“तथ्यों पर आधारित सिनेमा की कहानी और लेखक
कितने प्रमाणिक”
मनोरंजन उद्योग में स्लीपर हिट
उस फिल्म या संगीत या फिर वीडियो गेम भी के लिए उपयोग किया जाता है जब फिल्म या संगीत
या विडिओ गेम का प्रचार प्रचुर मात्रा या यूँ कह लें कि न के बराबर हुआ हो या उद्घाटन
भी ठीक तरह से न हुआ हो, के विपरित भी अगर वह फिल्म/संगीत/विडियो गेम
एक लम्बे समय तक सफलता पूर्वक व्यव्साय करे व सफलता के नये मानद्ण्ड स्थापित करें तो
ऐसी फिल्मों के लिए स्लीपर हिट की संज्ञा दी जाती है।
अगर मैं भारतीय रुपहले
पर्दे के इतिहास पर नज़र डालूँ तो पाऊँगा कि इसकी अधिकारिक शुरुआत दादा साहेब फाल्के द्वारा की गई। किंतु इतिहास
इससे पहले का भी है। 1897 में प्रोफेसर स्टीवेंस द्वारा कलकत्ता थियेटर में एक
स्ट्ज शो से की, स्टीवेंस के प्रोत्साहन से हीरालाल सेन जो कि एक फोटोग्राफर थे ने कुछ
दृश्यों को जोडकर “ द फ्लॉवर ऑफ पर्शिया”
फिल्म बनाई, उसके बाद एच एस भटवडेकर ने मुम्बई के हैंगिग
गार्डन में एक कुश्ती के मैच की फिल्म बनाई जिसे आधिकारिक तौर पर भारत की पहली
वृत्तचित्र होने का गौरव प्राप्त है।जहाँ तक “तथ्यों पर आधारित सिनेमा की
कहानी और लेखक कितने प्रमाणिक” का प्रश्न है तो दादा साहब फाल्के (धुंडिराज
गोविंद फाल्के) ने जिस फिल्म की सबसे पहले परिकल्पना की और उसे रुपहले पर्दे पर
उतारा, वह थी “राजा हरिश्चंद्र” जो 3 मई 1913 मुंबई के कोरनेशन सिनेमा
में प्रदर्शित की गई। उन्होंने इसे अपनी फाल्के कंपनी के बैनर तले बनाया था।
इसके बाद इसे 1914 में लंदन में प्रदर्शित किया गया था।
भारतीय सिनेमा के सबसे पहले प्रभावशाली
व्यक्तित्व दादासाहेब फाल्के ने 1913 से 1918 तक 23 फिल्मों का निर्माण और संचालन किया।
निश्चित रुप से यह एक आधिकारिक तौर पर तथ्यों पर आधारि पौराणिक फिल्म थी जिसके
किरदार हमारे भारतीय इतिहास में एक विशेष स्थान रखते हैं।
· इसके बाद तो भारत में फिल्में बनाए जाने की होड सी लग गई। चूँकि भारतीय सिनेमा ज्यादा विकसित नही हुआ था इसलिए उस समय ज्यादातर पौराणिक या ऐतिहासिक फिल्में ही बनती थी। उन फिल्मों के पात्र रामायण ,महाभारत, विष्णु पुराण से लिए जाते थे जो कि निश्चित रुप से तथ्यों पर आधारित होते थे। आज भी रामायण और महाभारत के पात्रों पर अलग अलग फिल्में बन रही हैं और सफल भी हो रही हैं। ऐतिहासिक पात्रों की बात करें तो वीर शिवाजी, महाराणा प्रताप पर अनेकों सफल फिल्में बनी हैं। फिर एक दौर आया जब सिकंदर और पौरस पर (सोहराब मोदी,पृथ्वी राज कपूर और चंद्रमोहन) फिल्म बनी, अकबर, शाहजहाँ पर फिल्में बनी। फिर एक और दौर आया जब शहीद भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद, राजगुरु,नेता जी सुभाष चंद्र बोस पर भी अनेकों फिल्में बनी जिसमें मनोज कुमार की शहीद फिल्म सबसे सफल मानी जाती है। वास्तव में बॉलीवड (हिंदी फिल्म उद्योग) हो या हॉलीवुड दोनों में एक समानता आपको जरुर मिल जाएगा कि अगर एक फार्मूले पर कोई फिल्म हिट होती है तो उसी फार्मुले को तोड मरोड कर पता नही कितनी फिल्में बन जाती है किंतु चलती तो एक आध ही है।
· खैर शुरुआत करता हूँ, अगर आप याद करें तो पाएगें कि देश को दूध उत्पादन में आत्मनिर्भर करने के साथ ही किसानों की दशा सुधारने के लिए अमूल (आणंद सहकारी दुग्ध उत्पादक संघ) स्थापना 14 दिसम्बर-1946 को हुई। लालबहादुर शास्त्री ने अमूल मॉडल को दूसरी जगहों पर फैलाने के लिए राष्ट्रीय दुग्ध विकास बोर्ड (एनडीडीबी) का गठन किया और इसका प्रथम अध्यक्ष वर्गीज कुरियन को बनाया, कुरियन को 'भारत का मिल्कमैन' भी कहा जाता है। 1965 से 1998 तक 33 साल तक उन्होंने अध्यक्ष के तौर अपनी सेवाएं प्रदान की, के ऊपर श्याम बेनेगल एक फिल्म बनाना चाहते थे किंतु कोई भी फायनंसर इसके लिए तैयार ही नही था तब वर्गीज़ कुरियन ने बेनेगल से कहा तुम इस संस्था से जुडे 5 लाख किसानों से दो-दो रुपये एकत्र करो और फिल्म बनाओ। बेनेगल ने ऐसा ही किया और 1976 में पाँच लाख पशुपालकों को निर्माता के तौर पर जोडकर गिरिश कर्नाड, स्मिता पाटिल, नसीरूद्दीन शाह एवम अमरीशपुरी को लेकर मंथन फिल्म बना डाली। इस फिल्म को उस वर्ष बेस्ट फीचर फिल्म एवम बेस्ट स्क्रीन प्ले का राष्ट्रीय पुरुस्कार प्राप्त हुआ। इसी के साथ इस फिल्म ने गिनीज़ बुक का विश्व रिकार्ड भी बना डाला और वो रिकार्ड है किसी एक फिल्म के पाँच लाख निर्माता।
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ऐसा ही कुछ वर्षो में खेल को लेकर फिल्म बनाने का चलन
आया है। फुटबाल को लेकर राजकिरण और जॉन अब्राहम फिल्में बना चुके हैं जो ज्यादा
चली नही। किंतु 2007 में एक फिल्म आयी थी “चक दे इंडिया” (लेखक जय दीप
साहनी व निदेशक-शमित अमीन) जो कि मीर राजन नेगी के जीवन से प्रेरित हैं । मीर रंजन नेगी 1982 में हुए एशियन गेम्स फाइनल में भारतीय
हॉकी टीम के गोलकीपर थे, यह मैच पाकिस्तान से था
जिसमे भारत को हार का सामना करना पडा जिसके लिए उस समय मीर रंजन नेगी को कटघरे में
खडा किया गया था और उन्हें सार्वजनिक रुप से कई बार अपमान सहन करना पड़ा था। कहानी
मीर रंजन नेगी के जीवन से प्रेरित किंतु इसे तथ्यों पर आधारित फिल्म कहना
न्यायोचित नही होगा।
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इसी तरह डाकूओं पर अनेको फिल्म बनी जिसमें मुझे जीने दो, जिस देश में
गंगा बहती है किंतु सत्य घटना से प्रेरित सिर्फ एक फिल्म जो समीक्षकों द्वारा भी सराही
गई और वित्तीय रुप से भी जिस फिल्म ने ठीक ठाक व्यापार किया वह फिल्म थी बैंडिड क्वीन”
(19914) जो कि दस्यू सुंदरी फूलन देवी पर आधारित थी और जिसे शेखर कपूर ने डॉयरेक्ट
किया था ।
· इसके बाद बॉक्सिंग पर मैरी कॉम, एथलिटस पर “भाग मिल्खा भाग” जिसे प्रसून जोशी ने लिखा और राकेश ओम प्रकाश मेहरा ने डायरेक्ट किया। क्रिकेट पर धोनी “द अंटोल्ड स्टोरी” जिसके लेखक नंदू कामटे और निर्देशक नीरज पाण्डेय हैं। ‘83’ जो कि भारतीय टीम द्वारा विश्व कप जीतने की कहानी पर आधारित है ने सफलता के कई कीर्तिमान स्थापित किये। ये सभी फिल्में भी तथ्यों पर आधारित हैं और फिल्म के लेखकों ने तथ्यों को ज्यों का त्यों रखने का और निर्देशक ने उसे उसी अन्दाज में परोसने का कार्य काफी अच्चे ढंग से किया है।
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इसी क्रम
में पान सिंह तोमर जिसे तिग्मांशु
धुलिया ने निर्देशित किया था। ये फिल्म एक रिटायर्ड सूबेदार पान सिंह तोमर की
जीवनी से प्रेरित थी जो कि एथलिट बनना चाहता था किंतु सिस्टम ने उसे बागी बना दिया।
पान सिंह तोमर के किरदार को इरफान खान ने बखूबी निभाया था।
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इसी क्रम में अगर मैं आगे बढूँ तो पाऊँगा कि 1993 में
मुम्बई में हुए सिलसिलेवार बम धमाकों के बाद अनुराग कश्यप (लेखक निर्देशक) ने एक
फिल्म “ब्लैक फ्राइडे” बनाई थी जो कि 1993 के बॉम्बे बम धमाकों के बारे में हुसैन जैदी की एक किताब 'ब्लैक फ्राइडे : द ट्रू स्टोरी ऑफ़ द बॉम्बे
बम ब्लास्ट' पर आधारित थी। जिसे समीक्षकों द्वारा काफी सराहना
मिली थी। उसके बाद के क्रम में “सरबजीत” एक ऐसे व्यक्ति की कहानी जो कि
गल्ती से पाकिस्तान की सीमा में दाखिल हो जाता है और
वहाँ की सरकार द्वारा जासूस होने का आरोप लगा दिया जाता है और वर्षो तक उसे विभिन्न जेलों में बंद रखा जाता है और उसे मृत्यु दण्ड की सज़ा सुनाई जाती है किंतु 2 मई, 2013 पाकिस्तान (लाहौर की जेल) में कैदियों द्वारा किये गये हमले में उसकी मौत हो जाती है। सरबजीत की रिहाई के लिए उनकी बहन द्वारा किये गये प्रयासों की हर जगह तारीफ हुई फिर 2016 में रण्दीप हुड्डा ऐष्वर्य राय को लेकर सरबजीत नाम से एक फिल्म बनती है जिसके लेखक उत्कर्षिणी वशिष्ठ एवम राजेश बेरी और उसे डॉयरेक्ट करते हैं मैरी कॉम फेम ओमांग कुमार फिल्म काफी सफल रही थी।
· मुझे याद है जीतेंद्र की शुरुआती फिल्मों में 1967 में “बूँद जो बन गये मोती” जिसके निर्देशक वी शांताराम थे, एक ऐसी फिल्म थी जिसमें एक प्रगति शील मास्टर बच्चों को सिर्फ क्लॉस रुम तक सीमित नही रखना चाहता था बल्कि उन्हें पहाडो जंगलों में प्रैक्टिकल कराना पसंद करता था। किंतु वह फिल्म किसी सत्य घटना पर आधारित नही थी किंतु 2019 में आई “सुपर 30“ बिहार प्रदेश के एक शिक्षक आनंद कुमार की कहानी है जिसे पर्दे पर बडे सलीके से परोसा गया है। इस फिल्म के लेखक संजीव दत्ता एवम निर्देशक विकास बहल थे। वर्ष-2020 में लडलियों के चेहरे पर तेजाब डालने वाली घटनाओं में से एक पर “छपाक” फिल्म आई जो कि लक्ष्मी अग्रवाल नामक लडकी पर हुए अत्याचार की दास्तां से प्रेरित थी किंतु फिल्म बुरी तरह फ्लॉप रही। इसके लेखक अकिता चौहान और मेघना गुलज़ार थे मेघना ने इसे निर्देशित भी किया था। 2020 में इंडियन एअर फोर्स की पहली पायलट “गुंजन सक्सेना: द कारगिल गर्ल'” भी रिलीज़ हुई जो कि गुंजन सक्सेना की ज़िंदगी से प्रेरित थी इसके लेखक किरण-निर्वाण और निर्देशक शरन शर्मा ने किया।
· मंटो (2018) सआदत हसन मंटो किसी दूसरे स्तर के ही अफसाना निगार थे। जब भी उनकी कलम चली कई हलकों में भूचाल आ गया। अगर सच कहूँ तो वो वास्तव में कडवा सच लिखने वाले पहले व्यक्ति थे। जो भी ख्याल मन में आया उसे पूरी ईमानदारि से पन्नों पर उतार दिया। नंदिता दास ने साअदत हसन मंटो पर बरसों मेहनत करी तब जाकर उसे फिल्म का रुप दिया। नवाजुद्दीन सिद्दीकी ने भी साअदत हसन मंटो के किरदार में ऐसे जान डाल दी जैसे वो पूर्व जन्म में मंटो ही रहे होंगे।
· 2015 में मांझी द माउंटेन मैन” जिसे अशोक मेहता ने डॉयरेक्ट किया और इसमें दशरथ माँझी की भूमिका निभाई मंझे हुए एक्टर नवाज़ुद्दीन सिद्दीकी ने। ये फिल्म बिहार के दशरथ माँझी की जिजीविषा की कहानी बयाँ करती है कि जैसे अपनी जिद्द के धनी दशरथ ने अपनी पत्नी के प्रेम के लिए अकेले ही एक पहाड काटकर रास्ता बना दिया।
· 2019 में मिशन मंगल फिल्म रुपहले पर्दे पर आई जो कि भारतीय अंतरिक्ष विज्ञान की सच्ची घटना पर आधारित थी। इस फिल्म के लेखक- आर बाल्कि, निधि सिंह एवम जगन शक्ति जिन्होंने इस फिल्म का निर्देशन भी किया था। फिल्म बॉक्स ऑफिस पर बेहद सफल रही।
· कुछ वर्षो पहले शायद 2014 में एक फिल्म आई थी “ बुद्दा इन ट्रैफिक जाम” जिसे विवेक अग्निहोत्री द्वारा निर्देशित किया गया था इससे पह्ले वे 2005 में चॉकलेट फिल्म बना चुके थे मुझे वो फिल्म थोडा उलझी हुई लगी। खैर फिल्म शहरों में कुकर मुत्ते की तरह पनपते नक्सलवाद की बहुत उम्दा तरीके से पडताल करती है साथ ही बौद्धिक आतंकवाद किस तरह हमारी वर्तमान एव्म आने वाली पीढियों को बरगला रहा है।
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इसके बाद बात करते हैं “द ताशकंद फाईल्स” (2019)
की जो कि भूतपूर्व प्रधानमंत्री स्व0 लाल बहादुर शास्त्री की रहस्यातमक मौत की तफतीश
करती है। इस फिल्म के लेखक, निर्माता और निर्देशक विवेक अग्निहोत्री ही हैं। ये फिल्म पूरी
तरह से स्व0 लाल बहादुर शास्त्री की संदेहास्पदक मौत पर एक दूसरे ही कोण से प्रकाश
डालती है। समझना तब ज्यादा आसान हो जाता है जब फिल्म के अंत में 1990 के दौरान के जी
बी के चार जासूसों का जिक्र किया जाता है जो उस दौरान भारत सरकार में मंत्री पद पर
आसीन थे। भले ही उस किताब के पृष्ठ के पैराग्राफ को ब्लर कर दिया जाता है किंतु समझने
वाले समझ ही जाते हैं।
और अब अंत में जिक्र करते हैं “तथ्यों पर आधारित सिनेमा की कहानी और
लेखक कितने प्रमाणिक” अभी 11 मार्च -2022 को रिलीज़ हुई “द कश्मीर फाईल्स” जिसे पुन” विवेक अग्निहोत्री द्वारा निर्देशित किया गया है। ये पूरी फिल्म कश्मीर में 19 जनवरी-1990 से पहले और बाद में कश्मीरी हिंदू औरतों के साथ हुए हजारों की संख्या में हुए बलात्कारों एवम कत्लेआम की बडी बारिकी से पडताल करती है। The Film questions eye-opening facts about democracy, religion, politics and humanity. जो कश्मीर ऋषि कश्यप, वाग्भट्ट, शकंराचार्य के नाम से जाना जाता था, वो कैसे मुस्लिम आक्रमण कारियों द्वारा जबरन हथिया लिया गया और तलवारों के जोर पर 99 प्रतिशत हिंदुओं का कैसे मुस्लिम करण कर दिया गया। निश्चित रुप से इसमें अराजक राजनीति ने एक अहम रोल निभाया। देल्ही में बैठे लोगों ने कैसे कश्मीरी हिंदुओं के साथ इतना जघन्य अपराध होने दिया सोचकर ही रुप काँप जाती है। इस फिल्म में इतने सारे ऐसे सीन हैं जिससे दर्शक अपने आपको रिलेट करता है। यही कारण है कि फिल्म को प्रदर्शित न होने देने के लिए बॉलूवुड गैंग ने एडी चोटी का जोर लगा दिया किंतु सत्य तो सत्य है कब तक छिपेगा। द कश्मीर फाईल्स की आँधी में झुंड और बच्चन पाण्डेय जैसे फिल्म भी उड गई। ऐसा सिर्फ इसलिए हो पाया क्यों कि लेखक ने उस दौर को कहानी में पिरोने से पहले 700 से ज्यादा लोगों से देश ही नही वरन विदेशों में जाकर मुलाकात की और जिसने जो बताया उसे रिकार्ड किया, बताये गये तथ्यों की प्रमाणिकता की जाँच की गई तब जाकर द कश्मीर फाइल्स बनकर तैयार हुई। ये विषय अलग है कि इस फिल्म की सफलता से पूरा बॉलीवुड हिल गया। इस फिल्म की जितनी चर्चा देश में हुई उससे ज्यादा चर्चा विदेशों में हुई। ये हिंदी फिल्म उद्योग के भविष्य के लिए एक शुभ संकेत है।
-प्रदीप
देवीशरण भट्ट-31.03.2022