Tuesday, 26 April 2022

"मैं हूँ न"

       
       
            "मैं हूँ न"
 
अकेला ख़ुद को न समझो 
लो थामो हाथ तुम मेरा 
जहाँ तुम उँगली रख दोगे 
लगा लेंगे वहीं डेरा 

हैं रिश्ते और भी लेकिन 
नहीं मित्रों का कुछ सानी 
अगर हिचकी भी आ जाए 
तुरत पकड़ाते ये पानी 

अगर मुश्किल कभी आए 
तो पीछे ये नहीं हटते
मदद कर जाते हैं हँसकर 
नहीं अहसां कभी रटते 

यकीं मुझ पर नहीं जो ग़र
शहर में घूमकर पूछो 
अकेला हूँ मैं अवनि पर
नहीं मुझसा कोई दूजो  

है वादा 'दीप' का तुमसे 
कभी तन्हा न छोड़ेगा 
अगर आई कभी मुश्किल 
तो जड़ से उसको तोड़ेगा

-प्रदीप देविशरण भट्ट - 
27:04:2022

Wednesday, 20 April 2022

"भाषाई गिद्ध"

 




रिपोतार्ज़

भाषाई गिद्ध

“सख्त लफज़ों की इज़ाज़त है नही मुझको प्रदीप

वरना खुद ही सोचिये मुँह में ज़ुबाँ मेरे भी है”


पिछ्ले दिनों शायद दिसम्बर-2021 मेरे एक मित्र ने मुझे सूचित किया कि गोवा में हिन्दी भाषा पर एक अधिवेशन हो रहा और मैं वहाँ जा रहा हूँ। उनकी इच्छा थी कि मैं भी उस अधिवेशन में भाग लूँ। मैंने बताया कि मैं तो तीन दिवसीय इंडो-नेपाल सम्मेलन में भागीदारी के लिए फरवरी के अंतिम माह में नेपाल जा रहा हूँ। अब चूँकि मेरे मित्र ने इतने प्रेम से मुझसे आग्र्ह किया था सो मैंने उन्हें आश्ववासन दिया कि वे मुझे समय बता दें तो मैं प्रयास कर सकता हूँ। जनवरी के प्रथम सप्ताह में कोविड के कारण नेपाल में प्रस्तावित तीन दिवसीय इंडो-नेपाल सम्मेलन को पोस्टपोंड कर दिया गया। मेरे मित्र का फोन पुन: घनघना उठा मैंने कहा कहिये सिंह साहब क्या आदेश है उन्होंने तुरंत एक नाम और नम्बर देकर कहा कि आप इन सज्जन से बात कर लें गोवा वाला हिन्दी अधिवेशन पहले निरस्त हो गया था अब ये 15-16 अप्रैल-2022 को गोवा में होना निश्चित हो गया है एवम उन्होंने भागीदारी के लिए पुन: आग्र्ह किया। मैंने उन सज्जन से बात करने से पूर्व उस संस्था की नेट पर पूरी जाँच पडताल की तो पाया ये संस्ठा तो हिन्दी भाषा के लिए अच्छा कार्य कर रही है। स्व0 अरूण जेटली व अन्य कई नेताओं के फोटो उस संस्था के पटल पर देखकर मैंने गोवा जाने का कार्यक्रम फाइनल किया व उन सज्जन से फोन पर बात की, उन्होंने रजिस्ट्रेशन प्रक्रिया पूरी करने जिसमें आपका नाम,  एक फ़ोटो व रुपये 2500/- जमा कराने की बात बताई गई थी। कुछ असमंजस व संकोच के साथ मैंने वह राशि ऑनलाइन जमा करा दी। तीन चार दिन बाद ही मेरे व्हाट्सप पर कि “आपका चयन गोवा अधिवेशन के लिए किया गया है” फ़ोटो सहित आमंत्रण आ गया। इसकी सूचना मैंने अपने मित्र को भी आगे प्रेषित कर दी। कई बार आग्र्ह करने पर उन सज्जन ने मुझे मेरे मेल पर प्रतिभागियों की एक फाईनल सूचि उलब्ध करा दी। 244 में से सिर्फ दो मोहतरमाएं मिली जिनके साथ मैं वर्चुअली कई मीटिंग्स अटेण्ड कर चुका था। यहाँ यह बताना आवश्यक है कि रुपये-2500/- में सिर्फ 15-16 अप्रैल को दो चाय बिस्क्ट व दो लंच, एक प्रमाण-पत्र,एक ट्राफी, उस संस्था की एक पुस्क्तक जिसमें प्रतिभागियों की रचनाएं प्रकाशित हुई थीं। अन्य व्यवस्था प्रतिभागी को स्वंय ही करनी थी। जिसका गिला न मुझे हुआ और निश्चित रुप से अन्य किसी प्रतिभागी को भी नही हुआ होगा। मैंने कार्यक्र्म को ध्यान में रखते हुए अपनी आने जाने की टिकिट्स बनवा लीं साथ ही अपने गोवा ऑफिस के सहयोग से अपने लिए तीन के लिए सर्किट हाउस में रहने की भी अग्रिम व्यवस्था करा ली।


मैंने गाँधी जी की पुस्तक “मौन सर्वाथ साधकम” पढी है और कई बरस तक प्रात: 0700-0800 एक घंटे मौन भी रखा है और दावे के साथ कह सकता हूँ कि मौन की शक्ति गज़ब है किंतु किन्ही कारणों से मैं इसे जारी नही रख पाया (शायद ईश्वर का यही आदेश था)  आज भी प्रयास करता हूँ कि जहाँ तक हो सके शांति के साथ कार्य निपट आजे किंतु कुछ निर्लज लोगों के व्यवहार के कारण कभी कभी स्थिति हमारे हाथ से निकल जाती है और तब मुझे याद आती है शहीद भगत सिंह की बात कि बहरों को सुनाने के लिए धमाकों की ज़रुरत होती है। कुछ ऐसा ही अहसास मुझे गोवा सम्मेलन के दौरान भी हुआ। 





एक दिन पहले ही फोन द्वारा ज्ञात हुआ कि मेरे मित्र के बच्चे की तबियन ठीक नही है जिस कारण वह गोवा अधिवेशन अटैण्ड नही कर पाएगा। मूड तो थोडा अप्सेट हुआ किंतु क्या किया जा सकता था मैं स्वंय कहता हूँ फैमिली फर्स्ट्। निर्धारित तिथि को यानि 13 अप्रैल को मैंने गोवा के लिए प्रस्थान किया , 14 अप्रैल को अपरान्ह मडगाँव और वहाँ से टैक्सी द्वारा पंजिम के सर्किट हाऊस पहुँचा। फ्रेश होने के बाद सोचा जरा उस स्थल का दौरा कर लिया जाए जहाँ कार्यक्रम “इंस्टिट्यूट मिनेज़िज़ ब्रागांजा” होना निश्चित हुआ है ताकि कल समय से पहुँचा जा सके। खैर ढूँढते ढाँढते लगभग 17:45 पर वहाँ पहूँचा । अजीब बात यह है कि इस इंस्टीट्यूड ने पिछले वर्ष ही अपने स्थापना के 150 वर्ष पूरे किये हैं और पता पूछ्ने पर ज्यादातर ने इसके बारे में अनभिग्यता प्रकट की। खैर इंस्टिट्यूट के प्रथम तल पर पहुँचा तो उस संस्था से कोई नही वरन वहाँ जिसको ये जिम्मा दिया गया था वो मुझे ही वो सज्जन समझ कर बातें करने लगे। खैर लगभग आधे घंटे बाद वे सज्जन भी आए। दुआ सलाम के बाद मैंने अपनी ओर से उन्हें किसी भी प्रकार की मदद का भरोसा दिलाया ये और बात के जहाँ प्रतिभागियोंको ठहराया गया था उसकी व्यवस्ठा मेरे साथ मुम्बई में कार्य कर चुके मेरे प्रिय साथी समीर अम्बेकर ने मेरे ही आग्र्ह पर कराई थी। किसी का फोन आने पर वे कुछ परेशान से हो गये मैंने फिर आग्र्ह किया मैं साथ चलूँ तो उन्होंने मना कर दिया। उन सज्जन ने एक आग्र्ह अवश्य किया कि आप कल 9 बजे से पहले आकर कृपया व्यवस्था का निरिक्षण कर लें चूँकि कार्यक्रम का शुभारम्भ मुख्यमंत्री डॉक्टर प्रमोद सांवत करने वाले थे अतएव मैंने तुरंत हामी भर दी वैसे भी सरकारी आयोजन के कार्यक्रम की व्यवस्था करते करते काफी वक्त हो गया है।


मैं अगले दिन नियत समय यानि 9 बजे से पूर्व ही कार्यक्रम स्थल पहुँच गया, अजीब बात ये थी कि उस संस्था से वहाँ कोई भी नही पहुँचा था। उस इंस्टिट्यूट के उन सज्जन से मदद लेकर जो भी मुझे ठीक लगा उसे सुचारु रुप से पूर्ण किया तब लगभग 10 बजे वो सज्जन पहुँचे लेकिन आश्चर्य आज फिर अकेले। अभिवादन के बाद उन्होंने बताया पिछ्ले कई कार्यक्रमों में वो टीम के साथ काम कर चुके हैं किंतु वो सभी लोग........................ थे। इसलिए वे अकेले ही करते हैं और यह पहला मौका है कि वे इस अधिवेशन को देल्ही से बाहर कर रहे हैं। मैंने मुस्कुराते हुए कहा हुज़ूर जब लडकी वाला लडके वाले के शहर में बारात लेकर जाता है तो तकलीफें ज़ियादा होती हैं। उन्होंने कंधे उचकाते हुए फिर कहा मैं किसी की परवाह नही करता मैं वही करता हूँ जो मुझे ठीक लगता है। मैंने भी ज्यादा बहस में उलझना ठीक नही समझा। लगभग 11:30 पर मुख्यमंत्री महोदय पधारे, मेरी जानकारी के अनुसार उन्होंने इस कार्यक्रम के लिए 20 मिनिट्स का समय दिया था। वडोदरा (गुजरात) से मेरी प्रिय मित्र डॉक्टर राखी सिंह कटियार ने प्रथम सत्र का संचालन किया। सरस्वती वंदना के बाद कार्यक्रम शुरु हुआ।“इंस्टिट्यूट मिनेज़िज़ ब्रागांजा” के दो पदाधिकारी भी मंच पर मुख्यमंत्री के साथ डॉयस शेयर कर रहे थे। मुख्यमंत्री का सम्मान व अन्य अतिथियों के सम्मान प्र्क्रिया में जो घालमेल हुआ उससे एक बाद सिद्ध हो गई कि मुख्यमंत्री जैसी शख्सियत के आगमन के लिए कोई मिनिट टू मिनिट प्रोग्राम नही बनाया गया था। आश्चर्यजनक तौर पर जिन सज्जन को उन सज्जन का सम्मान करना था वो तो स्टेज पर हैय्यें नही तो.....तब जैसे तैसे मुख्यमंत्री महोदय असहज होते हुए भी स्थिति को सँभाल ले गये और स्वंय ही उन सज्जन का सत्कार कर दिया। जय हो!!!! इसी आपाधापी में मुख्यमंत्री अपना सम्बोधन देकर प्रस्थान कर गये। लगभग 12:15 पर श्री श्रीपाद नाईक जो कि भारत सरकार में पर्यटन राज मंत्री हैं ने पदार्पण किया, फिर वही सब कुछ पुन: घटित हुआ। केंद्रिय मंत्री डॉयस पर बैठे हुए लोगों से बात कर रहे हैं और एक महिला जबरदस्ती संचालन करने वाली विदूषी को पीछे धकिया कर माइक पर आकर घोषणा करती है कि लंच का समय हो गया है, जिनके पास कूपन हैं वे पंक्ति में लेकर खाना ग्रहण करें (मन तो करता है बढिया सी इमोजी लगाऊँ लेकिन- अफसोस दिल गड्ढे में) मंत्री महोदय के हाव भाव से साफ प्रतीत हुआ कि उन्होंने इतनी अच्छी स्थिति की कल्पना कभी नही की थी (फिर इमोजी डालूँ क्या)। अब मैं बात करता हूँ श्री श्रीपाद नाईक जो कि भारत सरकार में पर्यटन राज मंत्री की जो स्थिर रहे (राजनीति का एक लम्बा अनुभव बहुत काम आता है) तुरंत ही अपनी बात ख्त्म की और चलने लगे चूँकि मैं वहीं पास में ही था तो मैंने अव्यवस्था के लिए अपनी ओर से माफी माँगी किंतु वाह रे अनुभव की आग में तपे हुए उस शख्स की सह्र्दयता, बडी ही आत्मियता के साथ मेरा हाथ अपने हाथ लिया और मेरा परिचय लिया फिर कहने लगे कभी कभी ऐसा हो जाता है। उनकी आत्मियता, उनकी सहजता ने मुझे अपने ही शब्द याद दिला दिये  बडा वो जो बडे जैसे काम करे” फिर कहने लगे सत्ता आज है कल नही रहना तो मुझे आप लोगों के साथ ही सो गर्व किस बात का करुँ। उनसे विदा लेते समय एक सकारात्मक उर्जा मुझमें भी भर गई।

 


दूसरे सत्र का संचालन ऋचा सिन्हा, मुम्बई से तशरीफ लाई  हुई विदूषी ने किया। दूसरे सत्र के मध्य में मैं पानी पीने बाहर गया तो पता चला पानी उपलब्ध नही है मैंने कारण जानना चाहा तो पता चला कि ये ज़िम्मेदारी देल्ही से आए उस  शख्स की है हमारी नही, मैंने खाने वाले का जिक्र किया तो पता चला उसे सिर्फ खाने के दौरान ही पानी की व्यवस्था करनी थी। ये स्थिति मेरे लिए हतप्रभ करने वाली थी। मेरी आदत है खाना खाने के लगभग डेढ घंटे बाद पानी की (आयुर्वेद के अनुसार) मैंने इधर उधर देखा पानी कहीं नही मैं तुरंत “इंस्टिट्यूट मिनेज़िज़ ब्रागांजा” के कार्यालय में गया और वहाँ उपस्थित स्टॉफ से पानी का इंतेजाम करने को कहा । मुझे वही घिसा पिटा जवाब मिला ये हमारा काम नही है ये उस संस्था का काम है जिसका ये प्रोग्राम है, कल अम्बेडकर जी के प्रोग्राम में भी उन्हीं लोगों ने सब इंतेज़ाम किये थे, तभी उसी इंस्टीट्यूट की वो भद्र महिला मिल गई जो कि मुख्यमंत्री के साथ डॉयस पर बैठी थी। मैंने कहा मैम पानी के लिए भी इतनी मनुहार करनी पड रही है अगर आप उचित समझें तो मैं पैसा देता हूँ कृपया आप बस व्यव्स्था करा दें। उन्होंने हाँ में गर्दन हिलायी और अगले एक घंटे में पानी का इंतेज़ाम 15-16 अप्रैल दोनों दिनों के लिए कर दिया गया अजीब बात ये थी कि तभी उस संस्था के वो सज्जन भी आ धमके मैंने जब वस्तु स्थिति बताई तो बोले अरे पानी का क्या है बाजार से खरीद लो और पी लो। उनकी इस बेढंगी बात से मैं थोडा असहज हो गया किंतु जल्दी ही स्वंय पर काबू पा लिया और निश्चय किया कि इस व्यक्ति से कोई बात नही करनी है वरना बेकार में झगडा हो जाएगा जब कि वो सज्जन लगातार मंच से ही आये हुए साहित्यकारों के साथ जिस तरह पेश आ रहे थे मुझे किसी अनहोनी की आशंका होने लगी थी। खैर दूसरा सत्र जैसे तैसे सम्पन्न हुआ। बाद में घोषणा हुई कि कल जो लोग क्रूज़ पर जाना चाहते हैं वे अपना रजिस्ट्रेशन रुपये 800/- प्र्त्येक व रुपये 1500/- दो व्यक्तियों के लिए कर सकते हैं जब कि उसी शाम को चंद कदमों की दूरी पर दो दो क्रूज़ खडे हैं और एजेंट आवाज़ लगाकर बता रहे हैं रुपये 500/ प्रति व्यक्ति , अगर दस टिकिट हैं तो एक टिकिट फ्री। (फिर इच्छा हो रही है हँसते हुए इमोजी लगाने की)।दो सत्रो के समापन के बाद मैं और मेरी मित्र दोनों मित्रों ने चाय वगैरह पी और फिर शुरु हुआ उसी जगह मस्ती करने का प्रोग्राम जहाँ एजेंट 500/- प्रति की आवाज़ लगा रहा था। मस्ती के बाद बढिया खाना खाकर दोनों मित्रों को विदा दिया और मैं लगभग 2-3 किलोमीटर दूर ऊँचाई पर स्थित सर्किट हाउस की ओर खरामा खरामा चल दिया




अगले दिन तीसरा सत्र लगभग 11 बजे शुरु हुआ। मेरी निगाहें हॉल में अपनी दोनों मित्रों को ढूँढे जा रही थी किंतु वे नदारद थी। मैंने अनुभव किया कि कल के मुकाबले आज लोग कम भी हैं और कुछ कुछ नाराज़ भी लग रहे हैं। लगभग एक घंटे बाद मेरे मोबाइल की घंटी बजी। मित्र ने कहा पीछे आ जाओ मैंने सुना नीचे आ जाओ ( फिर इच्छा हो रही इमोजी की) मैं तुरंत इस आशंका से कि शायद उन्हें टैक्सी वाले को खुले पैसे देने हैं मैं नीचे पहुँचा वो कहीं नही, पाँच मिनिट बाद फोन किया तब समझ में आया नीचे नही पीछे। खैर ऊपर पहुँचकर देरी का कारण पूछा तो उन्होंने जो बताया वो निश्चित रुप से हतप्रभ करने वाला था वे बोली सुबह सुबह उन साहब ने आदेश दिया कि ये होट्ल खाली करके दूसरी जगह जाना है, समय शायद पंद्रह मिनिट दिया । उस पर तुर्रा यह कि वो दूसरे होटल में सामान पुराने होटल में । बात करो तो उल्टे सीधे जवाब सो उन दोनों का मूड भयंकर खराब था और इसी खराब मूड में उन्होंने अपना जाने का टिकिट प्रीपोंड करा लिया। मेरी जानकारी में तीन हजार एक टिकिट का (गई भैस पानी में) कैंसिलेशन चार्ज होता है। मैंने कहा फिर वो कल जो बस की हुई है एक हजार प्रति की गोवा दर्शन की उन्होंने कहीं नही जाना है। उन दोनों के चेहरे के हाव भाव देखकर मैंने भी ज्यादा प्रश्न नही पूछे शायद डर था अगर पूछता तो वो उस बंदे का गुस्सा मुझ पर उतार देती या हो सकता है मेरा कत्ल ही कर देती और गोवा के अखबारों में अगले दिन खबर छपती  दो महिला मित्रों ने

 




एक निरह मित्र का कत्ल कर दिया। (जस्ट इमेजिन -इमोजी अब खुदई लग जाओ भाई) दूसरे सत्र में देश के विभिन्न भागों से आए हुए साहित्यकारों द्वारा कविता पाठ/गीत गज़ल की प्रस्तुति दी गई। और लो जी हो गया लंच टाईम और भगदड शुरु। 15 अप्रैल को सुबह ही कूपन दे दिये गये थे लेकिन 16 को लंच की घोषणा होने के बाद बाँटने शुरु किये। मैंने भी अपना कूपन लेने के लिए उधर ही कदम बढाए ( वैसे व्यक्तिगत तौर पर मुझे ये सिस्टम ठीक प्रतीत नही होता) तभी कूपन द्वार पर मेरी मित्र को कूपन धर्ता ने उन्हें अपना नम्बर बताने को कहा चूँकि वे शुगर पेशंट है इसलिए वो थोडा असहज हो रही थी उन्होंने कहा मुझे याद नही तो कूपन धर्ता ने कहा बाहर लिस्ट लगी है पता कर आईये। बस मेरी मित्र की सहन शक्ति जवाब दे गई और वे गुस्से में दूसरी ओर चली गई वो तो भला हो एक स्टूडेंट का जिसने अपने कूपन से उन्हें खाना लेकर दिया। यहाँ यह विशेष है कि वो मुख्यमंत्री के आगमन पर कार्यक्रम का संचालन कर रही थी तो क्या वे दो भद्र महिलाएं व एक नेक पुरुष जो कूपन द्वार पर विराजमान थे , उन्हें नही पहचानते थे? मुझे इस बात पर क्रोध आ गया और मैंने उन तीनों को ही खरी खोटी सुना दी।  तभी काफी जोर जोर बोलने की आवाज़ आने लगी पता चला राज्स्थान से एक मोहतरमा आई हैं पहले तो वे होटल की अदला बदली से नाराज़ थी फिर स्टेज पर जिनके द्वारा सम्मानित किया जा रहा था वे उनके स्तर को लेकर नाराज़ थी और गुस्से में उन भद्र महिला ने बताया कि उन्हें उनके मित्रों ने इस प्रोग्राम में आने के लिए मना किया था किंतु बच्चों को घुमाने के उद्देश्य से वे ये मौका नही छोडना नही चाहती जब कि उनके मित्रो ने कहा था पछताने का शौक है तो जाकर आओ फिर बैठकर खूब पछताना। ऐसा तो अन्य लोग जो इस संस्था के प्रोग्राम पहले अटैंड कर चुके थे यही राय रख रहे थे। खाने के बाद हमने तय किया कि कार्यक्रम समाप्ति के बाद हम एक गाडी लेंगे गोवा घुमेंगे व मैं उन्हें एयर पोर्ट पर 10:30 छोडूँगा क्यों कि उनकी फ्लाइट रात्रि 12:25 की थी।

चौथा यानि अंतिम सत्र स्टेज पर वही संस्था के एक मात्र कर्ता धर्ता उनके साथ दो तीन महिलाएं कुर्सियों पर पंक्तिबद्ध होकर बैठ गये और घोषणा हुई कि जैसे जैसे नाम पुकारा जाए लोग आएं और अपना प्रमाण-पत्र व ट्रॉफी प्राप्त कर लें। मुझे देखकर आश्चर्य हुआ ये वही ग्रुप स्टेज पर बैठा है जो कल पहले सत्र से लगातार अवस्थाओं का जिम्मेवार है। या ये कहूँ तो ज्यादा अच्छा होगा कि व्यव्स्था के पूरी तरह से चरमराने का श्रेय इसी ग्रुप को जाता है। मतलब कल से आज तक कनिष्ठ वरिष्ठ कोई सरोकार नही रहा। मैंने तय किया कि ऐसी संस्था से मुझे न तो प्रमाण पत्र चाहिए और न ही कोई स्मृति चिन्ह। बंगलौर से आई डॉक्टर मानसी जब अपना स्मृति चिन्ह व प्रमाण -पत्र लेकर आई तो जिज्ञासा वश मैंने उनसे दिखाने का अनुरोध किया उन्होंने बडे ही अनमने मन से मुझे दिखाया तो मैंने पाया कि प्रमाण-पत्र में नाम की जगह रिक्त स्थान ने ले रखी थी साथ ही स्मृति चिन्ह में भी प्रतिभागी के नाम का कहीं उल्लेख नही था। उन्होंने बडी ही कातर दृष्टी से मुझे देखा मैंने उन्हें दोनों चीज़े वापिस करते हुए पूछा क्या आप विरोध दर्ज कराएंगी जिसका उन्होंने कोई उत्तर नही दिया तब तक मेरी मित्र मेरी मनोस्थिति को शायद अच्छे से समझ गई थीं। इसलिए वे बार बार मेरा हाथ दबाकर शांत होने को कह रही रही थीं। पिछ्ले दो दिनों में मेरे मनमौजी/मस्त व्यव्हार को शायद वो खोना नही चाहती थीं। मैंने उन्हें कहा मैं उन महाशय से अकेले में बुलाकर अपना विरोध तो दर्ज करा दूँ। वे मान गई, और मैंने  स्टेज की ओर अपने कदम बढाए और स्टेज पर हाल बिलकुल देल्ही की जनपथ लेन वाला था, सब माल मिलेगा 100 रुप्य्या” यानि आते जाईये प्रमाण-पत्र व स्मृति चिन्ह लेते जाईये, प्रमाण-पत्र में घर जाकर जिस रंग की कलम से अपना नाम लिखना चाहें लिखते जाइये। इसे कहते हैं बेहूदगी की पराकाष्ठा।मैंने स्टेज के नजदीक जाकर धीरे से उन सज्जन से कहा कि मुझे आपसे आवश्यक बात करनी है, उन्होंने अनसुसा कर दिया, पुन: कहा तो बोले यही कह दें मैं वयस्त हूँ। मैंने फिर कहा ये ठीक नही होगा वे फिर बोले बोल भी दीजिए। मैंने कहा जैसी आपकी मर्ज़ी महाशय। अब मेरा और उनका वार्तालाप सुनिये।

 

मैं                             -           आप मुझे बतायेंगे ये सब क्या हो रहा है?

संस्था के कर्ता धर्ता        -           जो हो रहा है ठीक हो रहा है, और कुछ ?

मैं                            

आप देश के विभिन्न प्रांतो से आए साहित्यकारों के साथ ये कैसा सलूक कर रहे हैं?

संस्था के कर्ता धर्ता       

कैसा सलूक. सब ठीक ही तो है, सब खुश है|

मैं                            

कौन सी दुनियाँ में जीते हैं आप हुज़ूर, प्रमाण-पत्र बिना नाम के स्मृति चिन्ह  पर भी साहित्यकार का नाम नही है। जिन लोगों से आप साहित्यकारों को सम्मानित करवा रहे हैं क्या वे सम्मानित होने वाले साहित्यकार के आस पास भी हैं।  पिछ्ले दो दिनों की व्यवस्था कैसी रही है आप जानकर भी अंजान बन     रहें हैं, व्यव्स्था पूरी तरह चरमरा गई है या अगर मैं ये कहूँ तो ज्यादा श्रेयस्कर होगा कि आपकी संस्था की कोई व्यवस्था है ही नही और जो कि गई है उसे कू- व्यवस्था कहते हैं।   

ग्रूप की महिला सदस्य

अचानक वे मेरी ओर मुखातिब होकर बोली-क्या हम आपकी बात सुनने आएं हैं।

मैं                            

मैंने कहा जी हाँ, आप लोग कल से सुनने वाले काम ही कर रही हैं मोहतरमा तो सुननी तो पडेगी ही, लोग कहाँ कहाँ से 15-30 हजार खर्च करके इस कार्यक्रम के लिए आएं है क्यों ? क्यो कि बात भारत की राजभाषा हिन्दी को आगे बढाने की है ,इसे  देश विदेश में सम्मान दिलाने की है। और आप लोग क्या कर रहे हैं ? क्या मुख्य मंत्री को कार्यक्रम में बुलाने से हिन्दी भाषा तरक्की करेगी। कभी नही बल्कि बुलाये गये साहित्यकारों को उचित सम्मान देने से, उनकी बात को सुनने से  हिन्दी भाषा आगे  बढेगी। जिन्होंने हिन्दी की मशाल थाम रखी है। (यहाँ यह विशेष है कि जब भी कोई अपनी रचना पढने स्टेज पर आया स्टेज पर बैठे हुए लोग आपस में ही गप्पिया रहे हैं तो दर्शक दीर्घा वालो को आप कैसे शांत बैठने के लिए कहेंगे।) आप साहित्यकारों को क्या समझे बैठे हैं, जर खरीद गुलाम या उससे भी बदत्तर किंतु आपकी संस्था तो खुद उनकी दी हुई दक्षिणा से चल रही है तो आप अपना अस्तित्व खुद सँभाले। आप साहित्यकारों का सम्मान न करें चलेगा वे आपके सम्मान के भूखे भी नही है किंतु उनके प्रति अ-सम्मान तो न प्रदर्शित करें। वरना आज नही तो कल आप अपनी संस्था की दुर्गती होनी तय ही मानिये।

 

इससे पहले मैं आगे कुछ और बोलता तभी वे कोटा वाली भद्र महिला राशन पानी लेकर मंच पर विराजमान विभूतियों की बखिया उधेडने लगीं फिर तो जैसे लोग इसी इंतेज़ार में बैठे थे। काफी लोग शुरु हो गये। बाज़ी पलटते देर नही लगती। एक बात समझ में ज़रुर आ गई, बेशर्म लोगों की चमडी ग़ैंडे से भी कडी होती है। ये ऐसे भाषाई गिद्ध हैं जो अपनी मात्र भाषा के नाम पर अपनी दुकान चला रहे हैं। अपने अनुभव के आधार पर एक बार ज़रुर कह सकता हूँ इनकी गति निश्चित बडी खराब होने वाली है।

 



मैं अपनी मित्रों के साथ बाहर आया, टैक्सी की और चल पडे गोवा की सैर को। ढेर सारी मस्ती की गाने गाये, चुस्की का आनंद लिया फिर एअर पोर्ट के पास कौन सा बीच है चलो जो भी है घूमें खाना खाया और विदा कर दिया दोनों मित्रों को अगली हसीन मुलाकात तक के लिए। एक अजब इत्तेफाक और हम तीनों का ही ब्ल्ड ग्रुप O+ है (यार एक ठो इमोजी डाल ही दो)

-प्रदीप देवीशरण भट्ट-

21:04:2020