Tuesday, 24 September 2024

"पर्यावरण के दुश्मन"

  
      "पर्यावरण के दुश्मन"
 
         जब पूरा विश्व केवल इज़राइल- फ़िलीस्तीन, रूस और यूक्रेन युद्ध पर ही परेशान हो रहा है, बताता चलूं कि ग्लोबल पीस इंडेक्स की 2024 की रिपोर्ट के अनुसार इस वक्त पूरे विश्व में कुल 56 युद्ध और गृह युद्ध चल रहे हैं। 1970 के दशक में 23 प्रतिशत युद्धों का अंत अंततः शांति वार्ता के जरिए ही हुआ इसमें भारत पाकिस्तान युद्ध भी शामिल है जब कि इक्कीसवीं शताब्दी के प्रथम दशक में ये आंकड़ा घटकर केवल 4 प्रतिशत रह गया है जो किसी भी दृष्टि से अच्छा नहीं है। ये तथ्य महत्वपूर्ण है कि द्वितीय विश्वयुद्ध में अमेरिका द्वारा जापान पर 6 व 9 अगस्त 1945 को हिरोशिमा एवं नागासाकी पर परमाणु बम का प्रयोग किया गया था किन्तु आज लगभग 79 वर्ष बीतने के बाद 7 देश परमाणु सम्पन्न हो गए हैं। इन देशों के पास हजारों की संख्या में परमाणु हैं। आप कल्पना कर सकते हैं कि भविष्य की स्थिति कितनी विकट होगी। एक तरफ हम पर्यावरण की रक्षा की अहद लेते हैं  पेड़ काटे जाने पर जमीन आसमान एक कर देते हैं और दूसरी तरफ़ लम्बे लम्बे युद्धों में शामिल देशों को रोक नहीं पाते। पेड़ तो छोड़िए कुछ सनकी लोग अपनी 'मैं' के  चलते  पूरी धरती को बर्बाद कर देना चाहते हैं। फिर ये पर्यावरण बचाओ का खोखला नारा किसके लिए और क्यूँ ?

        यूक्रेन जिसका  पुराना नाम कीवियन रूस है और जो नवीं शताब्दी में एक बड़ा एवं शक्तिशाली देश था किन्तु 12 वीं शताब्दी तक आते  आते यह देश क्षेत्रीय शक्तियों में विभाजित हो गया। 24 फ़रवरी  2022 को रूस ने यूक्रेन पर युद्ध थोप दिया। ऐसा मैं इसलिए कह रहा हूँ क्यों कि सोवियत संघ के विघटन के बाद 15 अलग अलग देश अस्तित्व में आए जिसमें से यूक्रेन भी एक अलग स्वतन्त्र देश बना।  अन्य छुटपुट कारणों के अतिरिक्त जैसे ही यूक्रेन ने नाटो (नॉर्थ अटलांटिक ट्रीटी ऑर्गनाइजेशन) में शामिल होने का फैसला किया वैसे ही रूस की द्रष्टि यूक्रेन की तरफ वक्र हो गई। इसका सीधा सा कारण है यदि यूक्रेन नाटो की गोद में बैठता है तो रूस की सुरक्षा compromise होती है।नाटो की सेनाएं और रूस के मध्य में यूक्रेन है अगर यूक्रेन नाटो में शामिल होता है तो नाटो की सेनाओं की सीमा सीधे सोवियत रूस से लग जाएंगी। बस रूस के राष्ट्रपति ब्लादिमीर पुतिन इसी बात से असहज हो गये। रूठने से लेकर मनाने तक के जब सभी जतन बेकार हुए तो 24 फ़रवरी को रूस ने यूक्रेन पर सीधे हमला कर दिया। इसकी आशंका पूरे विश्व को पहले से थी किन्तु इसमें अमेरिका अपने हित देख रहा था और यूरोपीय देश अपने। रूस के राष्ट्रपति ब्लादिमीर पुतिन जहाँ kjb से हैं वहीं यूक्रेन के राष्ट्रपति जेलेंस्की की पहचान एक कॉमेडियन की रही है। दुनिया के सभी देशों को विश्वास था कि यूक्रेन 10-15 दिन में निपट जाएगा या सरेंडर कर देगा किन्तु ढाई वर्ष बीतने के बाद भी दोनों देश अपनी अपनी ताकत दिखाने में लगे हैं।

        इस युद्ध से निश्चित सोवियत रूस एवं यूक्रेन का भारी नहीं वरन भारी भरकम नुकसान हुआ है। यूक्रेन अपनी जिद छोड़ने के लिए तैय्यार नहीं है और सोवियत रूस अपनी। खामियाज़ा दोनों देशों की जनता भुगत रही है। इस युद्द में निश्चित नुकसान का आकलन करना तो मुश्किल है किन्तु इस युद्द से किस देश ने कितना प्रॉफिट अर्न किया है उसका अंदाज़ा लगाया जा सकता है। अमेरिका यूरोपीय यूनियन एवं कई अन्य देशों ने अपने कचरा बन गए हथियारों को यूक्रेन को बेच दिया। एक खबर काफी प्रचलित रही की अमेरिका ने अपने F16 बम वर्षक विमान यूक्रेन को दे दिए किन्तु वो विमान पुरानी पीढ़ी के निकले। अगर व्यापारिक द्रष्टि से देखें तो अमेरिका ने अपना कबाड़ यूक्रेन को बेचकर अपनी चांदी कर ली किन्तु वो सारा कबाड़ सोवियत रूस की स्मार्ट टेक्नोलॉजी के आगे धराशायी हो गया। जब ढाई साल से लगातार युद्ध चल रहा है तो मिसाइल हो या रॉकेट या फिर टैंक गोला बारूद खत्म तो होना ही है सो यूक्रेन की मदद जहाँ अमेरिका एवं यूरोपियन डेनमार्क नार्वे नीदरलैंड के अतिरिक्त पाकिस्तान ने भी करने की कोशिश। वहीं सोवियत रूस को भी हथियारों की सप्लाई चीन एवं तुर्की जैसे देश कर रहे थे। इन देशों ने भी हथियारों की सप्लाई कर चांदी काटने की कोशिश की । चीन तुर्की को तो कुछ कामयाबी मिली भी किन्तु पाकिस्तान के साथ "ना ख़ुदा ही मिला न विसाल ए सनम, न इधर के रहे न उधर के रहे" वाली कहावत चरितार्थ हो गई।  पाकिस्तान भारत की तरह रूस से कच्चा तेल लेना चाहता था किन्तु जब रूस को जानकारी हुई कि पाकिस्तान यूक्रेन को हथियार सप्लाई कर रहा है तो बात कुछ ज्यादा ही बिगड़ गई। एक अनुमान के अनुसार 24 फ़रवरी 2022 से अभी तक इस युद्द में यूक्रेन को 55 बिलियन डॉलर का नुक़सान हुआ है।

         उपरोक्त के अतिरिक्त एक विशेष बात का ज़िक्र करना लाज़िमी है। 2011 में प्रसिद्ध डॉक्यूमेंट्री निर्माता मैक्स वेक्स्टर ने एक फ़िल्म बनाने का निर्णय लिया कारण वे बढ़ती उम्र के बदलावों से परेशान थे। फ़िल्म का नाम था  "How to live for ever" मैक्स ने बढ़ती उम्र के कईं लोगों से बात की और जानने की कोशिश की कि वे अपने जीवन में सबसे ज्यादा कब खुश हुए थे। एक सौ वर्ष पार कर चुके व्यक्ति का उत्तर सबसे बेहतरीन एवं उत्साह वर्धक था। उसने कहा 11 नवंबर 1918 का दिन जिस दिन जब उत्तर फ्रांस के क़स्बे 
कॉपिगने में युद्ध समाप्ति पर हस्ताक्षर हुए थे। यहाँ य़ह उधृत करना भी जरूरी है कि 1914 से 1918 तक चले प्रथम विश्वयुद्ध में 2 करोड़ से ज्यादा लोग मारे गए थे घायलों की गिनती का तो अंदाज़ा ही नहीं है और माल असबाब के नुक़सान की भरपाई तो की ही नहीं जा सकती। प्रथम विश्वयुद्ध के बाद यूक्रेन स्वतन्त्र देश की हैसियत में आ गया। जार शासन को सत्ता से बेदखल कर ब्लादिमीर के volsheviko ने सत्ता हथिया कर यूक्रेन को खत्म करने पर ध्यान केंद्रित किया और अंततः यूक्रेन के हिस्से में हार आई। 1921 तक आते आते यूक्रेन सोवियत रिपब्लिक का हिस्सा बन गया। ब्लादिमीर से लेकर जोसेफ स्टालिन की फाईवे स्टेक्स ऑफ ग्रेन की नीति के कारण यूक्रेन की अर्थव्यवस्था पूरी तरह चौपट हो गई। भुखमरी के कारण हालात काबू से बाहर हो गए इन्हीं सब के बीच लोग घास कुत्ते बिल्ली खाने पर मजबूर हुए। 1932 से 1933 तक होल्डडॉमोर में 39 लाख लोग मारे गए या शासन द्वारा नरसंहार किया गया। पिछले ढाई साल के युद्ध में अभी तक ये स्थिति उत्पन्न नहीं हुई है लेकिन लोग तो लगातर मारे जा रहे हैं न।

        अब बात करते हैं इजराइल और फिलिस्तीन के झगडे की। दोनों के बीच इनके झगड़े की शुरुआत 1917 से शुरू हुई। जब तत्कालीन ब्रिटिश विदेश सचिव ऑर्थर जेम्स बेल्फॉर ने बेल्लफॉर घोषणा के तहत फ़िलीस्तीन में यहूदियों के लिए नेशनल होम के लिए ब्रिटिश राज्य की तरफ से आधिकारिक समर्थन व्यक्त किया गया। 1914 में प्रथम विश्वयुद्ध (28 जुलाई-1914 से 11 नवंबर-1918 ) की शुरुआत हो चुकी थी ब्रिटिश आर्मी भी युद्द में मसरूफ थी नाजियों द्वारा यहूदियों पर चरम सीमा पर अत्याचार किए जा रहे थे तभी बेल्फोर्ड डिक्लेरेशन की घोषणा हो गई जिसके बाद यहूदियों ने फ़िलीस्तीन में व्यापक पैमाने पर जमीन खरीदना शुरू कर दिया।  सच पूछा जाए तो अंग्रेजों ने 1947 में जो भारत के साथ किया उसका एक्सपेरिमेंट उन्होंने 30 वर्ष पहले यहूदियों और इजराइल के साथ कर दिया था। इज़राइल और फिलिस्तीन का झगड़ा एक अनिवार्य फ़िलीस्तीन के संघर्ष और आत्म निर्णय के अधिकार को लेकर सैन्य और राजनैतिक संघर्ष है। संघर्ष के मेन मुद्दों में वेस्ट बैंक और गाजा पट्टी  पर इज़राइल का कब्जा, यरुशलम की स्थिति, इजराइली बस्तियां, सीमा निर्धारण, जल अधिकार परमिट व्यवस्था, फिलिस्तीन आन्दोलन फिलिस्तीन वापसी का अधिकार वगैरह वगैरह।

 1917 से लेकर 7 अक्तुबर 2021 तक इज़राइल ने न जाने कितने छुटपुट युद्द किए हैं। किन्तु 7 अक्टूबर 2023 को फ़िलीस्तीनी हमलावरों द्वारा हमास के संरक्षण में दक्षिणी इज़राइल पर बड़े पैमाने पर हमला किया गया यहां ये उल्लेखनीय है कि जिस दिन ये हमला किया गया उस दिन यहूदी पूरा दिन शान्ति प्रार्थना में बिताते हैं हथियार रखना या चलाना एक तरह से वर्जित है। इस हमले से इज़राइल सकते में आ गया जवाबी कार्यवाही शुरू हुई और फ़िर विश्व ने इज़राइल का वो रूप देखा जिसे आज तक किस्सों कहानियों में यदा कदा सुना जाता था। गाजा पट्टी में फिलिस्तीनियो ने हमास द्वारा बिछाए गए सुरंगों के जाल से इज़राइल को बहुत परेशान किया किन्तु टेक्नोलॉजी के बूते इज़राइल इन सब संकटो पर पूर्व की तरह भारी ही पड़ रहा है।  इज़राइल की आक्रमकता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि शुरुआती झटकों से उबरकर गाजा पट्टी में छ: दिनों में लगभग छ: हजार बम गिराए तत्पश्चात सम्पूर्ण गाजा पट्टी की नाकाबंदी कर गाजा पट्टी पर कब्जा करने के लिए पैदल सेना उतार दी। लगभग दस महीने की लड़ाई में एक तरफ़ इज़राइल अर्जुन की तरह अकेला खड़ा है उसका अगर कोई सहायक है तो वो अमेरिका है। भारत तठस्त की भूमिका में है। इन्हीं सब के बीच ईरान ने इज़राइल के खिलाफ़ कुछ उल्टा सीधा करने की कोशिश की तो इज़राइल के एक ही वार से उसके राष्ट्रपति जन्नत सिधार गए ,के अतिरिक्त भी ईरान को काफ़ी हानि उठानी पड़ी है। विश्व के सभी देश भली भाँति जानते हैं कि फ़िलीस्तीन लेबनान के आतंकी गुटों को परोक्ष रूप से ईरान ही पोषित कर रहा है अन्यथा क्या कारण है कि हिज्बुल्ला की अपनी एक अलग घातक आर्मी बन गई। ताजातरीन घटना पर दृष्टिपात करें तो पाएंगे कि इज़राइल समय से 2 से 4 साल आगे की सोच कर चलता है।  सितम्बर 2024 में हुए पेजर धमाके फिर वाकी टॉकी धमाके इसी ओर इशारा कर रहे हैं कि कैसे इज़राइल ने इसके ऊपर 2022 से ही कार्य शुरू कर दिया था जिसका परिणाम हिज्बुला के कोर कमांडर को मार कर उसने पूरा कर दिया। आश्चर्य की बात ये है कि रूस जो शेष विश्व के देशों के लिए स्वयं यूक्रेन युद्ध का खलनायक है वह मास्को में बैठकर इज़राइल फ़िलीस्तीन पर विशेष टिप्पणी दे रहा है जरा बानगी देखिए:-

"चिंगारी भड़काना आसान है,  बहुत आसान है। वहाँ जो घटनाएँ हो रही हैं, उन्हें देखते हुए करना आसान है।जब आप पीड़ित और खून से लथपथ बच्चों को देखते हैं तो आपकी मुट्ठीयां भीच जाती हैं और आँखों में आँसू आ जाते हैं। यह किसी भी समान्य व्यक्ति की प्रतिक्रिया है। अगर ऐसी कोई प्रतिक्रिया नहीं है तो उस व्यक्ति के पास दिल नहीं है वह पत्थर का बना हुआ है।" 

         उपरोक्त पंक्तियों को पढ़कर मुझे सिर्फ़ हँसी आती है। जो व्यक्ति स्वयं पिछले ढाई वर्ष से यूक्रेन से "युद्धम शरणम गच्छामी" खेल रहा हो वह फ़िलीस्तीन का पक्ष लेकर इज़राइल पर दोषारोपण कैसे कर सकता है।  जितनी जाने इज़राइल फ़िलीस्तीन हमास हिज्बुला में गई हैं उससे सैकड़ों गुना जाने रूस यूक्रेन युद्ध में अब तक जा चुकी हैं। यहाँ सिर्फ़ जान के नुक़सान का आकलन है माल  असबाब का आकलन सम्भव ही नहीं।  रूस यूक्रेन युद्ध से पूरा विश्व पहले जहाँ चटकारे लेकर खबरें परोस रहा था अब वह भी इन खबरों को परोस कर 
फेडअप हो चुका है। खबर कोई भी हो ज्यादा दिन तक खबर में रहे तो वह खबर नहीं रहती। रूस यूक्रेन युद्ध की खबरों का हाल कुछ ऐसा ही हो चुका है। इन खबरों का कोई खरीदार ही नहीं। दोनों देशों के असहले खत्म हो चुके हैं उधार के हथियारों से तो युद्ध जीते नहीं जा सकते अलबत्ता दोनों देशों की अर्थव्यवस्था अवश्य रसातल में पहुँच गई है। कुछ दिनों में इज़राइल फिलिस्तीन हिज्बुल को भी समझ आ ही जाएगा लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी होगी। यूरोपियन देशों एवं अमेरिका को रूस ही गैस एवं तेल सप्लाई कर रहा था। रूस द्वारा प्रतिकार स्वरुप गैस सप्लाई बाधित कर दी गई तो पिछली दो सर्दियों में यूरोप कितना परेशान हुआ है ये जग जाहिर है। अटल जी की पँक्ति याद आ गई "चिंगारी का खेल बुरा होता है"  

         अब अमेरिका यूरोप सहित संयुक्त राष्ट्र के पावरफूल देश चाहते हैं कि भारत के प्रधानमंत्री मोदी इस युद्ध को रुकवाएं क्यों कि उन्हें पता है कि आज विश्व पटल पर अगर कोई एक शक्तिशाली नेता है तो वो मोदी ही हैं जिनकी स्वीकार्यता यूक्रेन और रूस के नेताओं में बराबर है। इसका प्रमाण भी पूरी दुनिया देख चुकी है जब भारत ने युद्धरत रूस यूक्रेन के नेताओं से बात कर निश्चित समय के लिए युद्ध रुकवाकर भारत के नागरिकों के साथ साथ अन्य देशों के नागरिकों को भी भारतीय तिरंगे की छत्रछाया में सकुशल घर पहुंचवाया था। अमेरिका एवं अन्य यूरोपीय देश स्वयं इज़राइल एवं हिज्बुला के मध्य जारी युद्ध रुकवाने की कोशिश नाम मात्र भी नहीं कर रहे हैं। आखिर ये दोहरी नीति क्यूँ? क्यूँ बार बार ये सुनने और पढ़ने में आता है कि अमेरिका हो या फिर यूरोपीय देश ये सिर्फ़ युद्ध भड़काना जानते हैं समेटना नहीं। अपने फायदे के लिए ये देश किसी भी सीमा तक चले जाते हैं फिर चाहे इसके लिए इन्हें तख्ता पलट ही क्यूँ न करना पड़े। अभी हाल ही में दो छोटे अफ्रीकी देशों ने उन देशों के साथ हो रहे इस प्रकार की घटनाओं का जिक्र किया है। सबसे ताजातरीन मामला बांग्लादेश का निकल कर सामने आ गया है। बांग्लादेश की कामचलाऊ सरकार के मुखिया संयुक्तराष्ट्र की सभा में जाते हैं तो स्वीकार करते हैं कि शेख हसीना के खिलाफ़ जबरदस्त साज़िश रची गई। ये खबर भी निकल कर आई कि अमेरिका बांग्लादेश में सैनिक अड्डा स्थापित करना चाहता था जब वह सफल नहीं हुआ तो उसने बांग्लादेश में तख्ता पलट करा दिया।अमेरिका तो कामयाब हो गया किन्तु उसमें पिसा और प्रताड़ित हुआ केवल हिन्दू।

         ताजा खबर के अनुसार अमेरिका और यूरोपियन यूनियन इज़राइल और लेबनान हिज्बुलाह के बीच 21 दिन का युद्ध विराम चाहती है किन्तु बेंजामिन नेतनयाहू ने इसके लिए साफ साफ इंकार कर दिया। इज़राइल का इतिहास रहा है कि वह अपने दुश्मनों के प्रति निर्मम रहा है इसलिए ये कहना जल्दबाज़ी होगी इज़राइल अपनी संप्रभुता के साथ कोई समझोता कर लेगा क्यों कि ये उसका स्टाईल नहीं है। जब तक वह हिज्बुलाह को समाप्त नहीं कर देता तब तक इज़राइल इस युद्ध में कोई युद्द विराम लागू नहीं होने देगा। इस स्थिति को देखते हुए भारत ने लेबनान में रहने वाले भारतीयों को एडवायजरी जारी कर दी है कि वे जल्द से जल्द लेबनान छोड़ दें। हम जैसे पर्यावरण प्रेमी सिर्फ़ प्रार्थना ही कर सकते हैं कि ईश्वर हमें इन पर्यावरण के दुश्मनों से बचाए !


प्रदीप डीएस भट्ट 
लेखक-9410677280


Friday, 13 September 2024

हिन्दी की है आस बनेगी एक दिन ख़ास यानि लिंगवा फ्रांका

“हिंदी की है आस, बनेगी एक दिन खास, यानि ‘लिंग्वा फ्रांका’”

         हर वर्ष की भाँति इस वर्ष भी 14 सितम्बर को “हिंदी दिवस” के रुप में  मनाया जाएगा। मुझे उम्मीद है कुछ मंत्रालयों में इस विषय में पत्रावलियाँ अंग्रेजी में ही प्रस्तुत की जाएगीं। हम जैसे हिंदी प्रेमियों को इससे कितना कष्ट होता है उनकी बला से। किंतु कहीं न कहीं दिल में ये आस अवश्य है कि एक न एक दिन हमारी हिंदी भाषा भी ‘लिंग्वा फ्रांका’ (प्रयोग में ली जाने वाली वह प्रभावशाली भाषा जो प्रयोग में लेने वालों की मातृ भाषा न हो) बनेगी) 

मैं हिंदवी क़ी हिंदी हूँ
राष्ट्र भाल क़ी बिंदी हूँ
अंग्रेजी भाषा के समक्ष मैं
मात्र अब भी किंचित हूँ
हाँ मैं हिन्दी हूँ ...

         विश्व परिदृश्य पर पिछले तीन हजार वर्ष के इतिहास में देखें तो ग्रीक, लैटिन, पॉर्च्युगीज, स्पैनिश, फ्रेंच और अंग्रेजी एथेंस की ग्रीक भाषा अलग-अलग दौर में प्रभावशाली रही हैं। 18वीं सदी के मध्य में फ्रांस के विद्वान वॉल्टेयर ने ‘फिलॉसफी ऑफ हिस्ट्री’ लिखी। इसका विषय संपूर्ण मानव जाति का इतिहास था। अध्ययन में यह तथ्य निकलकर आया कि ईसा पूर्व नौवीं सदी से लेकर चौथी सदी तक यूरोप, शहर रूपी कई साम्राज्यों में बंटा हुआ था। इनमें से एथेंस व्यापार और सैन्य ताकत बनकर उभरा। इसलिए प्रभावशाली एथेंस की ग्रीक भाषा यूरोप की लिंग्वा फ्रांका बनी। ईसा पूर्व 201 से आने वाले 600 वर्षों तक एथेंस यूरोप का सबसे शक्तिशाली साम्राज्य बना रहा। लिहाजा कैथोलिक चर्च की ताकत बढ़ी और रोमन भाषा लैटिन लिंग्वा फ्रांका बन गई। लेकिन लैटिन लिंग्वा फ्रांका बनी रही क्यों कि आने वाले एक हजार साल तक कोई नई वैश्विक शक्ति नहीं उभरी।

         1492 में कोलंबस ने अमेरिका की खोज की और छह वर्ष बाद वास्कोडिगामा ने भारत में कदम रखा। ये दोनों यात्राएं पुर्तगाल के खर्चे पर हुई और इस तरह से पुर्तगाल साम्राज्य शक्तिशाली होने लगा। पुर्तगाल की देखा-देखी स्पेन और फ्रांस भी उप-निवेशवाद में कूदे। इस दौरान पॉर्च्युगीज, स्पेनिश और फ्रेंच भषा लिंग्वा फ्रांका की दौड़ में रहीं। इंग्लैंड में स्थिति ऐसी थी कि राजघराने में जो शिक्षा ली जाती थी उसका माध्यम फ्रेंच भाषा होती थी न कि अंग्रेगी। उस समय के सभ्य समाज में अंग्रेजी गरीबों की भाषा और दरिद्रता की निशानी मानी जाती थी। 
वर्तमान में अंग्रेजी भाषा को ‘लिंग्वा फ्रांका’ का दर्जा प्राप्त है। ऐसा इसलिए कि पिछ्ले लगभग 600 वर्षो से  ब्रिटेन आर्थिक, सामजिक,राजनैतिक बाजारी कारण व सैनिक शक्ति के लिहाज से विश्व के उन पाँच महत्वपूर्ण देशों में स्थान रखता है जो कि सीधे सीधे शेष विश्व पर अपना प्रभाव रखते हैं। चूँकि अमेरिका के अतिरिक्त विश्व में प्रमुख 7 देशों में अंग्रेजी ही बोली जाती है इसलिए वर्तमान दौर में अंग्रेजी ही लिंग्वा फ्रांका बनी हुई है। जहाँ तक अंग्रेगी का ताल्लुक है इसे प्रथम अंतर्राष्ट्रीय भाषा का दर्जा प्राप्त है। चूँकि ये एक पश्चिम जर्मेनिक भाषा है जिसकी उत्पती एंग्लो-सेक्सन इंग्लैंड में हुई। चूँकि ब्रिटिश हुकूमत कई देशों पर रही है अतएव जैसे जैसे अंग्रेगी का प्रचलन बढा ये उन देशों में भी ज्यादा बोले जाने लगी जहाँ उस देश की अपनी भाषा पहले से ही मौजूद थी। ऐसा इसलिए भी हुआ क्यों कि ब्रिटिश लोगों ने 18,19 एवम 20वीं शताब्दी में  सैन्य, राजनितिक, आर्थिक, वैज्ञानिक एवम सांस्कृती पर अपनी पकड बनाने के उद्देश्य से अंग्रेगी भाषा के प्रयोग पर अधिक बल दिया जिससे इसे छटी भाषा के रुप में लिंग्वा फ्रांका होने का गौरव प्राप्त हुआ। कुछ देश ऐसे भी रहे जिन्होंने इसे अपनी मातृ भाषा के बाद दूसरी भाषा के रुप में मान्यता प्रदान की। अगर मैं इसे इस तरह पारिभाषित करूँ या कहूँ  कि अंग्रेगी भाषा का उत्थान चौथी या शायद पाँचवी शताब्दी के मध्य में इंग्लैंड में एंग्लो- सेक्सन लोगों द्वारा शुरु हुआ तो ज्यादा बेहतर होगा। एंग्लो सेक्सन लोग कई तरह की बोलियों/ भाषाओं को बोलते थे,यहाँ यह कथन स्प्ष्ट है कि वाइकिंग हमलावरों द्वारा अपनाई गई प्राचीन नोर्स भाषा का प्रभाव वर्तमान अंग्रेगी भाषा पर ज्यादा है। ये विषय अलग है कि अंग्रेजी भाषा लगातार अपना विकास करती रही और अन्य देशों में बोले जाने वाली भाषा के शब्दों को स्वंय में समाहित करती रही जिससे इसकी ताकत में ज्यादा वृद्धि हुई। वर्तमान में जो हम अंग्रेजी बोलते हैं उसमें नोर्मन शब्दावली और वर्तनी के नियमों का भारी संख्या में उपयोग हुआ है। वर्तमान अंग्रेजी भाषा में प्राचीन ग्रीक और लैटिन का अत्याधिक प्रभाव दिखायी पडता है। अंग्रेजी बोलने वाले लगभग 53 प्रमुख देश हैं जिनमें संयुक्त राष्ट्र, यूरोपियन संघ,राष्ट्रमण्डल, नाटो देश व नाफ्टा के देश शामिल हैं। एक सर्वे के अनुसार पूरे विश्व में अंग्रेजी बोलने वाले देशों के क्रम में अमेरिका प्रथम स्थान भारत दूसरे स्थान पर ,नाइजिरिया तीसरे स्थान पर और आश्चर्यजनक रुप से ब्रिटेन चौथे स्थान पर आता है। इसके बाद फिलिपिंस कनाडा और आस्ट्रेलिया का नम्बर आता है। मतलब जिस अंग्रेजी भाषा की उतपत्ती ब्रिटेन में हुई वही देश अंग्रेजी बोलने वाले देशों में चौथे नम्बर पर है मतलब उसने अपना आधिपत्य जमाने के उद्देश्य से अंग्रेजी भाषा को इतना ताकतवर बना दिया कि समूचा विश्व बिना अंग्रेजी भाषा के चल नही सकता। किंतु हर जगह अपवाद होते हैं, जो यहाँ भी है। चीन में मंदारिन भाषा सबसे ज्यादा बोली जाती है किंतु चीन के बाहर न के बराबर किंतु चीन ने आज जो मुकाम हासिल किया है वह मंदारिन की बदौलत ही किया है। अंग्रेजी का उपयोग उतना ही किया गया जितना आव्श्यक था।
जहाँ तक हिंदी भाषा का प्रश्न है तो विश्व में अंग्रेजी, मंदारिन के बाद इसका स्थान तीसरा है। भारत में हिंदी के बाद सबसे अधिक बंगाली भाषा ( लगभग 30 करोड) बोली जाती है। जिस प्रकार आज अंग्रेजी वैश्विक भाषा के रुप में विश्व में प्रतिष्ठित है उसी प्रकार आने वाले समय में हिंदी भी वैश्विक भाषा के रुप में निश्चित अपना स्थान बनाएगी। हिंदी भारत के अतिरिक्त नेपाल, भूटान, बांग्लादेश, पाकिस्तान, तिब्बत, अफगानिस्तान, श्रीलंका इत्यादि  देशों में प्रमुख रुप से बोली और समझी जाती है।पूरे भारतीय उपमहाद्वीप में हिन्दी धीरे धीरे सम्पर्क भाषा के रुप में अपना स्थान निश्चित करती जा रही है । भारत में इस समय कुल छ: कास्मोपोटिन शहर हैं जिनमें चेन्नई को छोडकर आपको हिंदी भाषा बोलने वाले समझने वाले देल्ही,मुम्बई, बंगलौर,कोलकत्ता और हैदराबाद में आसानी से मिल जायेंगे। चेन्नई में भी हिन्दी बोलने वाले मिलेंगे लेकिन वे तमिलियन न होकर हिन्दी बेल्ट से आकर बसे हिन्दी भाषी लोग हैं। एक सत्य और है कि व्यापार के सिलसिले में राजस्थान से बाहर निकले लोग भले ही घर में मारवाडी में बातचीत करते हैं किंतु अपनी व्यापारिक गतिविधियों में वे हिन्दी भाषा का ही प्रयोग करते हैं। इसका अनुभव मुझे अगस्त -2022 माह में अपने तीन दिवसीय साहित्यिक कार्यक्रम के दौरान देखने को मिला। एक कहावत प्रसिद्ध है “जहाँ न पहुँचे बैलगाडी वहाँ पहुँचे मारवाडी” ये सुखद अनुभव मुझे नेपाल में भी देखने को मिला और भूटान में भी। यहाँ तक कि पश्चिम बंगाल एवम नोर्थ ईस्ट के आठों राज्यों में भी।

         भारत की संविधान सभा द्वारा 14 सितम्बर, 1949 को इसे राजभाषा के रूप में स्वीकार किया गया जिससे इसका प्रयोग और चौतरफा विकास हुआ। जैसे बंगला, तमिल, तेलुगु, कन्नड़, मलयालम आदि को क्रमश: बंगाल, तमिलनाडु, कर्नाटक, केरल आदि की राजभाषा (मुख्य प्रांतीय भाषा) बनाया गया है। ऐसा करने से किसी भी भाषा का महत्व कम नही हुआ है? निश्चित रुप से नही। बल्कि इससे उन सभी भाषाओं का उत्तरदायित्व और प्रयोग क्षेत्र पहले से अधिक बढ़ गया है। जहाँ पहले केवल परस्पर बोलचाल में ही इनका प्रयोग होता था या उसमें साहित्य की रचना होती थी, वहीं अब प्रशासनिक कार्य भी हो रहे हैं। यही स्थिति हिन्दी की भी है। इस प्रकार हिन्दी सम्पर्क और राष्ट्रभाषा तो है ही, राजभाषा बनाकर इसे अतिरिक्त सम्मान प्रदान किया गया है।द्वितीय महायुद्द की समाप्ति पर 1945 में जब सन्युक्त राष्ट्र की स्थापना हुई थी तो उसकी आधिकारिक भाषा के रुप में अंग्रेजी रशियन, फ्रेंच एवम मंदारिन को ही आधिकारिक भाषा के रुप में मान्यता मिली थी। हम भारतीयों के लिए 1991 में सन्युक्त राष्ट्र में स्व0 अटल बिहारी बाजपई जी द्वारा दिया गया भाषण ही एक मात्र गौरव का क्षण रहा है अन्यथा आज तक किसी अन्य नेता ने कभी सन्युक्त राष्ट्र संघ में हिन्दी में भाषण देना तो दूर “नमस्ते” भी कहना उचित नहीं समझा । फिर हिन्दी को सन्युक्त राष्ट्र की भाषा में सम्मलित कराने की बात तो दूर की कौडी ही रही। बिना किसी संकोच के कहा जा सकता है कि 2014 के बाद से स्थिति बहुत तेजी से बदली और 2018 में भारत सरकार की ओर से सन्युकत राष्ट्र संघ  के वैश्विक संचार विभाग के साथ साझेदारी की गई । आज भारत सन्युकत राष्ट्र संघ   के समाचार और मल्टी मीडिया के लिए फण्ड भी दे रहा है और परिणाम सामने है। जून-2022 में सन्युकत राष्ट्र संघ द्वारा जारी होने वाले सभी कागज़ातों को अन्य मान्य भाषाओं के अतिरिक्त हिन्दी में जारी करने की घोषणा की। निश्चित रुप से भारत के लिए ये गर्व का विषय है हिन्दी के अतिरिक्त बांग्ला एवम उर्दु भाषा को भी सन्युक्त राष्ट्र ने अपनी सहमती प्रदान की है।  इसी क्रम में देश के सर्वोच्च न्यायालय ने भी कुछ माह पूर्व घोषणा की है कि उसके द्वारा दिये गये सभी निर्णयों का अनुवाद हिन्दी भाषा में किया जाएगा ताकि वादी को समझने में आसानी हो।   

"सात कोस पर पानी बदले चार कोस पर भाषा जी 
विश्व पटल पर छा जाएगी इक दिन हिन्दी भाषा जी "

         आज का युवा निश्चित रुप से अंग्रेगी के साथ हिंदी भाषा को भी महत्व देने लगा है उसे अच्छी तरह से पता है कि विकास का पहिया केवल अंग्रेजी या प्रांतीय भाषा के सहारे नही घूम सकता। पिछ्ले कुछ वर्षो में देश में ही नही वरन विदेशों में हिंदी और संस्कृत भाषा सीखने की एक होड सी मची हुई है।  मल्टीनेशनल कम्पनियाँ अच्छी तरह से जानती है कि भारत एक बहुत बडा बाज़ार है, अगर उन्हें अपना माल बेचना है तो उन्हें भारत की मुख्य भाषा हिन्दी को स्वीकार करना ही होगा, साथ ही इसी बहाने प्रांतीय भाषाओं का भी विकास हो रहा है। कुछ वर्ष पूर्ण एक आर्टिकल पढा था जिसमें बताया गया था कि दक्षिण कोरिया की कम्पनी जब किसी को भारत में अपना प्रतिनिधी बनाकर भेजती हैं तो वे एक शार्ट टर्म हिन्दी सेशन रखती हैं ताकि वे हिन्दी भाषा के कुछ शब्द वाक्य समझ व बोल सके ताकि कम्पनी को भारत में प्रतिनिधि के तौर पर यहाँ की बोल चाल को समझने में आसानी हो, लोगों से घुलने मिलने में आसानी हो, उनका उद्देश्य सिर्फ भारत में  सिर्फ माल बेचने का ही नही वरन उनका उद्देश्य भारतीय समाज से जुडने का ज़ियादा रहता है। आज सिर्फ हिन्दी फिल्म उद्योग ही वरन प्रादेशिक फिल्म उद्योग भी अपनी सभी फिल्मों, वेब सीरिज़ को हिंदी के अतिरिक्त अन्य भाषाओं में डब कराके प्रदर्शित करता है ताकि ज्यादा से ज्याद लोगों तक उसकी पहुँच सुनिश्चित हो। भारत दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा देश है। 

         भारत का संविधान कुल 22 भारतीय भाषाओं को आधारिक भाषा का दर्ज़ा देता है. इन 22 भाषाओं में शामिल है :- हिंदी, तमिल, तेलुगु, मराठी, असमिया, बोडो, कन्नड़, मलयालम, मणिपुरी, मराठी, गुजराती, बांग्ला, उड़िया, पंजाबी, संस्कृत, सिंधी, डोगरी, संथाली, मैथिली, नेपाली, कोंकणी एवम उर्दू। किंतु हिंदी लगभग सब जगह बोली जाती है और यह सबसे अधिक तेजी से बढ़ भी रही है।  पढाई का माध्यम भी धीरे धीरे हिंदी ,अंग्रेजी व एक प्रांतीय भाषा के इर्द गिर्द ही सिमटता जा रहा है जो कि एक अच्छा संकेत है। इस विषय में भारत सरकार द्वारा भी विभिन्न स्तरों पर प्रोत्साहन प्रदान किये जा रहे हैं साथ ही नई शिक्षा नीति भी इसमें एक कारगर भूमिका निभा रही है। पिछले दिनों विज्ञान पत्रिका  करंट साइंस में प्रकाशित एक अनुसंधान में मस्तिष्क विशेषज्ञों का कहना है कि अंग्रेजी पढते समय हमारे दिमाग का केवल बाँया हिस्सा ही सक्रिय रहता है जब कि हिन्दी या संस्कृत पढते समय मस्तिष्क का दायाँ और बाँया दोनों हिस्से सक्रिय हो जाते हैं। इससे दिमाग की कसरत ज्यादा होती है और दिमाग ज्यादा तरोताज़ा रहता है। राष्ट्रीय मस्तिष्क अनुसंधान केंद्र की भविष्य में अन्य भारतीय भाषाओं के प्रभाव पर भी अध्य्यन करने की योजना है। अध्यान की प्रक्रिया के दौरान छात्रों को पहले चरण में जोर जोर से अंग्रेजी भाषा पढने के लिए कहा गया उसके पश्चात  हिन्दी भाषा। इस समूची प्रक्रिया में दिमाग का एम आर आई किया गया तब उप्रोक्त रिजल्ट सामने आया। इसका कारण निश्चित रुप से हिन्दी बोलते समय मात्राओं के कारण दिमाग की सक्रियता ज्यादा होना था जब कि अंग्रेजी बोलते समय सीधा सीधा छब्बीस अल्फाबेट का रीपिटिशन ही रहा होगा। एक और अच्छी पहल हुई है वो ये कि   इंजीनियरिंग एवं मेडिकल की पढ़ाई भी हिन्दी माध्यम से करायी जाने लगी है जो कि भारतीय शिक्षा के लिए एक शुभ संदेश है l मुझे विश्वास है 2040 तक हिन्दी अगली (सातवीं) लिंग्वा फ्रांका का होने का दर्जा अवश्य प्राप्त कर लेगी।

© प्रदीप देवीशरण भट्ट - 01:09:2024

Wednesday, 4 September 2024

"ज़रूरी नहीं कवि ही बनो "


         रिपोर्ताज 

        "ज़रूरी नहीं कवि ही बनो"  

        दादा 1 सितंबर को राब्ता प्राईम का कार्यक्रम रक्खा है। अब शिवम का फोन आया तो मना करने का प्रश्न ही नहीं फिर भी मैंने हँसते हुए पूछ ही लिया बालक वेन्यू तो पालम ही होगा मगर मेन्यू, अब 😁खिलखिलाने की बारी शिवम की थी बोला दादा मेन्यू बढ़िया ही होगा। शायद उसे भी समझ आ गया था कि भूखे पेट तो कविता पढ़ी न जाएगी। शाम को फिर मुबलिया घनघना उठा, दुष्यंत जी के अवतरण दिवस पर कार्यक्रम का निमन्त्रण था चूँकि समय मैच  नहीं हो  रहा था इसलिए विनम्रता से मना कर दिया। अपनी आदत अनुसार हम सुबह 6:15 एक गिलास दुग्ध और जन्माष्टमी के बचे लड्डू का भोग लगाकर निकल पड़े। 8 बजे की ब्ला ब्ला ली और सीधे आई पी एक्सटेंशन दिल्ली वहां से पिंक लाईन ली और दिल्ली कैंट 🤤 बस पूछो मति हुजूर भयंकर वाली गलती हो गई  होज ख़ास से मेट्रो चेंज करनी थी लेकिन.... अब दिल्ली कैंट से राजौरी गार्डन से पालम समय 11:15 यानि 15 मिनिट लेट 😱। अच्छी बात ये हुई कि कार्यक्रम भी 11 की जगह 11.30 हो गया इज्ज़त में दाग लगने से बच गया। ख़ैर हमने हॉल में अपने चरण रक्खे तो प्रिय  शिवम ने स्वागत किया साथ में नीलम 'बावरा मन' ज़ी से परिचय हुआ अलग से। 🫠

       पाँच मिनिट पाँच करते करते आख़िरकार 12:10 पर प्रिय शिवम ने माइक संभाला और पहला धमाका किया कि आज सूत्रधार की भूमिका मैं स्वयं वहन करूँगा तालियों की ध्वनि से अंदाज़ा हो गया कि उपस्थित सभी प्राईम मेंबर ने अपनी स्वीकृति प्रदान कर दी है।  धीरे धीरे हॉल अपना आकार लेने लगा। शिवम ने राब्ता की अभी तक की जर्नी के विषय में बताया फिर उन चुनिंदा नामों जिक्र किया जो विपरित परिस्थितियों में भी शिवम के साथ खड़े रहे। निश्चित ये एक अच्छा अनुभव रहा। कार्यक्रम शुरू हुआ फिर धीरे धीरे लय पकड़ने लगा।एक के बाद एक बेहतरीन प्रस्तुतियां। लेकिन लेकिन लेकिन सिर्फ़ एक मोहतरमा की प्रस्तुति ने ये संदेश भी दिया कि लोग अभी भी उसी बने बनाए ढर्रे पर चल रहे हैं जहाँ किसी भी फिल्मी गाने पर अपने बेतुके शब्दों को चिपका दो फिर प्रोफेशनल गायक की तरह माइक पकड़ कर सारी गायिकी श्रोताओं पर उल्ट दो। निश्चित इससे कार्यक्रम की गरिमा के साथ साथ राब्ता की गरिमा भी kampromaiz 😡होती है। इसी तरह एक मोहतरमा बंगाल की बेटी पर एक लम्बी कविता पढ़ गईं । पढ़ी तो कोई बात नहीं लेकिन उस डॉक्टर बेटी का नाम लेने की क्या जरूरत थी उन्हें मालूम है कि सब रिकार्ड हो रहा है उनके खिलाफ़ एक्शन भी हो सकता है किन्तु ......। भविष्य में इस पर ध्यान दिये जाने की ज़रूरत है। वैसे भी ज़रूरी नहीं आप कवि ही बने कुछ और भी बनकर देख लो भाई !

        विवेक जी, राधा कौशिक अर्चना झा,अमृता अमृत, नवीन bagga,गोल्डी गीतकार, खुर्रम नूर, सुधा बसोर,दीपिका,पूनम सिंह, लीजा खान, प्रभा झा, नलिनी राज, स्नेह लता पाण्डेय, रंजना मजूमदार, एन सी खण्डेलवाल, प्रेम चौधरी, गुरमीत सिंह ढोट, अरुण श्रीवास्तव, रघुवर आनन्द, कुरुक्षेत्र हरियाणा से पधारे डॉक्टर सुभाष गर्ग और मेरठ से तशरीफ का टोकरा ले जाने वाले हम😝 तो bhaiyya सर्व प्रथम स्मरण कराया कि आज दुष्यंत जी का जन्म दिन है फिर उन्हीं को समर्पित अपनी ग़ज़ल की प्रस्तुति दी। आप यूँ न  कहो की झूठ बोल रिया हूं तो भैय्या जी पढ़ लो:-

ग़ज़ल 
1222   1222  1222 1222 

 " वो बरगद का शज़र देखो "

लिखा ज्यादा नहीं लेकिन, किया दिल पर असर देखो
कि हमसे भी जियादा, पारखी उनकी नजर देखो

वही चंदा वही तारे, नजारे भी वही लेकिन 
ग़ज़ल उसने कही सब पर,जिधर चाहे उधर देखो  

वो अपनी मौज़ का मालिक, धुआँ सब फ़िक्र कर डाला  
चुनी उसने अलग सबसे,वही तुम भी डगर देखो 

गरीबी में पला लेकिन, ठसक राजा के जैसी थी 
कि घर कवि राज का कैसा, ज़रा जाकर वो घर देखो 

रियाया दर्द को शब्दों में जिसने, ढाल कर रक्खा 
सियासत ने उन्हीं लफ़्ज़ों में देखा, अपना डर देखो 

ग़ज़ल कहते सभी लेकिन, अलग थी बात कुछ उसमें
वो गजलो का बना कैसे, ज़रा तुम चारागर देखो

अगर अब भी तुम्हें शक है, तो दूजा ढूंढ़ कर लाओ
वगरना बंद आंखें कर,जिगर उसके उतर देखो 

सभी कुछ ठीक था लेकिन,चली जाने हवा कैसी
कि उस मनहूस दिन हमको मिली, कैसी ख़बर देखो  

कहां आसान इतना 'दीप' है, 'दुष्यंत' हो जाना
कि हम सब पेड़ हैं केवल, वो बरगद का शज़र देखो

-प्रदीप देवीशरण भट्ट -9923

        लगभग साढ़े बजे सम्मान समारोह के साथ कार्यक्रम का समापन हुआ और उसके बाद गर्मा गर्म भोजन। बस भैय्या आनन्द आ गया। पाँच बजे नीलम जी के साथ टैक्सी से निकले उन्होंने दिल्ली कैंट ड्रॉप किया हमने मेट्रो पकडी और सीधे आनन्द विहार वहाँ से मेरठ और फिर दस बजे घर। तो लो जी मना लिया अपने प्रिय कवि का जन्मदिन।