Thursday, 31 March 2022

“तथ्यों पर आधारित सिनेमा की कहानी और लेखक कितने प्रमाणिक”

 



तथ्यों पर आधारित सिनेमा की कहानी और लेखक कितने प्रमाणिक

 

मनोरंजन उद्योग में स्लीपर हिट उस फिल्म या संगीत या फिर वीडियो गेम भी के लिए उपयोग किया जाता है जब फिल्म या संगीत या विडिओ गेम का प्रचार प्रचुर मात्रा या यूँ कह लें कि न के बराबर हुआ हो या उद्घाटन भी ठीक तरह से न हुआ हो, के विपरित भी अगर वह फिल्म/संगीत/विडियो गेम एक लम्बे समय तक सफलता पूर्वक व्यव्साय करे व सफलता के नये मानद्ण्ड स्थापित करें तो ऐसी फिल्मों के लिए स्लीपर हिट की संज्ञा दी जाती है

अगर मैं भारतीय रुपहले पर्दे के इतिहास पर नज़र डालूँ तो पाऊँगा कि इसकी अधिकारिक शुरुआत  दादा साहेब फाल्के द्वारा की गई। किंतु इतिहास इससे पहले का भी है। 1897 में प्रोफेसर स्टीवेंस द्वारा कलकत्ता थियेटर में एक स्ट्ज शो से की, स्टीवेंस के प्रोत्साहन से हीरालाल सेन जो कि एक फोटोग्राफर थे ने कुछ दृश्यों को जोडकर  “ द फ्लॉवर ऑफ पर्शिया” फिल्म बनाई, उसके बाद एच एस भटवडेकर ने मुम्बई के हैंगिग गार्डन में एक कुश्ती के मैच की फिल्म बनाई जिसे आधिकारिक तौर पर भारत की पहली वृत्तचित्र होने का गौरव प्राप्त है।जहाँ तक “तथ्यों पर आधारित सिनेमा की कहानी और लेखक कितने प्रमाणिक” का प्रश्न है तो दादा साहब फाल्के (धुंडिराज गोविंद फाल्‍के) ने जिस फिल्म की सबसे पहले परिकल्पना की और उसे रुपहले पर्दे पर उतारा, वह थी “राजा हरिश्चंद्र” जो 3 मई 1913 मुंबई के कोरनेशन सिनेमा में प्रदर्शित की गई। उन्‍होंने इसे अपनी फाल्‍के कंपनी के बैनर तले बनाया था। इसके बाद इसे  1914 में लंदन में प्रदर्शित किया गया था। भारतीय सिनेमा के सबसे पहले प्रभावशाली व्यक्तित्व दादासाहेब फाल्के ने 1913 से 1918 तक 23 फिल्मों का निर्माण और संचालन किया। निश्चित रुप से यह एक आधिकारिक तौर पर तथ्यों पर आधारि पौराणिक फिल्म थी जिसके किरदार हमारे भारतीय इतिहास में एक विशेष स्थान रखते हैं।

·         इसके बाद तो भारत में फिल्में बनाए जाने की होड सी लग गई। चूँकि भारतीय सिनेमा ज्यादा विकसित नही हुआ था इसलिए उस समय ज्यादातर पौराणिक या ऐतिहासिक फिल्में ही बनती थी। उन फिल्मों के पात्र रामायण ,महाभारत, विष्णु पुराण से लिए जाते थे जो कि निश्चित रुप से तथ्यों पर आधारित होते थे। आज भी रामायण और महाभारत के पात्रों पर अलग अलग फिल्में बन रही हैं और सफल भी हो रही हैं। ऐतिहासिक पात्रों की बात करें तो वीर शिवाजी, महाराणा प्रताप पर अनेकों सफल फिल्में बनी हैंफिर एक दौर आया जब सिकंदर और पौरस पर (सोहराब मोदी,पृथ्वी राज कपूर और चंद्रमोहन) फिल्म बनी, अकबर, शाहजहाँ पर फिल्में बनी। फिर एक और दौर आया जब शहीद भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद, राजगुरु,नेता जी सुभाष चंद्र बोस पर भी अनेकों फिल्में बनी जिसमें मनोज कुमार की शहीद फिल्म सबसे सफल मानी जाती है। वास्तव में बॉलीवड (हिंदी फिल्म उद्योग) हो या हॉलीवुड दोनों में एक समानता आपको जरुर मिल जाएगा कि अगर एक फार्मूले पर कोई फिल्म हिट होती है तो उसी फार्मुले को तोड मरोड कर पता नही कितनी फिल्में बन जाती है किंतु चलती तो एक आध ही है।

·         खैर शुरुआत करता हूँ, अगर आप याद करें तो पाएगें कि देश को दूध उत्पादन में आत्मनिर्भर करने के साथ ही किसानों की दशा सुधारने के लिए अमूल (आणंद सहकारी दुग्ध उत्पादक संघ) स्थापना 14 दिसम्बर-1946 को हुई लालबहादुर शास्त्री ने अमूल मॉडल को दूसरी जगहों पर फैलाने के लिए राष्ट्रीय दुग्ध विकास बोर्ड (एनडीडीबी) का गठन किया और इसका प्रथम अध्यक्ष वर्गीज कुरियन को बनाया, कुरियन को 'भारत का मिल्कमैन' भी कहा जाता है। 1965 से 1998 तक 33 साल तक उन्होंने अध्यक्ष के तौर अपनी सेवाएं प्रदान की, के ऊपर श्याम बेनेगल एक फिल्म बनाना चाहते थे किंतु कोई भी फायनंसर इसके लिए तैयार ही नही था तब वर्गीज़ कुरियन ने बेनेगल से कहा तुम इस संस्था से जुडे 5 लाख किसानों से दो-दो  रुपये एकत्र करो और फिल्म बनाओ। बेनेगल ने ऐसा ही किया और 1976 में पाँच लाख पशुपालकों को निर्माता के तौर पर जोडकर गिरिश कर्नाड, स्मिता पाटिल, नसीरूद्दीन शाह एवम अमरीशपुरी को लेकर मंथन फिल्म बना डाली। इस फिल्म को उस वर्ष बेस्ट फीचर फिल्म एवम बेस्ट स्क्रीन प्ले का राष्ट्रीय पुरुस्कार प्राप्त हुआ। इसी के साथ इस फिल्म ने गिनीज़ बुक का विश्व रिकार्ड भी बना डाला और वो रिकार्ड है किसी एक फिल्म के पाँच लाख निर्माता।

·         ऐसा ही कुछ वर्षो में खेल को लेकर फिल्म बनाने का चलन आया है। फुटबाल को लेकर राजकिरण और जॉन अब्राहम फिल्में बना चुके हैं जो ज्यादा चली नही। किंतु 2007 में एक फिल्म आयी थी “चक दे इंडिया” (लेखक जय दीप साहनी व निदेशक-शमित अमीन) जो कि मीर राजन नेगी के जीवन से प्रेरित हैं । मीर रंजन नेगी 1982 में हुए एशियन गेम्स फाइनल में भारतीय हॉकी टीम के गोलकीपर थे, यह मैच पाकिस्तान से था जिसमे भारत को हार का सामना करना पडा जिसके लिए उस समय मीर रंजन नेगी को कटघरे में खडा किया गया था और उन्हें सार्वजनिक रुप से कई बार अपमान सहन करना पड़ा था। कहानी मीर रंजन नेगी के जीवन से प्रेरित किंतु इसे तथ्यों पर आधारित फिल्म कहना न्यायोचित नही होगा।

 

·         इसी तरह डाकूओं पर अनेको फिल्म बनी जिसमें मुझे जीने दो, जिस देश में गंगा बहती है किंतु सत्य घटना से प्रेरित सिर्फ एक फिल्म जो समीक्षकों द्वारा भी सराही गई और वित्तीय रुप से भी जिस फिल्म ने ठीक ठाक व्यापार किया वह फिल्म थी बैंडिड क्वीन” (19914) जो कि दस्यू सुंदरी फूलन देवी पर आधारित थी और जिसे शेखर कपूर ने डॉयरेक्ट किया था ।

 

·         इसके बाद बॉक्सिंग पर मैरी कॉम, एथलिटस पर भाग मिल्खा भाग” जिसे प्रसून जोशी ने लिखा और राकेश ओम प्रकाश मेहरा ने डायरेक्ट किया। क्रिकेट पर धोनी “द अंटोल्ड स्टोरी” जिसके लेखक नंदू कामटे  और निर्देशक नीरज पाण्डेय हैं। ‘83’ जो कि भारतीय टीम द्वारा विश्व कप जीतने की कहानी पर आधारित है ने सफलता के कई कीर्तिमान स्थापित किये। ये सभी फिल्में भी तथ्यों पर आधारित हैं और फिल्म के लेखकों ने तथ्यों को ज्यों का त्यों रखने का और निर्देशक ने उसे उसी अन्दाज में परोसने का कार्य काफी अच्चे ढंग से किया है।

·         इसी क्रम में पान सिंह तोमर जिसे तिग्मांशु धुलिया ने निर्देशित किया था। ये फिल्म एक रिटायर्ड सूबेदार पान सिंह तोमर की जीवनी से प्रेरित थी जो कि एथलिट बनना चाहता था किंतु सिस्टम ने उसे बागी बना दिया। पान सिंह तोमर के किरदार को इरफान खान ने बखूबी निभाया था।

·         इसी क्रम में अगर मैं आगे बढूँ तो पाऊँगा कि 1993 में मुम्बई में हुए सिलसिलेवार बम धमाकों के बाद अनुराग कश्यप (लेखक निर्देशक) ने एक फिल्म “ब्लैक फ्राइडे” बनाई थी जो कि 1993 के बॉम्बे बम धमाकों के बारे में हुसैन जैदी की एक किताब 'ब्लैक फ्राइडे : द ट्रू स्टोरी ऑफ़ द बॉम्बे बम ब्लास्ट' पर आधारित थी। जिसे समीक्षकों द्वारा काफी सराहना मिली थी। उसके बाद के क्रम में “सरबजीत” एक ऐसे व्यक्ति की कहानी जो कि गल्ती से पाकिस्तान की सीमा में दाखिल हो जाता है और

वहाँ की सरकार द्वारा जासूस होने का आरोप लगा दिया जाता है और वर्षो तक उसे विभिन्न जेलों में बंद रखा जाता है और उसे मृत्यु दण्ड की सज़ा सुनाई जाती है किंतु 2 मई, 2013 पाकिस्तान (लाहौर की जेल) में कैदियों द्वारा किये गये हमले में उसकी मौत हो जाती है। सरबजीत की रिहाई के लिए उनकी बहन द्वारा किये गये प्रयासों की हर जगह तारीफ हुई फिर 2016 में रण्दीप हुड्डा ऐष्वर्य राय को लेकर सरबजीत नाम से एक फिल्म बनती है जिसके लेखक  उत्कर्षिणी वशिष्ठ  एवम राजेश बेरी  और उसे डॉयरेक्ट करते हैं मैरी कॉम फेम ओमांग कुमार फिल्म काफी सफल रही थी।

·         मुझे याद है जीतेंद्र की शुरुआती फिल्मों में 1967 में “बूँद जो बन गये मोती” जिसके निर्देशक वी शांताराम थे, एक ऐसी फिल्म थी जिसमें एक प्रगति शील मास्टर बच्चों को सिर्फ क्लॉस रुम तक सीमित नही रखना चाहता था बल्कि उन्हें पहाडो जंगलों में प्रैक्टिकल कराना पसंद करता था। किंतु वह फिल्म किसी सत्य घटना पर आधारित नही थी किंतु 2019 में आई “सुपर 30बिहार प्रदेश के एक शिक्षक आनंद कुमार की कहानी है जिसे पर्दे पर बडे सलीके से परोसा गया है। इस फिल्म के लेखक संजीव दत्ता एवम निर्देशक विकास बहल थे। वर्ष-2020 में  लडलियों के चेहरे पर तेजाब डालने वाली घटनाओं में से एक पर “छपाक” फिल्म आई जो कि लक्ष्मी अग्रवाल नामक लडकी पर हुए अत्याचार की दास्तां से प्रेरित थी किंतु फिल्म बुरी तरह फ्लॉप रही। इसके लेखक अकिता चौहान और मेघना गुलज़ार थे मेघना  ने इसे निर्देशित भी किया था। 2020 में इंडियन एअर फोर्स की पहली पायलट “गुंजन सक्सेना: द कारगिल गर्ल'भी रिलीज़ हुई जो कि  गुंजन सक्सेना की ज़िंदगी से प्रेरित थी इसके लेखक किरण-निर्वाण और निर्देशक शरन शर्मा ने किया।

·         मंटो (2018) सआदत हसन मंटो किसी दूसरे स्तर के ही अफसाना निगार थे। जब भी उनकी कलम चली कई हलकों में भूचाल आ गया। अगर सच कहूँ तो वो वास्तव में कडवा सच लिखने वाले पहले व्यक्ति थे। जो भी ख्याल मन में आया उसे पूरी ईमानदारि से पन्नों पर उतार दिया। नंदिता दास ने साअदत हसन मंटो पर बरसों मेहनत करी तब जाकर उसे फिल्म का रुप दिया। नवाजुद्दीन सिद्दीकी ने भी साअदत हसन मंटो के किरदार में ऐसे जान डाल दी जैसे वो पूर्व जन्म में मंटो ही रहे होंगे।

·         2015 में मांझी द माउंटेन मैन” जिसे अशोक मेहता ने डॉयरेक्ट किया और इसमें दशरथ माँझी की भूमिका निभाई मंझे हुए एक्टर नवाज़ुद्दीन सिद्दीकी ने। ये फिल्म बिहार के दशरथ माँझी की जिजीविषा की कहानी बयाँ करती है कि जैसे अपनी जिद्द के धनी दशरथ ने अपनी पत्नी के प्रेम के लिए अकेले ही एक पहाड काटकर रास्ता बना दिया।

·         2019 में मिशन मंगल फिल्म रुपहले पर्दे पर आई जो कि भारतीय अंतरिक्ष विज्ञान की सच्ची घटना पर आधारित थी। इस फिल्म के लेखक- आर बाल्कि, निधि सिंह एवम जगन शक्ति जिन्होंने इस फिल्म का निर्देशन भी किया था। फिल्म बॉक्स ऑफिस पर बेहद सफल रही।

·         कुछ वर्षो पहले शायद 2014 में एक फिल्म आई थी “ बुद्दा इन ट्रैफिक जाम” जिसे विवेक अग्निहोत्री द्वारा निर्देशित किया गया था इससे पह्ले वे 2005 में चॉकलेट फिल्म बना चुके थे मुझे वो फिल्म थोडा उलझी हुई लगी। खैर फिल्म शहरों में कुकर मुत्ते की तरह पनपते नक्सलवाद की बहुत उम्दा तरीके से पडताल करती है साथ ही बौद्धिक आतंकवाद किस तरह हमारी वर्तमान एव्म आने वाली पीढियों को बरगला रहा है।

·         इसके बाद बात करते हैं “द ताशकंद फाईल्स” (2019) की जो कि भूतपूर्व प्रधानमंत्री स्व0 लाल बहादुर शास्त्री की रहस्यातमक मौत की तफतीश करती है। इस फिल्म के लेखक, निर्माता और निर्देशक विवेक अग्निहोत्री ही हैं। ये फिल्म पूरी तरह से स्व0 लाल बहादुर शास्त्री की संदेहास्पदक मौत पर एक दूसरे ही कोण से प्रकाश डालती है। समझना तब ज्यादा आसान हो जाता है जब फिल्म के अंत में 1990 के दौरान के जी बी के चार जासूसों का जिक्र किया जाता है जो उस दौरान भारत सरकार में मंत्री पद पर आसीन थे। भले ही उस किताब के पृष्ठ के पैराग्राफ को ब्लर कर दिया जाता है किंतु समझने वाले समझ ही जाते हैं।

 

और अब अंत में जिक्र करते हैं तथ्यों पर आधारित सिनेमा की कहानी और             

लेखक कितने प्रमाणिक” अभी 11 मार्च -2022 को रिलीज़ हुई “द कश्मीर फाईल्स” जिसे पुन” विवेक अग्निहोत्री द्वारा निर्देशित किया गया है। ये पूरी फिल्म कश्मीर में 19 जनवरी-1990 से पहले और बाद में कश्मीरी हिंदू औरतों के साथ हुए हजारों की संख्या में हुए बलात्कारों एवम कत्लेआम की बडी बारिकी से पडताल करती है। The Film questions eye-opening facts about democracy, religion, politics and humanity. जो कश्मीर ऋषि कश्यप, वाग्भट्ट, शकंराचार्य  के नाम से जाना जाता था, वो कैसे मुस्लिम आक्रमण कारियों द्वारा जबरन हथिया लिया गया और तलवारों के जोर पर 99 प्रतिशत हिंदुओं का कैसे मुस्लिम करण कर दिया गया। निश्चित रुप से इसमें अराजक राजनीति ने एक अहम रोल निभाया। देल्ही में बैठे लोगों ने कैसे कश्मीरी हिंदुओं के साथ इतना जघन्य अपराध होने दिया सोचकर ही रुप काँप जाती है। इस फिल्म में इतने सारे ऐसे सीन हैं जिससे दर्शक अपने आपको रिलेट करता है। यही कारण है कि फिल्म को प्रदर्शित न होने देने के लिए बॉलूवुड गैंग ने एडी चोटी का जोर लगा दिया किंतु सत्य तो सत्य है कब तक छिपेगा। द कश्मीर फाईल्स की आँधी में झुंड और बच्चन पाण्डेय जैसे फिल्म भी उड गई। ऐसा सिर्फ इसलिए हो पाया क्यों कि लेखक ने उस दौर को कहानी में पिरोने से पहले 700 से ज्यादा लोगों से देश ही नही वरन विदेशों में जाकर मुलाकात की और जिसने जो बताया उसे रिकार्ड किया, बताये गये तथ्यों की प्रमाणिकता की जाँच की गई तब जाकर द कश्मीर फाइल्स बनकर तैयार हुई। ये विषय अलग है कि इस फिल्म की सफलता से पूरा बॉलीवुड हिल गया। इस फिल्म की जितनी चर्चा देश में हुई उससे ज्यादा चर्चा विदेशों में हुई। ये हिंदी फिल्म उद्योग के भविष्य के लिए एक शुभ संकेत है।

 

 

 

-प्रदीप देवीशरण भट्ट-31.03.2022


Monday, 14 March 2022

रिपोतार्ज़ "दी कश्मीर फाइल्स"

“दी कश्मीर फाईल्स”
(असलियत से सामना)
कल अचानक 11:15 पर सुहास भटनागर का फोन आया। रविवार का दिन होने के कारण मैं आराम से कमरे में ही टहल रहा था  इस आशय से कि  “लामाकान” के प्रोग्राम में तो सांय:16:00 जाना है। फोन उठाते ही कहने लगे आपने व्हाट्सअप नही देखा अभी तक? मैंने कहा हुज़ूर  प्रोग्राम में तोशाम को जाना है क्या कोई तबदीली हुई है। फिर कहने लगे नहीं, “दी कश्मीर फाईल्स”देखनी है न मैंने कहा निश्चित तौर पर मैं तो इंतेज़ार कर रहा हूँ। उन्होंने बात बीच में काटते हुए कहा 12:30 तक नारायणगुडा स्थित  “INOX Maheshwari Parmeshwari” पहुँचो। मैंने कहा ठीक है और तुरत फुरत तैय्यार होकर मेट्रो पकडकर पहुँच गये ।  1:10 पर शो शुरु होना था  और हम वहाँ पहुँचे 12:50  टिकिट विंडो पर बैठी हुई लडकी ने टका सा जवाब दे दिया  सॉरी सर आज इस फिल्म का एक भी टिकिट बचा नही है ,टोटल फुल है सर्।  मैं रास्ते में सुहास जी को  “Buddha in Traffic Jam”, “The Tashkent Files” के बारे में बताता हुआ आ रहा था और उन्हें कहा भी कि आप ये दोनों फिल्में भी ज़रुर देखें। खैर  इस  स्थिति की कल्पना न तो मैंने की थी न ही सुहास जी ने  दोनों ने एक दूसरे का मुँह देखा और बाहर आकर बैठ गये। पिछले तीन चार दिन से गर्मी ने अपना रंग दिखाना शुरु कर दिया है सो पसीना आना स्वाभाविक था। अचानक सुहास जी बोले भाई 15:15 का “गंगू बाईकठियावाडी” का टिकिट ले लेता हूँ। तब तक कुछ खा भी लेते हैं। मैंने एक उचटती हुई निगाह उन पर डाली और कहा “ “ठंड रखो हुज़ूर ठंड” और मैंने गन्ने के जूस के दो ग्लास का आर्डर दे दिया, सुहास जी- भाई भूख लग रही है ये गन्ने के जूस से थोडे मिटेगी? मैंने फिर वही दोहराया “ठंड रखो हुज़ूर ठंड” तब तक जूस वाला दो ग्लास दे गया। मैंने बडे ही दार्श्निक अंदाज़ में कहा देखो सुहास जी मैं ठहरा दिल्ली वाला हार तो मानूँगा नहीं ठंड रखो कोई न कोई रास्ता निकल जाएगा वो मेरी बात बीच में ही काटते हुए बोले  भाई ब्लैक भूल जाओ अब वो जमाने गये मैंने फिर वही जुमला दोहरा दिया “ठंड रखो हुज़ूर ठंड”। जूस वाले को पैसे देकर सीढियों से लगभग उछलते हुए उन्हें अपने पीछे आने का इशारा कर दिया। लोग टिकिट दिखाकर लाइन से अंदर जा रहे थे मैं वहीं खडा हो गया, तभी एक सज्जन ने कहा मेरा साथी नही आ रहा अगर आप चाहें तो... मैंने बडी विनम्रता से उन्हें बताया हम दो हैं जनाब तभी एक व्यक्ति ने हाँ भर दी और वे अंदर चले गये।
        गिरिजा टिक्कू
सुहास जी फिर बोले भाई कुछ नही होगा तभी फिर एक टिकिट ऑफर हुई सुहास जी ने कहा आप देख लो मैं वापिस घर जाता हूँ । इस बार मैंने चिपरिचित वाक्य दोहराया नही बल्कि हाथ का इशारा कर दिया। अब लगभग 1:20 हो गये थे। सुहास जी कुछ परेशान से थे तभी एक यंग बॉय बोला मेरे दो लोग नही आए आप.... मैंने कहा कितने पैसे हुए, उसने कहा बाद में मैंने कहा अभी ले और हम स्क्रीन नम्बर में दो में एंटर हो गये। मुझे ये देखकर अत्यधिक प्रसन्नता हुई कि जिसने हमें टिकिट ऑफर की थी वो लगभग 20 लोगों का ग्रुप था और सभी की उम्र 20-25 के लगभग थी जिससे यंग जैनरेशन का इस फिल्म में दिलचस्पी का पता चलता है। पूरा हॉल खचाखच भरा हुआ। कोई शोर शराबा नही सिवाय फिल्म देखने आने वाले लोगों के अतिरिक्त अन्यथा “ PIN DROP SILENCE”  कभी कभी कोई सुबकी लेने की आवाज़ तंत्रा अवश्य भंग कर रही थी। फिल्म समाप्त हुई। हम दोनों बाहर निकले और घर प्रस्थान करने से पह्ले रेस्टरुम का रुख किया ।निफराम होकर बाहर आया तो देखा एक 35-40 के मध्य की महिला रोये जा रही थीं, मैं सब कुछ समझ गया था किंतु फिर भी ढांढस बढाने के उद्देश्य से उन्हें सांत्वना देने लगा। फिर मैंने उनके पहनावे को देखकर उनसे पूछा कि You are from Kashmir” क्यूँ कि उन्होंने कान में जिस ढंग से कुण्डल पहन रखे थे वो स्टाइल सामान्यत: जम्मू काश्मीर की महिलाओं को ही पहनते देखा है। उन्होंने ना कहा और बताया कि वे यहीं हैदराबाद से ही हैं और एक हिंदू सनातनी परिवार से आती हैं। तभी मैंने पास ही में खडी एक 2—21 साल की लडकी को देखा जो मुझे कुछ चिंतित मुद्रा में लगी मैंने पूछा क्या हुआ बच्चा शायद मुझसे ऐसे सम्बोधन की उस लडकी को कतई उम्मीद नही थीं। बिलकुल रुआँसे अंदाज़ में बोली सर क्या काश्मीर में ये सब हुआ है तो फिर हमें ये सब क्यूँ नही मालूम। मैं सामान्यत: ज़ियादा भावूक नही होता हूँ किंतु उस लडकी के प्रश्न ने मुझे अंदर तक हिला दिया यकायक मेरा हाथ उसके सर पर चला गया ,थपकी देते हुए कहा बेटा जो तुमने फिल्म में देखा है वो तो 0.01 प्रतिशत भी नही है जो नंगा नाच उन चंद दिनों में काश्मीर में हुआ है वो सिर्फ वही लोग समझ सकते हैं जो इन स्थितियों से गुजरे हैं “जिस तन लागी वो तन जानी” और ऐसा पहली बार नही बल्कि पूरी एक सदी हम सनातनियों ने झेला है। किंतु फिर भी किसी एक ने भी कभी भी तलवार तो क्या पत्थर भी अपने हाथों में नही उठाया क्यूँ कि हम सनातनी लोग हैं, अगर ज़मीन पर चींटी भी दिख जाए तो उससे बचकर या फंलाग कर चले जाते हैं, मारने का विचार भी कभी मन में नही आता क्यूँ कि जीव  छोटा हो बडा है तो जीव ही, जिसने उसे जन्म दिया है वही उस की समय आने पर मृत्यु भी निश्चित करता है। मैंने और भी बहुत सी बातें उस लडकी और महिला को बताईं। और ये सब रेस्टरुम के दरवाजे के सामने। 

दी कश्मीर फाईल्स पर बात करने से पहले हम थोडा कश्मीर के विषय में जान लेते हैं। ऋषि कश्यप के नाम पर इस प्रदेश का नाम कश्मीर पडा। यहाँ के रमणीय स्थल पूरे विश्व में प्रसिद्ध थे। आप सोचिये ऋषि वाग्भट्ट ने यहीं पर रहकर आयुर्वेद की रचना की। इसी कश्मीर में बौद्धों ने ज्ञान गंगा के दर्शन किये इसी कश्मीर में आदि शंकराचार्य ने विहार किया एवम अनमोल पुस्तकें लिखी और न जाने कितने महापुरूषों ने लोगों के कल्याण के लिए कार्य किये किंतु हर अच्छी चीज़ के बाद कुछ ऐसा हो जाता है जो किसी भी प्रकार से प्रिय नही कहा जा सकता। बकौल सुशील पण्डित- लगभग 1315 के आस पास शमीर ने स्वात में अपने पिता को सत्ता से बेदखल करने का एक असफल प्रयास किया परिणाम स्वरुप उसके पिता ने उसे देश निकाला दे दिया। जब वो भयातुर होकर कश्मीर में दाखिल हुआ तो उसकी आप बीती सुनकर कश्मीर के हिंदू राजा ने उसको 1315अपने राज्य में शरण दी। उसी शमीर ने 1339 में उसी हिंदू राजा को मौत के घाट उतार दिया और कश्मीर का सुल्तान बन बैठा। उस नराधम शमीर ने पूरे कश्मीर में हजारों की संख्या में मंदिर तोड डाले। तलवार की नोक पर हजारों स्त्रियों का शील भंग ही नही किया वरन लाखों हिंदुओं को तलवार की नोक पर ही इस्लाम स्वीकार कराया।  इस कार्य में उसका साथ दिया चकों ने, शियाओं ने और पठानों ने। लगभग 480 वर्ष तक कश्मीर के हिंदुओं का कत्लेआम होता रहा। हालात यह हो गई कि जो कश्मीर हिंदुओं का देश था उसमें सिर्फ 10 से 15 % हिंदू ही जिंदा बचे। 1846 ईस्ट इंडिया कम्पनी से डोगरा महाराजा ने  86 लाख देकर उन हिंदुओं की जान बचाई। किंतु वे फिर भी उन हिंदुओं को सताते रहे तब महाराजा रणजीत सिंह ने पठानों से सीधे टक्कर ली और उन्हें अनेकों बार युद्द के मैंदान में धूल चटाई।


अब बात करते हैं “दी कश्मीर फाईल्स” की बिना किसी लाग लपेट के कहूँ तो दर्शन कुमार ने पहली बार सिद्ध किया कि वे एक अच्छे अभिनेता हैं और उनमें अच्छा बनने की अपार सम्भावनाएं मौज़ूद हैं बशर्ते निर्देशक अतुल अग्निहोत्री जैसा हो। मिथुन दा का अभिनय देखकर मुझे फिल्म मृगया में निभाया गया उनका किरदार याद हो आया। इस किरदार के लिए उन्हें नेशनल अवार्ड मिला था। मिथुन दा त्वाडा जवाब नही! अनुपम खेर के विषय में कुछ कहना सूर्य को दीपक दिखाने के बराबर होगा। अगर एक पंक्ति में कहूँ तो वे सारांश के किरदार से बहुत बहुत आगे निकल आएं हैं। मृणाल कुलकर्णी ने सिद्ध किया कि वो एक बेहतरीन अदाकारा हैं ।।भाषा सम्बली के अभिनय ने मुझे चौंका दिया।दिया।चिन्मय मांडलेकरलेकर बिट्टा के किरदार में जान फूँकने में कामयाब रहे। एक आँख बंद करके डॉयलाग बोलकर उन्होंने मुझे गुलशन ग्रोवर की याद दिला दी। प्रकाश बेलवादी डॉकटर महेश के किरदार में अपना काम कर गये।  पुनीत इस्सर तो खैर पुनीत इस्सर ठहरे, बलशाली कद काठी बहुत कुछ कह जाती है। अतुल श्रीवास्तव विष्णु के किरदार को जीने में कामयाब रहे। प्रकाश बेलवादी और अतुल के बीच का झग़डा ये बताता है कि जब हम सिस्टम के आगे लाचार हो जाते हैं तब हम अपना गुस्सा अपनों पर ही निकालते हैं। अब बात करता हूँ फिल्म के एक किरदार राधिका मेनन की। एक अभिनेता या अभिनेत्री अपने अभिनय से दर्शकों को रुला सकती है, बेचारगी के दर्शन करा सकती है किंतु नफरत पैदा कराना इतना आसान नही होता। पलल्वी जोशी के अभिनय देखकर एक क्षण में मुझे “भारत एक खोज” सीरियल याद हो आया जिसमें उन्होंने कई किरदार निभाए थे किंतु गुर्जरनी का किरदार WOW, डॉयलाग डिलिवरी ऐसी गज़ब कि मन करे कि एक ताली तो बनती है बॉस्। खैर यही एक किरदार और अभिनेता या अभिनेत्री की जीत है किंतु पर्दे पर राधिका का किरदार देखकर मैं भूल गया था कि मैं एक फिल्म देख रहा हूँ बस मन किया कि राधिका पास हो तो दो चार घूँसे इसके चेहरे पर रसीद कर दूँ।लेकिन मेरे दिल में ये ख्याल आना ही तो उस किरदार की जीत है। एक बात और जीवन के न जाने कितने बसंत बीत गये फिल्में देखते देखते। शिक्षाप्रद फिल्म में भी लम्बे लम्बे डॉयलाग फिल्म की रफ्तार कम कर देते हैं अभी अभी अमिताभ और हाशमी की चेहरे देखी, क्लाइमेक्स में अमिताभ का भाषण इतना ज्यादा बोर करता है कि........ बस क्या कहूँ। ये फिल्म अभी तक उन सबसे अलग रही। दर्शन कुमार का अभिनय तो था ही किंतु वो भाषण कभी भी कहीं से भी भटकता हुआ नही लगा और इस फिल्म की सफलता का ये में कारण भी है। जैसे कोई गृहणी अपनी मन पसंद डिश बनाए और उसमें बिलकुल स्वादानुसार ही मसालों का प्रयोग करे।एक बात दिमाग से निकल गई, "दि कपिल शर्मा शो" भाई विवेक, इसकी क्या गारंटी है कि जिन फिल्मों का प्रमोशन वहाँ होता है वो सब हिट हो जाती है। सिर्फ दिमाग का वहम है जितनी जल्दी हो सके इसे निकाल दें। वैसे भी कॉमेडी के नाम पर वहाँ क्या परोसा जा रहा है हम सभी भली भाँती जानते हैं इसलिए उस पर बात करके उसको भाव मत दो। 

"चाह जीने की अगर तुझमें पनपती है प्रबल।
 रास्ता रोकेगा कैसे फिर तुम्हारा दावानल॥
 कर नही पाएगी तुझको कोई भी मुश्किल विकल ।
 गर इरादे तेरे होंगे आसमाँ जितने अटल ॥
 तू अगर सच्चा है तो फिर डर तुझे किस बात का।
 मंज़िलों की जस्तुजू में हौसले लेकर निकल।।"
                                                                                                   -प्रदीप देवीशरण भट्ट-

और अंत में प्रिय विवेक अग्निहोत्री तुमने और ज़ी स्टूडियो ने अपना काम ईमानदारी से कर दिया है और निश्चित मानो इस बार ये खास जनता भी अपना काम बखूबी करेगी। परिणाम दिखने शुरु हो भी गये हैं। एक सीन अवश्य खटका जब सब कौल साहब के घर पर जमा हैं (पुरुष,महिलाएं, बच्चे बच्चियाँ , तभी खट खट की आवाज़ सुनकर एक लडकी कहती है आतंकवादी आतंकवादी और खिडकी से बाहर छलांग लगा देती है, कैमरा उस लडकी को नीचे ज़मीन पर पडा दिखाता है और कैमरे एक एक कोण दर्शाता है कि खिडकी में एक सरिया अभी भी मौजूद है। सरिये तोडकर तो लडकी नही गिरेगी न फिर वो सरिया भले ही लकडी का हो) खैर दक्षिण भारत के शहर हैदराबाद में ““दी कश्मीर फाईल्स” की” इतनी अच्छी ओपनिंग ये दर्शाती है कि लोग ईमादार लोगों की ही नही वरन ईमानदार काम की भी कद्र करना सीख गये हैं। वरना प्रभास की राधेश्याम के टिकिट मिल रहे हैं और “दी कश्मीर फाईलस की” के नही। एक विषेश बात आप फिल्म फेयर जैसे फालतू के अवार्ड की चिंता न करे निश्चित ही “दी कश्मीर फाईल्स” राष्ट्रीय पुरुस्कार की हकदार है। हिंदी फिल्म उद्योग में कुछ लोग अपना घर और करियर चलाने के लिए  बिकने को तैय्यार खडे हैं और बिक भी गये हैं{“ बिकने हूँ तैय्यार खरीदार नही है/ज़्यादा जीऊँ ऐसे मेरे आसार नही हैं- प्रदीप देवीशरण भट्ट) तभी तो उल जलूल फिल्में बन रही हैं,पिट रही हैं लेकिन उन्हें हिट करार दिया जा रहा है। शायद वे लोग नही जानते “साँच को आँच नही होती” खैर अनेको नेक शुभकामनाएँ इस आशय से कि जल्दी ही हम “ नेता जी फाईलस”, चंद्रशेखर आज़ाद फाईलस” और हाँ गाँधी जी फाईल्स”से भी रुबरू होंगे।
-प्रदीप देवीशरण भट्ट-
हैदराबाद (तेलांगना)
13:03:2022

" सारा शहर मुझे लॉयन के नाम से जानता है "

“सारा शहर मुझे लॉयन के नाम से जानता है”


साठ- सत्तर के दशक में हम जितने भी लोग पैदा हुए हैं और जिनके सर पर हिंदी फिल्मों का भूत सवार हुआ है उन्हें कालीचरण फिल्म का ये संवाद बखूबी याद होगा। उस समय गली मुहल्ले के छोटे‌ या फिर बडे बच्चे भी अपने अपने ग्रुप में यही सब करते थे। कोई शत्रुघन सिन्हा बन जाता और कोई अजीत (हामिद अली खान)  और ये सिलसिला जब तक चलता रहता था जब तक कोई दूसरी फिल्म में इससे भी ज़ियादा दमदार संवाद न हो। मुझे याद है अगर मैं अपनी याददाश्त पर जोर डालूँ तो सोहराब मोदी, चंद्र मोहन, राज कुमार, पृथ्वीराज कपूर, देव आनंद,प्राण ( लटके झटके के साथ) अजीत (खलनायिकी की पारी में ) दुर्गा खोट,राजेश खन्ना, सुनील दत्त, शत्रुघन सिन्हा और अंत में अमिताभ बच्चन एवम अमरीश पुरी। जहाँ तक अमजद खां का प्रश्न है उनके संवाद केवल शोले फिल्म में ही हिट हुए। इसी तरह प्रेम चोपडा ने न जाने कितनी फिल्मों में काम किया किंतु जो प्रसिद्धि उन्हें बॉबी के सिर्फ एक संवाद “ प्रेम नाम है मेरा, प्रेम चोपडा” से मिली लोग जीवन भर इसके लिए उनसे रश्क कर सकते हैं। लोग नायक नायिका,खलनायक को भले ही याद न करें किंतु उनके द्वारा बोले गये संवाद को सदैव याद रखते हैं। हामिद अली खाँ उर्फ अजीत भी हीरों के रुप में वो प्रसिद्धि न पा सके जो उन्होंने फिल्म कालीचरण के एक संवाद “ सारा शहर मुझे लॉयन के नाम से जानता है” से मिली।

सारा शहर मुझे लॉयन के नाम से जानता है...और इस शहर में मेरी हैसियत वही है, जो जंगल में शेर की होती है

25 बरस देल्ही, 12 बरस मुम्बई और पिछ्ले तीन बरस से खूबसूरत शहर हैदराबाद में हूँ। शुक्रवार, 25 फरवरी-2022 को मुझे भी हिंदी फिल्म इंड्स्ट्री के कुछ चुनिंदा खलनायकों में से एक अजीत “ दि लॉयन “ के बारे में जानने समझने का सुअवसर प्राप्त हुआ। मौका था अजीत पर एक कॉफी टेबल बुक (English) के लोकार्पण का जिसे इकबाल रिज़वी (देल्ही) ने लिखा है। कार्यक्रम “निज़ाम क्ल्ब ऑफ हैदराबाद” के प्रांगण में आयोजित किया गया। मैंने जैसे ही अपने मित्र सुहास व संजय के साथ वहाँ प्रवेश किया तो देखा अजीत साहब के बडे साहबज़ादे शाहिद अली खान, बडी ही आत्मियता के साथ लोगों का स्वागत कर रहे हैं। जहाँ कुछ उनके परिचित हैं वहीं कुछ मुझ जैसे अपरिचित भी किंतु मेरे नमस्कार करने पर गर्दन को थोडा सा झुकाकर उन्होंने मेरे अभिवादन का उत्तर दिया। खूबसूरत वातावरण में हरियाली घास पर कई गोल टेबल लगे हुए थे और उन पर कुछ लोग बातों में मश्गूल थे। मैंने उचटती सी एक नज़र अपने आस पास डाली तो पाया कि जहाँ मेरे पैरों के नीचे हरियाली थि वहीं आसमान में भी बादल के छोटे- छोटे टुकडे इधर उधर छितरे हुए थे जो शायद अजीत साहब को सलामी देने आये लगते थे। कुछ देर यूँ ही इधर उधर बतियाते हुए एक कट ऑउट पर निगाह गई जिसमें अजीत साहब बडे ही शान से खडे थे मैं उसके साथ एक फोटो लेने का मोह न छोड सका। तभी किसी ने मेरे काँधे पर हाथ रखकर बडे ही अदब के साथ हाई टी लेने का नुरोध किया। बेहतरीन मेहमान नवाज़ी।
लगभग सात बजे कार्यक्रम की शुरुआत हुई,  प्रेरणा जो कि एंकरिंग कर रही थी ने बडे ही सधे हुए लहज़े में कार्यक्रम के चीफ गेस्ट जो कि जयेश रंजन, IAS का परिचय दिया तदुपरांत अजीत साहब के तीनों साहबज़ादों शाहिद अली खान, ज़ाहिद अली खान और आबिद अली खान का परिचय दिया, फिर इकबाल रिज़वी जो इस पुस्तक के लेखक हैं को मंच पर आमंत्रित किया। उन्होंने किताब लिखने की प्रेरणा अपने अनुभव वहाँ उपस्थित लोगों के साथ साझा किये। फिर बारी थी थियेटर की जानी मानी शख्सियत विनय वर्मा की, जिन्होंने अपने अंदाज़ में अजीत साहब का परिचय, उनके बचपन की खट्टी मिठी यादें, उनका हैदराबाद से मुम्बई का सफरनामा, वहाँ कि जद्दोजहद का खुबसूरत चित्रण किया। इसके बाद पाटनी जी, मजूमदार जी ने भी अपने अनुभव साझा किये। और अंत में एंकर ने सूचना दी कि अब जयेश रंजन जी अजीत साहब पर लिखी गई कॉफी टेबिल बुक (अंग्रेजी संस्करण) का लोकार्पण करेंगे।  एक बेहतरीन शाम का अंत बेहतरीन ढंग से हुआ किंतु एक कसक रह गई। अजीत साहब  जो कुछ भी थे या हम सबकी यादों में हैं वो हिंदी फिल्म इंड्स्ट्री की वजह से हैं फिर टैक्स बुक के रुप में उनकी कहानी हिंदी में दो महीने बाद क्यूँ और अगर हिंदी में दो माह बाद तो उर्दु में । ये मानसिकता क्यूँ और कब तक भई।

-प्रदीप देवीशरण भट्ट-