Saturday, 25 June 2016

जाट हिंसा




               "जाट हिंसा –तीन दिनो तक हरियाणा बंधक”

     पिछले दिनों हरियाणा मे आरक्षण को लेकर जाटों ने जो उत्पात मचाया तो मैं हतप्रभ रह गया क्यों कि जाट तो जमीदार होते हैं। सामन्यात: एक एक जाट के पास 50-100 बीघा जमीन होना आम बात है। जाटों मे शादियाँ भी देख समझ कर की जाती हैं ।अगर लड़के वाले के पास 100-50 बीघा जमीन है तो शादी करने मे कोई गुरेज़ नहीं फिर चाहे वो बेरोजगार ही क्यों न हो। जहां तक अंतरजातीय विवाह का प्रश्न है तो इस विषय मे जाट बहुत ज्यादा संवेदनशील होता है। वो शादी के लिए हाँ करने से ज्यादा लड़का हो या लड़की को मारना ज्यादा उचित समझता है। आनर किलिंग के अनेकों केस इसी के परिणाम हैं। समान्यत: कट्टरता के विषय मे मुसलमानों को सबसे ऊपर समझा जाता है फिर जाटों को उसके बाद गूजरों को किन्तु कहीं कहीं ये एक दूसरे से आगे भी निकलते देखे गए हैं। जब जाट हरियाणा मे आरक्षण- आरक्षण का खेल रहे थे वहाँ कानून व्यवस्था बिलकुल नदारत पाई गई ऐसा इसलिए भी की 80 प्रतिशत से ज्यादा पुलिस विभाग मे जाटों का वर्चस्व है। कमोबेश यही स्थिति पश्चिमी उत्तर प्रदेश मे भी जहां जाट बहुलता मे हैं।  जब ये सब चल रहा था तब सोशल मीडिया पर जाटों को लेकर बहुत सारे चुट्कुले फॉरवर्ड किए जा रहे थे जो कि ज़्यादातर जाटों की बुद्दि को लेकर थे। जाटों के विषय मे एक बात सदियों से सुनते आ रहे हैं आगे सोचे दुनिया पीछे सोचे जाट” अब आप स्वंम जाटों के विषय मे अंदाजा लगा सकते हैं। किन्तु जाटों के उजले पक्ष को भी देखा जाना आवश्यक है। आइये आज इसी विषय मे कुछ इतिहास कुरेदा जाए।

                             जाट न होने की सज़ा 
·        जाट शब्द की व्युत्पत्ति जाट शब्द का निर्माण संस्कृत के 'ज्ञात' शब्द से हुआ है। अथवा यों कहिये की यह 'ज्ञात' शब्द का अपभ्रंश है। लगभग १४५० वर्ष ई० पूर्व में अथवा महाभारत काल में भारत में अराजकता का व्यापक प्रभाव था। यह चर्म सीमा को लाँघ चुका था। उत्तरी भारत में साम्राज्यवादी शासकों ने प्रजा को असह्य विपदा में डाल रखा था। इस स्थिति को देखकर कृष्ण ने बड़े भाई बलराम  की सहायता से कंस को समाप्त कर उग्रसेन को मथुरा का शासक नियुक्त किया। कृष्ण ने साम्राज्यवादी शासकों से संघर्ष करने हेतु एक संघ का निर्माण किया। उस समय यादवों के अनेक कुल थे, किंतु सर्व प्रथम उन्होंने अंधक और व्रशनी कुलों का ही संघ बनाया। संघ के सदस्य आपस में सम्बन्धी होते थे इसी कारण उस संघ का नाम 'ज्ञाति-संघ' रखा गया। 
·        प्राचीन ग्रंथो के अध्ययन से यह बात साफ हो जाती है की परिस्थिति और भाषा के बदलते रूप के कारण 'ज्ञात' शब्द ने 'जाट' शब्द का रूप धारण कर लिया। महाभारत काल में शिक्षित लोगों की भाषा संस्कृत थी। इसी में साहित्य सर्जन होता था। कुछ समय पश्चात जब संस्कृत का स्थान प्राकृत भाषा ने ग्रहण कर लिया तब भाषा भेद के कारण 'ज्ञात' शब्द का उच्चारण 'जाट' हो गया। आज से दो हजार वर्ष पूर्व की प्राकृत भाषा की पुस्तकों में संस्कृत 'ज्ञ' का स्थान '' एवं '' का स्थान '' हुआ मिलता है। इसकी पुष्टि व्याकरण के पंडित बेचारदास जी ने भी की है। उन्होंने कई प्राचीन प्राकृत भाषा के व्याकरणों के आधार पर नविन प्राकृत व्याकरण बनाया है जिसमे नियम लिखा है कि संस्कृत 'ज्ञ' का '' प्राकृत में विकल्प से हो जाता है और इसी भांति '' के स्थान पर '' हो जाता है। इसी आधार पर पाणिनि ने अष्टाध्यायी व्याकरण में 'जट' धातु का प्रयोग कर 'जट झट संघाते' सूत्र बना दिया। इससे इस बात की पुष्टि होती है कि जाट शब्द का निर्माण ईशा पूर्व आठवीं शदी में हो चुका था।
·        मदन मोहन मालवीय ने कहा था की जाट इस देश की रीढ़ हैं
·        जींस और डीएनए के हिसाब से जाटों को ईरान इराक से लेकर दक्षिणी रूस तक परिभाषित किया जा सकता है
·        जाट एक नस्ल है जाति नहीं
·        समान्यत: जब बुजुर्ग जाट मरता है तो वो अपने लड़कों को जमीन जायदाद के हिसाब के अतिरिक्त ये बताना कभी नहीं भूलता कि उसने किस किस से कर्ज ले रखा है जिसे उसे मरने के बाद उन्हे उतरना है।

     

                           भाइयों हमारे भी हाथ बंधे हैं 
    सुरजमाल(1755 से 1763) और उनके पुत्र जवाहर (1763-68) को जाटों का प्रथम और दीतीय सर्वमान्य राजा माना जाता है।जाट समान्यत: खेती करने वाले और कुछ जमीदार भी पाये जाते हैं मुगलों के पाटन के साथ ही ब्रज मण्डल मे जाटों का ही प्रभुत्व कायम हो गया।जाटों ने ब्रज मे सामाजिक जीवन और राजनैतिक जीवन को कुछ ज्यादा ही प्रभावित किया।इस कल को जाट काल के नाम से भी जाना जाता है। ब्रज कि सं कालीन राजनीति मे जाट बहुत ज्यादा शक्तिशाली बन कर उभरे और इसी दौरान जाटों ने डिग,भरतपुर,मुरसन हाथरस और सिनसिनी जैसे कई राज्यों को स्थापित किया। इन सब मे डिग भरतपुर के राजा ज्यादा महत्वपूर्ण माने गए। जाट राजाओं ने लगभग सौ वर्षों तक ब्रजमंडल के एक बड़े भू भाग पर राज किया। जाट राजाओं के राज मे इन्होने अपने सिक्के चलाये और राज्य का विस्तार भी किया। ऐसा माना जाता है कि पंचायत व्यवस्था जाटों की ही दें है क्यों की ये लोग अपने से ऊँचा किसी को भी नहीं मानते इसी कारण प्रत्येक गाँव मे पाँच लोगों की एक संस्था बना कर सभी तरह के फैसले करने का अधिकार दे दिया गया।जिस कारण इनमे उज्जडता आ गई। जहां जहां भी ये बहुलता मे थे वहाँ वहाँ इन्होने और जतियों को अपने बल से डराया धमकाया।

      प्रसिद्ध अंग्रेज इतिहास लेखक विन्सेंट स्मिथ ने भी अपनी पुस्तक "अकबर दी ग्रेट मुग़ल" में निकोलो-मनूची के उल्लेख की पुष्टि करते लिखा है - 'बादशाह औरंगजेब जब दक्षिण में मराठा युद्ध में सलंग्न था -मथुरा क्षेत्र के उपद्रवी जाटों ने सम्राट अकबर  का मकबरा तोड़ डाला | उसकी कब्र खोदकर उसके अवशेष अग्नि में जला डाले | इस प्रकार अकबर की अंतिम आंतरिक -इच्छा की पूर्ति हुई |'(अकबर थे ग्रेट मुगल ,पगे नो। 328 ,विंसेंट स्मिथ)
आगरा सूबा में नियुक्त मुग़ल सेनाधिकारियों से राजाराम का दमन नहीं किया जा सका, तो बादशाह ने आम्बेर के राजा बिशनसिंह को,जिसका पिता राजा रामसिंह उन्ही दिनों में मृत्यु को प्राप्त हुए थे -मथुरा का फौजदार बनाकर जाटों के विरुद्ध भेजा | राजा बिशनसिंह उस समय नाबालिग था सो लाम्बा का ठाकुर हरिसिंह उसका अभिभावक होने के नाते सभी कार्य संचालित करता था | ठाकुर हरीसिंह ने ही खंडेला के  राजा केसरी सिंह जो खुद भी बाद में औरंगजेब का विद्रोही बना और शाही सेना से युद्ध करता हुआ वीर गति को प्राप्त हुआ था को समझाकर साथ ले आया था |  केसरीसिंह समर के अनुसार-'राजाराम को दण्डित करने हेतु राजा केसरी सिंह को भी शाही फरमान भेज कर आमंत्रित किया गया था | अपने भाई बांधवों के साथ केसरीसिंह ने युद्धार्थ प्रयाण किया | रेवाड़ी परगने के खोहरी नामक कस्बे के पास अपनी सैनिक चौकी स्थापित करके केसरीसिंह ने राजाराम के ठिकानों पर आक्रमण किए | राजाराम भी मुकाबले के लिए अपने साथियों के आया और दोनों दलों के बीच जमकर घोर युद्ध हुआ | जाटों की सेना पराजित होकर समर-भूमि से पलायन कर गई। "जाटों के नवीन इतिहास" के अनुसार -राजाराम युद्ध में घायल होकर बंदी बना लिया गया था। सेना के मुग़ल सैनिकों ने उसका मस्तक काटकर बादशाह के पास भेज दिया। इस प्रकार इस जाट वीर ने धर्म विरोधी शाही नीति के खिलाफ विद्रोह में वीर-गति प्राप्त की |


      जब गुर्जर राजस्थान मे पटरी उखाड़ ले गए फिर हम तो जाट हैं बैठे भी न 

       मैंने जाटों का संक्षिप्त इतिहास ही देना मुनासिब समझा क्यों की मेरा लेख हरियाणा मे हुई हिंसा को लेकर है। हिंसा के दौर मे ही एक कहावत और चल पड़ी थी “ऑडी मे बैठा जाट भीख मांगा कैसा लगेगा?”(मेरी नज़र मे आरक्षण राजनैतिक भीख ही है जो वोटों को ध्यान मे रखकर दी जाति है। सामाजिक सराकोरों से इसका कुछ लेना देना नहीं है) हरियाणा मे जानबूझकर आरक्षण की आग लगाई गई ताकि गैर जाटों को पार्ले दर्जे तक नुकसान पहुंचाया जा सके और जाट अपने इस मकसद मे कामयाब भी हो गए क्यों की राजनीति से लेकर पुलिस,सरकारी ऑफिस मे सभी जगह जाटों की संख्या गैर जाटों के मुक़ाबले बहुत कम है। जिस हिन्दू का नारा देकर बीजेपी सत्ता मे आई है वो इस हिंसा को रोकने मे पूरी तरह विफल ही नहीं हुई वरन सेना को बुलाने के पश्चात भी उन्हे कोई अधिकार न देना ये साबित करता है कि ये हरियाणा मे रह रहे गैर जाटों के विरुद्ध अघोषित युद्ध था जिसमे सरकारी मशीनरी पूरी तरह से फेल हो गई शायद इसका कारण यह भी है कि अपने जन्म के समय से ही हरियाणा मे कभी कोई गैर जाट मुख्यमंत्री नहीं बना है और बीजेपी ने ब्राह्मण मुख्यमंत्री बनाते बनाते अचानक पंजाबी मनोहर लाल खट्टर को मुखयमन्त्री कि कुर्सी पर बैठा दिया जिसे जाट हजम नहीं कर पा रहे हैं और परिनीति गैर जाटों को निशाना बनाने से हुई उनकी संपतिया ही नहीं फूँक डाली गई वरन महिलाओं से भी बदतमीजी की गई ।

      जाटों ने जिस तरह सोनीपत,पानीपत,रोहतक, झज्जर, कैथल, जींद, भिवानी, हिसार और गोहाना को आगजनी का निशाना बनाया उससे प्रतीत होता है कि इस साजिश कि तैयारी काफी पहले से की जा रही थी जिसकी भनक तक खट्टर सरकार को नहीं लगी। इस आग मे केवल विपक्ष के नेता ही नहीं वरन सत्ता पक्ष के नेता भी सिर्फ जाट होने के करना तमाशा ही नहीं देखते रहे वरन उन्होने तो आग मे घी डालने वाले बयानों से अपनी संकुचित सोच को जग जाहीर कर दिया।अब हालत ऐसे हो गए हैं कि गैर जाट अपने कार्यस्थलों मे जाटों को रखने से पहले दस बार सोचेंगे क्यों कि जो जाट वहाँ काम कर रहे थे वे भी उस भीड़ (जाटों की भीड़)का हिस्सा बन गए और समान लौटकर ले गए। आश्चर्य तो ये है की वे स्कूटर मोटरसाइकलकों लौटने के बाद आराम से चला रहे रहे हैं और लोकल पुलिस और प्रशासन जानते हुए भी कोई कार्रवाई नहीं कर रहा क्यों?


                       रोहतक मे  पुलिस को खुली चुनौती देते दंगाई 
अगर इस तरह की सुनियोजित घटना किसी मुस्लिमों (मुज्जफरनगर की घटना गवाह है की कैसे जाट और मुस्लिम मे झगड़े पर उत्तरप्रदेश सरकार ने मुस्लिमों का साथ दिया) या दलितों के साथ हुई होती अब प्रांतीय,राष्ट्रीय संगठन किस तरह सक्रिय हो गए होते। हाय हाय के नारे और छ्द्म मानवअधिकारों के पेरोकर अपनी छाती कूट कूट कर हँगामा खड़ा कर देते और कुछ संयुक्त राष्ट्र संघ जाने की धम्की देते अलग से। किन्तु ये मामला हिंदुओं के बीच का है और पीड़ित लोग सैनी ब्राह्मण और बनिया है इसलिए सभी मौन ही नहीं हैं वरन निश्चिंत भी हैं।किन्तु सावधान 2019 तक देश मे इतने चुनाव होने वाले हैं कि सभी सत्ताधारियों पर गाज गिरेगी ज़रूर।
     


      बीजेपी अटल बिहार बाजपई के नेत्रत्व मे 1998 से 2004 तक सत्ता फिर 10 वर्ष गायब रही क्यों? आकलन ज़रूरी है। जिस बीजेपी को ब्राह्मण बनियों और कुछ ठाकुरों की पार्टी कहा जाता था वो इनसे लगातार छिटकती जा रही है और इन तीनों को छोडकर सभी के पीछे भाग रही है। और जब तब सरकारी कर्मचारियों और अधिकारियों के विषय मे उल जलूल कड़े कानून बनाकर उन सबको भी अपने से दूर कर रही है। कहीं ऐसा न हो कि पूरे के चक्कर मे आधे से भी बीजेपी हाथ न धो दे,वैसे भी बीजेपी से लोगों का मोह भंग होना शुरू हो चुका है।    

 

 
                                                            ::: प्रदीप भट्ट :::

                                                       25.06.2016


 


Wednesday, 22 June 2016

भारत में यहूदी



“भारत मे यहूदी“


      यहूदी शब्द का उच्चारण करते ही इज़राइल का ध्यान आना स्वाभाविक हैं।क्यो की दुनियाँ मे सबसे ज्यादा यहूदियों की संख्या यहीं पाई जाती है किन्तु क्या आपको ज्ञात है कि भारत मे भी कुछ यहूदी परिवार बसते हैं। भारत मे जहाँ हर दूसरी जाती अपने को अल्पसंख्यक का दर्ज़ा दिये जाने पर और आरक्षण दिये जाने बाबत जमीन आसमां एक किए रहती है और अपने आपको हिंदुओं के बनिस्पत कम संख्या के होने का दावा करती हैं वहीं यहूदी बरसों से शांति के साथ महराष्ट्र की राजधानी और देश की वित्तीय राजधानी मुंबई मे निवास करती हैं। देश के अन्य भागों मे भी इनके इक्का दुक्का मिलने की संभावनाओं से इंकार नहीं किया जा सकता। किन्तु इनकी सामाजिक और आर्थिक स्थिति वास्तव मे पूर्व के मुक़ाबले काफी दयनीय हो गई है। इनकी बरसों से चली आ रही अल्पसंख्यक का दर्ज़ा दिये जाने संबंधी मांग भी काफी समय से महाराष्ट्र सरकार के पास लंबित है जिसे शायद इस वजह से लंबित रखा गया हो कि इनकी पूरे देश मे आबादी है ही कितनी ? और वैसे भी इनसे कुछ राजनैतिक फायदा तो किसी भी प्रांतीय या राष्ट्रीय पार्टी को होने वाला नहीं है। अगर ऐसा है तो ये दुर्भाग्यपूर्ण है। जो लोग बरसों से भारत मे रह रहे हैं कम से कम वे भारत के खिलाफ तो कुछ करने से रहे क्यों कि भारत उनकी जन्म-भूमि या मात्रभूमि और कर्मभूमि है। भारत मे लगभग 5000 यहूदी रहे हैं। आइये चलिये कुछ भारत मे  रह रहे यहूदियों पर प्रकाश डालते हैं:-

      ऐसा माना जाता है कि लगभग 2000 वर्ष पहले जब येरूशलम मे सेकंड टेंपल तबाह हुआ तब इज़राइल के उत्तरी हिस्से से पानी के जहाज से वहाँ से पलायन कर समुद्र के रास्ते भारत के आज के महराष्ट्र राज्य के नौगांव मे प्रवेश कर गए। यहाँ तक आते आते उनका जहाज चकनाचूर हो गया जिससे उनके लिए आगे बढ़ना मुश्किल था इसलिए उन्होने यहीं पर अपना ठिकाना बना लिए और स्मृति स्वरूप एक स्मारक बना दिया ताकि आने वाली नस्लों को याद रहे।यहाँ यह विशेष है कि इन लोगों को बेने इज़राइल कहा जाता हैं। इसके अतिरिक्त भी बगदादी और कोचीनी यहूदी भी यहाँ पाये जाते हैं। आज की तारीख मे ये तीनों ही मान्यता प्राप्त यहूदी समुदाय हैं। इसके अतिरिक्त भी मिज़ोरम और मणिपुर मे एक जनजाति ब्नेई मेनशे को भी यहूदी समुदाय समझा जाता है ऐसा इसलिए क्यों कि 2005 मे इज़राइल प्रधान रब्बी ने इसकी पुष्टि कि और इन्हे आप्रवासी घोषित कर दिया गया इसी कड़ी मे आंध्र प्रदेश मे तमिल बोलने वाले एक जनजाति बेने एफराइम भी यहूदी होने का दावा कर रही है और    ब्नेई मेनशे की ही तरह व्यवहार होने की उम्मीद कर रही है।


      चूंकि यहूदियों मे धर्मांतरण नहीं होता और वे अपने आप को ईश्वर के चुने हुए लोग मानते हैं अतएव उन्हें सिर अंतरधार्मिक विवाह के लिए ही बढ़ावा दिया जाता है। यहाँ यह विशेष है कि भारत मे रहने वाले यहूदी इस बात को बड़ी मजबूती से रखते हैं कि और देशों के मुक़ाबले भारत मे कभी भी यहूदियों का शोषण नहीं हुआ न ही यहूदियों पर किसी भी प्रकार का जुल्म हुआ वरन उन्हे यहाँ के लोगों से बेन्तेहा प्यार और इकरार मिला हाँ ये शिकायत अवश्य रही कि भारत के लोग उन्हें गलती से ईसाई समझने कि भूल कर जाते हैं ऐसा इसलिए भी कि जब 2011 मे जनगणना हुई तो जानकारी के अभाव मे जानकारी जूटा रहे लोग उनके धर्म के विषय मे ज्ञान न रख पाने के कारण उनको ईसाई लिख देते हैं। इसका कारण कुछ लोग ये भी मानते हैं कि अब उनके ही समुदाय के लोग अच्छे जीवन के आशा मे अपने धर्म विशेष पर ध्यान नहीं देते।जब वे स्वंम ऐसा करते हैं तो फिर अपने बच्चों के कैसे सिखाएँगे।

      भारत मे रह रहे यहूदी इस बात से भी खफा हैं कि उनके समुदाय के पास इबादत कि अगुआई करने के लिए कोई क्वालिफ़िएड पुरोहित तक नहीं है इसलिए लिए बच्चे के जन्म से लेकर मरण तक का सारा कार्य परिवार के बुजुर्ग ही कर रहे हैं। महाराष्ट्र मे बगदादी यहूदियों ने काफी अच्छे सामाजिक कार्यों को अंजाम दिया है। जिनमे पुणे मे कुष्ठ रोग अस्पताल,मुंबई मे डेविड सासुन लाइब्रेरी, सासुन गोदी,मेसीना अस्पताल,सासुन अस्पताल और इन सबमे सबसे बेहतरीन कार्य Bank of India की स्थापना। भारत मे रह रहे यहूदी अपने सभी विशेष कार्य हिब्रू भाषा मे ही करते हैं वैसे वे आम बोलचाल मे मराठी भाषा का ही प्रयोग करते हैं। भारत मे सभी धर्मो के लिए विशेष अवकाश का प्रावधान है किन्तु यहूदियों की कुछ विशेष पहचान नहीं होने के कारण यहूदियों को अपने उत्सवों (पासओवर, योम किप्पूर एवं,हनुक्का) पर भी काम करना पड़ता है अथवा उन्हे अवकाश लेकर उत्सव मनाना पड़ता है।

      येरुशलम एक ऐसा नाम है जो ईसाइयों, मुस्लिमों और यहूदियों के दिल में सदियों से विवादित इतिहास के बीच बसता आ रहा है.हिब्रू में इसे येरुशलाइम और अरबी में अल-कुद्स के नाम से जाना जाता है.ये दुनिया के सबसे पुराने शहरों में एक है. इसे जीता गया, ये तबाह हुआ और फिर बार-बार उठ खड़ा हुआ. इसका ज़र्रा ज़र्रा इसे इसकी अतीत की पहचान से जोड़ता है। हालांकि इससे जुड़ी ज़्यादातर कहानियां इसके बंटवारे और अलग-अलग धर्मों केअनुयायियों में टकराव और संघर्ष से भरी पड़ी हैं, लेकिन वो सभी इस पवित्र शहर का सम्मान करने में एक साथ हैं.दरअसल शहर की आत्मा पुराने शहर में है, संकरी गलियां और ऐतिहासिक स्थापत्य वाला पुराना शहर, जो इसके चार हिस्सों को अलग चरित्रों ईसाइयों, मुस्लिमों, यहूदियों और आर्मेनियाइयों से जोड़ता है। ये चारों ओर पत्थर की दीवारों से घिरा है और यहां कुछ ऐसी जगहें हैं, जिन्हें दुनिया के पवित्रतम स्थलों में शुमार किया जाता है।
      येरूशलम मे यहूदियों के प्रार्थना स्थल जिसे पवित्र दीवार के नाम से जाना जाता है। यहूदी हिस्सा कोटेल या पश्चिमी दीवार का घर भी है, माना जाता है कि यहां कभी पवित्र मंदिर खड़ा था, ये दीवार उसी बची हुई निशानी है।यहां मंदिर में अंदर यहूदियों की सबसे पवित्रतम जगह ''होली ऑफ होलीज'' है। यहूदी मानते हैं यहीं पर सबसे पहली उस शिला की नींव रखी गई थी, जिस पर दुनिया का निर्माण हुआ, जहां अब्राहम ने अपने बेटे इसाक की कुरबानी दी।पश्चिमी दीवार, ''होली ऑफ होलीज'' की वो सबसे क़रीबी जगह है, जहां से यहूदी प्रार्थना कर सकते हैं. इसका प्रबंध पश्चिमी दीवार के रब्बी करते हैं. यहां हर साल लाखों लोग आते हैं.दुनियाभर से लाखों यहूदी यहां आते हैं और ख़ुद को अपनी विरासत से जोड़ते हैं, ख़ासकर छुट्टियों के दौरान। 



      श्री सी वी राव जो की महाराष्ट्र के राज्यपाल थे ने महराष्ट्र मे रह रहे यहूदियों को अल्पसंख्यक का दर्ज़ा दिये जाने की सिफ़ारिश की थी। इस विषय मे यहूदी समुदाय के कुछ विशिष्ट लोगों ने भारत सरकार तक से इस विषय मे ध्यान दिये जाने की प्रार्थना की है किन्तु मामला अभी भी लंबित है। अब तो ऐसी आशा ही की जा सकती है कि इस विषय मे जल्द से जल्द कोई निर्णय हो जाए ताकि महाराष्ट्र मे रह रहे 5000 यहूदियों को अपने अधिकारों के लिए धक्के न खाने पड़े।

      अच्छी बात ये रही कि इस लेख को लिखते लिखते महाराष्ट्र सरकार ने महराष्ट्र मे रह रहे यहूदियों कि बरसों पुरानी मांग को आखिर मान लिया और कल ही यहूदियों को अल्पसंख्यक कर दर्ज़ा दिये जाने का निर्णय ले लिया गया है।

                                                                ::: प्रदीप भट्ट :::


22.06.2016

Saturday, 18 June 2016

सिल्क रूट



“रेशम का मार्ग यानि silk rout“



      सिल्क रूट नाम को मैंने पहली बार शायद 3rd या 4th स्टैंडर्ड की किताब मे पढ़ा था। तब अपनी समझ के हिसाब से मैं यही समझता था कि ये कोई रेशमी मार्ग हो जिस पर रेशम के कपड़े या थान बिछे हुए होंगे। मैं ये सोचकर रोमांचित हो जाता था कि रेशमी कपड़ों को बिछाने के लिए कुल कितने मीटर या किलोमीटर कपड़े कि आवश्यकता पड़ी होगी या उस मार्ग पर क्या सिर्फ पैदल ही चला जा सकता है या उस पर घोडा-गाड़ी या कोई मोटर भी चलती होगी। बाल सुलभ मन की इन्हीं ढेरों आकांशाओं और शंकाओ को समेटे हम कब बड़े हो गए पता ही नहीं चला। खैर 2014 मे जब भारत के प्रधानमंत्री की चीन के राष्ट्रपति से लगातार दो मुलाकातें हुईं और ये चर्चा हुई कि उत्तराखंड के अतिरिक्त भी सिक्किम के रास्ते अगर कैलाश मानसरोवर यात्रा की अनुमति अगर चीन सरकार सिल्क रूट के द्वारा दे दे तो रास्ता कुछ सुगम और कम हो जाएगा ।जिस पर चीनी राष्ट्रपति ने सकारात्मक नजरिया पेश किया। बस तभी से बचपन मे पढे गए उस सिल्क रूट की यादें फिर ताजा हो गई और बाल सुलभ मन की इन्हीं ढेरों आकांशाओं और शंकाओ ने फिर सिर उठा लिया और निश्चित किया कि क्यों न इस पर एक लेख लिखा जाए।  आइये जानते हैं ये सिल्क रूट क्या है और कब से है:-


      सिल्क रूट या रेशमी मार्ग को प्राचीन चीनी सभ्यता के व्यापारिक मार्ग के रूप में जाना जाता है. दो सौ साल ईसा पूर्व से दूसरी शताब्दी के बीच हन राजवंश के शासन काल में रेशम का व्यापार बढ़ा. पहले रेशम के कारवाँ चीनी साम्राज्य के उत्तरी छोर से पश्चिम की ओर जाते थे. लेकिन फिर मध्य एशिया के क़बीलों से संपर्क हुआ और धीरे-धीरे यह मार्ग चीन, मध्य एशिया, उत्तर भारत, आज के ईरान, इराक़ और सीरिया से होता हुआ रोम तक पहुंच गया. ग़ौरतलब है कि इस मार्ग पर केवल रेशम का व्यापार नहीं होता था बल्कि इससे जुड़े सभी लोग अपने-अपने उत्पादों का व्यापार करते थे. कालांतर में सड़क के रास्ते व्यापार करना ख़तरनाक हो गया तो यह व्यापार समुद्र के रास्ते होने लगा।


       रेशम मार्ग प्राचीनकाल और मध्यकाल में ऐतिहासिक व्यापारिक-सांस्कृतिक मार्गों का एक समूह था जिसके माध्यम से एशिया, यूरोप और अफ्रीकाजुड़े हुए थे। इसका सबसे जाना-माना हिस्सा उत्तरी रेशम मार्ग है जो चीन से होकर पश्चिम की ओर पहले मध्य एशिया में और फिर यूरोप में जाता था और जिस से निकलती एक शाखा भारत की ओर जाती थी। रेशम मार्ग का जमीनी हिस्सा 6,500 KM लम्बा था और इसका नाम चीन के रेशम के नाम पर पड़ा जिसका व्यापार इस मार्ग की मुख्य विशेषता थी। इसके मध्य एशिया, यूरोप, भारत और ईरान में 

चीन के हान राजवंशकाल में पहुँचना शुरू हुआ। रेशम मार्ग का चीन, भारत, मिस्र, ईरान, अरब और प्राचीन रोम की महान सभ्यताओं के विकास पर गहरा असर पड़ा। इस मार्ग के द्वारा व्यापार के आलावा, ज्ञान, धर्म, संस्कृति, भाषाएँ, विचारधाराएँ, भिक्षु, तीर्थयात्री, सैनिक, घूमन्तू कबीले जातियाँ, और बीमारियाँ भी फैलीं। व्यापारिक नज़रिए से चीन रेशम, चाय और चीनी मिटटी के बर्तन भेजता था, भारत मसाले, हाथीदांत, कपड़े, काली मिर्च और कीमती पत्थर भेजता था और रोम से सोना, चांदी, शीशे की वस्तुएँ, शराब, कालीन और गहने आते थे। हालांकि 'रेशम मार्ग' के नाम से लगता है कि यह एक ही रास्ता था। वास्तव में बहुत कम लोग इसके पूरे विस्तार पर यात्रा करते थे। अधिकतर व्यापारी इसके हिस्सों में एक शहर से दूसरे शहर सामान पहुँचाकर अन्य व्यापारियों को बेच देते थे और इस तरह सामान एक हाथ से दूसरे हाथ मे बदल-बदलकर हजारों मील दूर तक चला जाता था। शुरू में रेशम मार्ग पर व्यापारी अधिकतर भारतीय और बैक्ट्रियाई थे, फिर सोग़दाई हुए और मध्यकाल में ईरानी और अरब ज़्यादा थे। रेशम मार्ग से समुदायों के मिश्रण भी पैदा हुए, मसलन तारिम द्रोणी में बैक्ट्रियाई, भारतीय और सोग़दाई लोगों के मिश्रण के सुराग मिले हैं।
      चीनी इस शहर को पहले शिव-फु कहा जाता था और ये सन् 206 ईसा पूर्व से 220 ई0 पू तक हान और 618 से 907 ईसवी तक तंग ख़ानदान के ज़ेर-ए-इक़तिदार रहा। 751स्वी में जंग तआलास में चीनीयों को अरबो के हाथों ज़बरदस्त शिकस्त हुई और काशगर मिल्लत-इस्लामीया में शामिल होगया और आज भी यहां मुसलमानों की अक्सरीयत है। ये शहर 1219 स्वी में चंगेज़ ख़ान के हमलों से तबाह हुआ। मार्को पोलो ने 1273स्वी में काशगर की सैर की। 1389स्वी में काशगर अमीर तैमूर के अताब का निशाना बिना।तर्क, उइग़ुर, मंगोल और दीगर वुस़्त एशियाई सल़्तनतों का हिस्सा बनने के बाद 1759स्वी में चंग ख़ानदान के एद में काशगर एक मरतबा फिर चीन का हिस्सा बन गया, यूं मशरक़ी तुर्किस्तान चीनी तुर्किस्तान बन गया। मुसलमानों ने कई मरतबा हुकूमत-ए-वक्त के ख़िलाफ़ बग़ावत की, लेकिन हर मरतबा उसे कुचल दिया गया। इन में मशहूर-तरीन बग़ावत याक़ूब बेग की ज़ेर-ए-क़यादत हुई थी, जिन के एद में आज़ाद तुर्किस्तान की हुकूमत 1865स्वी से 1877स्वी तक कायम रही और इस का दारुलहकूमत काश्गर ही था। याक़ूब बेग के इंतिक़ाल के बाद 1877स्वी में चंग ख़ानदान ने इलाके पर मुकम्मल नियंत्रण हासिल करलिया।

      उत्तरी रेशम मार्ग  वर्तमान जनवादी गणतंत्र चीन के उत्तरी क्षेत्र में स्थित एक ऐतिहासिक मार्ग है जो चीन की प्राचीन राजधानीशिआन से पश्चिम की ओर जाते हुए टकलामकान रेगिस्तान से उत्तर निकलकर मध्य एशिया के प्राचीन बैक्ट्रिया और पार्थिया राज्य और फिर और भी आगे ईरान और प्राचीन रोम पहुँचता था। यह मशहूर रेशम मार्ग की उत्तरी शाखा है और इस पर हज़ारों सालों से चीन और मध्य एशिया के बीच व्यापारिक, फ़ौजी और सांस्कृतिक गतिविधियाँ होती रहीं हैं। पहली सहस्राब्दी ईसापूर्व में चीन के हान राजवंश ने इस मार्ग को चीनी व्यापारियों और सैनिकों के लिए सुरक्षित बनाने के लिए यहाँ पर सक्रीय जातियों के खिलाफ़ बहुत अभियान चलाए जिस से इस मार्ग का प्रयोग और विस्तृत हुआ। चीनी सम्राटों ने विशेषकर शियोंगनु लोगों के प्रभाव को कम करने के बहुत प्रयास किये।


      उत्तरी रेशम मार्ग गांसू प्रान्त के हेशी गलियारे से निकलकर तीन उपमार्गों में बंटता है।
1)  टकलामकान रेगिस्तान से उत्तर में गुज़रता है और दूसरा उसके नीचे से और फिर यह दोनों कशगार शहर के नख़लिस्तान (ओएसिस) में फिर एक हो जाते हैं। कशगार से आगे यह फिर बंट जाते हैं।
2)  एक शाखा किरगिज़स्तान की अलई वादी से होते हुए उज़बेकिस्तान के तिरमिज़ क्षेत्र और अफ़्ग़ानिस्तान के बल्ख़ क्षेत्र जाती है। दूसरी शाखा फ़रग़ना वादी में ख़ोक़न्द से होकर काराकुम रेगिस्तान से निकलती हुई मर्व पहुँचती है।
3)  तीसरा मार्ग तियान शान के पर्वतों से उत्तर निकलकर तूरफ़ान और फिर कज़ाख़स्तान के अल्माती शहर पहुँचता है।
4)  इनमे एक शाखा ऐसी भी है जो उत्तरपश्चिम की तरफ़ निकलकर पहले अरल सागर और कैस्पियन सागर और फिर उस से आगे कृष्ण सागर पहुँचती है।

      काश्गर, कशगार, काशगुर या काश  मध्य एशिया में चीन के शिनजियांग प्रांत के पश्चिमी भाग में स्थित एक नख़लिस्तान (ओएसिस) शहर है, जिसकी जनसंख्या लगभग 3,50,000 है। काश्गर शहर काश्गर विभाग का प्रशासनिक केंद्र है जिसका क्षेत्रफल 1,62,000 KM और जनसंख्या 35 लाख है। काश्गर शहर का क्षेत्रफल 15 KM  है और यह समुद्र तल से 1,289.5 मीटर की औसत ऊँचाई पर स्थित है। यह शहर चीन के पश्चिमतम क्षेत्र में स्थित है और तरीम बेसिन और तकलामकान रेगिस्तान दोनों का भाग है, जिस वजह से इसकी जलवायु चरम शुष्क है। पुरातन काल से ही काश्गर व्यापार तथा राजनीति का केंद्र रहा है और इसके भारत से गहरे सांस्कृतिक, धार्मिक और व्यापारिक सम्बन्ध रहे हैं। भारत से शिनजियांग का व्यापार मार्ग लद्दाख़ के रास्ते से काश्गर जाया करता था। ऐतिहासिक रेशम मार्ग की एक शाखा भी, जिसके ज़रिये मध्य पूर्व, यूरोप और पूर्वी एशिया के बीच व्यापार चलता था, काश्गर से होकर जाती थी। काश्गर अमू दरिया वादी सेखोकंद, समरकंद, अलमाटी, अक्सू, और खोतान मार्गो के बीच स्थित है।


      काशगर अवामी जमहूरीया चीन के ख़ुदमुख़तार इलाके शिनजियांग का एक शहर है जिस की आबादी 1999 के मुताबिक लगभग 2 लाख है । ये शहर सहरा-ए-तकलामकान के मग़रिब की जानिब कोह तयाँ शान के दामन में दरया-ए-काशगर के किनारे पर बसा हुआ है। समुद्र-सतह से इस की बुलंदी 1.290 मीटर है। वादी जीहओ-  की तरफ से  खोक़ंद, समरक़न्द, अलमाते और दीगर शहरों से आने वाले रास्तों के वुस़्त में स्थित होने की वजह से माज़ी में ये शहर राजनैतिक ओर कारोबारी मरकज़ रहा है। मौजूदा शहर के 200 KM  दूर मग़रिब से करगज़स्तान की सरहद के क़रीब शाहराह रेशम गुज़रती है जहां से जनूब मग़रिब की जानिब बलख और शुमाल मग़रिब की जानिब फरगाना के आसान रास्ते जाते हैं। काशगर शाहराह कराकोरम ओर दर्रा-ए-ख़न्जराब के ज़रिए पाकिस्तान के दारुलहकूमत इस्लामाबाद से मुनसलिक है और दर्राह तौरगुरत और अरक्षतिअम से करगज़स्तान से मिला हुआ है।दरया-ए-काशगर से ज़रख़ेज़ होने वाली ज़मीनों पर कपास, अनाज और फल काश्त किए जाते हैं। अलावा अज़ीं क़रीबी चुरा गउहूं में गुला बानी मबानी भी की जाती है। क़दीम शाहराह रेशम के किनारे वाक़िअ इस शहर में सदीयों से ताजिरों के कारवानों के लिए रवायती हाथ से बने कपास और रेशम के पारचा जात, कालीन, चमड़े की मसनूआत और जे़वरात तैयार किए जाते थे जो आज भी यहां की अहम सनअत हैं। तुर्कों के उईग़ुर क़बीले से ताल्लुक रखने वाले मुसलमान यहां अक्सरीयत में हैं।


      आखिर ये सवाल उठना लाजिम है कि पुराने जमाने मे जब लोग सिल्क रूट का प्रयोग करते रहे होंगे तो वे रास्ते मे क्या-क्या खाते थे क्यों कि रेशमी मार्ग इतना सरल तो था नहीं। गानसू प्रांत के दुनहुआंग में मोगावो की गुफाओं की भित्तिचित्रों से उस समय के यात्रियों के भोजन के बारे में पता चलता है। प्राचीन व्यापार मार्ग पर दुनहुआंग व्यवसाय का केंद्र था।


प्राचीन सिल्क मार्ग पर गुफाओं पर करीब 70 हजार वर्गमीटर में भित्तिचित्र हैं। कुछ इलाकों में पता चली ये दीवार और करीब 50 हजार प्राचीन किताब साहसिक यात्रियों के विविध विवरणों की जानकारी मिलती है कि वे इस व्यापार मार्ग पर क्या खाते थे। यह मार्ग चीन के जियान शहर को रोम से जोड़ता था। लानझोउ यूनिवर्सिटी ऑफ फिनांस एंड इकोनॉमिक्स में शोधकर्ता गाओ कियान ने शिन्हुआ संवाद समिति से कहा कि कई पेंटिंग में दिखता है कि लोग डोनर कबाब खा रहे हैं। यह भोजन अब पूरी दुनिया में प्रचलित है। शोधकर्ताओं को खाने के कुछ बर्तन भी मिले हैं, जो इन व्यंजनों को तैयार करने में प्रयोग होते थे।




       अंत मे प्राचीन रेशम मार्ग बहाल करने की चीन और मध्य एशिया के उसके पड़ोसी देशों की कोशिशों के बीच इसे यूनेस्को की विश्व विरासत स्थलों की सूची में शामिल किया है। इसके साथ ही बीजिंग में स्थित विश्व के सबसे लंबे कृत्रिम जलमार्ग ग्रेट कैनाल को भी यूनेस्को की इस सूची में शामिल किया गया है।चीन, कजाकिस्तान और किर्गिस्तान ने संयुक्त रूप से रेशम मार्ग के हिस्से को विश्व विरासत स्थल में शामिल करने के लिए आवेदन किया था। यह मार्ग 2,000 साल पहले एशिया और यूरोप के बीच व्यापार एवं सांस्कृतिक आदान प्रदान का रास्ता रहा है।विश्व विरासत समिति ने कतर की राजधानी दोहा में एक सत्र के दौरान यूनेस्को की सूची को मंजूरी दी। वैसे चीन का इसमें अपना स्वार्थ है। चीन अपनी धीमी होती अर्थव्यवस्था को बढ़ावा देने के लिए रेशम मार्ग बहाल कर रहा है।दुनिया के कुछ सबसे लंबे रेल रास्तों में से एक है युक्सिनाउ। यह एशिया और यूरोप के बीच यातायात को तेज और आसान बनाकर दोनों महा-द्वीपों के बीच व्यापार को नई ऊंचाइयों तक पहुंचने का प्रयास कर रहा है।


                                                            ::: प्रदीप भट्ट :::
                                                               18.06.2016