"पर्यावरण के दुश्मन"
जब पूरा विश्व केवल इज़राइल- फ़िलीस्तीन, रूस और यूक्रेन युद्ध पर ही परेशान हो रहा है, बताता चलूं कि ग्लोबल पीस इंडेक्स की 2024 की रिपोर्ट के अनुसार इस वक्त पूरे विश्व में कुल 56 युद्ध और गृह युद्ध चल रहे हैं। 1970 के दशक में 23 प्रतिशत युद्धों का अंत अंततः शांति वार्ता के जरिए ही हुआ इसमें भारत पाकिस्तान युद्ध भी शामिल है जब कि इक्कीसवीं शताब्दी के प्रथम दशक में ये आंकड़ा घटकर केवल 4 प्रतिशत रह गया है जो किसी भी दृष्टि से अच्छा नहीं है। ये तथ्य महत्वपूर्ण है कि द्वितीय विश्वयुद्ध में अमेरिका द्वारा जापान पर 6 व 9 अगस्त 1945 को हिरोशिमा एवं नागासाकी पर परमाणु बम का प्रयोग किया गया था किन्तु आज लगभग 79 वर्ष बीतने के बाद 7 देश परमाणु सम्पन्न हो गए हैं। इन देशों के पास हजारों की संख्या में परमाणु हैं। आप कल्पना कर सकते हैं कि भविष्य की स्थिति कितनी विकट होगी। एक तरफ हम पर्यावरण की रक्षा की अहद लेते हैं पेड़ काटे जाने पर जमीन आसमान एक कर देते हैं और दूसरी तरफ़ लम्बे लम्बे युद्धों में शामिल देशों को रोक नहीं पाते। पेड़ तो छोड़िए कुछ सनकी लोग अपनी 'मैं' के चलते पूरी धरती को बर्बाद कर देना चाहते हैं। फिर ये पर्यावरण बचाओ का खोखला नारा किसके लिए और क्यूँ ?
यूक्रेन जिसका पुराना नाम कीवियन रूस है और जो नवीं शताब्दी में एक बड़ा एवं शक्तिशाली देश था किन्तु 12 वीं शताब्दी तक आते आते यह देश क्षेत्रीय शक्तियों में विभाजित हो गया। 24 फ़रवरी 2022 को रूस ने यूक्रेन पर युद्ध थोप दिया। ऐसा मैं इसलिए कह रहा हूँ क्यों कि सोवियत संघ के विघटन के बाद 15 अलग अलग देश अस्तित्व में आए जिसमें से यूक्रेन भी एक अलग स्वतन्त्र देश बना। अन्य छुटपुट कारणों के अतिरिक्त जैसे ही यूक्रेन ने नाटो (नॉर्थ अटलांटिक ट्रीटी ऑर्गनाइजेशन) में शामिल होने का फैसला किया वैसे ही रूस की द्रष्टि यूक्रेन की तरफ वक्र हो गई। इसका सीधा सा कारण है यदि यूक्रेन नाटो की गोद में बैठता है तो रूस की सुरक्षा compromise होती है।नाटो की सेनाएं और रूस के मध्य में यूक्रेन है अगर यूक्रेन नाटो में शामिल होता है तो नाटो की सेनाओं की सीमा सीधे सोवियत रूस से लग जाएंगी। बस रूस के राष्ट्रपति ब्लादिमीर पुतिन इसी बात से असहज हो गये। रूठने से लेकर मनाने तक के जब सभी जतन बेकार हुए तो 24 फ़रवरी को रूस ने यूक्रेन पर सीधे हमला कर दिया। इसकी आशंका पूरे विश्व को पहले से थी किन्तु इसमें अमेरिका अपने हित देख रहा था और यूरोपीय देश अपने। रूस के राष्ट्रपति ब्लादिमीर पुतिन जहाँ kjb से हैं वहीं यूक्रेन के राष्ट्रपति जेलेंस्की की पहचान एक कॉमेडियन की रही है। दुनिया के सभी देशों को विश्वास था कि यूक्रेन 10-15 दिन में निपट जाएगा या सरेंडर कर देगा किन्तु ढाई वर्ष बीतने के बाद भी दोनों देश अपनी अपनी ताकत दिखाने में लगे हैं।
इस युद्ध से निश्चित सोवियत रूस एवं यूक्रेन का भारी नहीं वरन भारी भरकम नुकसान हुआ है। यूक्रेन अपनी जिद छोड़ने के लिए तैय्यार नहीं है और सोवियत रूस अपनी। खामियाज़ा दोनों देशों की जनता भुगत रही है। इस युद्द में निश्चित नुकसान का आकलन करना तो मुश्किल है किन्तु इस युद्द से किस देश ने कितना प्रॉफिट अर्न किया है उसका अंदाज़ा लगाया जा सकता है। अमेरिका यूरोपीय यूनियन एवं कई अन्य देशों ने अपने कचरा बन गए हथियारों को यूक्रेन को बेच दिया। एक खबर काफी प्रचलित रही की अमेरिका ने अपने F16 बम वर्षक विमान यूक्रेन को दे दिए किन्तु वो विमान पुरानी पीढ़ी के निकले। अगर व्यापारिक द्रष्टि से देखें तो अमेरिका ने अपना कबाड़ यूक्रेन को बेचकर अपनी चांदी कर ली किन्तु वो सारा कबाड़ सोवियत रूस की स्मार्ट टेक्नोलॉजी के आगे धराशायी हो गया। जब ढाई साल से लगातार युद्ध चल रहा है तो मिसाइल हो या रॉकेट या फिर टैंक गोला बारूद खत्म तो होना ही है सो यूक्रेन की मदद जहाँ अमेरिका एवं यूरोपियन डेनमार्क नार्वे नीदरलैंड के अतिरिक्त पाकिस्तान ने भी करने की कोशिश। वहीं सोवियत रूस को भी हथियारों की सप्लाई चीन एवं तुर्की जैसे देश कर रहे थे। इन देशों ने भी हथियारों की सप्लाई कर चांदी काटने की कोशिश की । चीन तुर्की को तो कुछ कामयाबी मिली भी किन्तु पाकिस्तान के साथ "ना ख़ुदा ही मिला न विसाल ए सनम, न इधर के रहे न उधर के रहे" वाली कहावत चरितार्थ हो गई। पाकिस्तान भारत की तरह रूस से कच्चा तेल लेना चाहता था किन्तु जब रूस को जानकारी हुई कि पाकिस्तान यूक्रेन को हथियार सप्लाई कर रहा है तो बात कुछ ज्यादा ही बिगड़ गई। एक अनुमान के अनुसार 24 फ़रवरी 2022 से अभी तक इस युद्द में यूक्रेन को 55 बिलियन डॉलर का नुक़सान हुआ है।
उपरोक्त के अतिरिक्त एक विशेष बात का ज़िक्र करना लाज़िमी है। 2011 में प्रसिद्ध डॉक्यूमेंट्री निर्माता मैक्स वेक्स्टर ने एक फ़िल्म बनाने का निर्णय लिया कारण वे बढ़ती उम्र के बदलावों से परेशान थे। फ़िल्म का नाम था "How to live for ever" मैक्स ने बढ़ती उम्र के कईं लोगों से बात की और जानने की कोशिश की कि वे अपने जीवन में सबसे ज्यादा कब खुश हुए थे। एक सौ वर्ष पार कर चुके व्यक्ति का उत्तर सबसे बेहतरीन एवं उत्साह वर्धक था। उसने कहा 11 नवंबर 1918 का दिन जिस दिन जब उत्तर फ्रांस के क़स्बे
कॉपिगने में युद्ध समाप्ति पर हस्ताक्षर हुए थे। यहाँ य़ह उधृत करना भी जरूरी है कि 1914 से 1918 तक चले प्रथम विश्वयुद्ध में 2 करोड़ से ज्यादा लोग मारे गए थे घायलों की गिनती का तो अंदाज़ा ही नहीं है और माल असबाब के नुक़सान की भरपाई तो की ही नहीं जा सकती। प्रथम विश्वयुद्ध के बाद यूक्रेन स्वतन्त्र देश की हैसियत में आ गया। जार शासन को सत्ता से बेदखल कर ब्लादिमीर के volsheviko ने सत्ता हथिया कर यूक्रेन को खत्म करने पर ध्यान केंद्रित किया और अंततः यूक्रेन के हिस्से में हार आई। 1921 तक आते आते यूक्रेन सोवियत रिपब्लिक का हिस्सा बन गया। ब्लादिमीर से लेकर जोसेफ स्टालिन की फाईवे स्टेक्स ऑफ ग्रेन की नीति के कारण यूक्रेन की अर्थव्यवस्था पूरी तरह चौपट हो गई। भुखमरी के कारण हालात काबू से बाहर हो गए इन्हीं सब के बीच लोग घास कुत्ते बिल्ली खाने पर मजबूर हुए। 1932 से 1933 तक होल्डडॉमोर में 39 लाख लोग मारे गए या शासन द्वारा नरसंहार किया गया। पिछले ढाई साल के युद्ध में अभी तक ये स्थिति उत्पन्न नहीं हुई है लेकिन लोग तो लगातर मारे जा रहे हैं न।
अब बात करते हैं इजराइल और फिलिस्तीन के झगडे की। दोनों के बीच इनके झगड़े की शुरुआत 1917 से शुरू हुई। जब तत्कालीन ब्रिटिश विदेश सचिव ऑर्थर जेम्स बेल्फॉर ने बेल्लफॉर घोषणा के तहत फ़िलीस्तीन में यहूदियों के लिए नेशनल होम के लिए ब्रिटिश राज्य की तरफ से आधिकारिक समर्थन व्यक्त किया गया। 1914 में प्रथम विश्वयुद्ध (28 जुलाई-1914 से 11 नवंबर-1918 ) की शुरुआत हो चुकी थी ब्रिटिश आर्मी भी युद्द में मसरूफ थी नाजियों द्वारा यहूदियों पर चरम सीमा पर अत्याचार किए जा रहे थे तभी बेल्फोर्ड डिक्लेरेशन की घोषणा हो गई जिसके बाद यहूदियों ने फ़िलीस्तीन में व्यापक पैमाने पर जमीन खरीदना शुरू कर दिया। सच पूछा जाए तो अंग्रेजों ने 1947 में जो भारत के साथ किया उसका एक्सपेरिमेंट उन्होंने 30 वर्ष पहले यहूदियों और इजराइल के साथ कर दिया था। इज़राइल और फिलिस्तीन का झगड़ा एक अनिवार्य फ़िलीस्तीन के संघर्ष और आत्म निर्णय के अधिकार को लेकर सैन्य और राजनैतिक संघर्ष है। संघर्ष के मेन मुद्दों में वेस्ट बैंक और गाजा पट्टी पर इज़राइल का कब्जा, यरुशलम की स्थिति, इजराइली बस्तियां, सीमा निर्धारण, जल अधिकार परमिट व्यवस्था, फिलिस्तीन आन्दोलन फिलिस्तीन वापसी का अधिकार वगैरह वगैरह।
1917 से लेकर 7 अक्तुबर 2021 तक इज़राइल ने न जाने कितने छुटपुट युद्द किए हैं। किन्तु 7 अक्टूबर 2023 को फ़िलीस्तीनी हमलावरों द्वारा हमास के संरक्षण में दक्षिणी इज़राइल पर बड़े पैमाने पर हमला किया गया यहां ये उल्लेखनीय है कि जिस दिन ये हमला किया गया उस दिन यहूदी पूरा दिन शान्ति प्रार्थना में बिताते हैं हथियार रखना या चलाना एक तरह से वर्जित है। इस हमले से इज़राइल सकते में आ गया जवाबी कार्यवाही शुरू हुई और फ़िर विश्व ने इज़राइल का वो रूप देखा जिसे आज तक किस्सों कहानियों में यदा कदा सुना जाता था। गाजा पट्टी में फिलिस्तीनियो ने हमास द्वारा बिछाए गए सुरंगों के जाल से इज़राइल को बहुत परेशान किया किन्तु टेक्नोलॉजी के बूते इज़राइल इन सब संकटो पर पूर्व की तरह भारी ही पड़ रहा है। इज़राइल की आक्रमकता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि शुरुआती झटकों से उबरकर गाजा पट्टी में छ: दिनों में लगभग छ: हजार बम गिराए तत्पश्चात सम्पूर्ण गाजा पट्टी की नाकाबंदी कर गाजा पट्टी पर कब्जा करने के लिए पैदल सेना उतार दी। लगभग दस महीने की लड़ाई में एक तरफ़ इज़राइल अर्जुन की तरह अकेला खड़ा है उसका अगर कोई सहायक है तो वो अमेरिका है। भारत तठस्त की भूमिका में है। इन्हीं सब के बीच ईरान ने इज़राइल के खिलाफ़ कुछ उल्टा सीधा करने की कोशिश की तो इज़राइल के एक ही वार से उसके राष्ट्रपति जन्नत सिधार गए ,के अतिरिक्त भी ईरान को काफ़ी हानि उठानी पड़ी है। विश्व के सभी देश भली भाँति जानते हैं कि फ़िलीस्तीन लेबनान के आतंकी गुटों को परोक्ष रूप से ईरान ही पोषित कर रहा है अन्यथा क्या कारण है कि हिज्बुल्ला की अपनी एक अलग घातक आर्मी बन गई। ताजातरीन घटना पर दृष्टिपात करें तो पाएंगे कि इज़राइल समय से 2 से 4 साल आगे की सोच कर चलता है। सितम्बर 2024 में हुए पेजर धमाके फिर वाकी टॉकी धमाके इसी ओर इशारा कर रहे हैं कि कैसे इज़राइल ने इसके ऊपर 2022 से ही कार्य शुरू कर दिया था जिसका परिणाम हिज्बुला के कोर कमांडर को मार कर उसने पूरा कर दिया। आश्चर्य की बात ये है कि रूस जो शेष विश्व के देशों के लिए स्वयं यूक्रेन युद्ध का खलनायक है वह मास्को में बैठकर इज़राइल फ़िलीस्तीन पर विशेष टिप्पणी दे रहा है जरा बानगी देखिए:-
"चिंगारी भड़काना आसान है, बहुत आसान है। वहाँ जो घटनाएँ हो रही हैं, उन्हें देखते हुए करना आसान है।जब आप पीड़ित और खून से लथपथ बच्चों को देखते हैं तो आपकी मुट्ठीयां भीच जाती हैं और आँखों में आँसू आ जाते हैं। यह किसी भी समान्य व्यक्ति की प्रतिक्रिया है। अगर ऐसी कोई प्रतिक्रिया नहीं है तो उस व्यक्ति के पास दिल नहीं है वह पत्थर का बना हुआ है।"
उपरोक्त पंक्तियों को पढ़कर मुझे सिर्फ़ हँसी आती है। जो व्यक्ति स्वयं पिछले ढाई वर्ष से यूक्रेन से "युद्धम शरणम गच्छामी" खेल रहा हो वह फ़िलीस्तीन का पक्ष लेकर इज़राइल पर दोषारोपण कैसे कर सकता है। जितनी जाने इज़राइल फ़िलीस्तीन हमास हिज्बुला में गई हैं उससे सैकड़ों गुना जाने रूस यूक्रेन युद्ध में अब तक जा चुकी हैं। यहाँ सिर्फ़ जान के नुक़सान का आकलन है माल असबाब का आकलन सम्भव ही नहीं। रूस यूक्रेन युद्ध से पूरा विश्व पहले जहाँ चटकारे लेकर खबरें परोस रहा था अब वह भी इन खबरों को परोस कर
फेडअप हो चुका है। खबर कोई भी हो ज्यादा दिन तक खबर में रहे तो वह खबर नहीं रहती। रूस यूक्रेन युद्ध की खबरों का हाल कुछ ऐसा ही हो चुका है। इन खबरों का कोई खरीदार ही नहीं। दोनों देशों के असहले खत्म हो चुके हैं उधार के हथियारों से तो युद्ध जीते नहीं जा सकते अलबत्ता दोनों देशों की अर्थव्यवस्था अवश्य रसातल में पहुँच गई है। कुछ दिनों में इज़राइल फिलिस्तीन हिज्बुल को भी समझ आ ही जाएगा लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी होगी। यूरोपियन देशों एवं अमेरिका को रूस ही गैस एवं तेल सप्लाई कर रहा था। रूस द्वारा प्रतिकार स्वरुप गैस सप्लाई बाधित कर दी गई तो पिछली दो सर्दियों में यूरोप कितना परेशान हुआ है ये जग जाहिर है। अटल जी की पँक्ति याद आ गई "चिंगारी का खेल बुरा होता है"
अब अमेरिका यूरोप सहित संयुक्त राष्ट्र के पावरफूल देश चाहते हैं कि भारत के प्रधानमंत्री मोदी इस युद्ध को रुकवाएं क्यों कि उन्हें पता है कि आज विश्व पटल पर अगर कोई एक शक्तिशाली नेता है तो वो मोदी ही हैं जिनकी स्वीकार्यता यूक्रेन और रूस के नेताओं में बराबर है। इसका प्रमाण भी पूरी दुनिया देख चुकी है जब भारत ने युद्धरत रूस यूक्रेन के नेताओं से बात कर निश्चित समय के लिए युद्ध रुकवाकर भारत के नागरिकों के साथ साथ अन्य देशों के नागरिकों को भी भारतीय तिरंगे की छत्रछाया में सकुशल घर पहुंचवाया था। अमेरिका एवं अन्य यूरोपीय देश स्वयं इज़राइल एवं हिज्बुला के मध्य जारी युद्ध रुकवाने की कोशिश नाम मात्र भी नहीं कर रहे हैं। आखिर ये दोहरी नीति क्यूँ? क्यूँ बार बार ये सुनने और पढ़ने में आता है कि अमेरिका हो या फिर यूरोपीय देश ये सिर्फ़ युद्ध भड़काना जानते हैं समेटना नहीं। अपने फायदे के लिए ये देश किसी भी सीमा तक चले जाते हैं फिर चाहे इसके लिए इन्हें तख्ता पलट ही क्यूँ न करना पड़े। अभी हाल ही में दो छोटे अफ्रीकी देशों ने उन देशों के साथ हो रहे इस प्रकार की घटनाओं का जिक्र किया है। सबसे ताजातरीन मामला बांग्लादेश का निकल कर सामने आ गया है। बांग्लादेश की कामचलाऊ सरकार के मुखिया संयुक्तराष्ट्र की सभा में जाते हैं तो स्वीकार करते हैं कि शेख हसीना के खिलाफ़ जबरदस्त साज़िश रची गई। ये खबर भी निकल कर आई कि अमेरिका बांग्लादेश में सैनिक अड्डा स्थापित करना चाहता था जब वह सफल नहीं हुआ तो उसने बांग्लादेश में तख्ता पलट करा दिया।अमेरिका तो कामयाब हो गया किन्तु उसमें पिसा और प्रताड़ित हुआ केवल हिन्दू।
ताजा खबर के अनुसार अमेरिका और यूरोपियन यूनियन इज़राइल और लेबनान हिज्बुलाह के बीच 21 दिन का युद्ध विराम चाहती है किन्तु बेंजामिन नेतनयाहू ने इसके लिए साफ साफ इंकार कर दिया। इज़राइल का इतिहास रहा है कि वह अपने दुश्मनों के प्रति निर्मम रहा है इसलिए ये कहना जल्दबाज़ी होगी इज़राइल अपनी संप्रभुता के साथ कोई समझोता कर लेगा क्यों कि ये उसका स्टाईल नहीं है। जब तक वह हिज्बुलाह को समाप्त नहीं कर देता तब तक इज़राइल इस युद्ध में कोई युद्द विराम लागू नहीं होने देगा। इस स्थिति को देखते हुए भारत ने लेबनान में रहने वाले भारतीयों को एडवायजरी जारी कर दी है कि वे जल्द से जल्द लेबनान छोड़ दें। हम जैसे पर्यावरण प्रेमी सिर्फ़ प्रार्थना ही कर सकते हैं कि ईश्वर हमें इन पर्यावरण के दुश्मनों से बचाए !
प्रदीप डीएस भट्ट
लेखक-9410677280