता है वरना हम क्या हैं कुछ भी तो नहीं। खैर उन्होंने तुरंत बताया कि सर मैं एक न्यूज़ पेपर का एडिटर हूँ , इससे पहले मैंने ये किया वो किया, पता नही क्या किया फिर अंत में बोले मैं नये लेखकों की कविताएँ छापता हूँ ताकि उन्हें भी एक्सपोज़र मिले,आप जैसे बडे लोगों की रचनाएँ भी उन्हें पढनी चाहिए इसलिए मैंने आपसे सम्पर्क किया है कृपया आप अपनी 8-10 रचनाएँ, प्रोफाइल व एक फोटो दे दें। मैंने कहा मिस्टर XYZ बेहतर होगा आप और किसी से ले लें काफी मैं तो काफी छप लिया हूँ और  काफी खप भी लिया हूँ और कितना और कब तक्। मैं तो मंचो पर कविताएँ पढकर ही खुश हूँ। किंतु मिस्टर XYZ बिलकुल भी हार मानने के मूड में नही थे तुरंत कहने लगे सर आप नाराज़ न हों (मैने स्वंय से प्रश्न किया ऐं मैं भला मिस्टर XYZ से क्यूँ कर नाराज़ होने लगा) जब काफी देर तक ये प्रपंच चलता रहा तो हारकर मैंने कहा ठीक है मिस्टर XYZ मैं आपको pdf फाईल भेज देता हूँ आपको जो भी ठीक लगे छाप दें। धन्यवाद कहते हुए मिस्टर XYZ ने विदा ली। कुछ देर बाद मैं अपने मित्र सुहास भटनागर के साथ व्यस्त हो गया वो बेचारे मुझसे मिलने आए थे और इस इंतेज़ार में थे कि कब मुबलिया से सम्पर्क कटे ताकि हम गुफ्तगू कर सकें, अभी आधा घंटा ही बीता था कि मोबाईल की घंटी ने फिर तंद्रा भंग कर दी। देखा तो वही मिस्टर XYZ,मैने कहा क्या कुछ रह गया हुज़ूर, उधर से बडी धीमी आवाज़ में सर एक मदद चाहिए, कल बिटिया की फीस जमा करनी है और मैं पिछले कुछ दिनों से आर्थिक रुप से तंग हूँ, अगर आप 2000/- फोन पे या पेटिम कर दें दे तो मेहरबानी होगी। मैं अगले हफ्ते लौटा दूँगा। अचानक दिसम्बर की घटना मेरी स्मृति पटल पर ताजा हो उठी, किंतु फिर भी मैंने कहा देखिए मिस्टर XYZ मैं अभी कई प्रोग्राम अटेंड करके आया हूँ। इस समय तो आपकी मदद नही कर पाउँगा हाँ अगर आप अपना एकाउंट नम्बर दें दे तो मैं अगले हफ्ते ट्रांसफर किये देता हूँ। काफी देर तक सन्नाटा भांय भांय करता रहा फिर अचानक फोन कटने की आवाज़ से मुझे अंदाज़ा हो गया कि मिस्टर XYZ नम्बर एक के घोंघे हैं। सुहास भटनाग़र जो अब तक सारा माज़रा समझ चुके थे कातिल मुस्कान के साथ बोले बच गये गुरु। मैंने कहा नही मित्र बात दो हज़ार की नही है मिस्टर XYZ ने जो लूम लपेटा किया है मैं उससे व्यथित हुआ हूँ। ये कोई साहित्य की सेवा नही कर रहा वरन जो बच्चे लिख रहे हैं उन्हें मंच प्रदान करने के नाम पर पैसे ऐंठ रहा है। चाहे कोई अच्छा लिखे या कम अच्छा वो ये ज़रुर चाहता है कि उसका नाम अखबार में आए किंतु ये तो............। मेरा मन थोडा खिन्न हो गया था, सुहास जी मेरी मनोस्थिति को समझ चुके थे अतएव तुरंत किचन की ओर दौड लिए और दो कॉफी बनाकर ले आए। जब तक कॉफी बनी कई विचार मेरे दिमाग में इधर से उधर गुजर गये एक विचार ये भी कि जिस संस्था से ये मिस्टर XYZ जुडे हैं उनके सर्वेसर्वा को ये बात बता देता हुँ ताकि मिस्टर XYZ अपनी हरकतों से बाज़ आ जाएँ किंतु जाने क्या सोचकर मैंने चुप्पी साध लेना ही बेहतर समझा।किंतु मैं उस संस्था के पेज पर जाकर ये चैक अवश्य करता रहा कि आज बकरा कौन बना है, कुछ को मैं जानता था किंतु उनकी रचना नही छ्पी थी जिन्हें मैं जानता नही था और जिनकी रचनाएँ लगातार मेरा मुँह चिडा रही थी उनका दूरभाष नही था सो मैंने जैसी प्रभु की मर्ज़ी कहकर छोड दिया।

 

कुछ दिनों बात मेरी एक मित्र ने मुझे रात्रि में लगभग 11 बजे फोन किया कुछ आवश्यक कार्य था तभी उनके दूसरे फोन पर घंटी बजी, फिर बजी, फिर बजी ,फिर जब चौथी बार बजी तो मैंने ने कहा कौन है ये अतृप्त आत्मा पह्ले इसकी आत्मा तृप्त करो। उन्होनें बताया मिस्टर XYZ हैं कई दिनों से पीछे पडे हैं,जिद कर रहे थे कविताएँ छपवाने की, जिस पेपर से वो जुडे हैं मुझे तो वो कुछ खास नज़र नही आ रहा किंतु मान नही रहे थे तो मैंने दे दी, देने के बात कुछ मदद माँग रहे थे तो मैंने 501/- फोन पे कर दिये अब 2000/- माँग रहे हैं। अनायास ही मेरे मुँह से निकला आज रज़िया गुंडो में फँस गई। उधर से आवाज़ आई क्या मतलब तो मैंने पूरी कहानी बयाँ कर दी, पहले तो उन्हें विश्वास ही नही हुआ फिर बोली अब मैं क्या करुँ, मैंने भी मज़ाक में कह दिया “ एक पेन जॉन ले लो” खैर मैंने कहा जो दे दिया, दे दिया अब कुछ मत देना और हाँ कोई और भी अगर तुम्हारे सम्पर्क में है तो उन्हें इत्तेला कर दो कि मिस्टर XYZ से  सावधान रहे।  खैर उन मोहतरमा की कविताएँ तो छप गई और वो ये सोचकर खुश कि 1500 सौ बचे। कुछ दिन बीतते बीतते दो तीन किस्से और मिले सबको पैसे ऐठने के नाम पर अलग अलग कहानियाँ सुनाई गईं। कल लंच टाइम में अक्स्मात फोन की घंटी बज उठी लंच ख्त्म कर कॉल बैक किया फिर एक परिचित मोहतरमा थीं किसी विषय को लेकर चर्चा करनी थी, चर्चा के दौरान बातों बातों में उन्होंने भी मिस्टर XYZ के विषय में बताया, ये जानकर आश्चर्य हुआ कि उन्होंने 2000/- दे भी दिये और शायद दो तीन दिन बाद कविताएँ छप भी जाएँ, मैंने उन्हें टोकते हुए सारी वस्तु स्थिति बयाँ करने के लिए कहा तो उन्होंने बताया आप तो मुझे जानते हैं, मैं महीने में वैसे भी चार पाँच बार अखबारों में छप ही जाती हूँ किंतु मिस्टर XYZ उनके ऑफिस में काम करने वाले एक लडके की मदद माँग रहे थे जिसके पैर में काफी गहरी चोट लगी है और उसका ऑपरेशन होना है इसलिए मैंने भी 2000/- की मदद कर दी, इस मदद का कविताएँ छपने से कोई लेना देना नही है वैसे भी जिस दिन उन्होंने पैसे माँगे मेरे पति की बरसी थी इसलिए मैंने मना करना उचित नही समझा। ये सब सुनकर मुझे उस दुष्ट घोंघे पर भयंकर क्रोध आने लगा था। मैंने एक ही श्वांस में पिछली घटनाएँ बताई और ताकीद की कि ये बेवकूफी आगे नही करनी है, अपनी स्वंय की गरिमा का और अपनी कलम की गरिमा का ध्यान रखो। अब मेरे सब्र का बाँध टूटने की कगार पर आ गया था अतएव कल सोचा और आज कलम उठा ही ली। कलम इसलिए नही उठाई कि मिस्टर XYZ को एस्स्पोज़ करना है वरन इन जैसे घोंघो के कारण पूरा मीडिया बदनाम हो जाता है। जिस भी अखबार से वे जुडे हैं आखिर कुछ तो मिलता ही होगा या अखबार के मालिक ने छूट दे रखी है कि लो अखबार का एक पेज तुम्हारे नाम जाओ साहित्य के नाम पर लोगों को ठगो, अगर ऐसा है तो वो मालिक महोदय भी कटघरे में हैं। मैं अपने इस लेख की प्रति उन तक पोस्ट द्वारा भिजवाउँगा ज़रुर्। ताकि सच्चाई का कुछ तो पता चले वैसे भी मिस्टर XYZ जिस शहर से ताल्लुक रखते हैं वहाँ कुछ कुछ लोगों से मैं भी परिचित हूँ। कुछ मीडिया के मित्र भी हैं। हो सकता है कुछ लोगों को ये बात बुरी लगे और मिस्टर XYZ को भी पर मैं चाहता हूँ उन्हें बुरे लगे इसलिए तो मैंने लिखा है बाकी जय श्रीराम!

 

-प्रदीप देवीशरण भट्ट-24.06.2022