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Tuesday, 28 September 2021
मेरी नज़र से
Monday, 13 September 2021
हिंदी की आस बनेगी एक दिन ख़ास यानि लिंगंवा फ्रांक़ा
“अफगानिस्तान के राजनितिक घटना क्रम का भारत पर प्रभाव”
“अफगानिस्तान के राजनितिक घटना क्रम का भारत पर प्रभाव”
इससे पहले कि मैं अफगानिस्तान के वर्तमान हालात पर अपनी बात
रक्खूँ , बेहतर होगा कि अफगानिस्तान के इतिहास पर एक
सूक्ष्म दृष्टी डाल ली जाए। पूर्व में अफगानिस्तान भारत वर्ष का ही एक महत्वपूर्ण हिस्सा
था। आज जिसे हम कंधार के नाम से जानते हैं वह महाभारत के एक महत्पूर्ण पात्र शकुनि
जिसे आमजन की भाषा में शकुनि मामा के नाम से विख्यात है । आज से लगभग पाँच हजार पाँच
सौ वर्ष पूर राजा सुबाला का गंधार प्रदेश पर राज्य करते थे। शकुनि इन्हीं राजा सुबाला
के पुत्र थे इनकी बहन गंधारी का विवाह हस्तिनापुर के राजा धर्तराष्ट्र के साथ हुआ था।
महाराजा रणजीत सिंह ने कई मर्तबा अफगानिस्तानियों को युद्ध में हराया था।एक लम्बे समय
तक अफगानिस्तान ब्रिटिश शासन के अधीन रहा। सोवियत संघ में कम्युनिस्टों का राज्य था
जो कि अपने विस्तारवाद के लिए जाने जाते हैं इसी तरह चीन भी विस्तारवाद के लिए जाना
जाता है। ईरान एवम सोवियत संघ की इस क्षेत्र में उठा पटक चलती ही रहती थी। ब्रिटिशर
अफगानिस्तान में आए दिन के उठा पटक से घबरा गए थे या ये कहें तो ज्यादा उचित होगा कि
उन्हें इस उठा पटक के भारत में पहुँचने या उसका असर यहाँ पर पडने का ज्यादा अंदेशा
हो गया था। अतएव ब्रिटिश इंडिया की ओर से मॉटीमर डूरंड और अफगानिस्तान की ओर से अमीर
अब्दुर रहमान खान के बीच एक समझौता हुआ (जो की अमीर अब्दुर रहमान की मृत्यु तक ही मान्य
था) दोनों ने जिस समझोते पर दस्तखत किये कालान्तर में उसे ही डूरंड रेखा के नाम से
जाना गया। य रेखा हिंदुकुश पर्वत श्रंखला जो
कि लगभग 800 मील लम्बी है, से सर मार्टिमर डूरंड ने एक रेखा खींची
जो कि भारत और अफगानिस्तान के जनजातीय प्रभाव वाले क्षेत्रों से होकर गुजरी वर्तामन में यह रेखा 2430 किलो मीटर लम्बी है जो
कि अफगानिस्तान और पाकिस्तान को विभाजित करती है। भारत और अफगानिस्तान के मध्य इसका
केवल 106 किलोमीटर का ही हिस्सा है जिसे विवादित माना गया है।
जो बाइडन, अमेरिकी राष्ट्रपति द्वारा की गई घोषणा कि ‘अमेरिकी सेना 11 सितम्बर-2021 तक अफगानिस्तान से वापस अमेरिका लौट
जाएगी” के बाद जिस तेजी से अफगानिस्तान के हालात बदले
हैं, निश्चित रुप से उसकी कल्पना अमेरिका ने कभी नही की
होगी। 20 वर्ष तक अफगानिस्तान में जबरदस्ती अपनी नाक घुसेडे रक्खी। वो भी सिर्फ
इसलिए ताकि सोवियत संघ जिसने अफगानिस्तान में 18 वर्षो तक अफगानिस्तान में अपनी दादागिरि
चलाने की कोशिश की को नीचा दिखाया जा सके।
जब कि इससे पूर्व ब्रिटेन भी मुँह की खाकर अफगानिस्तान छोड चुका था। सेना वापसी के इस फैसले से पिछ्ले एक सप्ताह
में जो बाइडन की लोकप्रियता 56 प्रतिशत से गिरकर 43 प्रतिशत पे आ गई है। जो विश्व
प्ररिदृष्य पर ये साबित करने के लिए काफी है कि जो बाइडन के इस एक फैसले से कैसे
सिर्फ दक्षिण एशिया ही नही वरन पूरे विश्व में यह संदेश गया कि अमेरिका ने पिछ्ले
दरवाजे से तालिबान को सत्ता सौंपने का रास्ता साफ कर दिया है वो भी सैनिक साजो
सामान के साथ जिससे अफगानी जनता त्राही त्राही करने को मजबूर हो गई है।
चूँकि अफगानिस्तान की सीमाएँ पूर्व में
पाकिस्तान,उत्तर
पूर्व में भारत तथा चीन, उत्तर
में ताजिकिस्तान, कजाकस्तान
व तुर्केमिस्तान से तथा पश्चिम में ईरान से लगी हुई हैं अतएव सीधे सीधे
अफगानिस्तान में तालिबानी शासन आने से इन देशों पर बहुत ज्यादा दबाव बना रहने वाला
है। वर्तमान में चीन ने तालिबान को मान्यता देने का मन बना लिया है ऐसा करके वो
तालिबान से शिंझियांग प्रांत में उईगर मुस्लिमों पर हो रहे अत्याचार को नज़र अंदाज़
करने की शर्त रख सकता है किंतु इससे भी बडा कारण अफगानिस्तान में तांबे, लिथियम के लगभग 75 लाख
डालर के भंडार पर उसकी लालची नज़र है। जहाँ तक पाकिस्तान का प्रश्न है तो तालिबान
उसकी ही नाज़ायज़ औलाद है जिसे उसने अफगानिस्तान के सम्पूर्ण भू भाग पर कब्ज़े के
दृष्टीकोण से पैदा किया। इसके अतिरिक्त अफगानिस्तान में अलकायदा व हक्कानी ग्रुप
भी सक्रिय है।
जहाँ
तक भारत का प्रश्न है 2001 से आज तक भारत ने लगभग पच्चीस हजार करोड का
इंवेस्ट्मेंट अफ्गानिस्तान में विकास के लिए किया है। इसी के मद्दे नज़र भारत “देखो और इंतज़ार करो” की नीति पर चल रहा है।
वैसे भी भारत के लिए मानवता प्रथम ,व्यापार
द्वितीय पायदान पर आता है। किंतु तालिबान की पुरानी इमेज को देखते हुए उस पर किसी
भी हाल में भरोसा नही किया जा सकता। एशिया में रुस भारत का पारम्परिक मित्र है अतएव अफगानिस्तान के
वर्तमान हालात को देखते हुए भारत को रुस के साथ मिलजुल कर भविष्य की योजना बनानी
होगी। ताकि पाकिस्तान और चीन के षडयंत्रो पर लगाम लगाई जा सके। यहाँ यह विषेश है
कि अफगानिस्तान का एक प्रांत पंजशीर अभी भी तालिबान के हाथ में नही आया है। इतिहास
गवाह है कि पंजशीर पर न ब्रिटेन विजय पा सका,न
सोवियत संघ न तालिबां। जब कि अमेरिका ने तालिबान के विरुद्ध पंजशीर के लडाकों की सहायता अवश्य ली। ये सही है कि आज तालिबान का कब्जा पूरे अफगानिस्तान पर हो गया
है और वहाँ अंतरिम सरकार का भी ऐलान कर दिया है किंतु जिस सरकार के ज्यादातर मंत्री
दुर्दांत आतंकवादी हों उस देश और उसके आस पडौस के देशों के हालात कितनी तेजी से बदलेंगे
ये कोई नही जानता। ये सर्व विदित है कि पूर्व में तालिबान को अमेरिका ने पाला पोसा
और वर्तमान में पाकिस्तान अपने कुत्सित इरादों के लिए तालिबान को इस्तेमाल कर रहा है
किंतु जहाँ तक तालिबान के विषय में मेरी समझ है मैं निश्चित रुप से कह सकता हूँ कि
तालिबान वही रोल अदा कर रहा है जो कि भारतीय माइथालौजी में “भस्मासुर” ने किया
है। पंजाब का उग्रवाद याद है न, जिन्होंने
भिंडरेवाला को अपने दुश्मनों को ठोकने के लिए उत्पन्न किया उसने पहले अपने आका की सुनी
फिर अपने आका को ही ठोक दिया। (बुरे काम का बुरा नतीज़ा)।जब तक तालिबान को खुद को आर्थिक
और सौनिक दृष्टी से मजबूत नही कर लेता वो पाकिस्तान और चीन दोनों की बातें मानने का
नाट्क करेगा और जैसे ही वह मजबूत होगा वह अपना असली रंग दोनों ही देशों को दिखायेगा।
परिणाम स्वरुप या तो तालिबान का पूरी तरह खात्मा हो जाएगा ये पाकिस्तान और चीन में
वो तबाही मचाएगा कि दोनों ही देशों को षडयंत्रों से बाज आना पडेगा।
निश्चित रुप से भारत को फूँक फूँक कर कदम रखना होगा और दक्षिण
एशिया में अपने आप को एक धीर गंभीर देश के रुप में अपनी स्थिति को मजबूत करना होगा
साथ ही अपने चिरपरिचित सहयोगियों/मित्रों को लेकर ही इसका सामना करना होगा। ये कहना
गलत नही होगा कि वर्तमान स्थिति में केवल भारत ही एक ऐसा देश है जो अफगानिस्तान में
स्थिरता दे सकने में सक्षम है और ऐसा भारत के दोस्त ही नही वरन दुश्मन भी चाहेंगे क्यों
कि भारत की इमेज अफगानिस्तान में एक खास दोस्त की है जिसने अफगानिस्तान को दोबारा खडा
करने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है। अफ्गानिस्तान की अस्थिरता न रुस के लिए बेहतर
है न चीन के लिए न पाकिस्तान के लिए और न ईरान के लिए।
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प्रदीप देवीशरण भट्ट -13:09:2019