Tuesday, 28 September 2021

मेरी नज़र से

नज़्म

     "मेरी नज़र से"

मेरी कोशिश है 
य़े स्केच ख़ूबसूरत हो
बिलकुल तुम्हारी तरह
जैसी क़े तुम दिखती हो

मैं पशोपेश में हूँ
लोग तुम्हें कैसे देखेंगे
पर चाहता हूँ तुम्हें देखें
भले ही एक बार
पर देखें मेरी नज़र से

य़े इतना मुश्किल भी नही
स्त्री को स्त्री सा देखना
मगर लोग देखते नही
देखते है उसके कपड़े
और शायद.....

मगर मैं आश्वस्त हूँ
मेरे साथ ऐसा नही होगा
लोग देखेंगे मेरी तन्मयता
मेरी मेहनत मेरा प्यार
मेरी नज़र से

-प्रदीप देवीशरण भट्ट-
28:09:2021

Monday, 13 September 2021

हिंदी की आस बनेगी एक दिन ख़ास यानि लिंगंवा फ्रांक़ा

“हिंदी की है आस बनेगी एक दिन खास यानि ‘लिंग्वा फ्रांका’ ”
      हम इस वर्ष स्वंत्रता के 75 वां वर्ष मना रहे हैं’ सरकारी व गैर सरकारी स्तर पर भी इसे भव्यतम रुप में मनाने की होड सी लगी हुई है। निश्चित रुप से ये अच्छी बात है। हर वर्ष की भाँति इस वर्ष भी 14 सितम्बर को “हिंदी दिवस” के रुप में  मनाया जाएगा। मुझे उम्मीद है कुछ मंत्रालयों में इस विषय में पत्रावलियाँ अंग्रेजी में ही प्रस्तुत की जाएगीं। हम जैसे हिंदी प्रेमियों को इससे कितना कष्ट होता है उनकी बला से। किंतु कहीं न कहीं दिल में ये आस अवश्य है कि एक न एक दिन हमारी हिंदी भाषा भी ‘लिंग्वा फ्रांका’ (प्रयोग में ली जाने वाली वह प्रभावशाली भाषा जो प्रयोग में लेने वालों की मातृ भाषा न हो) बनेगी) 

       विश्व परिदृश्य पर पिछले तीन हजार वर्ष के इतिहास में देखें तो ग्रीक, लैटिन, पॉर्च्युगीज, स्पैनिश, फ्रेंच और अंग्रेजी एथेंस की ग्रीक भाषा अलग-अलग दौर में प्रभावशाली रही हैं। 18वीं सदी के मध्य में फ्रांस के विद्वान वॉल्टेयर ने ‘फिलॉसफी ऑफ हिस्ट्री’ लिखी। इसका विषय संपूर्ण मानव जाति का इतिहास था। अध्ययन में यह तथ्य निकलकर आया कि ईसा पूर्व नौवीं सदी से लेकर चौथी सदी तक यूरोप शहर रूपी कई साम्राज्यों में बंटा हुआ था। इनमें से एथेंस व्यापार और सैन्य ताकत बनकर उभरा। इसलिए प्रभावशाली एथेंस की ग्रीक भाषा यूरोप की लिंग्वा फ्रांका बनी। ईसा पूर्व 201 से आने वाले 600 वर्षों तक एथेंस यूरोप का सबसे शक्तिशाली साम्राज्य बना रहा। लिहाजा कैथोलिक चर्च की ताकत बढ़ी और रोमन भाषा लैटिन लिंग्वा फ्रांका बन गई। लेकिन लैटिन लिंग्वा फ्रांका बनी रही क्यों कि आने वाले एक हजार साल तक कोई नई वैश्विक शक्ति नहीं उभरी।

       1492 में कोलंबस ने अमेरिका की खोज की और छह वर्ष बाद वास्कोडिगामा ने भारत में कदम रखा। ये दोनों यात्राएं पुर्तगाल के खर्चे पर हुई और इस तरह से पुर्तगाल साम्राज्य शक्तिशाली होने लगा। पुर्तगाल की देखा-देखी स्पेन और फ्रांस भी उपनिवेशवाद में कूदे। इस दौरान पॉर्च्युगीज, स्पेनिश और फ्रेंच लिंग्वा फ्रांका की दौड़ में रहीं। इंग्लैंड में स्थिति ऐसी थी कि राजघराने में जो शिक्षा ली जाती थी उसका माध्यम फ्रेंच भाषा होती थी न कि अंग्रेगी। उस सम्य के सभ्य समाज में अंग्रेजी गरीबों की भाषा और दरिद्रता की निशानी मानी जाती थी। 

       वर्तमान में अंग्रेजी भाषा को ‘लिंग्वा फ्रांका’ का दर्जा प्राप्त है। ऐसा इसलिए कि पिछ्ले लगभग 600 वर्षो से  ब्रिटेन आर्थिक, सामजिक,राजनैतिक बाजारी कारण व सैनिक शक्ति के लिहाज से विश्व के उन पाँच महत्वपूर्ण देशों में स्थान रखता है जो कि सीधे सीधे शेष विश्व पर अपना प्रभाव रखते हैं। चूँकि अमेरिका के अतिरिक्त विश्व प्रमुख 7 देशों में अंग्रेजी ही बोली जाती है इसलिए वर्तमान दौर में अंग्रेजी ही लिंग्वा फ्रांका बनी हुई है। जहाँ तक अंग्रेगी का ताल्लुक है इसे प्रथम अंतर्राष्ट्रीय भाषा का दर्जा प्राप्त है। चूँकि ये एक पश्चिम जर्मेनिक भाषा है जिसकी उत्पती एंग्लो-सेक्सन इंग्लैंड में हुई। चूँकि ब्रिटिश हुकूमत कई देशों पर रही है अतएव जैसे जैसे अंग्रेगी का प्रचलन बढा ये उन देशों में भी ज्यादा बोले जाने लगी जहाँ उस देश की अपनी भाषा पहले से ही मौजूद थी। ऐसा इसलिए भी हुआ क्यों कि ब्रिटिश लोगों ने 18,19 एवम 20वीं शताब्दी में  सैन्य, राजनितिक, आर्थिक, वैज्ञानिक एवम सांस्कृतिक पर अपनी पकड बनाने के उद्देश्य से अंग्रेगी भाषा के प्रयोग पर अधिक बल दिया जिससे इसे छटी भाषा के रुप में लिंग्वा फ्रांका होने का गौरव प्राप्त हुआ। कुछ देश ऐसे भी रहे जिन्होंने इसे अपनी मातृ भाषा के बाद दूसरी भाषा के रुप में मान्यता प्रदान की।

       अगर मैं यह कहूँ कि अंग्रेगी भाषा का उत्थान चौथी या शायद पाँचवी शताब्दी के मध्य में इंग्लैंड में एंग्लो-सेक्सन लोगों द्वारा शुरु हुआ। एंग्लो सेक्सन लोग कई तरह की बोलियों/ भाषाओं को बोलते थे,यहाँ यह कथन स्प्ष्ट है कि वाइकिंग हमलावरों द्वारा अपनाई गई प्राचीन नोर्स भाषा का प्रभाव वर्तमान अंग्रेगी भाषा पर ज्यादा है। ये विषय अलग है कि अंग्रेजी भाषा लगातार अपना विकास करती रही और अन्य देशों में बोले जाने वाली भाषा के शब्दों को स्वंय में समाहित करती रही जिससे इसकी ताकत में ज्यादा वृद्धि हुई। वर्तमान में जो अंग्रेजी बोलते हैं उसमें नोर्मन शब्दावली और वर्तनी के नियमों का भारी संख्या में उपयोग हुआ है। वर्तमान अंग्रेजी भाषा में प्राचीन ग्रीक और लैटिन का अत्याधिक प्रभाव दिखायी पडता है। अंग्रेजी बोलने वाले लगभग 53 देश हैं जिनमें संयुक्त राष्ट्र, यूरोपितन संघ,राष्ट्रमण्डल, नाटो देश व नाफ्टा के देश शामिल हैं। एक सर्वे के अनुसार पूरे विश्व में अंग्रेजी बोलने वाले देशों के क्रम में अमेरिका प्रथम स्थान भारत दूसरे स्थान पर ,नाइजिरिया तीसरे स्थान पर और आश्चर्यजनक रुप से ब्रिटेन चौथे स्थान पर आता है। इसके बाद फिलिपिंस कनाडा और आस्ट्रेलिया का नम्बर आता है। मतलब जिस अंग्रेजी भाषा की उत्पती ब्रिटेन में हुई वही देश अंग्रेजी बोलने वाले देशों में चौथे नम्बर पर है मतलब उसने अपना आधिपत्य जमाने के उद्देश्य से अंग्रेजी भाषा को इतना ताकतवर बना दिया कि समूचा विश्व बिना अंग्रेजी भाषा के चल नही सकता। किंतु हर जगह अपवाद होते हैं जो यहाँ भी है। चीन में मंदारिन भाषा सबसे ज्यादा बोली जाती है किंतु चीन के बाहर न के बराबर किंतु चीन ने आज जो मुकाम हासिल किया है वह मंदारिन की बदौलत ही किया है। अंग्रेजी का उपयोग उतना ही किया गया जितना आव्श्यक था।

       जहाँ तक हिंदी भाषा का प्रश्न है तो विश्व में अंग्रेजी, मंदारिन के बाद इसका स्थान तीसरा है। भारत में हिंदी के बाद सबसे अधिक बंगाली भाषा( लगभग 30 करोड) बोली जाती है। जिस प्रकार आज अंग्रेजी वैश्विक भाषा के रुप में विश्व में प्रतिष्ठित है उसी प्रकार आने वाले समय में हिंदी भी वैश्विक भाषा के रुप में निश्चित अपना स्थान बनाएगी। हिंदी भारत के अतिरिक्त नेपाल, भूटान, बांग्लादेश, पाकिस्तान, तिब्बत, अफगानिस्तान, श्रीलंका इत्यादि  देशों में प्रमुख रुप से बोली और समझी जाती है।पूरे भारतीय उपमहाद्वीप हिंदी धीरे धीरे सम्पर्क भाषा के रुप में अपना स्थान निश्चित करती जा रही है । भारत में इस समय कुल छ: कास्मोपोटिन शहर हैं जिनमें चेन्नई को छोडकर आपको हिंदी भाषा बोलने वाले समझने वाले देल्ही,मुम्बई, बंगलौर,कोलकत्ता और हैदराबाद में आसानी से मिल जायेंगे।

       भारत की संविधान सभा द्वारा 14 सितम्बर, 1949 को इसे राजभाषा के रूप में स्वीकार किया गया जिससे इसका प्रयोग और चौतरफा विकास हुआ। जैसे बंगला, तमिल, तेलुगु, कन्नड़, मलयालम आदि को क्रमश: बंगाल, तमिलनाडु, कर्नाटक, केरल आदि की राजभाषा (मुख्य प्रांतीय भाषा) बनाया गया है। ऐसा करने से किसी भी भाषा का महत्व कम नही हुआ है? निश्चित रुप से नही। बल्कि इससे उन सभी भाषाओं का उत्तरदायित्व और प्रयोग क्षेत्र पहले से अधिक बढ़ गया है। जहाँ पहले केवल परस्पर बोलचाल में काम आती थी या उसमें साहित्य की रचना होती थी, वहीं अब प्रशासनिक कार्य भी हो रहे हैं। यही स्थिति हिन्दी की भी है। इस प्रकार हिन्दी सम्पर्क और राष्ट्रभाषा तो है ही, राजभाषा बनाकर इसे अतिरिक्त सम्मान प्रदान किया गया है।

       आज का युवा निश्चित रुप से अंग्रेगी के साथ हिंदी भाषा को भी महत्व देने लगा है उसे अच्छी तरह से पता है कि विकास का पहिया केवल अंग्रेजी या प्रांतीय भाषा के सहारे नही घूम सकता। पिछ्ले कुछ वर्षो में देश में ही नही वरन विदेशों में हिंदी और संसकृत भाषा सीखने की एक होड मची हुई है।  मल्टीनेशनल कम्पनियाँ अच्छी तरह से जानती है कि भारत एक बहुत बडा बाज़ार है, अगर उन्हें अपना माल बेचना है तो उन्हें भारत की मुख्य भाषा हिंदी को स्वीकार करना ही होगा साथ ही इसी बहाने प्रांतीय भाषाओं का भी विकास हो रहा है सिर्फ माल बेचने के उद्देश्य से नही वरन फिल्म उद्योग भी अपनी सभी फिल्मों, वेब सीरिज़ को हिंदी के अतिरिक्त अन्य भारतीय भाषाओं में डब कराके प्रदर्शित करता है ताकि ज्यादा से ज्याद लोगों तक उसकी पहुँच सुनिश्चित हो। भारत दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा देश है। यहां 24 आधिकारिक भाषाएं हैं, परंतु हिंदी लगभग सब जगह बोली जाती है और यह सबसे अधिक तेजी से बढ़ भी रही है।   पढाई का माध्यम भी धीरे धीरे हिंदी अंग्रेजी के इर्द गिर्द ही सिमटता जा रहा है जो कि एक अच्छा संकेत है। इस विषय में भारत सरकार द्वारा भी विभिन्न स्तरों पर प्रोत्साहन प्रदान किये जा रहे हैं। मैं आशा करता हूँ कि 2050 तक हिंदी अगली (सातवीं) लिंग्वा फ्रांका का होने कादर्जा अवश्य प्राप्त कर लेगी। 

 
- प्रदीप देवीशरण भट्ट -14:09:2019
01:09:2021

“अफगानिस्तान के राजनितिक घटना क्रम का भारत पर प्रभाव”




अफगानिस्तान के राजनितिक घटना क्रम का भारत पर प्रभाव




इससे पहले कि मैं अफगानिस्तान के वर्तमान हालात पर अपनी बात रक्खूँ , बेहतर होगा कि अफगानिस्तान के इतिहास पर एक सूक्ष्म दृष्टी डाल ली जाए। पूर्व में अफगानिस्तान भारत वर्ष का ही एक महत्वपूर्ण हिस्सा था। आज जिसे हम कंधार के नाम से जानते हैं वह महाभारत के एक महत्पूर्ण पात्र शकुनि जिसे आमजन की भाषा में शकुनि मामा के नाम से विख्यात है । आज से लगभग पाँच हजार पाँच सौ वर्ष पूर राजा सुबाला का गंधार प्रदेश पर राज्य करते थे। शकुनि इन्हीं राजा सुबाला के पुत्र थे इनकी बहन गंधारी का विवाह हस्तिनापुर के राजा धर्तराष्ट्र के साथ हुआ था। महाराजा रणजीत सिंह ने कई मर्तबा अफगानिस्तानियों को युद्ध में हराया था।एक लम्बे समय तक अफगानिस्तान ब्रिटिश शासन के अधीन रहा। सोवियत संघ में कम्युनिस्टों का राज्य था जो कि अपने विस्तारवाद के लिए जाने जाते हैं इसी तरह चीन भी विस्तारवाद के लिए जाना जाता है। ईरान एवम सोवियत संघ की इस क्षेत्र में उठा पटक चलती ही रहती थी। ब्रिटिशर अफगानिस्तान में आए दिन के उठा पटक से घबरा गए थे या ये कहें तो ज्यादा उचित होगा कि उन्हें इस उठा पटक के भारत में पहुँचने या उसका असर यहाँ पर पडने का ज्यादा अंदेशा हो गया था। अतएव ब्रिटिश इंडिया की ओर से मॉटीमर डूरंड और अफगानिस्तान की ओर से अमीर अब्दुर रहमान खान के बीच एक समझौता हुआ (जो की अमीर अब्दुर रहमान की मृत्यु तक ही मान्य था) दोनों ने जिस समझोते पर दस्तखत किये कालान्तर में उसे ही डूरंड रेखा के नाम से जाना गया। य रेखा  हिंदुकुश पर्वत श्रंखला जो कि लगभग 800 मील लम्बी है, से सर मार्टिमर डूरंड ने एक रेखा खींची जो कि भारत और अफगानिस्तान के जनजातीय प्रभाव वाले क्षेत्रों से होकर गुजरी  वर्तामन में यह रेखा 2430 किलो मीटर लम्बी है जो कि अफगानिस्तान और पाकिस्तान को विभाजित करती है। भारत और अफगानिस्तान के मध्य इसका केवल 106 किलोमीटर का ही हिस्सा है जिसे विवादित माना गया है।

         जो बाइडन, अमेरिकी राष्ट्रपति द्वारा की गई घोषणा कि अमेरिकी सेना 11 सितम्बर-2021 तक अफगानिस्तान से वापस अमेरिका लौट जाएगी” के बाद जिस तेजी से अफगानिस्तान के हालात बदले हैं, निश्चित रुप से उसकी कल्पना अमेरिका ने कभी नही की होगी। 20 वर्ष तक अफगानिस्तान में जबरदस्ती अपनी नाक घुसेडे रक्खी। वो भी सिर्फ इसलिए ताकि सोवियत संघ जिसने अफगानिस्तान में 18 वर्षो तक अफगानिस्तान में अपनी दादागिरि चलाने की कोशिश की को नीचा दिखाया  जा सके। जब कि इससे पूर्व ब्रिटेन भी मुँह की खाकर अफगानिस्तान छोड चुका था।  सेना वापसी के इस फैसले से पिछ्ले एक सप्ताह में जो बाइडन की लोकप्रियता 56 प्रतिशत से गिरकर 43 प्रतिशत पे आ गई है। जो विश्व प्ररिदृष्य पर ये साबित करने के लिए काफी है कि जो बाइडन के इस एक फैसले से कैसे सिर्फ दक्षिण एशिया ही नही वरन पूरे विश्व में यह संदेश गया कि अमेरिका ने पिछ्ले दरवाजे से तालिबान को सत्ता सौंपने का रास्ता साफ कर दिया है वो भी सैनिक साजो सामान के साथ जिससे अफगानी जनता त्राही त्राही करने को मजबूर हो गई है।

 

        चूँकि अफगानिस्तान की सीमाएँ पूर्व में पाकिस्तान,उत्तर पूर्व में भारत तथा चीन, उत्तर में ताजिकिस्तान, कजाकस्तान व तुर्केमिस्तान से तथा पश्चिम में ईरान से लगी हुई हैं अतएव सीधे सीधे अफगानिस्तान में तालिबानी शासन आने से इन देशों पर बहुत ज्यादा दबाव बना रहने वाला है। वर्तमान में चीन ने तालिबान को मान्यता देने का मन बना लिया है ऐसा करके वो तालिबान से शिंझियांग प्रांत में उईगर मुस्लिमों पर हो रहे अत्याचार को नज़र अंदाज़ करने की शर्त रख सकता है किंतु इससे भी बडा कारण अफगानिस्तान में तांबे, लिथियम के लगभग 75 लाख डालर के भंडार पर उसकी लालची नज़र है। जहाँ तक पाकिस्तान का प्रश्न है तो तालिबान उसकी ही नाज़ायज़ औलाद है जिसे उसने अफगानिस्तान के सम्पूर्ण भू भाग पर कब्ज़े के दृष्टीकोण से पैदा किया। इसके अतिरिक्त अफगानिस्तान में अलकायदा व हक्कानी ग्रुप भी सक्रिय है।

 

जहाँ तक भारत का प्रश्न है 2001 से आज तक भारत ने लगभग पच्चीस हजार करोड का इंवेस्ट्मेंट अफ्गानिस्तान में विकास के लिए किया है। इसी के मद्दे नज़र भारत देखो और इंतज़ार करो की नीति पर चल रहा है। वैसे भी भारत के लिए मानवता प्रथम ,व्यापार द्वितीय पायदान पर आता है। किंतु तालिबान की पुरानी इमेज को देखते हुए उस पर किसी भी हाल में भरोसा नही किया जा सकता। एशिया में रुस भारत का  पारम्परिक मित्र है अतएव अफगानिस्तान के वर्तमान हालात को देखते हुए भारत को रुस के साथ मिलजुल कर भविष्य की योजना बनानी होगी। ताकि पाकिस्तान और चीन के षडयंत्रो पर लगाम लगाई जा सके। यहाँ यह विषेश है कि अफगानिस्तान का एक प्रांत पंजशीर अभी भी तालिबान के हाथ में नही आया है। इतिहास गवाह है कि पंजशीर पर न ब्रिटेन विजय पा सका,न सोवियत संघ न तालिबां। जब कि अमेरिका ने तालिबान के विरुद्ध पंजशीर के लडाकों  की सहायता अवश्य ली। ये सही है कि आज तालिबान का कब्जा पूरे अफगानिस्तान पर हो गया है और वहाँ अंतरिम सरकार का भी ऐलान कर दिया है किंतु जिस सरकार के ज्यादातर मंत्री दुर्दांत आतंकवादी हों उस देश और उसके आस पडौस के देशों के हालात कितनी तेजी से बदलेंगे ये कोई नही जानता। ये सर्व विदित है कि पूर्व में तालिबान को अमेरिका ने पाला पोसा और वर्तमान में पाकिस्तान अपने कुत्सित इरादों के लिए तालिबान को इस्तेमाल कर रहा है किंतु जहाँ तक तालिबान के विषय में मेरी समझ है मैं निश्चित रुप से कह सकता हूँ कि तालिबान वही रोल अदा कर रहा है जो कि भारतीय माइथालौजी में “भस्मासुर” ने किया है। पंजाब का उग्रवाद याद है न, जिन्होंने भिंडरेवाला को अपने दुश्मनों को ठोकने के लिए उत्पन्न किया उसने पहले अपने आका की सुनी फिर अपने आका को ही ठोक दिया। (बुरे काम का बुरा नतीज़ा)।जब तक तालिबान को खुद को आर्थिक और सौनिक दृष्टी से मजबूत नही कर लेता वो पाकिस्तान और चीन दोनों की बातें मानने का नाट्क करेगा और जैसे ही वह मजबूत होगा वह अपना असली रंग दोनों ही देशों को दिखायेगा। परिणाम स्वरुप या तो तालिबान का पूरी तरह खात्मा हो जाएगा ये पाकिस्तान और चीन में वो तबाही मचाएगा कि दोनों ही देशों को षडयंत्रों से बाज आना पडेगा।

 

निश्चित रुप से भारत को फूँक फूँक कर कदम रखना होगा और दक्षिण एशिया में अपने आप को एक धीर गंभीर देश के रुप में अपनी स्थिति को मजबूत करना होगा साथ ही अपने चिरपरिचित सहयोगियों/मित्रों को लेकर ही इसका सामना करना होगा। ये कहना गलत नही होगा कि वर्तमान स्थिति में केवल भारत ही एक ऐसा देश है जो अफगानिस्तान में स्थिरता दे सकने में सक्षम है और ऐसा भारत के दोस्त ही नही वरन दुश्मन भी चाहेंगे क्यों कि भारत की इमेज अफगानिस्तान में एक खास दोस्त की है जिसने अफगानिस्तान को दोबारा खडा करने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है। अफ्गानिस्तान की अस्थिरता न रुस के लिए बेहतर है न चीन के लिए न पाकिस्तान के लिए और न ईरान के लिए।

- प्रदीप देवीशरण भट्ट -13:09:2019