-प्रदीप की कलम से -
-चरित्रहीन
धूर्त चीन-
किसी
भी राष्ट्र या देश की पह्चान उसकी अंतर्राष्ट्रीय छवि पर निर्भर करती है। किसी भी
देश की कथनी और करनी अगर अलग अलग होगी तो उस देश की इमेज विश्व पटल पर निश्चित रुप
से धूमिल होने में समय नहीं लेती। अब इसे
हमारा दुर्भाग्य ही कहेगें कि भारत वर्ष के पड़ौसियों में चीन और पाकिस्तान जैसे
धूर्त और चरित्रहीन देश भी हैं जिनकी करनी
और करनी में सदैव ही जमीन आसमान का अंतर रहा है। पाकिस्तान तो 1947 में हमारे ही
शरीर से अलग हुआ एक हिस्सा है जिसने सदैव ही भारत को अपना दुश्मन माना। जब कि वो
जन संख्या आकार और शक्ति में भारत के बराबर कहीं भी नहीं ठहरता है। और चीन उसका तो
सदियों पुराना इतिहास रहा है कि खुद तो चैन से रहो किंतु सबको चैन से मत रहने
दो। चलिए तो आज इसी धूर्त और चरित्रहीन
चीन पर कुछ प्रकाश डालते हैं।
इससे
पहले भी ईसा पूर्व 220 से 206 तक
हान राजवंश के शासकों ने चीन पर राज्य किया और नई संस्कृती
की स्थापना की जो आज तक कायम है। हान वंश ने अपने साम्राज्य को कोरिया वियतनाम, मंगोलिया
और मध्य एशिया तक फैलाया और रेशम मार्ग की स्थापना की। इनके पतन के बाद पूरे चीन में अराजकता का माहौल
व्याप्त हो गया। तब पुन: चीन
की स्थापना किन वंश के द्वारा 221 ईसा
पूर्व में हुई। अपनी स्थापना के तुरंत बाद से इसने आम जनता पर भाषा का बलपूर्वक
मानकी करण किया गया जिस कारण विद्रोह हुआ और इस वंश का जल्दी ही अंत हो गया।580-614 ईसवीं
तक सुई वंश, इसके
बाद तेंग एव्म सोंग वंश के समय में चीनी संस्कृति और टेक्नोलाजी अपने चरम तक
पहुँची। सोंग वंश चीन का
सांस्कृतिक रूप से स्वर्णिम काल था जब चीन में कला,
साहित्य और सामाजिक जीवन में बहुत उन्नति हुई। सातवीं से
बारहवीं सदी तक चीन विश्व का सबसे सुसंस्कृत देश बन गया। सोंग वंश चीन का सांस्कृतिक रूप से
स्वर्णिम काल था जब चीन में कला, साहित्य और सामाजिक जीवन में बहुत उन्नति हुई। सातवीं से
बारहवीं सदी तक चीन विश्व का सबसे सुसंस्कृत देश बन गया। युआन शासन तेरहवीं सदी (1279
से 1368 ई.) से
पश्चिमी देशों ने चीन से सम्बन्ध कायम करने का प्रयास किया। इस समय चीन में
युआनों का शासन था। मंगोलों ने इसी काल में चीन पर आक्रमण
किया। यूरोप का प्रसिद्ध यात्री तथा व्यापारी मार्कोपोलो
अपने पिता तथा चाचा के साथ वेनिस से इसी समय चीन पहुँचा। अल्प काल के लिये उसने कुबलाई
खाँ के दरबार में नौकरी भी की। मिंग-शासन (1368-1644 ई.) इस दौरन मिंग शासको ने पश्चिमी
देशो से समबंध बनाए एवम पश्चिम के साथ अपने समबंधो को नया आयाम दिया। चिंग वंश (1644-1838 ई.) अबतक चीन में अनेक पश्चिमी जातियाँ आ
गयी थीं। 1516 ई. में
पोर्तुगीज आ गये थे, 1575 ई. में
स्पेनिश आ गये थे;
डचों का आगमन 1604 ई. में
हुआ था और अँग्रेज 1637 ई. में
आये थे। पर इस समय तक अमरीकी तथा रूसी नहीं आ पाये थे। चिंग शासन-काल में इनका आगमन भी चीन में हो गया। 1644 ई. में मिंग वंश का शासन समाप्त हो गया।चीनी गणराज्य (1912-49)
1 जनवरी 1912 के दिन चीनी गणराज्य
की स्थापना हुई और किंग वंश के पतन का आरम्भ भी। के॰एम॰टी या राष्ट्रवादी दल के सुन
यात सेन को अंतरिम अध्यक्ष चुना गया लेकिन बाद में अध्यक्षता युआन शिकाई को सौंपी गयी
जिसने ये सुनिश्चित किया की क्रांति के लिए पूरी बेईयांग सेना किंग साम्राज्य का
साथ नहीं देगी। 1915 में युआन ने स्वयं को चीन का सम्राट घोषित कर दिया लेकिन बाद
में उसे राज्य को त्यागने और गणराज्य को वापस सौंपने के लिए बाधित किया गया और
उसने स्वयं भी ये अनुभव किया की ये अलोकप्रिय कदम है, न केवल लोगों के
लिए बल्कि स्वयं उसकी बेईयांग सेना और सेनाअध्यक्षों के लिए भी। 1916 में युआन शिकाई की मृत्यु के बाद चीन राजनैतिक रूप से खंडित हो गया,
1920 के अंतिम वर्षों में चियांग
काई-शेक द्वारा कुओमिन्तांग दल की स्थापना की, जिसने चीन को
पुनः एकीकृत किया और राष्ट्र की राजधानी नानकिंग (वर्तमान नानजिंग) घोषित की और एक
" राजनैतिक संरक्षण" का कार्यान्वयन किया गया जो सुन यात-सेन द्बारा चीन
के राजनैतिक विकास के लिए निधारित किये गए कार्यक्रम का मध्यवर्ती स्टार था जिसका
उद्देश्य चीन को आधुनिक और लोकतांत्रिक राष्ट्र बनाना था। प्रभावी रूप से,
" राजनैतिक संरक्षण" का अर्थ कुओ मिन्तांग द्वारा एक-दलीय
शाशन था। 1937-45 के चीन जापान युद्द के
कारण राष्ट्रवादियों और साम्यवादियों के बीच एक असहज गठबंधन हुआ जिसमें एक करोड़
चीनी नागरिक मारे गए। 1945 में जापान के समर्पण के साथ, चीन विजयी
राष्ट्र के रूप में तो उभरा लेकिन वित्तीय रूप से उसकी स्तिथि बिगड़ गयी।
राष्ट्रवादियों और साम्यवादियों के बीच जारी अविश्वास के कारण चीनी गृह युद्ध की
नींव पड़ी। 1947 में, संवैधानिक शासन स्थापित किया गया था,
लेकिन आर ओ सी संविधान के बहुत से प्रावधानों को चल रहे गृह युद्ध
के कारण मुख्य भूमि पर कभी लागू ही नहीं किया गया। 1949
से आज तक चीन के साम्यवादी दल (सीसीपी) ने चीनी गृह युद्ध में अपनी जीत के
बाद माओ तुंग के नेतृत्व में चीनी मुख्यभूमि के अधिकांश भाग पर नियंत्रण कर लिया। 1
अक्टूबर-1949 को उन्होंने एक समाजवादी राष्ट्र के रूप में
"लोकतान्त्रिक तानाशाही" की स्थापना की जिसमे केवल सीसीपी ही वैध राजनैतिक
दल था। चिआंग कई-शेक के नेतृत्व वाली चीनी सरकार की केंद्रीय सरकार को ताईवान में
आश्रय लेने के लिए विवश किया गया जिसपर उन्होंने द्वितीय विश्व युद्ध में अधिकार
किया था और वे चीनी गणराज्य (ताइवान) की सरकार को वहीँ ले गए। सैन्य संघर्ष 1950 में
समाप्त हो गया किंतु शान्ति संधि पर दोनों ही पक्षों ने हस्ताक्षर नहीं किए। 1970
के अंतिम वर्षों के बाद से, चीन गणराज्य ने अपने नियंत्रण के
क्षेत्रों में पूर्ण, बहु-दलीय, प्रतिनिधियात्मक
लोकतंत्र लागू किया जैसे ताइवान, बहुत से छोटे द्वीपों जैसे
कुइमोय और मात्सु में। समाज के सभी क्षेत्रों द्वारा आज, चीनी
गणराज्य (ताइवान) में सक्रिय राजनीतिक भागीदारी है। चीनी गणराज्य (ताइवान) की
राजनीति में मुख्य विपाटन ताइवान की औपचारिक स्वतंत्रता बनाम चीन की मुख्य भूमि के
साथ अंतिम राजनीतिक एकीकरण प्रमुख मुद्दा है।
चीनी गृह युद्द के बाद मुख्य भूमि चीन
विघटनकारी सामाजिक आंदोलनों के दौर से गुजरी जिसका आरम्भ 1950 में "ग्रेट
लीप फार्वर्ड"
से हुई और जो 1950 के दशक की "सांस्कृतिक क्रांति" के साथ
जारी रही जिसने चीन की शिक्षा व्यवस्था और अर्थव्यवस्था का बिखराव कर दिया। माओ
ज़ेदोंग और झोउ एनलाई जैसे अपनी पहली पीढ़ी के साम्यवादी दल के नेताओं की मृत्यु
के साथ ही, चीनी जनवादी गणराज्य ने देंग जियाओपिंग की वकालत
में राजनीतिक और आर्थिक सुधारों की एक श्रृंखला आरम्भ की जिसने अंतत: 1950 के दशक
में चीनी मुख्य भूमि के तीव्र आर्थिक विकास की नींव रखी। 1978 के बाद के सुधारों
के कारण समाज के कई क्षेत्रों पर नियंत्रण में कुछ ढील दी गयी है। 1989 में
त्यानआनमेन चौक में छात्र विरोध समाप्त करने के लिए चीन की सेना ने उस आंदोलन को हिंसक रूप से कुचल दिया। 1997 में
ब्रिटेन द्वारा हौंग कांग को चीन को वापस दे दिया गया और 1999 में पुर्तगाल
ने मकाओ को।
एक जानकारी के अनुसार 1903 में जब
भारत ब्रिटिश इंडिया का हिस्सा था तब भारत ने चीन को युद्द में हराया था। 19659
में चीन ने तिब्बत पर जबरन कब्जा कर लिया और दलाई लामा को भागकर भारत में शरण लेनी
पड़ी। इसी बात को लेकर चीन और भारत के मध्य रस्साकशी चलती रही जिसकी कीमत भारत को
1962 में युद्ध से चुकानी पड़ी और चीन ने लगभग 38000 किलोमीटर जमीन पर कब्ज़ा कर
लिया। उस समय की तात्कालिक सरकार ने
बाकायदा 14 नवम्बर-1962 को भारतीय संसद में ये प्रस्ताव पास किया कि भारत चीन के
कब्जे में गई एक एक इंच जमीन को चीन से वापिस लेगा। किंतु आज तक हुआ कुछ नहीं। इसी
बीच 1965, 1971 एव्म 1999 में (अल्प युद्ध)
में भारत को पाकिस्तान से युद्ध
में उलझना पड गया। इस विषय में भी संसद में प्रस्ताव पारित हुए कि पाकिस्तान
द्वारा जबरन कब्जा की गई जमीन वापिस ली जाएगी। किंतु नतीजा वही ढाक के तीन पात्।
कारण स्पष्ट है कि उस समय की सरकारें ऐसा कुछ चाहती ही नहीं थीं । अब जब 2014 में
भारतीय राजनिति का परिदृष्य बदल गया है और वर्तमान सरकार ने चीन और पाकिस्तान से
भारत की एक एक इंच भूमि वापिस लेने का प्रण किया है तो दोनों ही देश परेशान हो गए
हैं। सरकारों की इच्छा शक्ति देश की सीमाओं पर भी दिखायी देने लगी है। गोली का
जवाब तोप के गोले से देने का फरमान वर्तमान सरकार ने सेना को सुना दिया है और सेना
भी पूरे जोश खरोश से सीमाओं पर जवाब दे रही है। विपक्षी पार्टियाँ और भारत के मीडिया घराने बार बार 1962 वाला
भारत नही है कहकर न जाने क्या साबित करना चाहते हैं । पिछ्ले दिनों ही मैंने
ट्विटर पर इंडिया टी वी के मालिक रजत
शर्मा के इस बयान पर कडी आपत्ति जताते हुए उन्हें बताया कि आप 1962 और 2020 की
तुलना क्यूँ करते हैं और अगर आपको तुलना करनी ही है तो 1967 वाले भारत से और आज के भारत से करें। उन्हें याद
दिलाया कि सीमा पर बाड़ लगाने को हुई झड़प के दौरान एक अल्प युद्ध में भारत के वीर
सैनिकों ने चीन के 350 से अधिक सैनिकों को पत्थर पर पटक पटक पर मारा था उस अल्प
युद्ध में हमारे भी लगभग 80 जवानों ने अपना बलिदान दिया था।
पिछ्ले दिनों अमेरिका ने भारत को
सहयोग कि पेशकश की है या ये कहें कि वह खुलकर भारत के समर्थन में आ गया है कारण
स्पष्ट है अमेरिका आस्ट्रेलिया ताईवान,
जापान हाँगकाँग सभी को ये समझ में आ गया है कि यदि समय रहते चीन को
नहीं रोका गया तो चीन एक राक्षस की भाँति काफी कुछ लील जाएगा। इसलिए साउथ चायना सी में भी चीन को घेरने की
बडी ज़रुरत ताकि उसकी नकेल सही तरीके से कसी जा सके क्यों कि चीन का 70-80 प्रतिशत
व्यापर उसी रास्ते से होता है और ये जग जाहिर है कि विश्व की राजनीति व्यापर से ही
तय होती है। किस देश को कहाँ से ज्यादा फायदा होगा वो उसी देश को सहयोग प्रदान
करेगा। वर्तमान विश्व पटल पर यदि दृष्टी डालें तो ये बात स्वत: स्पष्ट हो जाती है
कि कोरोना वायरस फैलाकर चीन कमजोर देशों पर आक्रमण कर उन्हें अपने अधीन करना चाहता
है किंतु उसने ये भूल भारत के विषय में करके गल्ती कर दी है। आज विश्व के ज्यादातर
देश कोरोना से लड़ रहे हैं और चीन अपनी चालें चलने में मशगूल है। उसके द्वारा
फैलाये गये कोरोना वायरस से विश्व की अर्थव्यव्स्था पटरी से लगभग उतर गई है। और वो
इसी का फायदा उठाना चाहता है इसी कारण से आज विश्व के सभी देश चीन से भयंकर नाराज
चल रहे हैं और जिन देशों ने अपने बड़े बड़े उत्पाद का ठेका चीन को दिया था वो सब
वहाँ से निकल रहे हैं और भारत को वरियता
दे रहे हैं। चीन इस बात से भी परेशान हैं कि
भारत के अमेरिका से इतने अच्छे सम्बंध क्यूँ हो रहे हैं वो जानता है कि
विश्व की चौदराहट करने के स्वप्न को अगर कोई एक देश रोक सकता है तो वो देश भारत ही
है इसलिए वो एक साथ कई मोर्चो पर भारत को उलझाकर उसके विकास की गति को बाधित करना
चाहता है किंतु अब बाजी उलट गई है। और ऐसा भारत की विश्व पटल पर दिनो दिन बढती साख
है।
चीन के पड़ौसियों पर यदि निगाह डाली जाए तो वह
कुल 20 (इंडोनेशिया, सिंगापुर,मलेशिया, कजाखिस्तान,
किर्गिस्तान,, अफ्गानिस्तान, रुस, जापान, मंगोलिया दक्षिणी कोरिया ,फिलिपिंस,
कम्बोडिया,नेपाल,उत्तर
कोरिया,भूटान,म्याँमार,ब्रुनई लाओस वियतनाम और अंत में भारत एवम पाकिस्तान देशों के साथ अपनी सीमाएँ
साझा करता है। जिनमें से 14 देशों के साथ उसकी सीमाएँ सीधी लगती हैं और 06 पर वो
अपना अधिकार अलग से जमाता है। कुल मिलाकर 23 देशों से उसका पंगा चल रहा है। 1997
में ग्रेट ब्रिटेन ने चीन को हाँगकांग को इस शर्त के साथ सौंपा था कि वह वहाँ रहने
वालों पर चीन का कोई कानून लागू नहीं करेगा किंतु चीन तो कुत्ते की पूँछ है 12 की
जगह 23 साल के बाद नली से निकाली किंतु रही वो फिर भी टेढी की टेढी ही। अब चीन ने
हाँगकांग में हो रहे प्रदर्शन के मद्दे नज़र एक कानून पारित कर दिया है कि हाँगकांग
की जनता वहाँ पर चीन के खिलाफ कोई विरोध
प्रदर्शन नहीं कर सकती और पीले रंग के बैनर पर प्रतिबंध लगा दिया गया है कुल
मिलाकर कहें तो चीन हाँगकांग के नागरिकों को अपना नागरिक न मानकर गुलाम मान रहा
है। हो सकता है प्रदर्शनों के जोर को देखते हुए वह थियानमन चौक को वहाँ भी दोहरा
दे। पर एक कहावत है ना दुनियाँ में
चौदराहट का ख्वाब देखने वाले चीन ने भारत से पंगा लेकर एक भारी भूल कर दी है और अब
इसका परिणाम उसको अक्साई में हथियाई गई जमीन को वापिस करके चुकाना होगा।
जैसा कि अभी हाल ही में गलवान में
20 के मुकाबले चीन के 43 सैनिको को नर्कशाला में हमारे जवानों ने भेज दिया है। लोग
सही कहते हैं पैसा बोलता है नेपाल जो कि आजतक भारत के साथ था उसके कुछ राजनेता
जिसमें स्वयं प्रधानमंत्री के पी शर्मा औली भी हैं चीनी मुद्रा के लोभ में भारत को
आँखे दिखाने का साहस कर रहे हैं और उधर चीन नेपाल के कम से कम 07 गाँवों को हड़प चुका
है। चीन के बहकावे में आकर वो भारत के तीन स्थानों को नेपाल के नक्शे में शामिल कर
चुका है और उसे संसद से पास भी करा लिया गया गहै एक मात्र सांसद जिन्होंने इसका विरोध
किया उन्हें पार्टी ने बाहर का रास्ता दिखा दिया। अब इसका जवाब तो बेशर्म शर्मा को
नेपाल की जनता को देना ही होगा। और अब ताज़ा विवाद भगवान राम को नेपाल का बताकर और
भारत स्थित अयोध्य्या को नकली बताकर पता नहीं श्रीमान ओली क्या साबित करना चाहते
हैं ये ऐसा विवाद है जिसने भारत में कोंग्रेस की बलि ले ली थी क्यों कि कोंग्रेस
ने माननीय उच्च न्यायालय में ये साबित करने की कोशिश की थी कि भगवान राम काल्पनिक
हैं। के पी शर्मा ओली की पार्टी उनसे इस्तीफा मांग रही है किंतु वो दे नहीं रहे
हैं क्यों कि सत्ता का सुख भोगने के बाद उसे कौन छोडना चाहता है। इसलिए वो चीन की
नेपाल में राजदूत से गलबहियां करने से भी नहीं हिचकिचा रहे हैं। जिस प्रकार से
सदियों से रोटी बेटी के रिश्ते में बंधे भारत और नेपाल के संबधों को शर्मा ज़मीदोज कर
रहे हैं उससे नेपाल और भारत के रिश्ते पहले जैसे तो नहीं ही रह जाएँगे । भगवान राम
और चीन की नजदीकी से अब नेपाल की जनता में भी भयंकर नाराज़गी उत्पन्न हो रही है। नेपाल
के लगभग 80 हजार सैनिक भारत की सेना में कार्यरत्त हैं, नेपाल की 40
हजार जनता को विभिन्न योजनाओं के द्वारा भारत की ओर से पेंशन दी जाती
है। नेपाल के 12 हजार विद्यार्थी भारत में शिक्षा ग्रहण कर रहे हैं। भारत और नेपाल
के मध्य 64 % प्रतिशत व्यापार होता है। इन सब बातों को जानते हुए नेपाल की जनता ओली
को आज नहीं तो कल उसको उसकी औकात में वापिस पहुँचा ही देगी और एक खबर के अनुसार ओली
के 41 करोड रुपये स्वीस बैंक में जमा हैं जो निश्चित ही चायना की कृपा का प्रसाद है।
हिसाब तो उसका भी देना होगा।
अभी जो स्थितियाँ बन रही हैं उसमें
अमेरिका ने अपने तीन युद्ध पोत साउथ चायना सी में खडे कर दिये हैं और रोज़ाना युद्दाभ्यास
किया जा रहा है। ब्रिटेन भी खुलकर चीन के विरुद्द आ गया हैं और उसने चीन की कम्पनी
को 5 जी से बाहर का रास्ता दिखा दिया है। ब्रिटेन ने चीन द्वारा हाँगकांग की जनता पर
थोपे जा रहे बर्रबर कानून की स्थिति को देखते हुए वहाँ के नागरिकों को ब्रिटेन की नागरिकता
देने का ऐलान कर दिया है। कल ही अमेरिका ने हाँगकांग को प्राप्त विशेष दर्जा खत्म करने
वाले कानून पर हस्थाक्षर कर दिये हैं जिससे चीन भयंकर परेशान हो गया है। क्यों कि हाँगकांग
चीन की एक तरह से वित्तीय राजधानी के तौर पर विकसित हो गया था। और ये सब भारत द्वारा
59 ऐप पर पाबंदी लगाए जाने पर चीन को होने वाले आर्थिक नुकसान को देखते हुए अमेरिका, आस्ट्रेलिया,
ब्रिटेन,यूरोपियन यूनियन के देशों को एक बात समझ
में आ गई कि चीन के कान मरोडेने का जो उपाय भारत ने किया है अगर वह भी ऐसा ही करे तो
चीन को अपनी औकत समझ में आ जाएगी। और देखिए भारत की पहल ने अपना रंग भी दिखाना शुरु
कर दिया है। जो देश चुपचाप चीन की दादागिरी को सहने के लिए मजबूर थे भारत के साहस को
देखते हुए उनमें भी साहस का नवसंचार हो गया है। भारत किसी भी स्थिति से निबटने के लिए
अपनी सेना को 300 करोड़ के हथियार खरीदने की स्वीकृती दे चुका है,आस्ट्रेलिया अपना रक्षा बजट बढा रहा है,जापान 5वीं पीढी
के युद्द्क विमान अमेरिका से खरीद रहा है,अमेरिका ताईवान को उन्नत
किस्म के हथियारों की आपूर्ती कर रहा है। इन सबका अर्थ है कि विश्व अब 1991 के पूर्व
अमेरिका सोवियत संघ के शीत युद्द के बाद पुन: अमेरिका चायना युद्द की आहट महसूस कर
रहा है। जिस चायना को सोवियत संघ के पाले में जाने से रोकने के उद्देश्य से अमेरिका
ने चायना को 1966 में आर्थिक रुप से मजबूर बनाया आज वही चायना अमेरिका को आँखे दिखाकर
दुनियाँ की सुपर पावर बनना चाह्त रखता है। किंतु उसकी जल्दबाजी और बदनियत ने उसका सारा
खेल बिगाल दिया है और अब हालात ये है कि कहीं ये मसला नहीं सुलझा तो चायना की हालात
1903 वाली न हो जाए।