Tuesday, 27 November 2018

ये फ़िल्म बनाना नही आसाँ बस इतना समझ लीजै




“ये फ़िल्म बनाना नहीं आसां बस इतना समझ लीजे “

          आज़ जब सब तरफ़ सी बी आई और तीन राज्यों के विधानसभा चुनाव हर तरफ़ छाए हुए हैं ऐसे में हिन्दी फ़िल्म उद्योग के बारे में लिखने का फैसला थोड़ा ही सही अटपटा सा लागता तो है ही  किंतु बात ही कुछ ऐसी हुई की मैं इस विषय में ख़ुद को लिखने से रोक न सका। अनुभव सिन्हा द्वारा निर्देशित फ़िल्म मुल्क का प्रमोशन अनुभव सिन्हा द्वारा अब भी टिवीटर पर अब भी जारी है। वे भी बड़े ज़ोर शोर से लिख रहे हैं कि भैया देखो फलां दिन इस चैनल पर मुल्क आ रही है देखना ज़रूर। इससे एक बात तो समझ में आती है कि निर्देशन के अतिरिक्त अगर आप किसी और रूप में भी फ़िल्म से जुड़े हैं तो आपको फ़िल्म को बेचने के नए नए तरीक़े खोजते रहने चाहिए।

          आज़ की तारीख़ में फ़िल्म बनाना तो एक बारगी आसान है किन्तु उसे बेचना या उसकी मार्केटिंग करना बड़ी टेढ़ी खीर है। मुझे याद पड़ता है कि टी वी में एक इंटरव्यू आ रहा था शायद अमिताभ बच्चन ही थे उन्होने ये खुलासा किया कि त्रिशूल (1978) फ़िल्म बनने के बाद उन्हें यश चोपड़ा ने सिर्फ़ कि शशि और अमिताभ को लंदन घूमने के लिए  भेजा किंतु वे चाहते थे कि अमिताभ और शशि दोनों ही थिएटर में जाकर फ़िल्म का प्रमोशन भी करें। यानि आज़ से लगभग 40 वर्ष पहले ही यश चोपड़ा इस बात को समझ चुके थे कि भैया फ़िल्म तो बना लो लेकिन उसे बेचने के लिए पूरी तिकड़म अपनानी पड़ती है। पिछले लगभग 10 वर्षो के इतिहास पर अगर नज़र डालें तो पाएगे कि फ़िल्म छोटी हो या बड़ी सभी के लिए एक ही नियम लागू होगा कि उसे बेचने के लिए क्या युक्ति अपनाई जाए ताकि कम से कम ख़र्च में फ़िल्म को ज्यादा से ज्यादा प्रचार मिले। हद तो तब हो गई जब श्रेयस तलपड़े ने अपने निर्देशन में बनने वाली फ़िल्म “पोस्टर बॉस” (2017) की एडवांस में ही प्रचार अभियान की शुरुरात कर दी।

          ऐसा भी बहुत बार हुआ है कि इतने प्रचार प्रसार के बावजूद भी फिल्में नहीं चल पाई और पहले हफ़्ते में ही फ़िल्म टाएँ टाएँ फ़िस्स हो गई इसका जीता जागता उदाहरण अभी दीपावली पर रिलीस हुई “ठग्स ऑफ हिंदुस्तान” के साथ हुआ । ये फ़िल्म जहां पहले दिन 35 करोड़ की कमाई करने में कामयाब हुई वहीं हफ़्ते के अंत तक आते आते ये फ़िल्म हाँफने को मजबूर हो गई। वैसे भी फ़िल्म इंडस्ट्री में भेड़ चाल की भरमार है एक विषय वस्तु पर कई कई फ़िल्में बन जाती है उसमें से जिसका कंटेन अच्छा हो, अच्छी स्टार कास्ट हो, सुमधुर संगीत हो ऐसी फ़िल्म चल जाती है बाक़ी दूसरी फ़िल्में अपनी लागत भी निकालने में कामयाब नहीं हो पाती। कुछ फ़िल्में देखकर तो समझ ही नहीं आता कि प्रोड्यूसर ने इस फ़िल्म पर पैसा ही क्यूँ लगाया या क्या सोचकर एक नामी दिग्दर्शक ने इस फ़िल्म को निर्देशित करने के लिए हाँ भरी ।शायद प्रोड्यूसर फ़िल्म घाटे के लिए ही बना रहा हो?  फ़िल्म उद्योग में वैसे ही बड़ी मारा मारी है गला काट प्रतियोगिता किसे कहते हैं ये कोई फ़िल्म लाइन में आकार सजीव देख सकता है। वैसे तो ये समस्या सभी क्षेत्रों में है किंतु फ़िल्म लाइन में ये समस्या ज़रूरत से ज़्यादा ही दिखती है।

          मेरे एक परिचित हैं जिन्होने मुहे साउथ की फिल्मों के बारे में एक बात बताई उनके शब्दों में  साधारणतया : साउथ की फ़िल्म जब बनती है तो सबसे पहले प्रोड्यूसर ये निर्णय करता है कि फ़िल्म का बेस क्या है गाँव या शहर।इसी आधार पर फिर फ़िल्म की लंबाई तय की जाती है 2 घंटे या 2:30 घंटे। फार्मूला सीधा साधा सा “आधा घंटे  का नाच गाना,आधा घंटे की कॉमेडी,15 मिनिट से 30 मिनिटस तक के मेलोड्रामा बाकी बचे समय में मारधाड़ इत्यादि। लीजिए हुज़ूर हो गई एक साउथ की फिल्म तैयार। अगर लागत से 25 % भी फिल्म ने कमा लिया तो वल्ले वल्ले। क्यों की बाकी का पैसा तो जो भी चैनल उसके अधिकार ख़रीदेगा वो मिल ही जाएगा।

          अगर हम सभी बातों को मान भी लें तो एक बात तो स्पष्ट है कि फ़िल्म बनाना इतना भी आसान नहीं है जितना लोगों को लगता है। ये बात अलग है कि अपने डिफ़्रेंट कंटैंट के चलते कुछ छोटी छोटी फ़िल्में ज्यादा कारोबार कर जाती है वहीं भारी लागत से तैयार फ़िल्म अच्छा कंटैंट ना होने के कारण अपनी लागत भी नहीं वसूल पाती। इसलिए प्रोड्यूसर फ़िल्म बनाने से पहले ही एग्रीमंट में यह क्लौज जोड़ देते हैं कि कलाकारों को फलां से फलां दिनों तक फ़िल्म की पब्लिसिटी के लिए समय देना अनिवार्य होगा। ऐसा भी देखने में आया है कि फ़िल्म करते समय कलाकारों के आपसी रिश्तों के असहज होने के कारण भी फ़िल्म प्रभावित होती है। जिससे प्रोड्यूसर को तगड़ा नुकसान होता है।

-प्रदीप भट्ट –
27th नवम्बर -2018