‘कुमारिल भट्ट’
(सनातन धर्म के रक्षक और वेद-वेत्ता)
“किंकरोमिकगच्छामि कोवेदानुद्ध्रिश्यती |”
भावयहकीक्याकरूँ ? कहाँजाऊं ? वेदोंकाउद्धारकौनकरेगा ?
यह सुनकुमारिल जी बोले –
” माँ विषादबरारोहे ! भट्टाचारयोअस्मिभूतले |”
अर्थात हे रानी ! खेद न कर ! मैं कुमारिल भटाचार्य अभी इस पृथ्वी पर मौजूद हूँ |


स्रष्टि के प्रारम्भ में ईश्वर की अनुकम्पा से धरती पर मौजूद सभी प्राणियों के उपयोग एवं उत्थान हेतु वेद ज्ञान की ज्ञान गंगा का उद्भव हुआ वैसे भी वेद प्रभु की वाणी मानी गई है किन्तु समय व्यतीत होने पर बुद्ध ने बौद्ध धर्म की स्थापन की और एक समय ऐसा आया कि भारतवर्ष में सनातन धर्म का ह्रास होने लगा और बौद्ध एवं जैन धर्म ने अपने जड़े सनातन धर्म के बनिस्पत ज्यादा मजबूत कर ली थीं किन्तु महात्मा बुद्ध की मृत्यु के पश्चात् उनके विचारों और परम्पराओं का उस समय के अनुयायियों ने अपने अपने ढंग से बौद्ध धर्म का प्रचार किया जहाँ बौद्ध की मूल भावना अहिंसा थी वहीँ कुछ दुराचारी मठाधीशों ने सनातात धर्म को निम्नतर करके आंकना शुरू कर दिया और उनका एक मात्र कार्य यही रह गया कि कैसे वेदों की निंदा कि जाये। किसी भी वेदपाठी का उपहास उड़ाना और उसे शारीरिक कष्ट देना ही उन बौद्ध भिक्षुओं की दिनचर्या का हिस्सा बन गया था। उस काल में आये दिन इसी प्रकार के किस्से सुने जाने लगे कि जिसने भी वेदों के प्रति बौद्धों का विरोध किया उसे बौद्ध मठाधीशों द्वारा नाना प्रकार के शारीरिक कष्ट दिए गए और कुछ घटनाओं में तो उन्हें मार तक दिया गया। इससे एक बात तो साबित होती है कि बौद्ध धर्म जैसा सुनने को और समझने को मिलता है वो वास्तव में ऐसा है नहीं। उस काल में जब-जब भी बौद्ध धर्म के आचार्यों को किसी सनातनी ने शास्तार्थ के लिए ललकारा उसे किसी न किसी प्रकार दबा दिया गया और एक समय ऐसा भी आ गया जब भारतवर्ष में सनातन धर्म को मानने वाले लोग बौद्ध धर्म के अनुयायियों से डर कर जीने को मजबूर हो गये। बड़े बड़े राजा महाराजा भी सनातात धर्म का परित्याग करके बौद्ध धर्म को अपनाने लगे जिससे सनातन धर्म अपना औरा या चमक खोने लगा और वेदपाठियों को लगने लगा कि अब शीघ्र ही सनातन धर्म भारतवर्ष से विलुप्त हो जायेगा।
किन्तु ये भी सत्य है कि जो वस्तु नीचे से ऊपर जाती है उसे कुछ समय पश्चात के नीचे ही आना होता है। प्राचीन सनातन धर्म से ही अन्य धर्मो का उद्भव हुआ उन्होंने निश्चित समय के लिए अपनी छटा बिखेरी और अंतत: पुन: उसी में समाहित हो गए। फिर वो बौद्ध धर्म हो या जैन धर्म या अन्य कोई धर्म या सम्प्रदाय सभी की जड़ों में सनातन धर्म है और उस सनातन धर्म की नींव वेदों में है। जब जैन और बौद्ध धर्म अपने चरम पर थे और सनातन धर्म को मानने वालों की संख्या दिन-ब-दिन घट रही थी तभी उस काल में वेद-वेता कुमारिल भट्ट का जन्म जयमंगल नामक गाँव में पं. यज्ञेश्वर भट्ट तथा माता चंद्र्कना ( यजुर्वेदी ब्राह्मण) के यहाँ हुआ। उनके जन्मकाल के विषय में विद्वानों में बहुत मतभेद है कोई उन्हें असम राज्य से तो कोई उन्हें दक्षिण का कहते हैं इसकी पुष्टि स्वरूप यह भी कहा जाता है कि शास्तार्थ में बौद्धों का परस्त करने पर उन्हें भट्ट ( शास्तार्थ में प्रथम चरण के विजेता को उपाध्याय ,दूसरे चरण के विजेता को द्विवेदी (जिसने दो वेदों का पूर्ण अध्ययन किया हो),तीसरे चरण के विजेता को त्रिपाठी (जिसने तिन वेदों में महारत हासिल की हो) चौधे चरण के विजेता को चर्तुर्वेदी (जिसने चारों वेदों में पारंगत हासिल की हो) पांचवे चरण के विजेता को दीक्षित ( जो वेद वेदांत का ज्ञाता हो और दीक्षा देने में पारंगत हो) छटे चरण के विजेता को आचार्य की पदवी (जो कि गुरुकुल के आचार्य बन सकते हों) और अंतिम सातवें चरण के विजेता को भट्ट (वेद वेदांग तथा अन्य सभी साथ ही शास्त्रों का अध्ययन किया हो, उनकी धर्म परायणता तथा विद्वता अतार्किक हो) को ही भट्ट – पाद तथा सुब्रहमन्य की उपाधि प्रदान की जाती थी)।कुमारिल भट्ट के जन्म को ईसा की सांतवी शताब्दी में रखा जा सकता है क्यों कि कुछ विद्वान उनका काल (६२०-६८०) मानते हैं।कुछ लोग इन्हें मिथिला (उत्तर भारत)का मानते हैं और तारनाथ के अनुसार इनका काल 535वीं ईस्वी माना जाता है वहीँ कृप्पुस्वामी के अनुसार इनका काल 600 से 660 है।
· कुमारिल भट्ट मीमांसा दर्शन के दो प्रधान सम्प्रदायों में से एक एवं भट्ट संप्रदाय के संस्थापक थे। कुमारिल ने ज्ञान के स्वरूप तथा उसके साधनों का विवेचन विस्तार से किया है। उनके अनुसार जिस समय को किसी वस्तु का ज्ञान होता है, उसी समय उसकी सत्यता का भी ज्ञान हो जाता है। उसकी सत्यता सिद्ध करने के लिए किसी अन्य प्रमाण की आवश्यकता नहीं होतीवाचस्पति मिश्र उनसे लगभग 200 वर्ष पैदा हुए और शंकराचार्य उनके बाद। कुमारिल भट्ट की कीर्ति हर्षवर्धन के अंतिम काल में पूर्ण रूपेण भारतवर्ष के सभी कोनों में फ़ैल चुकी थी। मंडन मिश्र उनके प्रथम शिष्य या कहें अनुयायी थे। इसके अतिरिक्त उनके प्रमुख शिष्यों में विश्वरूप, प्रभाकर पार्थसारथी एवम मुरारी मिश्र के नाम लिए जा सकते हैं।
· “अरे कोयल ! मलिन , नीच और श्रुति – दूषक काक – कुल से यदि तेरा सम्बन्ध न हो, तो तु वास्तव में प्रशंसा के योग्य है “ हे राजन ! मलिन, नीच और वेद निंदक लोगों से यदि तेरा सम्बन्ध न हो ,तो तू अवश्य ही प्रशंसा के योग्य है। ”
· आदि शंकराचार्य ने कुमारिल भट्ट को अपना गुरु माना है, क्यों कि उनके लिखे भाष्य पर उनके गुरु ने आदेश दिया कि सनातन धर्म की पताका लहराने से पूर्व तुम्हे अपने लिखे सभी भाष्यों पर कुमारिल भट्ट से टिका प्राप्त करनी होगी त्तभी तुम सनातन धर्म की पताका उठा पाओगे।
· किन्तु शंकराचार्य जब संगम तट पहुंचे तो देर हो चुकी थी और कुमारिल भट्ट तुषाल की अग्नि में अपनी देह त्याग करने जा रहे थे तब आदि शंकराचार्य उनसे अपने गुरु के द्वारा कही गई बात बताई और कहा की कृपया आप अपने को इस तुषाल की अग्नि में भस्म न करे और मेरे लिखे भाष्य पर अपनी टिका दे दें तब चिता पर बैठने से पूर्व कुमारिल ने वे भाष्य देखे और कहा कि शंकर मैं आपके एक-एक भाष्य पर १६ हजार ऋचाएं लिख सकता हूँ किन्तु मैंने गुरु द्रोह किया है जिसका प्रायश्चित मुझे करना ही है अतएव आप मेरे प्रिय शिष्य मंडन मिश्र से शास्तार्थ कर सकते हैं।


कुमारिल भट्ट नाम याद आते ही सनातन धर्म को पुन: स्थापित करने वाले उस नवयुवक की याद आती है जो विद्या अध्धयन के लिए वाराणसी (तब इसे काशी नाम से ज्यादा जाना जाता था) में रहता था और विद्या अध्ययन के पश्चात् वह सनातन कर्मवाद के प्रचार एवं प्रसार हेतु घूमते घूमते चंपा नगरी जा पहुंचे। भ्रमण करते करते एक दिन कुमारिल भट्ट चंपा नगरी के एक उद्यान जा पहुंचे जहाँ उन्होंने देखा कि उस उद्यान का माली बड़े जतन से फूलों की देखभाल कर रहा है। परिचय प्राप्त करने के पश्चात कुमारिल भट्ट ने उस माली की फूलों के प्रति उसकी सेवा और निष्ठा की तारीफ़ की। बातों बातों में ही कुमारिल भट्ट को चंपा नगरी के राजा सुधन्वा जो कि सनातन धर्म को त्याग कर बौद्ध धर्म में अनुयायी हो गए थे और उनकी पत्नी जो कि वेदानुरागी थी एवं भगवान विष्णु की अनन्य भक्त भी थी के विषय में जानकारी प्राप्त हुई। उस माली से ही उन्हें पता चला कि राजा के बौद्ध धर्म अपनाने से रानी बहुत दुःखी हैं प्रजा में भी गलत संदेश प्रसारित हो रहा है किन्तु राजा के हट के आगे किसी भी वेद पाठी की एक नहीं चलती क्यों कि वह उनकी बात सुनना ही नहीं चाहता और राजा को ऐसा है कि सनातनत धर्म से कहीं अधिक बौद्ध धर्म श्रेष्ठ है। कुमारिल भट्ट ने मन ही मन निश्चय किया कि मैं एक दिन राजा सुधन्वा से भेंट अवश्य करूँगा।
एक दिन कुमारिल भट्ट वेदों का प्रचार-प्रसार करते हुए राजा सुधन्वा के महल के नीचे से गुजर रहे थे कि अचानक वर्षा आ जाने के कारण वहीँ महल की एक परछत्ती के नीचे रुक गए। तभी कुमारिल भट्ट ने महल की परछत्ति पर कुछ स्त्रियों के एक छोटे समूह का वार्तालाप सुना। उस समूह में से एक स्त्री जो संभवत: रानी रही होगी रोते-रोते उन दूसरी स्त्रियों से कह रही थी कि इस देश में तो रहना ही दुश्वार हो गया है क्यों कि आए दिन सनातन धर्म की निंदा जहाँ-तहां होती रहती है एवं जिस गति से ये बौद्ध और जैन धर्म भारतवर्ष में धर्म फ़ैल रहा है तो हमारे सनातन धर्म का क्या होगा? क्या यह समय के साथ विलुप्त हो जायेगा। आख़िर कौन है जो हमारे सनातन धर्म को भारतवर्ष में पुन: स्थापित करेगा। उस स्त्री के ये करुण वचन सुनकर कुमारिल भट्ट ने ऊपर की ओर देखा तो पाया कि स्त्रियों का वह समूह उसी की तरफ़ बड़ी ही आशा भरी नज़रों से उसे निहार रहा था। तब कुमारिक भट्ट ने उस स्त्रियों के समूह की ओर लक्षित होकर कहा कि माताओं आप अश्रु न बहायें। मैं प्रतिज्ञा करता हूँ कि मैं सनातन धर्म की प्रतिष्ठा पुन: उसी स्थान पर लाने का प्रण करता हूँ जहाँ वह आज से पूर्व था। यह सुनकर रानी ने कुमारिल को अपने पास बुलावा कर अपनी व्यथा कथा सुनायी। कुमारिल जी को मिलकर रानी को बहुत संतोष हुआ तथा संवाद के दौरान ही कुमारिल भट्ट को बौद्ध मत की अनेक कमियों का भी पता चला | कुमारिल भट्ट ने रानी से कहा कुछ युक्तियों को प्रसंगवश राजा के सामने रखने के लिए कहा ताकि धीरे धीरे राजा के मन से बौद्ध मत के प्रति विमुख हो जाएँ ।
कुमारिल भट्ट रानी से कह तो आये थे कि वे सनातन धर्म को पुन: उसी स्थान पर प्रतिस्थापित करेंगे जहाँ वह पहले था किन्तु विचार करते हुए उन्होंने अनुभव किया कि किसी भी धर्म को समझे बिना उस धर्म के आचार्यों को कैसे परास्त किया जा सकता है। अतएव उन्होंने तत्काल निर्णय लिया कि उन्हें सनातन धर्म का और अध्ययन करना होगा साथ ही अन्य धर्मों की भी जानकारी प्राप्त करना या पारंगत होना आवश्यक होगा। इसके लिए उन्होंने काशी में व् तदुपरांत पाटलिपुत्र में जाकर विद्या अध्ययन किया। उस समय में वैदिक कर्मकांड में कुमारिल भट्ट ही एकमात्र के प्रकांड पंडित थे। कुमारिल भट्ट ने जो इस विषय में आधार तैयार किया उसी आधार या नींव पर शंकराचार्य ने विशाल भवन का निर्माण करने में सफलता पाई। अपने को तर्क वितर्क में एवम सभी शास्त्रों का अध्ययन करने के पश्चात कुमारिल भट्ट ने तय किया कि अब उन्हें जैन एवं बोद्धों के ऐसे नगर जहाँ उनकी अधिकता अधिक है जाना चाहिए एवं दोनों ही धर्मों के विषय में पूर्ण जानकारी एकत्र करनी चाहिए। इसके लिए उन्होंने पाटलिपुत्र और सारनाथ जैसे स्थानों का भ्रमण किया। कुमारिल भट्ट स्वम बौध ग्रन्थ पढना चाहते थे ताकि वे स्वयं भी उन पर प्रश्न कर सकें। बौद्ध मत का खंडन करने हेतु उन्हें बौद्ध मत से सम्बंधित ग्रंथों का अध्ययन करना था किन्तु बौद्ध ग्रन्थ उपलब्ध नहीं थे | अत: अपने निश्चय को कार्यान्वित करने के लिए उन्होंने अपना नाम बदलकर 'धर्म पाल ' रख लिया और “श्रीनिकेतन” नामक एक बौद्ध धर्माचार्य के पास शिष्य स्वरूप जा पहुंचे व बौद्ध मत का अध्ययन करने लगे। विद्या अध्ययन करते हुए एक बार बौद्ध मत के आचार्य ने वेदों की व्याख्या करते हुए वेदों की निंदा की,जिससे कुमारिल भट्ट बहुत व्यथित हुए और उनकी आँखों से अश्रु धरा बह निकली, उनकी इस अवस्था को देखकर श्रीनिकेतन” समझ गया कि धर्मपाल वास्तव में वैदिक हैं ,कुमारिल ने कहा 'हाँ यह सत्य है कि मैं वैदिक हूँ,। परन्तु आपने जो कुछ भी वेदों के विरोध में कहा है , वह आपने उनको जाने बिना किया है अतएव आपको पहले वेदों का अध्ययन करना चाहिए ताकि आपको वैदिक ज्ञान भी हो जाये।कुमारिल के ये वचन सुनकर श्रीनिकेतन” को धर्मपाल पर बहुत क्रोध आ गया और उन्होंने अपने शिष्यों से कहा कि इसे किसी ऊँची पहाड़ी से नीचे फ़ेंक दो। देखे इसके वैदिक धर्म में कितनी शक्ति है।तब अनायास ही कुमारिल भट्ट के मुख से ये वाक्य निकला कि ''यदि वेद सत्य हैं ,तो मुझे कुछ नहीं होगा”..कुमारिल जिंदा बच गये ,परन्तु उनकी एक बेकार हो गई। कुमारिल भट्ट का मानना था कि चूँकि उन्होंने वैदिक धर्म के लिए 'यदि' शब्द का प्रयोग किया जो कि उनका वैदिक धर्म में संशय पैदा करता है इसीलिए उनकी एक आंख बेकार हो गई अन्यथा ऐसा कदापि नहीं होता। किन्तु हाँ इस घटना से कुमारिल भट्ट को बौद्ध धर्म की सत्यता पर संदेह अवश्य हो गया। आप समझ गए की जो बौध धर्म – दया और अहिंसा को छद्म तरीके से मानता है। अन्यथा क्या कारण है कि उसके अनुयायियों ने मेरी वेद के प्रति आस्था को देख मुझे जान से मारने का प्रयास किया तो इस बौद्ध धर्म में दया व अहिंसा कहाँ है ? यह तो अन्य धर्मावलम्बियों को अपनी ठोकर में रखना चाहते हैं। मैं इन पाखंडियों से संसार को बचाने का यत्न करूंगा। बौद्दों से शास्त्रार्थ करने से पूर्व कुमारिल भट्ट ने 07 धर्म ग्रंथो की रचना की।
उसी दौरान राजा सुधन्वा के कानों तक वेद वेत्ता कुमारिल भट्ट के नाम की चर्चा पहुंच चुकी थी तथा वह भी उन्हें मिलने के इच्छुक थे। इसी कारण राजा सुधन्वा ने शास्तार्थ हेतु एक विशाल सभा का आयोजन कराया जिसमें उन्होंने सनातन धर्म की पताका फहराने वाले वाहक वेद वेत्ता कुमारिल भट्ट तथा बड़े-बड़े धुरंधर बौद्ध विद्वानों को भी बुला भेजा ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि कौन सा धर्म सबसे श्रेष्ठ है। एक ओर बोधों की विशाल सेना तथा दूसरी और अपने शिष्यों सहित आचार्य कुमारिल भट्ट उस विशाल सभा में पहुंचे। दर्शकों व श्रोताओं से राज भवन भरा था। इस मध्य समीपस्थ वृक्ष से कोयल कुक उठी, जिससे सभा भवन गूंज उठा । इस अवसर पर कुमारिल भट्ट ने जो श्लोक पढ़ा उसका भाव था — “अरे कोयल ! मलिन , नीच और श्रुति – दूषक काक – कुल से यदि तेरा सम्बन्ध न हो, तो तु वास्तव में प्रशंसा के योग्य है “ हे राजन ! मलिन, नीच और वेद निंदक लोगों से यदि तेरा सम्बन्ध न हो ,तो तू अवश्य ही प्रशंसा के योग्य है। ” किन्तु इस व्यंग्य का मुख्य आशय तो बोद्धों के लिए था , इस कारण वह मन ही मन कुमारिल पर बहुत चिढ़े | शास्त्रार्थ आरम्भ हुआ दोनों और से तर्क की तलवारें टकराने लगीं । बोद्धों के वेद विरुद्ध तर्कों का कुमारिल ने खंडन किया तथा अपने पांडित्य का प्रदर्शन करते हुए वेदों की सभ्यता , सत्यता,न्याय प्रियता ,सद्गुण, कर्मवाद, कर्मफल, उपासना, मुक्ति तथा व्यक्तित्व-वाद आदि को इस उत्तमता से सिद्ध किया कि प्रत्येक व्यक्ति को वेद की विमल मूर्ति के दर्शन होने लगे।
कुमारिल भट्ट ने बौद्धों के सभी आचार्यों को अपने तार्किक शक्ति के माध्यम से शास्तार्थ में हरा दिया। राजा सहित सब लोग कुमारिल भट्ट की विद्वता पर मोहित हो गए। वहां उपस्थित सभी ने एक स्वर में स्वीकार किया कि “वेद ही मानवता का सर्वोच्च व दिव्य ज्ञान” है | यह भी सिद्ध हो गया की बौद्ध ज्ञान व सिद्धांत सर्वथा भ्रामक , भ्रान्ति मूलक व अनिष्टकारी हैं। इससे सभी संतुष्ट हुए। कई दिनों तक चले शास्तार्थ में बौद्ध धर्माचार्यों द्वारा परास्त होने पर बौद्धों की विशाल भीड़ में नीरवता फ़ैल गई और राजा सुधुन्वा द्वारा कुमारिल भट्ट को विजेता घोषित कर दिया गया। इस अवसर पर बौद्धों पर धिक्कारें व लानतें पड़ने से वह अपना मुंह लटकाए सभा से चले गए। इस सभा में यह भी सिद्ध हो गया कि सार्वदेशिक व सार्वकालिक पूर्ण ज्ञान वेद में ही है | यह भी सिद्ध हुआ कि बोद्धों का आचरण पाप पूर्ण है | राजा इस ज्ञानोपदेश से अत्यंत प्रसन्न हुए। राजा सुधुन्वा कुमारिल भट्ट के वैदिक ज्ञान से इस कदर प्रभावित हुए कि वो कुमारिल भट्ट के शिष्य हो गए। अब उनके प्रभाव से लोग पुन: वैदिक धर्म के अनुरागी बनने लगे। पुन: वेदों का प्रचार हुआ तथा यज्ञ आदि कर्म होने लगे। | वेद गान की ध्वनी से देश गूंजने लगा। इस प्रकार कुमारिल का उद्देश्य पूर्ण हुआ तथा उन्हें मानसिक संतोष तो मिला किन्तु पूर्ण रूपेण नहीं। कुमारिल का ध्येय तो बौद्धों को समूल उखाड़ने का था। कुमारिल भट्ट ने अपने जीवन काल में पुन: सनातन धर्म की मात्र रक्षा ही नहीं कि वरन जैन आचार्यों और बौद्ध धर्म के आचार्यों को न केवल परास्त किया अपितु सनातनत धर्म के सभी गुणों को आत्मसात करते हुए चिंतन किया और स्वम ही घोषणा की कि चूँकि मैंने बौद्ध धर्म को समझने एवं उसमें पारंगत होने के लिए नाम बदलकर बौद्ध आचार्य से शिक्षा ली ताकि सनातन धर्म को पुन: प्रतिपादित किया जा सके लेकिन चूँकि मैंने नाम बदलकर शिक्षा ली है अतएव मैं स्वम इसे गुरु-द्रोह घोषित करता हूँ और अपने आप को स्वम दण्ड देता हूँ और दंडस्वरूप मुझे तुशाल की अग्नि में अपने प्राणों की आहुति देनी होगी। अब इससे बड़ा और क्या साक्ष्य प्रस्तुत किया जा सकता है कि जिस सनातन धर्म की रक्षा हेतु कुमारिल भट्ट ने सभी प्रकार के यत्न किये उसी सनातन धर्म के नियमों का उन्होंने स्वम भी निर्वाह किया और अपने प्राणों को सनातन धर्म पर न्यौछ्वर कर दिया।
कुमारिल ने अपने जीवन काल में शबर भाष्य पर ३ विश्व प्रसिद्ध वृत्ति ग्रंथ लिखे:-
(1) श्लोकवार्तिक - यह प्रथम अध्याय के प्रथम पाद की व्याख्या है।
(2) तंत्रवार्तिक - इसमें पहले अध्याय के दूसरे पाद से लेकर तीसरे अध्यायों की संक्षिप्त व्याख्या की गई है।
(3) टुप्टीका - इसमें अंतिम नौ अध्यायों की संक्षिप्त व्याख्या की गई है। श्लोकवार्तिक तथा तंत्रवार्तिक में कुमारिल के असाधारण पांडित्य तथा प्रतिभा का परिचय मिलता है।
कुमारिल के दर्शन का तीन मुख्य भागों में अध्ययन किया जा सकता है- ज्ञानमीमांसा, तत्वमीमांसा और आचारमीमांसा। ज्ञान के स्वरूप तथा उसके साधनों का कुमारिल ने विस्तार से विवेचन किया है। ज्ञान के विषय में पहला प्रश्न है कि यथार्थ ज्ञान अथवा प्रमा का स्वरूप क्या है। मीमांसा के अनुसार पहले से अज्ञात तथा सत्य वस्तु के ज्ञान को प्रमा कहते हैं। इस ज्ञान का किसी अन्य ज्ञान द्वारा बाध अथवा निराकरण नहीं होता और यह ज्ञान निर्दोष कारणों से उत्पन्न होता है। जिस साधन द्वारा प्रमा अथवा यथार्थ ज्ञान की प्राप्ति होती है उसे प्रमाण कहते हैं। कुमारिल के मत से प्रमाण छह प्रकार के हैं - प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, शब्द, अर्थापत्ति और अनुपलब्धि। अद्वैत वेदांत भी उपयुक्त छह प्रमाणों को स्वीकार करता है। मीमांसा ज्ञान को स्वत:प्रामाण्य मानती है। कुमारिल के अनुसार ज्ञान की प्रामाणिकता अथवा सत्यता की प्रतीति उसके उत्पन्न होने के साथ होती है। जिस समय किसी वस्तु का ज्ञान होता है उसी समय उसकी सत्यता का भी ज्ञान हो जाता है। उसकी सत्यता सिद्ध करने के लिए किसी अन्य प्रमाणों की आवश्यकता नहीं होती। किंतु ज्ञान की असत्यता अथवा अप्रमाणिकता का बोध तब होता है जब उसका बाद में वस्तु के वास्तविक स्वरूप से विरोध दिखाई पड़ता है या उसको उत्पन्न करनेवाले कारणों के दोषों का ज्ञान हो जाता है। अत: मीमांसा ज्ञान के विषय में स्वत:प्रामाण्यवाद को मानती है। मीमांसा के अनुसार ज्ञान का प्रामाण्य स्वत: और अप्रमाण्य परत: होता है। कुमारिल और प्रभाकर दोनों ही इस मत का प्रतिपादन करते हैं।
वे बाह्य वस्तुओं के अस्तित्व को स्वीकार करते हैं। संसार को वे अद्वैत वेदांत अथवा महायान बौद्ध दर्शन की तरह मिथ्या नहीं मानते। संसार सत्य है। संसार का तथा पदार्थों का मन से स्वतंत्र अस्तित्व है। उनके मत से पदार्थ पाँच प्रकार के हैं : द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य तथा अभाव। इनको वे दो भागों में विभाजित करते हैं : भाव और अभाव। प्रथम चार भाव पदार्थ कहलाते हैं। अभाव को वैशेषिकों की तरह उन्होंने चार प्रकार का माना है : प्रागभाव, प्रध्वंसाभाव, अत्यंताभाव तथा अन्योन्याभाव।
द्रव्य वह है जिसमें गुण रहते हैं। कुमारिल के अनुसार यह ग्यारह प्रकार का है : पृथ्वी, जल, वायु, आकाश, आत्मा, मन, माल, दिक्, अंधकार और शब्द। इनमें प्रथम नौ द्रव्य वैशेषिक दर्शन से ही लिए गए हैं। कुमारिल ने अंधकार तथा शब्द को भी द्रव्य की ही मान्यता दी है।गुणों के विषय में भी कुमारिल पर वैशेषिक का पर्याप्त प्रभाव प्रतीत होता है। प्रशस्तपाद की तरह वे भी 24 गुण मानते हैं। ये हैं रूप, रस, गंध, स्पर्श, संख्या, परिमाण, पृथक्त्व, संयोग, विभाग, परत्व, अपरत्व, गुरुत्व, द्रवत्व, स्नेह, ज्ञान, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, सुख, दुख, संस्कार, ध्वनि, प्राकट्य और शक्ति। गुणों की इस सूची में उन्होंने प्रशस्तवाद के शब्द के स्थान पर ध्वनि तथा धर्म और अधर्म के स्थान पर प्राकट्य और शक्ति रखा है। कर्म को भी वैशेषिक की तरह वे पाँच प्रकार का मानते हैं : उन्क्षेपण, अपक्षेपण, आकुंचन, प्रसारण और गमन। प्रभाकर के अनुसार कर्म अनुमान का विषय है किंतु कुमारिल का मत है कि इसका प्रत्यक्ष होता है। सामान्य को प्रभाकर तथा कुमारिल दोनों सत्य मानते हैं। उनके अनुसार इसका इंद्रियों से साक्षात् ग्रहण होता है। इस विषय में इनका बौद्धों से पूर्ण विरोध है क्योंकि वे सामान्य की सत्ता स्वीकार नहीं करते।
कुमारिल संसार की उत्पत्ति तथा प्रलय नहीं मानते। संसार में वस्तुएँ उत्पन्न तथा नष्ट होती रहती है। जीवों के जन्म मरण का प्रवाद चलता रहता है किंतु समग्र संसार की न तो उत्पत्ति ही होती है, न विनाश। न्याय की तरह कुमारिल ईश्वर को जगत् का कारण नहीं मानते। अनेक तर्कों द्वारा उन्होंने यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया है कि ईश्वर को जगत् का कारण मानना युक्तिसंगत नहीं है।
कुमारिल के अनुसार आत्मा एक नित्य द्रव्य है। वह विभु अथवा व्यापक है। वह कर्ता तथा कर्म-फल-भोक्ता दोनों ही है। आत्मा शरीर, इंद्रिय, मन तथा बुद्धि से भिन्न है। वह विज्ञानों की संतान मात्र नहीं है। कुमारिल ने बौद्धों के अनात्मवाद तथा विज्ञानसंतान के सिद्धांत का अनेक प्रबल तर्कों द्वारा खंडन किया है। उनके अनुसार नित्य आत्मा के अस्त्वि की अनुभूति तथा स्मरण आदि क्रियाओं की व्याख्या नहीं की जा सकती। आत्मा परिणामी तथा नित्य है। आत्मा अंशत: जड़ तथा अंशत: चेतन है। चिदंश से आत्मा वस्तुओं का ज्ञान प्राप्त करता है : अचिदंश से वह ज्ञान, सुख, दुख, इच्छा, प्रयत्न आदि के रूप में औपाधिक गुण है जो विशेष परिस्थिति, जैसे इंद्रिय का विषय से संयोग, होने पर उत्पन्न होता है। सुषुप्ति तथा मोक्ष की अवस्था में आत्मा में चेतना नहीं रहती। कुमारिल के मत से आत्मा ज्ञाता तथा ज्ञान का विषय, दोनों ही है। वेद के वाक्य कि मै आत्मा अथवा ब्रह्म हूँ, आत्मा को जानो इस मत की पुष्टि करते हैं।
मीमांसा दर्शन का प्रधान उद्देश्य धर्म का निरूपण करना है। जैमिनि के अनुसार धर्म का लक्षण है चोदना अर्थात क्रिया का प्रवर्त्तक वचन अथवा वेद का विधिवाक्य। मीमांसकों के अनुसार वेद का मुख्य तात्पर्य क्रियापरक अथवा विधिवाक्यों का प्रतिपादन करना है। वेद में प्रतिपादित कर्म तीन प्रकार के हैं : काम्य, प्रतिषिद्ध तथा नित्य नैमित्तिक। कुमारिल के अनुसार काम्य कर्म किसी कामना की सिद्धि के लिये किए जाते हैं, जैसे स्वर्ग की इच्छा करने वाला व्यक्ति यज्ञ करे। प्रतिषिद्ध कर्म वे है जिनका वेदों में निषेध माना गया है। नित्य कर्म वे है जिनका प्रतिदिन करना आवश्यक माना गया है, जैसे संध्यावंदन आदि। नैमित्तिक कर्म विशेष अवसरों पर किए जाते है, जैसे श्राद्ध। मनुष्य को अपने किए अच्छे बुरे कर्मो का फल अवश्य प्राप्त होता है। वर्तमान में किये हुए यज्ञादि कर्मों का फल भविष्य अथवा जन्मान्तर में कैसे प्राप्त होता है? इसे समझाने के मीमांसक अपूर्व की कल्पना करते है। कुमारिल के अनुसार अपूर्व एक अदृश्य शक्ति है जो किसी कार्य को करने से उत्पन्न होती है। अपूर्व के ही कारण आत्मा को अपने कर्मों के अनुरूप फल की प्राप्ति होती है। इससे कर्म और फल के बीच अपूर्व एक अदृश्य कड़ी है।
कुमारिल के अनुसार वेदांत का अध्ययन एवं चिंतन मोक्षप्राप्ति में सहायक होता है। मोक्ष की अवस्था आत्मा का शरीर, इंद्रिय, बुद्धि तथा संसार की इन वस्तुओं से संबंध सदा के लिए समाप्त हो जाता है। आत्मा दुख से पूर्ण रूप से मुक्त हो जाता है। उस अवस्था में सुख की भी कोई अनुभूति नहीं रहती। यह पूर्ण स्वतंत्रता तथा शांति की अवस्था है। मोक्ष प्राप्त करने के लिए मनुष्य को काम्य और निषिद्ध कर्मों का त्याग करना चाहिए। किंतु नित्य नैमित्तिक कर्मो का संपादन नित्य करते रहना आवश्यक है। वेदविहित कर्मों का अनुष्ठान मोक्ष का साधक है।
कहते है कि वे पूर्वमीमांशा के प्रथम आचार्य है आदि जगद्गुरु शंकराचार्य ने जो वैदिक धर्म की विजय पताका पूरे देश में फहरायी उसकी पूरी भूमिका कुमारिल भट्ट ने पहले ही तैयार कर दी थी आचार्य की विद्वता के लिए उनके शिष्य मंडन मिश्र का ही परिचय ही पर्याप्त है, आदि शंकर उनसे शास्त्रार्थ के लिए पधारे तो वे प्रयाग में संगम पर तुषानल [चावल की भूसी] में जल रहे थे शंकराचार्य ने शास्त्रार्थ के लिए आवाहन किया तो उनकी यह दशा देखकर अपनी अंजुली में जल लेकर मै अभी तुषानल को शांति करता हूँ, नहीं आचार्य मुझे पता था आप आने वाले है, यह कार्य मेरा शिष्य मंडन करेगा मैने गुरुद्रोह किया है मैंने यह स्वयं ही स्वीकार किया है, शंकर ने उनसे कहा कि आपने तो सनातन धर्म, वेदों को बचाने के लिए ही यह कार्य है इसलिए यह कैसे गलत हो सकता है, लेकिन कुमारिल किसी तर्क को मानने को तैयार नहीं थे! शंकराचार्य उन्हें हमेशा गुरु स्थान पर रखते थे उनका मत मीमांसामें गुरुमत कहा जाता है, पूर्वमीमांसा दर्शन के शावर भाष्य पर उनकी टीका है, इनका दूसरा ग्रन्थ 'श्लोक-वार्तिक' है, वे जैन अथवा बौद्ध मतों को खंडन करने वाले प्रथम आचार्य है उन्होंने वेदों की सार्थकता, वेद अपौरुषेय है यह अपने तर्कों द्वारा सिद्ध किया, जिन्हें हमेशा भारतवर्ष और हिन्दू धर्म कृतज्ञता अर्पित करता रहेगा.
-प्रदीप भट्ट –
Satarday,May-13-2017