Friday, 5 January 2018

मियां की जूती मियां के सिर




मियां की जूती मियां के सर



पिछले काफ़ी समय से अमेरिका और भारतीय राजनीती और मीडिया में ये चर्चा आम रही कि पाकिस्तान को बार बार समझाने के बावजूद भी वो अपनी हरकतों से बाज नहीं आ रहा,लगता है इसका कुछ ठोस इलाज़ करना ही पड़ेगा ? अब मुझे कोई ये बताए कि पाकिस्तान ने आज तक किस बंदे की मानी है और तो और जिस अमेरिका से वह अपने देश का समस्त खर्च चलाने के लिए जन्म से ही भीख लेता रहा है  वह उसकी भी कहाँ सुनता है अब इसके कारण तो बहुत सारे हो सकते हैं किन्तु 70 के दशक में वह जहाँ अमेरिका का ही गुणगान करता रहा था वहीँ 1989 में सोवियत संघ की फ़ौज के पलायन के बाद उसका झुकाव जबरदस्त तौर पर चीन की ओर अधिक हो गया और उसने अपने फायदे के लिए अमेरिका और चीन दोनों को ही उलझाए रखने में अपनी भलाई समझी। बहुत पुरानी कहावत है कि दो नावों की सवारी ज्यादा दिन तक टिकती नहीं है । अब पाकिस्तान के साथ कुछ ऐसी ही स्थिति बनती नजर आ रही है। वह दोनों को खुश रखना चाहता है किंतु धीरे धीरे अमेरिका को ये बात समझ में आ रही है कि उसने पाकिस्तान पर 1947 के बाद से जो भरोसा किया था वह ग़लत था


1989 में जब सोवियत संघ ने अमेरिका के बढ़ते दबाव के आगे जब अफ़गानिस्तान छोड़ा तो वो अपने साथ अपना पूरा इंफ़्रास्ट्रक्चर नहीं ले जाए पाए इसी के साथ उन्होंने अपने बहुत से हथियार भी वहीँ पर तैनात रहने दिए क्यों की उनको वहां से उन्हें ले जाने में और सोवियत संघ लेकर जाने में और वहां पर असेम्बल करने में अधिक खर्च आ रहा था साथ ही मैनपावर की बचत अलग से हो रही थी। इन्हीं सब बातों के मद्दे नज़र सोवियत सेना अपने ज्यादातर हथियार अफ़गानिस्तान में ही छोड़ कर वापिस लौट गई सुनने में तो ऐसा भी आया कि सोवियत सेना जो हथियार अफ़गानिस्तान के सेना के लिए छोड़कर गई थी उन हथियारों को पाकिस्तान की ख़ुफ़िया एजेंसी के माध्यम से तालिबान ने चुरा लिया या हथिया लिया और इस सब के बूते ही तालिबान इतना अधिक मजबूत हो गया कि उसने पूरे अफ़गानिस्तान में अपना कब्ज़ा जमा लिया और चुन चुन कर बौद्ध और हिंदू मंदिरों को तोप के गोलों से उडवा दियायहाँ ये बात भी स्पष्ट है कि सोवियत सेनाओं का मुक़ाबला करने के लिए अमेरिका ने ही तालिबान को शय दी ताकि रोज़ रोज़ की लड़ाई से तंग आकर सोवियत संघ अफ़गानिस्तान छोड़ दे ।

सोवियत सेनाओं की वापसी के बाद अपने आप को मुसलमानों का  हितैषी बताने वाले तालिबान लड़ाकों ने पूरे अफ़गानिस्तान में इस्लाम और शरिया कानून  की अपनी व्याख्या से आम मुसलमानों तक का जीना हराम कर दिया था । शुरू शुरू में तो अफ़गानिस्तान के मुसलमान ख़ुशी ख़ुशी इन सब को आत्मसात करते रहे किन्तु शनैः शनैः उन्हें भी इस बात का अहसास हो गया कि वे कुंएं से तो निकले नहीं अलबत्ता वे अब कुएं और खाई के बीच में फंसकर रह गये हैंक्यों कि अफ़गानिस्तान पर सोवियत संघ के आक्रमण के समय सभी अफगानिस्तानी चाहते थे कि सोवियत संघ जल्द से जल्द अफ़गानिस्तान छोड़ दे ताकि वहां पर अफ़गानिस्तान की वास्तविक सरकार अपना शासन स्थापित कर सके किन्तु होनी को भला कौन टाल सका है । वही हुआ जिसका डर पूरे दक्षिण एशिया को ही नहीं वरन विश्व के सभी देशों को था। सोवियत फ़ौजें  तो अपने लाव लश्कर के साथ सोवियत संघ कूच कर गई लेकिन जाते जाते वो ऐसा भयानक मंजर पीछे छोड़ गई जिसकी कल्पना कोई दुश्मन भी नहीं करता है।
तालिबान को पालने पोसने में जहाँ अमेरिका के अपने हित थे वहीँ पाकिस्तान और उसकी ख़ुफ़िया एजेंसी ISI  को भारत से 1948,1965 और 1971 में मिली  हार को गले से नहीं उतार पाई थी और चाहती थी कि वो तालिबान की मदद से भारत में तोड़ फोड़ की कार्रवाई को अंजाम देना चाहती थी। उसकी ये रणनीति काश्मीर और पंजाब में एक साथ करने की थी किन्तु किन्हीं कारणों से उसने इसे पहले पंजाब में खालिस्तान की मांग उठवाकर उग्रवाद को पाला पोसा अपनी इस चाल में पाकिस्तान किसी हद तक वो कामयाब भी रहा  किन्तु 1984 के ऑपरेशन ब्लू स्टार के बाद स्थिति तेजी से बदली और के पी एस गिल के नेतृत्व में पंजाब से उग्रवाद का सम्पूर्ण सफाया हो गया।  किन्तु पाकिस्तान ने भारत से अपनी दुश्मनी निकालने की की अपनी जिद के चलते  काश्मीर में आतंकवाद को प्रश्रय देना शुरू किया और उसकी परिणिति स्वरूप  1990 के दौरान लगभग पांच लाख हिन्दुओं को जिनमें बड़ी संख्यां में कश्मीरी पण्डित थे को काश्मीर छोड़ने पर मजबूर कर दिया गया उनकी बहु बेटियों की सरे आम इज्जत लुटी गई बूढों जवानों और बच्चों तलक को सरे आम मार या जला दिया गया जिससे आज़िज़ आकर कश्मीरी पंडितों ने काश्मीर से पलायन करना ही उचित समझाआप अंदाज़ा लगा सकते हैं कि उस समय की तात्कालिक सरकार ने ये सब होने दिया और किसी भी संगठन ने उनके प्रति दया भाव नहीं दिखाया,कोई मोमबत्ती गैंग नहीं कोई अवार्ड वापसी गैंग नहीं और ना ही संयुक्त राष्ट्र संघ जो छोटी छोटी बातों में अपनी उपस्थिति दर्ज करता है उन निरीह पंडितों के पक्ष में खड़े नहीं हुए और विश्व में पहली बार अपने ही देश में पांच लाख लोग बेघर हो गए।यही वो समय था जब दक्षिण एशिया में आतंकवाद ने अपने पांव पसारने शुरू कर दिए थे और इस आतंकवाद के जनक के तौर पर सोवियत सेनाओं द्वारा छोड़े गए हथियारों के बल पर तालिबान और पाकिस्तान ने अपने आप को मजबूत किया और भारत के खिलाफ़ छद्म युद्ध छेड़ दिया जो बद-दस्तूर आज भी जारी है।
भारतीय जनता पार्टी की पिछली सरकार जहाँ 24 दलों के गठजोड़ से जैसे तैसे अपना कार्यकाल पूरा करने में सफ़ल रही किन्तु वो कोई ठोस कदम उठाने में असमर्थ रही। किन्तु 2014 में नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में पूर्ण बहुमत से बनी सरकार ने पिछली सरकारों के निर्णयों का पूरा पोस्ट मार्टम किया और उस तरह की समस्याओं को पनपने से पहले ही दबा दिया गया या कुचल दिया गया निश्चित रूप से ये सब देश हित में ही हुआ है । इस सरकार की विदेश निति का ही कमाल है कि भारत अपनी आजादी के बाद से पहली बार विश्व स्तर की राजनीती का केंद्र बन पाने में सफ़ल हुआ है। पूर्व की भांति सिर्फ़ पाकिस्तान से ही अपनी तुलना न करके वर्तमान सरकार ने चीन को भी आड़े हाथों लेकर विश्व पटल पर ये सन्देश देने की सफ़ल कोशिश की है कि हम अपनी संप्रभुता से कतई समझौता नहीं करने वाले। चीन को जहाँ डोकलाम पर पीछे हटने को मजबूर कर दिया वहीँ पाकिस्तान को जाधव केस में अंतर्राष्टीय अदालत में पटकनी देकर ये साबित कर दिया कि वर्तमान भारतीय सरकार अपने नागरिकों के प्रति काफ़ी संवेदनशील है व उसके अधिकारों की रक्षा के लिए वो किसी भी हद तक जा सकती है।

इस वर्ष की शुरुआत सोमवार से हुई है जो कि भगवन शिव को समर्पित दिन है। 2018 के प्रथम दिन ही अमेरिका के राष्ट्रपति द्वारा पाकिस्तान को गरिया दिए जाने से विश्व पटल पर जहाँ पाकिस्तान की छिछालेदर हुई है वहीँ ये मेसेज भी गया है की भारत अमेरिका को पाकिस्तान को गरियाने के लिए राजी करने में सफ़ल हुआ है । इसे ही सफ़ल विदेश निति कहा जाता है। इसी निति के तहत अगले ही दिन संयुक्त राष्ट्र में अमेरिका की राजदूत निक्की हेली ने पाकिस्तान को आतंकवादियों के विरुद्ध कार्यवाही न करने  पर लताड़ा और पिछले 15 वर्षों में अमेरिका द्वारा पाकिस्तान को दी गई 33 अरब डॉलर की सहायता राशी के बदले अमेरिका को धोखा दिए जाने का आक्षेप लगाया और यहाँ तक कह दिया कि अमेरिका ने  पाकिस्तान पर  1947 से जो भरोसा किया है वह उसके लायक ही नहीं है साथ ही पाकिस्तान को अमेरिका द्वारा दी जा रही सहायता रोकने के लिए अपनी प्रतिबद्धता भी जताई। निक्की हैली इतने गुस्से में थीं कि उन्होंने यहाँ तक कह दिया कि पाकिस्तान एक ही समय में अमेरिका के साथ दोस्ती का ढोंग करता है और दूसरी तरफ़ वह आतंक को पनाह भी देता है और वही आतंकवादी अफ़गानिस्तान में अमेरिकी सैनिकों की हत्या कर रहे हैं।

आख़िर पाकिस्तान चाहता क्या है उसकी कथनी और करनी में इतना अंतर क्यों है इसका सीधा सा कारण है कि वहां पर कठमुल्लों और सेना की चलती है आम आदमी कैसे जी रहा है इससे उन्हें कोई फ़र्क नहीं पड़ता । उनकी पूरी ज़िन्दगी उधार का घी पीने में निकल गई।1947 से अमेरिका उनको भीख देता रहा है जिस पर पूरा पाकिस्तान पलता रहा है लेकिन ये लोग अपनी आदत से मजबूर हैं इसलिए जिसका खाते हैं उसी को धोखा देते हैं। पिछले कुछ वर्षों से उन्होंने अपने लिए एक नया दोस्त पाल लिया है जो की चीन है लेकिन पाकिस्तान मुगालते में हैं कि अमेरिका नहीं तो चीन उसकों घी पिलाता रहेगा। चीन पाकिस्तान से भी बड़ा धोखेबाज है और धूर्त भी। वो जो भी कुछ करता है उसका एक ही मकसद है कि वो चाइना को कैसे मजबूत बनाए। उसके अपने नियम कायदे हैं जो उन पर खरा उतरता है वो उनकी मदद करने का नाटक करता है किन्तु मकसद सिर्फ़ सिर्फ़ चीन को और विस्तारवादी और मजबूत बनाना। चीन जनता है कि विश्व में भारत ही एक ऐसा देश है जो उसे प्रतिपल चुनौती दे सकता है इसलिए वो हर उस देश को भीख देकर अपना गुलाम बनाना चाहता है जो भारत को रोकने में उसका मददगार हो सके । लेकिन ऐसा होगा कभी नहीं।
-प्रदीप भट्ट-

                                 Friday, January-05, 2018