Saturday, 30 April 2016

कुम्भ यानि कलश




“कुम्भ यानि  कलश”

     कुम्भ मेले का आयोजन प्राचीन काल से हो रहा है, लेकिन मेले का प्रथम लिखित प्रमाण महान बौद्ध तीर्थयात्री ह्वेनसांग के लेख से मिलता है जिसमें आठवीं शताब्दी में सम्राट हर्षवर्धन के शासन में होने वाले कुम्भ का प्रसंगवश वर्णन किया गया है।कुम्भ हमारी संस्कृति में कई दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण है। पूर्णताः प्राप्त करना हमारा लक्ष्य है, पूर्णता का अर्थ है समग्र जीवन के सात एकता, अंग को पूरे अंगी की प्रतिस्मृति, एक टुकड़े के रूप में होते हुए अपने समूचे रूप का ध्यान करके अपने छुटपन से मुक्त। इस पूर्णता की अभिव्यक्ति है पूर्ण कुम्भ। अथर्ववेद में एक कालसूक्त है, जिसमें काल की महिमा गायी गयी है, उसी के अन्दर एक मंत्र है, जहाँ शायद पूर्ण कुम्भ शब्द का प्रयोग मिलता है, वह मन्त्र इस प्रकार है-

           पूर्णः कुम्भोधिकाल आहितस्तं वै पश्यामो जगत्
          ता इमा विश्वा भुवनानि प्रत्यङ् बहुधा नु सन्तः
          कालं तमाहु, परमे व्योमन्।“
     “इसका अर्थ है, पूर्ण कुम्भ काल में रखा हुआ है, हम उसे देखते हैं तो जितने   भी अलग-अलग गोचर भाव हैं, उन सबमें उसी की अभिव्यक्ति पाते हैं,     जो   काल परम व्योम में है। अनन्त और अन्त वाला काल दो नहीं एक हैं; पूर्ण कुम्भ दोनों को भरने वाला है।“

            पुराणों में अमृत-मन्थन की कथा आती है, उसका भी अभिप्राय यही है कि अन्तर को समस्त सृष्टि के अलग-अलग तत्त्व मथते हैं तो अमृतकलश उद्भूत होता है, अमृत की चाह देवता, असुर सबको है, इस अमृतकलश को जगह-जगह देवगुरु वृहस्पति द्वारा अलग-अलग काल-बिन्दुओं पर रखा गया, वे जगहें प्रयाग, हरिद्वार, उज्जैन और नासिक हैं, जहाँ उन्हीं काल-बिन्दुओं पर कुम्भ पर्व बारह-बारह वर्षों के अन्तराल पर आता है बारह वर्ष का फेरा वृहस्पति के राशि मण्डल में धूम आने का फेरा है। वृहस्पति वाक् के देवता हैं मंत्र के, अर्थ के, ध्यान के देवता हैं, वे देवताओं के प्रतिष्ठापक हैं। यह अमृत वस्तुतः कोई द्रव पदार्थ नहीं है, यह मृत न होने का जीवन की आकांक्षा से पूर्ण होने का भाव है। देवता अमर हैं, इसका अर्थ इतना ही है कि उनमें जीवन की अक्षय भावना है। चारों महाकुम्भ उस अमृत भाव को प्राप्त करने के पर्व हैं।ऐसी मान्यता है कि ब्रह्माण्ड की रचना से पहले ब्रम्हाजी ने यहीं अश्वमेघ यज्ञ किया था. दश्वमेघ घाट और ब्रम्हेश्वर मंदिर इस यज्ञ के प्रतीक स्वरुप अभी भी यहां मौजूद हैं. इस यज्ञ के कारण भी कुम्भ का विशेष महत्व है. कुम्भ और प्रयाग एक दूसरे के पर्यायवाची है।


     कुंभ पर्व अत्यंत पुण्यदायी होने के कारण प्रयाग में स्नान करने से अनंत पुण्यलाभ होता है। इसीलिए यहां करोड़ों श्रद्धालु साधु संत इस स्थान पर एकत्रित होते हैं। कुंभ मेले के काल में अनेक देवी देवता, मातृका, यक्ष, गंधर्व तथा किन्नर भी भूमण्डल की कक्षा में कार्यरत रहते हैं। साधना करने पर इन सबके आशीर्वाद मिलते हैं तथा अल्पावधि में कार्यसिद्धि होती है।

     उज्जैन का कुम्भ शुरू हो चुका है, इससे पूर्व नासिक मे गोदावरी नदी के तट पर कुम्भ स्नान पूर्ण हो चुका है। कुंभ के दौरान अपार जन-सैलाब को देखकर विश्व के अनेक देशों के नागरिक और सरकारें ये सोचने पर मजबूर हो जाती हैं कि आखिर इतना बड़ा इंतजाम भारत/राज्य सरकारें कैसे कर लेती हैं उनके लिए ये कौतूहल का विषय है। कुछ विदेशी लोग तो ये भी कहते हैं कि विश्व के सात आश्चर्यों के अतिरिक्त यदि कोई आठवाँ और वास्तव मे अद्भुत आश्चर्य यदि कोई है तो वो हैं भारतवर्ष  मे होने वाले कुम्भ मेले। जिनकी विशालता पर कोई भी पार नहीं पा सकता।इसके इतिहास पार सूक्ष्म द्रष्टि डालते हैं।
  

         
     इसके अतिरिक्त कुंभ मेले के  इतिहास के विषय मे यह भी कहा जाता है कि इसका इतिहास कम 850 साल पुराना है। माना जाता है कि आदि शंकराचार्य ने इसकी शुरुआत की थी, लेकिन कुछ कथाओं के अनुसार कुंभ की शुरुआत समुद्र मंथन के समय से ही हो गई थी। 
मंथन में निकले अमृत का कलश हरिद्वार, इलाहबाद, उज्जैन और नासिक के स्थानों पर ही गिरा था, इसीलिए इन चार स्थानों पर ही कुंभ मेला हर तीन बरस बाद लगता आया है।12 साल बाद यह मेला अपने पहले स्थान पर वापस पहुंचता है। जबकि कुछ दस्तावेज बताते हैं कि कुंभ मेला 525 बीसी में शुरू हुआ था। कुंभ मेले के आयोजन का प्रावधान कब से है इस बारे में विद्वानों में अनेक भ्रांतियाँ हैं। वैदिक और पौराणिक काल में कुंभ तथा अर्धकुंभ स्नान में आज जैसी प्रशासनिक व्यवस्था का स्वरूप नहीं था। कुछ विद्वान गुप्त काल में कुंभ के सुव्यवस्थित होने की बात करते हैं। परन्तु प्रमाणित तथ्य सम्राट शिलादित्य हर्षवर्धन 617-647 ईस्वी के समय से प्राप्त होते हैं। बाद में श्रीमद आघ जगतगुरु शंकराचार्य तथा उनके शिष्य सुरेश्वराचार्य ने दसनामी संन्यासी अखाड़ों के लिए संगम तट पर स्नान की व्यवस्था की ।
कुंभ में ग्रहों का महत्वपूर्ण स्थान  

     कुंभ के आयोजन में नवग्रहों में से सूर्य, चंद्र, गुरु और शनि की भूमिका महत्वपूर्ण मानी जाती है। इसलिए इन्हीं ग्रहों की विशेष स्थिति में कुंभ का आयोजन होता है। सागर मंथन से जब अमृत कलश प्राप्त हुआ तब अमृत घट को लेकर देवताओं और असुरों में खींचा तानी शुरू हो गयी। ऐसे में अमृत कलश से छलक कर अमृत की बूंद जहां पर गिरी वहीं पर कुंभ का आयोजन किया गया। अमृत की खींचा-तानी के समय चन्द्रमा ने अमृत को बहने से बचाया। गुरू ने कलश को छुपा कर रखा। सूर्य देव ने कलश को फूटने से बचाया और शनि ने इन्द्र के कोप से रक्षा की। इसलिए जब इन ग्रहों का संयोग एक राशि में होता है तब कुंभ का अयोजन होता है। क्योंकि इन चार ग्रहों के सहयोग से अमृत की रक्षा हुई थी। राशियों और ग्रहों की वास्तविक गणना से ही कुम्भ पर्व के विषय मे घोषणा की जाती है की कौन सा कूम्भ कब और किस स्थान पार लगेगा जैसे कि कुंभ मेला प्रयाग  इलाहाबाद  में वर्ष  2013 मे लगा था। इसका कारण भी राशियों की विशेष स्थिति है। कुंभ के लिए जो नियम निर्धारित हैं।
कुछ रोचक तथ्य
·         547 - अभान नामक सबसे प्रारम्भिक अखाड़े का लिखित प्रतिवेदन इसी समय का है।
·         600 - चीनी यात्री ह्यान-सेंग ने प्रयाग (वर्तमान इलाहाबाद) पर सम्राट हर्ष द्वारा आयोजित कुम्भ में स्नान किया।
·         904 - निरन्जनी अखाड़े का गठन।
·         1146 - जूना अखाड़े का गठन।
·         1300 - कानफटा योगी चरमपंथी साधु राजस्थान सेना में कार्यरत।
·         1398 - तैमूर, हिन्दुओं के प्रति सुल्तान की सहिष्णुता के दण्ड स्वरूप दिल्ली को ध्वस्त करता है और फिर हरिद्वार मेले की ओर कूच करता है और हजा़रों श्रद्धालुओं का नरसंहार करता है। 
·         1565 - मधुसूदन सरस्वती द्वारा दसनामी व्यव्स्था की लड़ाका इकाइयों का गठन।
·         1684 - फ़्रांसीसी यात्री तवेर्निए नें भारत में 12 लाख हिन्दू साधुओं के होने का अनुमान जताया
·         1690 - नासिक मे शैव और वैष्णव साम्प्रदायों में संघर्ष; 60,000 लोग काल कालविट हो गए
·         1760 - शैवों और वैष्णवों के बीच हरिद्वार मेलें में संघर्ष; 1800 लोग मारे गये ।
·         1780 - ब्रिटिशों द्वारा मठवासी समूहों के शाही स्नान के लिए व्यवस्था की स्थापना।
·         1820 -हरिद्वार मेले में हुई भगदड़ से 430 लोग मारे गए।
·         1906- ब्रिटिश कलवारी ने साधुओं के बीच मेला में हुई लड़ाई में बीचबचाव किया।
·         1954 - 40 लाख लोगों अर्थात भारत की 1 प्रतिशत  जनसंख्या ने इलाहाबाद में आयोजित कुम्भ मेले में भागीदारी की; किन्तु भगदड़ में कई सौ लोग मारे भी गए
·         1989- गिनिज बुक ऑफ़ वर्ल्ड रिकॉर्ड्स ने 6 फ़रवरी के दिन प्रयाग यानि इलाहाबाद मेले में 1.5 करोड़ लोगों की उपस्थिति प्रशासन ने प्रमाणित की, जो कि  उस समय तक किसी एक उद्देश्य के लिए एकत्रित लोगों की सबसे बड़ी भीड़ थी।
·         1995- इलाहाबाद के अर्धकुम्भ के दौरान 30 जनवरी के स्नान दिवस को 2 करोड़ लोगों ने  उपस्थितिदर्ज कराई।
·         1998 - हरिद्वार महाकुम्भ में 5 करोड़ से अधिक श्रद्धालु चार महीनों के दौरान पधारे; 14 अप्रैल के एक दिन में 1 करोड़ लोगों ने अपनी उपस्थिती दर्ज कराई और गंगा मे स्नान किया ।
·         2001 - इलाहाबाद के मेले में छः सप्ताहों के दौरान 7 करोड़ श्रद्धालु, 24 जनवरी के अकेले दिन 03 करोड़ लोगों ने मेले मे उपस्थिती दर्ज कराई
·         2003 - नासिक मेले में मुख्य स्नान दिवस पर 60 लाख लोग उपस्थित।
·         2004 - उज्जैन मेला; मुख्य दिवस 5,19,22,24 एवम 4 मै को सम्पन्न हुआ।
·         2007 - इलाहाबाद मे अर्धकुम्भ। पवित्र नगरी इलाबाद में अर्धकुम्भ का आयोजन 3 जनवरी 2007 से 26 फ़रवरी 2007 तक हुआ।
·         2010- हरिद्वार में महाकुम्भ प्रारम्भ। 14जनवरी 2010 से 28 अप्रैल 2010 तक आयोजित किया गया।
·         2015 - नाशिक और त्रयंबकेश्वर में एक साथ14 जुलाई,2015  को प्रातः 06:16 पर वर्ष 2015 का कुम्भ मेला प्रारम्भ हुआ और 25 सितम्बर,2015 को कुम्भ मेला समाप्त हो गया।



प्रयाग-इलाहाबाद
     राशियों की विशेष स्थिति के अनुसार संगम तट (जहां गंगा, यमुना और सरस्वती मिलती हैं.) जब माघ अमावस्या के दिन सूर्य और चन्द्रमा मकर राशि में होते हैं और गुरू मेष राशि में होता है। तब कुम्भ पर्व का आयोजन प्रयाग मे होता है ।यही संयोग वर्ष 20 फरवरी 2013 को हुआ था और इलाहाबाद मे कुम्भ मेले का आयोजन हुआ था अब यही स्थिति वर्ष 2025 मे आएगी और कुम्भ पर्व पुन: इलाहाबाद मे लगेगा इससे पूर्व भी यही स्थिति वर्ष 1989, 2001, 2013 मे थी। कुंभ योग के विषय में विष्णु पुराण में उल्लेख मिलता है।
हरिद्वार
     विष्णु पुराण में बताया गया है कि जब गुरु कुंभ राशि में होता है और सूर्य मेष राशि में प्रवेश करता है तब कुंभ माँ गंगा के तट हरिद्वार (हिमालय पर्वत श्रृंखला के शिवालिक पर्वत के नीचे स्थित है. प्राचीन ग्रंथों में हरिद्वार को तपोवन, मायापुरी, गंगाद्वार और मोक्षद्वार आदि नामों से भी जाना जाता है) मे कुम्भ का आयोजन किया जाता है। 1986, 1998, 2010 के बाद अब अगला महाकुंभ मेला हरिद्वार में 2021 में लगेगा। यहाँ यह विशेष है कि प्रयाग का कुम्भ मेला सभी मेलों में सर्वाधिक महत्व रखता है.


नासिक
     इसी प्रकार जब सूर्य एवं गुरू जब दोनों ही सिंह राशि में होते हैं तब कुंभ मेले का आयोजन गोदावरी नदी के तट नासिक (भारतवर्ष में 12 में से एक जोतिर्लिंग त्र्यम्बकेश्वर नामक पवित्र शहर में स्थित है. यह स्थान नासिक से 38 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है और गोदावरी नदी का उद्गम भी यहीं से हुआ. 12 वर्षों में एक बार सिंहस्थ कुम्भ मेला नासिक एवं त्रयम्बकेश्वर में आयोजित होता है।ऐतिहासिक प्रमाणों के अनुसार नासिक उन चार स्थानों में से एक है, जहां अमृत कलश से अमृत की कुछ बूंदें गिरी थीं। यहां पर शिवरात्रि का त्यौहार भी बहुत धूम धाम से मनाया जाता है.) में कुम्भ का आयोजन होता है  1980, 1992, 2003 के 2015 मे महाकुंभ पर्व नासिक मे समपन्न हो चुका है
  
उज्जैन
     इसी प्रकार जब गुरु कुंभ राशि में प्रवेश करता है तब शिप्रा नदी के तट पर उज्जैन (उज्जैन का अर्थ है विजय की नगरी और यह मध्य प्रदेश की पश्चिमी सीमा पर स्थित है. इंदौर से इसकी दूरी लगभग 55 किलोमीटर है. यह शिप्रा नदी के तट पर बसा है. उज्जैन भारत के पवित्र एवं धार्मिक स्थलों में से एक है. ज्योतिष शास्त्र के अनुसार शून्य अंश (डिग्री) उज्जैन से शुरू होता है. महाभारत के अरण्य पर्व के अनुसार उज्जैन 7 पवित्र मोक्ष पुरी या सप्त पुरी में से एक है)।उज्जैन के अतिरिक्त शेष हैं अयोध्या, मथुरा, हरिद्वार, काशी, कांचीपुरम और द्वारका. कहते हैं की भगवन शिव नें त्रिपुरा राक्षस का वध उज्जैन में ही किया था.)में कुंभ का आयोजन होता है। 1980,1992, 2004, के बाद अब 2016 मे शुरू हो चुका है जिसके लिए देश के कोने कोने से और विश्व के अनेक देशों से श्रधालु उज्जैन मे पहुँच चुके हैं । 

प्रत्येक तीसरे वर्ष कुंभ  का आयोजन होता है
     युद्ध के दौरान सूर्य, चंद्र और शनि आदि देवताओं ने कलश की रक्षा की थी, अतः उस समय की वर्तमान राशियों पर रक्षा करने वाले चंद्र-सूर्यादिक ग्रह जब आते हैं, तब कुम्भ का योग होता है और चारों पवित्र स्थलों पर प्रत्येक तीन वर्ष के अंतराल पर क्रमानुसार कुम्भ मेले का आयोजन किया जाता है।
गुरू हर राशि मे अनुमानत: एक वर्ष रहता है। इस तरह बारह राशि में भ्रमण करते हुए उसे 12 वर्ष का समय लगता है। इसलिए हर बारह साल बाद फिर उसी स्थान पर कुंभ का आयोजन होता है। लेकिन कुंभ के लिए निर्धारित चार स्थानों में अलग-अलग स्थान पर हर तीसरे वर्ष कुंभ का अयोजन होता है। कुंभ के लिए निर्धारित चारों स्थानों में प्रयाग के कुंभ का विशेष महत्व है। हर 144 वर्ष बाद यहां महाकुंभ का आयोजन होता है।


पूर्ण कूम्भ पर्व
     प्रत्येक 12 वर्ष के पश्चात भारत के दो स्तनों प्रयाग यानि इलाहाबाद (यूपी)और हरिद्वार (उत्तराखंड) मे ही पूर्ण कुम्भ का आयोजन किया जाता है।  
अर्ध-कुम्भ
     उत्तर प्रदेश से अलग होकर 9 नवम्बर-2000 को उत्तरांचल राज्य का गठन हुआ।बाद मे राज्य के लोगों की मूल मांग “उत्तराखंड” को स्वीकार करते हुए सरकार ने इसका नाम उत्तरांचल से उत्तराखंड कर दिया। अर्ध-कुम्भ का शाब्दिक अर्थ होता है आधा। और इसी कारण बारह वर्षों के अंतराल में आयोजित होने वाले पूर्ण कुम्भ के बीच अर्थात पूर्ण कुम्भ के छ: वर्ष बाद अर्ध कुंभ आयोजित होता है। हरिद्वार में पिछला कुंभ 1998 में हुआ था। हरिद्वार और प्रयाग में दो कुंभ पर्वों के बीच छह वर्ष के अंतराल में अर्धकुंभ भी होता है। २०१३ का कुम्भ प्रयाग में हो चुका है।

महाकुंभ
  
     शास्त्रों में बताया गया है कि पृथ्वी का एक वर्ष देवताओं का दिन होता है, इसलिए हर बारह वर्ष पर एक स्थान पर पुनः कुंभ का आयोजन होता है। देवताओं का बारह वर्ष पृथ्वी लोक के 144 वर्ष के बाद आता है। ऐसी मान्यता है कि 144 वर्ष के बाद स्वर्ग में भी कुंभ का आयोजन होता है इसलिए उस वर्ष पृथ्वी पर महाकुंभ का अयोजन होता है। महाकुंभ के लिए निर्धारित स्थान प्रयाग को माना गया है।


      अंत मे पूर्ण कुम्भ और अर्ध कुम्भ आज पवित्र स्नान के केंद्र न होकर कुछ साधुओं के वैभव के प्रदर्शन के केंद्र हो गए लगते हैं। ये तो ठीक है कि कुम्भ स्नान कि प्रथा इसलिए डाली गई ताकि (साधू संत , गाँव और नगरवासी जो कि प्राय: नदी के किनारे ही बस्ते थे) नदियों को संरक्षित किया जा सके किन्तु और इसमे सिर्फ राजा कि ही जिम्मेदार निहित न होकर बल्कि साधू प्रजा सब मिलकर नदी को साफ सुथरा रखने का प्रयास करे ताकि नदी मे पानी पीने आने वाले पशु पक्षी ही नहीं वरन मनुष्य भी स्वस्थ रह सकें। चूँकि वर्षा ऋतु के पश्चात भी खेत और खलिहानों को पानी कि आवश्यकता यदि पड़े तो नदी,तालाब ,झीलें सब स्वच्छ पानी कि पूर्ति कर सकें। पूर्व मे राजा साधू समाज और प्रजा सभी मिल बैठकर वनों और नदियों के विषय मे निर्णय लेते थे तभी समाज साफ सुथरा होता था। किन्तु आजकल कुम्भ पर्व मात्र वैभव दिखने का साधन और शहरी लोगों के पिकनिक का केंद्र बन गया लगता है। जहां पहले चिंतन होता था अब कोई चिंता भी नहीं करता कि नाड़े तालाब झीलें किस हाल मे है। यही कारण है कि पूरे विश्व मे जल समस्या खड़ी हो गई है। समय रहते हमे सिर्फ चिंता न कर चिंतन कि अत्यंत आवश्यकता है तभी हम आने वाली पीढ़ियों को कुछ अच्छा देकर जा सकते हैं।


:::  प्रदीप भट्ट :::30:04:2016