Tuesday, 27 November 2018

ये फ़िल्म बनाना नही आसाँ बस इतना समझ लीजै




“ये फ़िल्म बनाना नहीं आसां बस इतना समझ लीजे “

          आज़ जब सब तरफ़ सी बी आई और तीन राज्यों के विधानसभा चुनाव हर तरफ़ छाए हुए हैं ऐसे में हिन्दी फ़िल्म उद्योग के बारे में लिखने का फैसला थोड़ा ही सही अटपटा सा लागता तो है ही  किंतु बात ही कुछ ऐसी हुई की मैं इस विषय में ख़ुद को लिखने से रोक न सका। अनुभव सिन्हा द्वारा निर्देशित फ़िल्म मुल्क का प्रमोशन अनुभव सिन्हा द्वारा अब भी टिवीटर पर अब भी जारी है। वे भी बड़े ज़ोर शोर से लिख रहे हैं कि भैया देखो फलां दिन इस चैनल पर मुल्क आ रही है देखना ज़रूर। इससे एक बात तो समझ में आती है कि निर्देशन के अतिरिक्त अगर आप किसी और रूप में भी फ़िल्म से जुड़े हैं तो आपको फ़िल्म को बेचने के नए नए तरीक़े खोजते रहने चाहिए।

          आज़ की तारीख़ में फ़िल्म बनाना तो एक बारगी आसान है किन्तु उसे बेचना या उसकी मार्केटिंग करना बड़ी टेढ़ी खीर है। मुझे याद पड़ता है कि टी वी में एक इंटरव्यू आ रहा था शायद अमिताभ बच्चन ही थे उन्होने ये खुलासा किया कि त्रिशूल (1978) फ़िल्म बनने के बाद उन्हें यश चोपड़ा ने सिर्फ़ कि शशि और अमिताभ को लंदन घूमने के लिए  भेजा किंतु वे चाहते थे कि अमिताभ और शशि दोनों ही थिएटर में जाकर फ़िल्म का प्रमोशन भी करें। यानि आज़ से लगभग 40 वर्ष पहले ही यश चोपड़ा इस बात को समझ चुके थे कि भैया फ़िल्म तो बना लो लेकिन उसे बेचने के लिए पूरी तिकड़म अपनानी पड़ती है। पिछले लगभग 10 वर्षो के इतिहास पर अगर नज़र डालें तो पाएगे कि फ़िल्म छोटी हो या बड़ी सभी के लिए एक ही नियम लागू होगा कि उसे बेचने के लिए क्या युक्ति अपनाई जाए ताकि कम से कम ख़र्च में फ़िल्म को ज्यादा से ज्यादा प्रचार मिले। हद तो तब हो गई जब श्रेयस तलपड़े ने अपने निर्देशन में बनने वाली फ़िल्म “पोस्टर बॉस” (2017) की एडवांस में ही प्रचार अभियान की शुरुरात कर दी।

          ऐसा भी बहुत बार हुआ है कि इतने प्रचार प्रसार के बावजूद भी फिल्में नहीं चल पाई और पहले हफ़्ते में ही फ़िल्म टाएँ टाएँ फ़िस्स हो गई इसका जीता जागता उदाहरण अभी दीपावली पर रिलीस हुई “ठग्स ऑफ हिंदुस्तान” के साथ हुआ । ये फ़िल्म जहां पहले दिन 35 करोड़ की कमाई करने में कामयाब हुई वहीं हफ़्ते के अंत तक आते आते ये फ़िल्म हाँफने को मजबूर हो गई। वैसे भी फ़िल्म इंडस्ट्री में भेड़ चाल की भरमार है एक विषय वस्तु पर कई कई फ़िल्में बन जाती है उसमें से जिसका कंटेन अच्छा हो, अच्छी स्टार कास्ट हो, सुमधुर संगीत हो ऐसी फ़िल्म चल जाती है बाक़ी दूसरी फ़िल्में अपनी लागत भी निकालने में कामयाब नहीं हो पाती। कुछ फ़िल्में देखकर तो समझ ही नहीं आता कि प्रोड्यूसर ने इस फ़िल्म पर पैसा ही क्यूँ लगाया या क्या सोचकर एक नामी दिग्दर्शक ने इस फ़िल्म को निर्देशित करने के लिए हाँ भरी ।शायद प्रोड्यूसर फ़िल्म घाटे के लिए ही बना रहा हो?  फ़िल्म उद्योग में वैसे ही बड़ी मारा मारी है गला काट प्रतियोगिता किसे कहते हैं ये कोई फ़िल्म लाइन में आकार सजीव देख सकता है। वैसे तो ये समस्या सभी क्षेत्रों में है किंतु फ़िल्म लाइन में ये समस्या ज़रूरत से ज़्यादा ही दिखती है।

          मेरे एक परिचित हैं जिन्होने मुहे साउथ की फिल्मों के बारे में एक बात बताई उनके शब्दों में  साधारणतया : साउथ की फ़िल्म जब बनती है तो सबसे पहले प्रोड्यूसर ये निर्णय करता है कि फ़िल्म का बेस क्या है गाँव या शहर।इसी आधार पर फिर फ़िल्म की लंबाई तय की जाती है 2 घंटे या 2:30 घंटे। फार्मूला सीधा साधा सा “आधा घंटे  का नाच गाना,आधा घंटे की कॉमेडी,15 मिनिट से 30 मिनिटस तक के मेलोड्रामा बाकी बचे समय में मारधाड़ इत्यादि। लीजिए हुज़ूर हो गई एक साउथ की फिल्म तैयार। अगर लागत से 25 % भी फिल्म ने कमा लिया तो वल्ले वल्ले। क्यों की बाकी का पैसा तो जो भी चैनल उसके अधिकार ख़रीदेगा वो मिल ही जाएगा।

          अगर हम सभी बातों को मान भी लें तो एक बात तो स्पष्ट है कि फ़िल्म बनाना इतना भी आसान नहीं है जितना लोगों को लगता है। ये बात अलग है कि अपने डिफ़्रेंट कंटैंट के चलते कुछ छोटी छोटी फ़िल्में ज्यादा कारोबार कर जाती है वहीं भारी लागत से तैयार फ़िल्म अच्छा कंटैंट ना होने के कारण अपनी लागत भी नहीं वसूल पाती। इसलिए प्रोड्यूसर फ़िल्म बनाने से पहले ही एग्रीमंट में यह क्लौज जोड़ देते हैं कि कलाकारों को फलां से फलां दिनों तक फ़िल्म की पब्लिसिटी के लिए समय देना अनिवार्य होगा। ऐसा भी देखने में आया है कि फ़िल्म करते समय कलाकारों के आपसी रिश्तों के असहज होने के कारण भी फ़िल्म प्रभावित होती है। जिससे प्रोड्यूसर को तगड़ा नुकसान होता है।

-प्रदीप भट्ट –
27th नवम्बर -2018  

Saturday, 20 October 2018

स्वच्छता ही सेवा




“स्वच्छता ही सेवा“
पहलू नंबर- एक 
            
पिछले दिनों अमेरिका में माइकल और भारत में “तितली” तूफ़ान का जबर्दस्त शोर मच रहा था। सरकारें दोनों ही तूफानों से हुए जान माल के नुकसान का हिसाब किताब लगाने में व्यस्त थी तभी अचानक  Me Too नामक तूफ़ान ने दोनों ही तूफानों की हवा निकाल दी।अगर इसे मीडिया की नज़र से तोलें तो पाएंगे कि ये मुद्दा सब सिरियल और अन्य कार्यक्रमों पर भारी पड़ गया। किंतु मैं आज़ इस तूफ़ान की बात नहीं करुंगा वरन हम भारत सरकार के फ़्लेगशिप कार्यक्रम “स्वच्छ भारत अभियान” पर कुछ प्रकाश डालने का प्रयास करेंगे।

            श्री नरेंद्र मोदी ने जब 26 मई-2014 को प्रधानमंत्री  पद की शपथ ली तो उनके दिमाग या अन्तर्मन में कुछ मुद्दे ऐसे थे जिन पर वे तुरंत कुछ करना चाहते थे अतएव 02 अक्तूबर-2014 को राजपथ से उन्होने इसकी विधिवत घोषणा कर दी एवं 02 अक्तूबर-2019 तक भारत को खुले में शौच से मुक्त बनाने का संकल्प लिया एवं समस्त देशवासियों से इस संकल्प को पूरा करने के लिए सहयोग मांगा।बहुत से लोगों ने इसका मज़ाक उड़ाया और अपनी विपक्षी पार्टियों ने अपना धर्म निभाते हुए इस पर टीका टिप्पणी शुरू कर दी। उन सबकी नज़र में ये ऐसा मुद्दा नहीं था जिसे प्रधानमंत्री को इसकी आगे आकार स्वंम बागडोर संभालनी पड़े किंतु जब प्रधानमंत्री मोदी ने लाल क़िले की प्राचीर से 26 जनवरी-2015 को अपना संकल्प दोहराया और देश भर के गणमान्य व्यक्तियों को इस अभियान के लिए नामित करना शुरू कर दिया तब जाकर विपक्ष को समझ में आया कि ये कितना बड़ा मुद्दा बन चुका है और पूरा विपक्ष भविष्य में इसके फ़ायदे के बारे में सोचने लगा और फिर इस मुद्दे के गुणा भाग में लग गए। तब कॉंग्रेस को याद आया कि ये कार्य तो गाँधी जी द्वारा बरसों तक किया गया और ये मानते हुए कि गाँधी पर तो काँग्रेस का हक़ है “स्वच्छ भारत अभियान” के विषय में अनाप शनाप वक्तव्य देने की एक कभी ख़त्म ना होने वाली सिरीज़ शुरू कर दी। किंतु तब तक ये मुद्दा इतना आगे बढ़ चुका था कि कॉंग्रेस या अन्य किसी पार्टी के लिए करने को कुछ बचा ही नहीं था।

            पिछले चार वर्षो में इस अभियान ने क्या झंडे गाड़े ये तो सर्व विदित है किंतु इस अभियान से प्रेरित होकर सिंगापुर ने इसे हाथों हाथ लिया चाइना ने भी इसमें भरपूर रुचि दिखाई और तो और पाकिस्तान जैसा देश भी इस अभियान की कामयाबी से अपने आप को जोड़ने से ना रोक सका और इमरान ख़ान ने इसे पूरे पाकिस्तान में लागू करने का आहवाहन पाकिस्तानी जनता से किया है। निश्चित रूप से ये एक स्वागत योग्य कदम है। ऐसा भी नहीं है कि इस अभियान से सिर्फ़ विदेशी ही जुड रहे हैं भारत में तो इस अभियान की महत्ता को देखते हुए अक्षय कुमार ने “टाइलेट एक प्रेम कथा” शीर्षक से एक फीचर फिल्म ही बना डाली जिसने व्यवसायिक तौर पर भी काफ़ी मुनाफ़ा कमाया और अक्षय रातों रात स्वच्छ भारत अभियान के अघोषित दूत बन गए । ये विषय अलग है कि उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड सरकार ने उन्हें  स्वच्छता दूत घोषित करने में ज़्यादा वक़्त नहीं लगाया। आज़ अक्षय मुंबई म्यूनिसिपल कार्पोरेशन के स्वच्छता दूत का घोषित चेहरा भी हैं। इसी मुद्दे की दूसरी कड़ी में अक्षय एनई महिलाओं की माहवारी पर भी एक सत्य घटना से प्रेरित होकर “पैडमैन” फ़िल्म बनाई जो कि व्यवसायिक तौर पर और स्वस्थय संदेश देने में पूर्ण सफल रही।

            इसी अभियान से प्रेरणा लेकर उत्तराखंड के अविनाश प्रताप सिंह ने देहारादून में “वेस्ट वारियर्स”  के साथ स्वंम  सेवी के तौर पर शुरुआत की। ऐसा नहीं है कि उनका कार्यक्षेत्र सिर्फ़ देहारादून तक सीमित है वरन वो पूरे उत्तराखंड एवं अन्य पहाड़ी राज्यों में भी इसे फैला रहे हैं। इसी कड़ी में 3 आर मैनेजमेंट प्राइवेट लिमिटिड (पहले नोकुड़ा ) की शुरुआत मनीष पाठक, पारस अरोड़ा कचरे को समस्या मानने वालों के बीच जाकर इसे कैसे और किस तरह हल किया जाए इस अपने विचार लोगों के साथ साझा करते हैं। वे लोगों को सिर्फ़ जागरूक ही नहीं करते वरन उन्हें कचरे से कैसे पैसा कमाया जा सकता है इसकी ट्रेनिंग भी देते हैं। इसी प्रकार टाटा ट्रस्ट के चैयरमैन रतन टाटा ने 2016 से ग्रामीण इलाकों में काम करने के इच्छुक 400 पेशेवर युवाओं का एक दल तैयार किया जो देश के 26 राज्यों के 7000  गांवों के लगभग 60 लाख से ज़्यादा लोगों की ज़िंदगी में बदलाव लाने में सफल हुए हैं । इसी कड़ी में आई आई एम बंगलुरु से पास आउट तीन साथियों ने मिलकर जी पी एस रिन्यूऐबलस  की स्थापना की और आज़ ये कंपनी बंगुलुरु शहर के 3500 टन कचरे का निपटान करती है। आन्ध्र प्रदेश के हैदराबाद शहर में रहने वाले पेंडेला सुरेश जो कि 2014 में राजनीति में उतरे लेकिन आसफ़ल रहे किंतु उन्होने चुनाव के दौरान महसूस किया कि लोग शहर में कचरे से सबसे ज्यादा परेशान हैं अतएव उन्होने 2014 में ही  एक अलाभकारी इनोवेटिव सिटिज़ेन रिड्रेसल फोरम की स्थापना की । कुछ ही दिनों बाद उन्होने कचरे की समस्या को हल करने के लिए एक ऐप लांच किया जिसमें शहर के लोग अपनी शिकायतें भेज सकते हैं। इस संस्था के पास इस समय 10000  सदस्य हैं।
            स्वच्छता के इस मिशन में टी सी एस ने हिमाचल प्रदेश के मंडी के सरकारी स्कूलों में लड़कियों के लिए 4000 हजार से ज़्यादा शौचालय का निर्माण किया है।उनके इस पुनीत कार्य में मंडी के डिप्टी कमिश्नर ऋग्वेद मिलिंद ठाकुर ने एक महती भूमिका का निर्वाह किया है। इसलिए 2016 में मंडी को भारत का सबसे स्वच्छ जिला घोषित किया गया। ऐसा भी नहीं कि स्वच्छ भारत अभियान को सिर्फ़ प्राइवेट कंपनियों ने ही आगे बढ़ाया बल्कि इस पुनीत कार्य में ओएनजीसी ने भी जहां भी उनके उपक्रम हैं के आसपास के गांवों को ओडीएफ बनाने में अपना योगदान प्रदान किया है।सबसे अच्छी बात यह है कि ओएनजीसी ने असम के एसएचआईवीएसएजीएआर चरई और जोरहाट ज़िलों में कोई 12000 से भी कम लागत वाले 14000 शौचालयों का निर्माण कराया है।

पहलू नंबर- दो
            प्रधानमंत्री ने जिस भली नीयत से इस पुनीत कार्य को करने के लोगों का आहवाहन किया और  जिन नामचीन लोगों को उन्होने “स्वच्छता ही सेवा” के ब्रांड एम्बेसड़र के रूप में नामित किया उन्होने भी आगे द्वितीय क्ष्रेणी के लोगों को ये कार्य सौंप दिया और उन्होने अपने मातहत तृतीय क्ष्रेणी को इस कार्य के लिए नामित कर दिया। और ये सिलसिला लगातार चल ही रहा है। लोग झाड़ू को लेकर फ़ोटो खिचवातें हैं और उन्हें सोशल मीडिया पर अपलोड करके इस मिशन को पूर्ण समझ रहे हैं। ये ऐसा क्रम है जो रुकने वाला नहीं है। कुछ लोगों ने इसे धंधे की शक्ल दे दी है । बड़े छोटे जो भी सेलेब्रेटी? मिलें उन्हें इस कार्य के लिए बुलाओं उनके नाज़ नख़रे उठाओ लगभग आधा बजट उन्हें पकड़वाओ,उनके साथ फ़ोटो खिचवाओ और अपने अपने घर जाओ। लो जी हुज़ूर हो गई सफाई? ये कौन सी सफाई हुई भाई?

            उपरोक्त सत्य तथ्यों के अतिरिक्त भी एक सत्य तथ्य है और वह है रेगुलर और दिहाड़ी पर काम करने वाले उन लाखों सफ़ाई कर्मचारियों का जो प्रतिदिन गांवों, कस्बों, शहरों और महानगरों की सफाई व्यवस्था संभालते हैं। प्रधानमंत्री द्वारा “स्वच्छता ही सेवा” का मंत्र देने से पहले से ही ये फ़ौज सुबह मुंह अंधेरे अपने कार्य पर निकल जाती है। अगर ये फ़ौज ना हो तो कल्पना कीजिए वो गाँव क़स्बा शहर या महानगर दो तीन-दिनों में ही कितना बदसूरत दिखने लगेगा। किंतु अपना चेहरा चमकाने की होड़ में हम अपनी इस स्वच्छ फ़ौज को भूल जाते हैं या उन्हें अनदेखा करते हैं। कोई सफाई कर्मी यदि बाजू से निकले तो नाक मुंह सिकोड़ने लगते हैं। फ़िर उस सफाई कर्मचारी की ज़िंदगी की कल्पना कीजिए जो रेगुलर नहीं है वरन ठेकेदार की कृपा पर है। उसे जब चाहे काम से बेदखल कर दिया जाता है। उसे गटर साफ़ करने के लिए कहा जाता है जिसमें हमसब का गंद भरा होता है। उसको सेफ़्टी मेज़र तक मुहैया नहीं कराए जाते। मना करने पर उससे कम दाम पर दूसरा मजदूर ये कार्य करने के लिए तैयार हो जाता है क्यों कि बेरोज़गारी सुरसा के मुंह की तरह मुंह बाए जो खड़ी है।

            अंत में एक बात तो साफ़ है कि प्रधानमंत्री कितना भी सच्चा हो, ईमानदार हो और  कितना भी नेक हो उसकी सद इच्छा को कुछ लोग जहां सिर माथे लेकर पूरा करने में लग जाते हैं वहीं कुछ लोगों का जन्म शायद इसलिए होता है कि उस सद इच्छा को कैसे पलीता लगाया जाए। शायद यही कारण है जो नरेंद्र मोदी आज़ भी हर सर्वे में प्रधानमंत्री पद के जहां सबसे शशक्त उम्मीदवार नज़र आते हैं वहीं बाक़ी सब उनके आसपास भी कहीं टिकते नज़र नहीं आते। क्यों कि इस बंदे की ईमानदारी सच्चे देशभक्त की इमेज ऐसी बन गई है जो सब पर भारी पड़ रही है। और होना भी यही चाहिए। देश प्रथम।
                                                                                                           
                                                                                                    -प्रदीप भट्ट –
20 th ओक्टोबर -2018 


Thursday, 11 October 2018

लकीर के फ़क़ीर





“लकीर के फ़कीर”


            विदेशों में जब किसी को किसी से मिलने जाना होता है तो वह सामान्यता  पहले उस व्यक्ति को सूचित करता है कि वह या उसका परिवार उससे मिलने फलां दिन को आ रहा है ऐसा इसलिय भी कि विदेशों में बच्चा जहां 18 वर्ष का हुआ उसे परिवार से अलग कर दिया जाता है या वो अपने करियर को लेकर स्वंम ही अलग हो जाता है किंतु भारत में रहने वाले किसी भी धर्म या जाति के लोगों से पूछिये तो वो यही बताएगा कि “अतिथि देवो भव:” यानि जो अतिथि  बिना किसी तिथि के बताए अपनी मर्ज़ी से किसी रिश्तेदार के यहाँ पहुँच जाए उसे अतिथि कहा जाता है जिसे सनातन धर्म में  भगवान का दूसरा रूप माना गया  है। 

            किसी भी देश की संस्कृति की यही पहचान भी होती है  कि वे अपने देश में आने वाले मेहमानों का  किस तरह स्वागत करता है या पेश आता है किंतु कुछ मेहमान ऐसे भी होते हैं जो बिना बुलाए अवांछिनीय तरीके अपनाकर आ जाते हैं और उस प्रांत को या देश को ही अपने कुकर्मों द्वारा बरबाद कर देते हैं।कभी कभी किसी देश में गृह युद्ध होने के कारण या प्रकृतिक आपदा आने पर उस देश के लोग काफी दूर देहों में जाकर शरण लेते हैं जिन्हें शरणार्थी कहा जाता है ये शरणार्थी अवैद्य भी होते हैं और वैद्य भी किंतु दोनों ही रूपों में वो जिस देश में शरण पाते हैं उस देश की संस्कृति को अपने कर्मों द्वारा नष्ट करने का भरपूर यत्न करते हैं कभी धार्मिक आधार पर या फिर कभी राजनैतिक आधार पर इस कार्य में उस देश का ज़्यादातर मामलों में विपक्ष ही उनकी अवैद्य गतितिविधियों के लिए जिम्मेदार होता है । विपक्ष उन्हें चुनाव के नज़रिये से पालता  पोसता है जो कि अंतत: ये अवैध लोग उस देश के लोगों का हक़ मंरने लगते हैं। आपराधिक गतिविधियों में लिप्त होने पर इनका संरक्षण राजनैतिक पार्टियां अपने फायदे के लिए करती रहती हैं जब कि उन्हें अच्छी तरह पता होता है कि इन अवैद्य लोगों को पालने पोसने से देश की सुरक्षा व्यवस्था में सेंध भी लग सकती हैं किंतु राजनैतिक लोग अपनी स्वार्थ की सिद्धि के लिए इन महत्वपूर्ण बातों से स्वंम भी एवं राजनैतिक पार्टियाँ भी समझौता कर लेती हैं। इन हालत में ये समझना थोड़ा मुश्किल है कि आखिर हम सत्ता किसके लिए और क्यों प्राप्त करते हैं।

            इसकी बानगी अभी कल ही देखने को मिली जब काँग्रेस के एक नेता जो कि ठाकोर जाति से हैं को गुजरात के एक गाँव में बिहार और उत्तर प्रदेश से आए लोगों को सरे आम धमकाते हुए न केवल सुना गया वरन यह वाकया विडियो में भी कैद हो गया। नेता जी बड़ी शान से लोगों को धमकी दे रहे हैं “ अभी क्या टाइम हुआ है???? पुन: दोहराते हुए क्या टाइम हुआ है??? एक व्यक्ति कहता है 9 बजे हैं दूसरा कहता है 9:30 तब नेता जी दहाड़ते हुए तो .....कल शाम 9:30 बजे तक उत्तर प्रदेश और बिहार वाले इस गाँव को खाली कर दें वरना ...... वे कल स्वंम जिम्मेदार होंगें । अच्छी बात ये हुई कि कल ही उन पाँच लोगों को पुलिस ने गिरफ़्तार भी  कर लिया। लेकिन कोई बताएगा कि ये कौन सा लोकतन्त्र है ??  आख़िर हम कैसे समाज में रह रहे हैं जहाँ एक प्रदेश का आदमी दूसरे प्रदेश में जाने पर अपनी जान माल की सुरक्षा के प्रति सदैव चिंतित रहेगा तो वो अपना क्या विकास करेगा और उस प्रदेश का क्या विकास करेगा फ़िर देश की बात तो जाने ही दें।  ये ठीक है कि अवैद्य रूप से किसी दूसरे देश में घुसपैठ करने वाले लोग उस देश को धीरे धीरे लील जाते हैं। इसका एक उदाहरण देना अतिशोयक्तिपूर्ण नहीं होगा।

            पंद्रहवीं या शायद सोहलवीं के आस पास आस्ट्रेलिया की स्थिति क्या थी ? आज़ दुनियाँ के विकसित देशों की गिनती में आस्ट्रेलिया का एक महत्वपूर्ण स्थान है। क्या आप जानते हैं कि आस्ट्रेलिया के पश्चिम के क्षेत्र में एक प्रसिद्ध किंतु मनहूस द्वीप जिसे रोटनेस्ट या रोतनेस्त भी कहा जाता है जब वहाँ यूरोपीय लोग पहली द्फ़े यहाँ पहुंचे तो पूरे द्वीप में चूहों की भरमार  देखकर दंग रह गए और उन्होने इसे रैट -नेस्ट  (चूहों का घोंसला ) कहना शुरू कर दिया। धीरे धीरे लोग इसे रोटनेस्ट कहलाने लगा। किंतु यूरोपीय लोगों पश्चिम आस्ट्रेलिया  पर अपना पूर्ण रूप से कब्ज़ा जमाने के लिए स्थानीय निवासियों के साथ क्या सुलूक किया ? इतना भयानक कि सुनकर ही रोंगटे खड़े हो जाएं । बाहर से आने वाले प्रवासियों ने पश्चिमी आस्ट्रेलिया के मूलनिवासियों  में एक जाति जिसे स्थानीय भाषा में नूगरों के साथ कैसा बर्ताव किया ?  हज़ारों की संख्या में नुंगरों लोगों को शरीर को गला देने वाली ठंठ में काल कोठरी में कैद किया गया जब वे मरने की कगार पर पहुँच जाते थे तो उन्हें रात के अंधेरे में समुद्र में  फेंक दिया जाता था।

            ये सिलसिला अट्ठारवीं शताब्दी के अंत तक बे-रोक टोक चलता रहा । आस्ट्रेलिया के स्थानीय निवासी ये देखकर हैरान और परेशान थे कि जिन लोगों का उन्होने मुसीबत के समय मानवता के नाते आदर सत्कार किया उनकी सहायता की समय बीतने के साथ वे ही लोग कैसे इतने अत्याचारी बन गए।आस्ट्रेलिया लोगों ने जबरदस्ती बन गए उनके पूर्वजों के उन वहशी और क्रूरता भरे कारनामों को न केवल लिपिबद्ध किया वरन रोटनेस्ट की जेल के सामने शिलालेख में दर्ज़ भी किया साथ ही पर्थ शहर की पब्लिक लाइब्रेरी में आस्ट्रेलिया के मूल निवासियों पर यूरोपीय व अन्य लोगों द्वारा की गई बर्बरता का उल्लेख करती हुई कई पुस्तकें मौजूद हैं। ऐसा भी नहीं है कि ये सिर्फ़ आस्ट्रेलिया के लोगों के साथ ही हुआ है वरन पंद्रहवीं ईस्वी की शुरुआत तक ब्रिटेन में अंग्रेजी नहीं  फ्रेंच भाषा का आधिपत्य था।1528 के पश्चात ही ब्रिटेन में अंग्रेजी भाषा को पूर्ण रूप से जगह मिली। इसी प्रकार फ्रांस में जर्मनी का शासन था और वहाँ भी शासकीय भाषा जर्मन ही थी ना की फ़्रेंच। जिस भी देश या प्रदेश में वैद्य या अवैद्य वांछिनीय या अवांछिनीय लोगों ने प्रवेश किया है कालांतर में उस देश की संस्कृति ज़रूर प्रभावित हुई है। इसका जीता जागता उदाहरण भारत में भी देखने को मिलता है पहले आर्यों ने फिर मुगलों ने तदुपरान्त अंग्रेजों ने भारत में घुसपैठ की अपना वर्चस्व स्थापित करने के लिए उन्होने धर्म जाति के नाम पर एक दूसरे को इसलिए लड़ाया ताकि उनका भला हो सके। किंतु जितना कत्ल-ए-आम मुगलों के आगमन के बाद हुआ उतना इतिहास में कम ही देखने को मिलता है। मुस्लिमों में एक से एक बादशाह आए भारत को बुरी तरह लूटा खसोटा बहू बेटियों की इज़्ज़्त लूटी। बड़े पैमाने पर धर्म परवर्तन करवाया। जो नहीं माने उनके बड़े एवं बच्चों के सामने ही नहीं वरन सरेआम महिलाओं की इज्ज़त से खिलवाड़ किया गया। भारतीय जन मानस में चार वर्ण लागू हैं । उनमें ब्राह्मणों को शिक्षार्थी वैश्य को व्यापार ,राजपूतों या क्षत्रियों को सुरक्षा एवं शूद्रों को सेवा भाव से जोड़कर देखा जाता था । भारतीय जनमानस में देवताओं के पश्चात ब्राह्मणों को श्रेष्ठ माना गया है । मुस्लिम शासकों ने सबसे ज़्यादा ब्राह्मणों पर इसलिए अत्याचार  किए ताकि अन्य जातियाँ या धर्म भय से उनका विरोध ना करें। इसलिए जिन ब्राह्मणों ने जनेऊ त्यागकर इस्लाम अपनाने से मना कर दिया उनको सरेआम क़त्ल किया गया उनकी बहू बेटियों की इज्ज़त लूट ली गई। जब मुस्लिम शासकों को इसमें ज़्यादा कामयाबी प्राप्त नहीं हुई तो उन्होने हिंदू धर्म के प्रतिकों मंदिर और देवालय को तोड़कर उन्हीं के ऊपर मस्जिद निर्माण करा दिया जिससे सनातनी /हिंदू धर्म को मानने वाले अपने इष्ट की पूजा अर्चना ना कर सकें।

            वर्तमान में भी भारत में भी कुछ असामाजिक तत्वों द्वारा यही नीति अपनाई जा रही है। देश के अंदर ही कुछ गद्दार इस प्रकार के घिनौने कार्य को अंजाम देने में तनिक भी कोताही नहीं बरत रहे हैं। अल्पेश ठाकोर जो कि काँग्रेस पार्टी का विधायक है सरे आम गुजरात से उत्तर प्रदेश,मध्य प्रदेश एवं बिहार से आए मज़दूरों को धमका रहे हैं कि गुजरात खाली करो। इस प्रकार के भाषण तो खुले आम गुजरात की वर्तमान सरकार की  कानून व्यवस्था को चुनौती देते प्रतीत होते हैं जो कि निश्चित रूप से एक गंभीर विषय है ।जब देश के चुने हुए जन प्रतिनिधि ही कानून को चुनौती देंगे तो फिर वे संविधान का सम्मान कहाँ कारेंगे। जिन पर कानून का राज स्थापित करने कि ज़िम्मेदारी है वहीं उसे खुली चुनौती दे रहा है। 550 रियासतों को जोड़कर भारत एक गणराज्य बना है। इस देश के किसी भी कोने मे आने जाने के लिए सभी को आजादी है।कुछ अपवाद छोड़ दें तो कोई भी व्यक्ति किसी भी प्रांत में जाकर बस सकता है।

            मुझे व्यक्तिगत रूप से ऐसा प्रतीत होता है कि बालासाहेब ठाकरे ने जो परंपरा” मुंबई व महाराष्ट्र से बाहरी व्यक्ति को भगाओ“ (यूपी एवं बिहार ) क़ायम की थी उनके निधन के बाद राज ठाकरे ने उस पीआर कब्ज़ा करने की कोशिश की थी जिसमें वो सफल नहीं हुए और अब उसी कड़ी में ये अल्पेश? ये विषय अलग है कि बाला साहेब ठाकरे ने सबसे पहले दक्षिण भारत के लोगों पर ये निशाना साधा था उसमें आसफ़ल होने पर उत्तर प्रदेश व बिहार से आने वाले मज़दूरों पर ये स्लोगन अपनाया ये बात और कि इन सब का मकसद सीधी साधी राजनीति ना करके शार्टकट से ऊपर उठना था। किंतु आज सब ये भूल जाते हैं कि पंजाब में हरित क्रांति को लाने में इन्हीं उत्तर प्रदेश और बिहार के लोगों का हाथ रहा है। जब राज ठाकरे ने इस पर धमाचौकड़ी मचाई तो उसकी परिनीति नासिक पुणे से बड़े स्तर पर मज़दूरों को पलायन हुआ और वहाँ के उद्योग धंधे 90 प्रतिशत तक बंद हो गए। मजदूर तो मजदूरी करके कहीं भी अपना पेट पाल लेता है लेकिन जो उद्योगपति अपनी जमापूंजी लगाकर उद्योग खड़ा करता है वो क्या करे? गुजरात की आबादी लगभग 6 करोड़ है उसमें से 2.79 करोड़  दूसरे प्रांत के लोग बरसों से रहते हैं ।गुजरात की खुशहली में उनका योगदान लगभग 50 प्रतिशत है। अकेले सूरत में ही 50 प्रतिशत से ज़्यादा बाहरी यानि दूसरे प्रदेश के लोग निवास करते हैं। इसी प्रकार मुंबई की आबादी लगभग 2.25 करोड़ है उनमें से 60 लाख लोग तो सिर्फ़ उत्तर प्रदेश बिहार मध्य प्रदेश से हैं जो कि सर्विस इंडस्ट्री और व्यवसाय से सीधे सीधे जुड़े हैं एवं लाखों लोगों को रोजगार दे रहे हैं। मुंबई अगर आज समृद्ध है तो उसकी समृद्धि में गुजरातियों और मारवाड़ियों का बहुत बाद योगदान है। इक्का दुक्का घटना छोड़ दें तो डेल्ही की तो बात ही निराली है डेल्ही आज़ भी दिल वालों की ही है और यही इसकी पहचान है।जिसे यहाँ के बाशिंदों ने अब तक बचाए रखा है।

             उपरोक्त तथ्यों पर दृष्टिपात करने से एक बात तो साबित हो जाति है कि कुछ नेता कुछ राजनीतिज्ञ अपनी महत्वकांषाओं की पूर्ति के लिए किस हद तक जा सकते हैं। किंतु तस्वीर का एक दूसरा पहलू भी है। गुजरातियों के विषय में एक कहावत है कि वह या तो गाँव से निकलना पसंद नहीं करता और यदि निकलता है तो फिर विदेश में जाकर ही दम लेता है। अमेरिका,ब्रिटेन,कनाडा सऊदी अरब के देश एवं अन्य देशों में कितने लोग अपना कारोबार कर रहे हैं कितने लोग नौकरी कर रहे हैं कितने लोग सर्विस इंडस्ट्री से जुड़कर अपनी आजीविका चला रहे हैं। ये आंकड़ा शायद 50 लाख से ऊपर का है। यदा कदा ऐसी घटनाएँ होती रहती हैं जब किसी भारतवंशी के साथ कोई दुर्व्यवहार होता है या उसे अपनी जान से हाथ धोना पड़ता है।श्वेत अश्वेत की कहानी तो अलग है। अगर वो सभी देश जहाँ भारत के लोग अपनी आजीविका कमा रहे हैं उन्हें इसी तरह मारपीट कर उनकी मेहनत से कमाई संपत्ति को हड़प लिया जाए और रातों रात उन्हें उस देश से बेदख़ल कर दिया जाए तो नज़ारा क्या होगा ? निश्चित रूप से बहुत ही भयावह। जो आज़ गुजरात में हो रहा है वहीं अगर गुजरातियों के साथ मुंबई डेल्ही उत्तर प्रदेश में होने लगे तो ......


-प्रदीप देवीशरण भट्ट –
11th अक्तूबर -2018 

Thursday, 13 September 2018

कोउ नृप होय हमें का हानि






“कोउ नृप होय हमै का हानी”
चेरी छांडि न त होबै रानी

          जब तक स्थिति हमारे विपरीत न हो जाए तब तक हम उन्नीदे से रहते हैं हमें लगता हैं जो कुछ देश या विदेश में हो रहा है जब तक हमें उससे कुछ नुकसान नहीं हो रहा हम क्यों अपना माथा फोड़ें। समान्यतया गली मुहल्ला क़स्बा जिला प्रांत देश कोई भी हो हार व्यक्ति तब तक कोई प्रतिक्रिया नहीं देता जब तक उस पर ही कोई विपत्ति ना आ जाए। एक छोटी सी कहानी है। एक बार एक देश का राजा युद्ध में मारा गया तब उस देश के बुद्धिजीवियों ने देश के सभी नागरिकों को समझाया कि जो जिसमें निपुण है वह उस अनुसार अपनी तैयारी कर ले ताकि विपत्ति आने पर एक साथ विपत्ति का मुक़ाबला किया जा सके किन्तु सभी ने एक ही बात कही, किसान ने कहा राजा मर गया तो क्या हुआ कोई दूसरा राजा बनेगा मुझे तो खेती ही करनी है,वैश्य ने कहाँ मुझे क्या फर्क पड़ता है देश का राजा कोई भी मुझे तो व्यापार ही करना है इसी प्रकार सभी क्षेत्रों के लोगों ने यही शब्द दोहराए कि राजा कोई भी हमे तो हमारा यही काम करना है,हमें क्या फ़र्क पड़ने वाला है पुराने राजा के समय में भी यही काम करते थे कोई नया राजा बनेगा तो भी यही काम करना पड़ेगा इसलिए “कोउ नृप होय हमै का हानी” जब कि वास्तविकता ऐसी कभी होती ही नहीं यदि उस देश पर दुश्मन देश का राज हो जाए तो वो हारे हुए देश के लोगों के साथ बुरे से बुरा व्यवहार ही करेगा और प्रयास करेगा कि इस देश को बर्बाद कर दिया जाए ताकि उसका राज्य खुशहाल हो जाए।

            अब जब अगले चुनाव में कुछ ही माह शेष हैं तो हम सबको उपरोक्त बातों को पढ़कर कुछ सबक लेना चाहिए। कहीं ऐसा ना हो कि हमलोग फिर से उन्हीं लोगों के बहकावे में आकार देश को पुन: उन्हीं लोगों को ना सौप दें जिनसे पिंड छुड़ने में हमे 10 वर्ष (2004-2014) तक कठोर परिश्रम करना पड़ा।  माना कि हमे वर्तमान सरकार से कुछ शिकायतें हैं किन्तु क्या ये निजी शिकायतें देश से ऊपर हैं ?निश्चित रूप से नहीं। बड़े लक्ष्यों के लिए धैर्य रखना आवश्यक है। हम सभी आजतलक रोटी कपड़ा मकान से आगे की ना सोच पाए या हमें अन्य कुछ सोचने ही ना दिया गया हो ताकि वे सामंतवादी सत्ता के सिहासन पर निर्विवाद रूप से क़ाबिज़ रहें। किन्तु समय एक सा कब रहता है। 13 दिन 13 महीने फिर 5 वर्ष फिर 10 वर्षो का मौन और पुन: सनातन धर्म का सूर्योदय हुआ। किन्तु हमें फिर वही पढ़ाया सिखया जा रहा है कि ये इस लायक नहीं कि देश को चला सके जैसे उन लोगों के कोई विशेष यंत्र (भ्रष्टाचार के अतिरिक्त और क्या ) है जिससे वे देश की हार समस्या को चुटकी बजाते ही सुलझा देंगे असलियत में वे पिछले 60 वर्षों में ऐसा कुछ ना कर पाए या करने का प्रयत्न किया। हाँ एक काम ज़रूर हुआ कि ये भी अब अपने को मर्यादा पुरुषोत्तम राम का वंशज बताने लगे हैं (और कितने अच्छे दिन चाहिए भाई)। देर आयद दुरुस्त आयद किन्तु सब जानते हैं कि जिस प्रांत में भी ये सत्ता में हैं या सहयोग से हैं वहाँ राम के वंशजों के साथ कैसा सुलूक किया जा रहा है और सब मौन धारण किए बैठे हैं।

             देश की वर्तमान स्थिति कुछ ऐसी बनाने का प्रयास किया जा रहा है जैसे 2014 से पूर्व इस देश में दुध दही  की नदियां बहती थी, समस्त जनता खुशहाल थी किसी को कोई कष्ट ही नहीं था विदेशी भी ये देखकर ईर्ष्या से मरे जाते थे कि काश हमारा जन्म भारत में हुआ होता तो कितना अच्छा था। वे अपने देश के कर्णधारों को कोसते कि क्यों नहीं उन्होने भारत जैसी तरक्की हासिल की। 1947 से आजतक के काल को अगर मैं अलग अलग खंडो में विभाजित करूँ तो पाऊँगा कि 1947 से 1964 तक जवाहर लाल नेहरू इस देश के निर्विवाद रूप से सफल प्रधानमंत्री माने जाएंगे क्यों कि उन्हें चुनौती देने वाला कोई था ही नहीं देश अंग्रेज़ो के शासन से निकलने का प्रयास कर रहा था । इन 17 वर्षो में भारत को 1948 जब पाकिस्तान द्वारा अपने सैनिकों को काबालियों के भेष में कश्मीर में भेजकर उसे हड़पने का एक कुत्सित प्रयास किया था एवं 1962 का युद्ध जिसे नेहरू जी की अतिवादी सोच कि “ चीन कभी भी हिमालय को पार नहीं करेगा “ झेलना पड़ा था। उन दोनों ही युद्धों में भारत को जान माल का भारी नुकसान उठाना पड़ा था। 1962 की जंग तो हम चीन की धोखाधड़ी के लिए याद करते ही हैं किन्तु इससे ज्यादा नेहरू द्वारा अपने खासम खास जनरल क़ौल को मोर्चे की स्थिति का गलत आकलन करने के लिए भी याद किया जाता है सब कुछ जानते हुए भी नेहरू ने जनरल नहीं बदला यहाँ तक कि क़ौल के बीमार होने पर भी ? आख़िर इसका परिणाम युद्ध में भारत की बुरी तरह से हार के रूप में सामने आया।

            1964 में लाल बहादुर शास्त्री ने देश की कमान संभाली और कमान संभालते ही उन्हें भी पाकिस्तान द्वारा 1965 में थोपा गया युद्ध लड़ना पड़ा किन्तु उस दरमियान उन्होने जो निर्णय लिए वे अभूतपूर्व थे। उनकी आवाज देश की आवाज बन गई । देश में अनाज की कमी होने पर उन्होने नारा दिया “जय जवान जय किसान” जो आज भी भारत के जनमानस की यादों में जीवित है । उनकी एक आवाज पार होटल सोमवार को बंद हो गए लोगों ने सोमवार का व्रत रखना शुरू कर दिया क्यों कि लाल बहादुर शास्त्री कर्मशील व्यक्ति थे । उन्हे पता था “यथा राजा तथा प्रजा“  अगर वे उन बातों का अनुसरण नहीं करते तो प्रजा में गलत संदेश जाता जो उन्हें गवारा नहीं था। जब देश का नेता ऐसा हो तो निश्चित ही प्रजा भी उसके साथ कंधे से कंधा मिलकर खड़ी हो जाती है। किन्तु 1966 में सोवियत संघ में शास्त्री जी की संधिग्ध हालत में मौत के बाद इस देश में ऐसा कोई नेता नहीं रहा जिसकी कथनी करनी एक जैसी हो या उसके आस पास भी हो, तो फिर हम कैसे भारत देश को अजेय और महान बनाएँगे ? इससे पहले कि मैं इस लेख के शीर्षक को जस्टिफाइएड़ करूँ। पिछले कुछ वर्षों में जो कुछ इस देश में हुआ है उस पार एक तिरछी सी नज़र डालते हैं।

            पिछले दिनों मैं इंडिया टुडे पढ़ रहा था जिसमें शिक्षा के विषय में लॉर्ड कर्ज़न उनके उच्च शिक्षा अधिकारी महोदय एवम जमशेद जी टाटा की गुफ़्तगू का ब्योरा मैं जू का तू यहाँ दे रहा हूँ निश्चित रूप से आपको भी इसे पढ़कर आनंद आएगा। “ वर्ष 1898 में जब जमशेद जी टाटा ने भारतीय विज्ञान संस्थान की स्थापन का प्रस्ताव वाइसराय लॉर्ड कर्ज़न के समक्ष रखा तो उन्होने पूछा “इस संस्थान में शामिल होने योग्य छात्र कहाँ से आएंगे और उनके लिए नौकरियाँ के मौके कैसे पैदा होंगे ?” जमशेद जी अपनी बात पर अड़े रहे और फिर 1901 में कर्ज़न के सबसे वरिष्ठ शिक्षा अधिकारी जोइल्स ने जब अपने भाषण में कहा कि “ भारतीय शिक्षा के बारे में मेरे 40 वर्ष के अनुभव को देखते हुए “ तो उनकी बात को काटकर कर्ज़न ने कहा कि महाशय  आपके 40 वर्ष के अनुभव को सुधारने के लिए ही हम यहाँ हैं”।

            इसी के साथ मैं यहाँ छान्दोज्ञा उपनिषद में दिये गए  एक उदाहरण पर प्रकाश डालना चाहूँगा । ईसा से कई सदियों पुराना है ये किस्सा जब सत्यकाम को गौतम हरिमुद्र्त के गुरुकुल में प्रवेश दिलाया गया तो उनके पूज्य गुरु जी ने आदेश दिया कि तुम कुछ मवेशियों को लेकर जंगल जाओ और जब तक वापिस नहीं लौटना है जब तक की इसमें एक निश्चित मात्र में बढ़ोत्तरी ना हो जाए । वास्तव में ये संसार से जुड़ी एक उद्मशीलता परियोजन थी जिसके लिए तमाम प्रकार के हुनर की आवश्यकता थी और यह पक्का करना था कि माविशोयोन को सेहतमंद कैसे रखा जाए जंगल के लुटेरों से कैसे निपटा जाए अपनी एवं मवेशियों की रक्षा कैसे की जाए, माविशियों को अपना हुक्म मानने के लिए प्रशिक्षित कैसे किया जाए अपनी स्वंम की आवश्यकताओं की पूर्ति कैसे की जाए। जब सत्यकाम निश्चित समय के बाद गुरुकुल वापिस लौटता है तब गौतम हरिमुद्रत सत्यकाम की शख़्सियत पर प्रकाश डालते हैं। प्राचीन काल में भारतीय शिक्षा पद्धति का ये एक सुंदर उदाहरण है जहां शिष्य को गुरु द्वारा सांसरिक ज्ञान से परिचय कराया जाता था।

            अब आते हैं एक ताज़ातरीन विषय पर “राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर” वर्ष -2005 में जब ममता बनर्जी अवैद्य बांग्लादेशियों घुसपैठियों के  मुद्दे पर  काँग्रेस द्वारा संसद में उनकी बात न सुने जाने पर उन्होने बकायदा लोकसभा स्पीकर के बिलकुल निकट जाकर संबन्धित पर्चे उनकी तरफ उछाल दिये थे। उनका कहना था कि ये अवैद्य लोग राष्ट्र के लिए खतरा हैं किन्तु चूंकि ये  काँग्रेस के वोट बैंक हैं अतएव काँग्रेस इस मुद्दे को राष्ट्रीय सुरक्षा से ऊपर रख रही है।किन्तु आज आज 2017-18 आते आते वही ममता बनर्जी स्वंम वही सब कर रही हैं जिसके विरुद्ध वे खड़ी थी।  आखिर 12-13 वर्षो में ऐसा क्या बदल गया जो ममता बनर्जी वोट बैंक को राष्ट्रीय सुरक्षा के ऊपर तरजीह दे रही हैं । बात सिर्फ 40 लाख घुसपैठियों की नहीं रह गई है वरन ये 40 लाख वोटरों को हो गई है वैसे भी ममता बनर्जी जब से पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री बनी हैं वे मुस्लिम तुष्टीकरण  के लिय ही ज्यादा जानी जाती  रही हैं। और सिर्फ ममता बनर्जी ही नहीं वरन मुस्लिम तुष्टीकरण की शुरुआत तो काँग्रेस ने ही की है। आज़ादी के बाद से आज तक वह छोटे बेटे को बड़े बेटे पर तरजीह देती रही है काँग्रेस को लगता रहा है कि देश का 80% हिन्दू वॉटर तो हमारी मुट्ठी में है तो क्यों ना मुस्लिम तुष्टीकरण कर लिया जाए ताकि अगर काल कुछ प्रतिशत हिन्दू छिटका भी तो मुस्लिम वोट उंसकी पूर्ति कर देंगे यही कुत्सित विचार काँग्रेस को लेकर डूब रहे हैं।

            काँग्रेस को भारत में सिर्फ हिन्दू और मुसलमान ही क्यों दिखते हैं । पारसी समाज, जैनी समाज,बुद्ध समाज आदि क्यों नहीं ? इसलिए कि उसे पता है देश में इनकी जनसंख्या है ही कितनी।ये हमारा क्या बिगड़ लेंगे। इसी कारण काँग्रेस शुरू से मुस्लिम तुष्टिकरना में लग गई जब उसे लगा कि बीजेपी हिंदुओं को वोट झटक सकती है तो उसने तुरंत हिंदुओं को जातियों में बांटना शुरू कर दिया और प्रचारित करना शुरू कर दिया और लगभग 30 वर्षों पूर्व आरक्षण का जिन्न खड़ा कर दिया साथ ही नये नये शब्द तक गढ़ दिये । “दलित” “महादलित”। मतलब यहाँ भी  वास्तविक दबे कुचले लोगों को मुख्यधारा में लाने का प्रयास न करके उन लोगों को आरक्षण का लाभ दिया जाता रहा जो इस लाभ को प्राप्त करके कबके मुख्य धारा में आ गए थे। ऐसा इसलिए भी कि आरक्षण का लाभ जिसे भी एक बार मिल गया वो अपने भाई बंधुओं को वो हर्गिज नहीं लेने देना चाहता क्यों कि जो भी भर्ती निकलेगी उंसमें वही लोग चुने जाएंगे जो उनके भाई भतीजे बेटा बेटी होंगे भले ही वे मुख्य धारा से पहले ही जुड़ चुके हैं । दूर दराज में आज भी वो दबे कुचले लोग समान्यतया उसी अवस्था में रहने को अभिशप्त हैं।

            वर्तमान में जो बीजेपी सरकार सत्ता में है वो किसी भी कारण से सही (चाहे वोट के कारण या वास्तव में महिलाओं के अधिकारों के लिए) कुछ कर तो रही है इसी क्रम में उसने तीन तलाक जैसे मुद्दे पर प्रखर रुप से मुस्लिम समाज़ में  प्रचलित “तीन तलाक“ जैसे  कुप्रथा को ख़त्म करने का बिड़ा उठाया तो सही । आख़िर एक कल्लू कितनी बार निकाह करेगा और कितनी कल्लने पैदा करके छोड़ेगा। पंचर लगा कर गुजर बसर करने वाला कल्लू क्यों नहीं समझता कि ज़्यादा निकाह और बच्चे पैदा करने से इस्लाम का कुछ भी भला नहीं होने वाला अलबत्ता वो मुस्लिम औरतें जो तलाक देकर छोड़ दी जाती हैं वो वो कितने कल्लुओं को कैसे और क्यूँ कर पालेगी। और उनका अपना मुस्लिम समाज़ उन औरतों के साथ किस तरह पेश आएगा ये कभी उसने क्यों नहीं सोचा? ऐसा इसलिए कि कल्लू का बाप,उसके दादा और उसके  परदादा सब इस्लाम के नाम पर बस औरतों का शोषण करते रहे हैं ।चूंकि वे सब भी अनपढ़ रहे इसलिए ये प्रथा वो अपने पोते तक ले आए अब कल्लन का लौंडा भी बड़ा होकर यही सब करेगा। कारण साफ़ है इस समाज़ में पढ़ाई लिखाई के नाम पर बस 1400 वर्ष पुरानी शिक्षा दी जाती रही है।

            दुनियाँ कहाँ से कहाँ निकाल गई लेकिन मुस्लिम समाज़ आज भी उन्हीं प्राचीन बेड़ियों में जकड़ा हुआ हुआ और वो इनके जकड़ा ही रहना चाहता है क्यों कि इस समाज़ के छ्द्म बुद्धिजीवी और मुल्ला मौलवी भी यही सब चाहते हैं उन्हें पता है कि अगर कल्लू पढ़ लिख गया तो वो हमारे काबू में नहीं रहेगा इसलिए वो इस्लाम,शरीया का वो चेहरा उन्हें दिखाते हैं जो वास्तव में वैसा है ही नहीं।मुस्लिम समाज़ में तलाक़ ही अकेली कुप्रथा नहीं है वरन हलाला (बहुविवाह-जिसमें शादी शुदा जोड़ा यदि तलाक लेता है और तलाक के बाद पुन: विवाह करना चाहता है तो महिला को पहले किसी और से निकाह करना पड़ता है फिर उसके साथ कम से कम एक रात बितनी होती है तब जाकर वो औरत पुराने पति से पुन: निकाह कर सकती  है )मूता और मिसयर (कांट्रैक्ट मैरीज़) जिसका अरबी लोग सबसे ज़्यादा फायदा उठाते हैं। अजीब बात ये है कि कुरान में तीन तलाक कहीं कोई जिक्र नहीं है इसी प्रकार हलाला का भी कुरान और हदिम में कहीं कोई उल्लेख नहीं है बहू विवाह भी सशर्त विकल्प है अनिवार्यता नहीं हैं। जहां तक मिस्यार का ताल्लुक है ये कुछ अपवाद भर हैं।अजीब बात ये है कि अरब और अन्य मुस्लिम देशों में इस प्रकार की कुप्रथा प्रचलन में नहीं है किन्तु भारत चूंकि एक लोकतान्त्रिक देश है अतएव यहाँ किसी भी मसले को राजनैतिक और हिन्दू मुस्लिम रंग देने में लोग महिर हो गए हैं।

            पिछले दिनों सोश्ल और प्रिंट/एलेक्ट्रोनिक मीडिया पर उत्तरा पंत बहुगुणा छाई रहीं कारण वे अपनी एक अरदास लेकर कि “ वे पिछले 25 वर्षो से उत्तराखंड के उत्तरकाशी के नौगांव ब्लॉक के आगे ज्येतवादी नमक स्थान पर पिछले 25 वर्षों से दुर्गम क्षेत्र में शिक्षिका के पद पर तैनात हैं  एवं अब सुगम क्षेत्र में तैनाती चाहती थीं “ 28 जून -2018 को जब वे मुख्यमंत्री से मिलने उनके आवास पर आई तो उनकी अरदास न सुने जाने पर वे उत्तेजित हो गईं जिससे तिवेन्द्र रावत भी क्रोध में भर गए और वहीं उन्हें निलंबित करने और उन पर अनुशासनात्मक कार्रवाई करने का आदेश दे दिया। रघुनाथ सिंह नेगी जो जान संघर्ष मोर्चा के अध्यक्ष हैं ने इस पर घोर आपत्ती जताई और कहा कि जब स्वंम मुख्यमंत्री की पत्नी श्रीमति सुनीता रावत 26 वर्ष की सेवा में से 22 वार्ष सुगम क्षेत्र में सेवाएँ दे रहीं हैं तो फिर उत्तरा पंत क्यों नहीं जब कि उत्तरा पंत के पति का देहावसान हो चुका है।पहले अरविंद पांडे का उत्तरा को फोन पर खेद जाताना और राहत दिलाने का आश्वासन देना किन्तु बाद में मुकर जाना और अनुसास्नात्क कार्रवाई करने का आदेश देना क्या दर्शाता है। चलिए उत्तरा पंत तो विधवा हैं 25 वर्षों से दुर्गम स्थान पर तैनात हैं उनकी झुंझलाहट स्वाभाविक है किन्तु क्या मुख्यमंत्री को इतना क्रोध करना वाजिब था निश्चित रूप से नहीं। इस प्रकार कि घटनाएँ सत्ता में रहते भले ही अच्छी लगती हैं किन्तु ये दूर तलक आवाज करती हैं और सत्ता के मठाधीशों को सावधान भी कि भविष्य  के प्रति देखकर कार्य और व्यवहार करों।

            प्रश्न यही है कि सत्ता किसी के भी हाथ में रहे पीसना तो जनता को ही है। राजा कोई भी बने उसे चुननाव के अतिरिक्त जनता से कोई लेना देना नहीं होता । एक बार सत्ता आ गई तो भैंस को तो पानी में ही जाना ही होगा । कुछ समय बीत जाने पर जनता को पिछली सरकार ही सोने की लगती है और वर्तमान पीतल की। क्यों कि समान्यतया जनता अपने छोटे छोटे लाभ ही देखती है उसे ऐसा ही प्रतीत होता है कि जैसा पुरानी सरकार ने हमारा हाल बेहाल किया है ये सरकार उससे भी ज़्यादा बेहाल करेगी जब कि कभी कभी सरकार भी ईमानदारी का परिचय देती है और सदइच्छा से किए जा रहे जनता की भलाई के कामों को  करने का यत्न करती है किन्तु जनता समान्यतया उस सदइच्छा के प्रयासों को और बड़े लक्ष्यों पर लगने वाले समय और ऊर्जा का अंदाजा नहीं लगा पाती और पुन: उन्हीं लोगों को चुन लेती है जिन्होने जनता के हितों को कभी समझा नहीं।

-प्रदीप भट्ट –
13th सितंबर-2018 

Wednesday, 29 August 2018

और कितने कालिदास




“और कितने कालिदास?


            इंसान की फ़ितरत ही ऐसी है कि उसे चैन से बैठकर खाना सोना या जीना पसंद नहीं आता वह कुछ न कुछ ऐसा करता रहता है जिससे वह चर्चा में बना रहे। फिर वो कोई भी विषय हो प्लैटफ़ार्म हो उसे अपनी ही करनी है बिना ये जाने और सोचे कि इसका परिणाम उसके लिए समाज के लिए या देश के लिए कितना घातक हो सकता है। इसका जीता जागता उदाहरण कोंग्रेस के दिग्विजय सिंह, मनीष तिवारी,संदीप दीक्षित,मणिशंकर अय्यर हैं इनके बीच एक नया नाम जुड़ गया है नवजोत सिंह सिद्धू का।इन सभी महारिथियों की समझ/बुद्धि  कोई भी वक्तव्य देते समय शायद क्या घास चरने चली जाती है। पिछले कुछ समय के इन लोगों के वक्तव्यों को उठाकर देखिए ये लोग अनाप शनाप कुछ भी बोल रहे हैं बिना ये समझे जाने की ये लोग अंजाने में अपने ही गोल पोस्ट में गोल कर रहे हैं या हो सकता है कि ये सब जान बूझकर किया जा रहा हो ? जिस पेड़ की छाँव में ये पलकर ये बड़े हुए हैं ये सब मिलकर उसी पेड़ को उसकी डालियों को कालिदास बनकर काटे जा रहे हैं। जब तक इन्हें पता चलता है कि इनके गोल से इनकी ही टीम हार गई है तो ये सारा दोष मीडिया पर मढ़ देते हैं । आख़िर प्रिंट मीडिया और एलेक्ट्रोनिक मीडिया को ही सदैव हर बात के लिए दोषी क्यों बताया जाए । क्या ये मूर्ख हैं या फिर ये अपनी मूर्खता को छिपाने के लिए मीडिया रूपी मोर का सहारा ले रहे हैं। याद रखें मोर जब नाचता है तो सब उसका नाच देखकर प्रसन्न होते हैं किंतु नाचते हुए मोर खुद नंगा भी हो जाता है जिसका मोर को पता नहीं चलता।

            अब उपरोक्त महानुभावों के टीम लीडर की बातें कर लेते हैं । जनाब राहुल गांधी ? पूरे भारत में और शायद विदेशों में भी उनके इतने उपनाम पड़ गये हैं जितने आजतक किसी के नहीं पड़े। मैं या उन उप नामों का खुलासा न ही करूँ तो बेहतर है। इन महाशय ने तो ऐसे ऐसे वक्तव्य दिये हैं जिनकी तुलना करना ही बाईमानी होगा । ये समझना भी मुश्किल है कि इस बंदे को इस तरह के वक्तव्य देने के लिए कौन शय दे रहा है। कुछ नमूने देखिए :-

1)     एक तरफ से आलू डालो दूसरी तरफ से सोना ?
2)     कोककोला बनाने वाला पहले शिकंजी का बेचता था।
3)     मैक्डोनल्ड वाला पहले पकौड़े बेचता था ?

            इस तरह के ना जाने कितने वक्तव्य जिनका कोई सिर पैर है ही नहीं । अब ऐसा व्यक्ति अगर यह घोषणा करे कि वह देश का प्रधानमंत्री बनना चाहता है तो उस देश के भविष्य की आप कल्पना स्वंम कर सकते हैं। भारतीय राजनीति में इतने बचकाने और गैर जिम्मेदार वक्तव्य कुछ गिने चुने लोगों ने ही दिये हैं जिनमें दिल्ली सरकार के एक मंत्री द्वारा हरियाणा द्वारा दिल्ली को भाखरा डैम का पानी छोड़े जाने पर यह कहकर सनसनी मचा दी थी कि अगर हरियाणा ने पानी से सारी बिजली निकाल ली तो वो पानी किस काम का रह गया (कुछ ऐसा ही कहा था)  आजकल तो फैशन चल गया है कोई भी कुछ भी किसी को भी कुछ भी कह देता है जब वो मैसेज वायरल हो जाता है तो सारा दोष मीडिया पर मढ़ दिया जाता है। आख़िर ये सब कब तक और क्यों ?
            परसों प्रधानमंत्री पद के प्रबल दावेदार श्रीमान राहुल गांधी ने एक विवादित बयान दे डाला कि “1984 के सिख दंगों के लिए काँग्रेस जिम्मेदार नहीं है” अरे भाई कुछ सोच समझ कर तो बोल , जब ये दंगे हुए तुम्हारी उम्र क्या थी शायद 13-14 वर्ष ? अब इस बयान के बाद कुछ चैनल वालों को 2-3 दिन का मैटीरियल तो मिल ही गया ताकि वे इस पर प्राइम टाइम पर बहस कर सके साथ ही ये बहस भी चल निकली कि आखिर सिख दंगों के उपर बयान देकर राहुल साबित क्या करना चाहते हैं। ये सत्य है कि सिख दंगों के बाद राजीव गाँधी को ज्ञानी जैल सिंह जो उस समय राष्ट्रपति थे ने तुरत फुरत प्रधानमंत्री पद की शपथ दिला दी थी निश्चित रूप से ये सब दबाव में किया गया होगा वरना उस समय काँग्रेस में कितने दिग्ग्ज़ नेता थे जो दंगों के बाद उपजी दंगों की विभीषिका को सही तरीके से संभाल सकते थे किन्तु काँग्रेस के डीएनए में ही कुछ ऐसा दोष है कि उसे विश्वास है कि यदि कोई गाँधी परिवार का सदस्य प्रधानमंत्री बनेगा तब ही काँग्रेस सही सलामत रहेगी साथ ही देश भी सुरक्षित रहेगा।अब आप इसे अतिशयोक्ति नहीं तो और क्या कहेंगे।

            1984-1989  तक  जब काँग्रेस की सरकार थी शायद ही किसी ने दंगों की विभीषिका से उपजी नफ़रत को समझने की कोशिश की । कभी भी किसी भी काँग्रेस के नेता ने इस दुखद घटना पर अफ़सोस जाहिर नहीं किया। और मेरा तो मानना है कि हज़ारों मौतों के बाद अगर किसी राजनीतिक पार्टी ने अफ़सोस जाहिर कर भी दिया या माफ़ी मांग भी ली तो क्या उसे उस नरसंहार के लिए माफ़ कर देना चाहिए ? निश्चित रूप से कभी नहीं । आखिर जिस सरकार को हम आम जनता के विकास और रक्षा के लिए चुनकर संसद में भेजते हैं और वो सब सांसद/विधायक जो बड़े ही मनोयोग से अपने अपने धर्म ग्रंथो की सौगंध खाकर भारतीय जनता के लिए काम करने की शपथ लेते हैं क्या वे ऐसा करते हैं कभी नहीं । यही वे लोग हैं जो अपने निजी स्वार्थ सिद्धि के लिए उसी जनता को कष्ट देते हैं जो उनकी जय जय कर करती है । प्रश्न ये नहीं है कि किस नेता ने corruption  के माध्यम से कितना धन कमाया यक्ष प्रश्न ये है कि उसी पैसे के बल पर ये बार बार संसद में चुनकर आते रहते हैं और जनता को नए नए ढ़ंग से लूटते रहते हैं ,रक्षा करने की बात तो जाने ही दीजिए।

            स्वतंत्रता से पूर्व जलियाँवाला बाग का नरसंहार तो सभी को याद है उसके बाद 1947 में देश के विभाजन के समय जो गदर हुआ वो तो अभूतपूर्व था गिनना मुश्किल याद रखना मुश्किल कि कुल कितने लोग मारे गए कितनी संपत्ति का नुकसान हुआ इसका भी अंदाजा लगाना मुश्किल है। आज़ादी मिलने के बाद भी हिंदू मुस्लिम दंगों का एक अलग इतिहास रहा है किन्तु 1984 के सिखों को सरेआम जिस तरह मारा गया जिस तरह उन्हें जलाया गया उनकी संपती लूटी गई वो निंदनीय है। ये वही सिख कौम है जिसे हिंदुओं कि रक्षार्थ बनाया गया था। कुछ लोग ये कहकर पल्ला झाड़ने की कोशिश करते हैं कि हरियाणा और पंजाब में सरेआम हिंदुओं को बसों से उतारकर मारा गया तब कोई क्यूँ नही बोला। बात तो ठीक है किंतु मैं इसे तर्क न कहकर कुतर्क कहूँगा आप एक गलत काम कोप दूसरे गलत काम से justified नहीं कर सकते। ये सही है कि जब भी किसी जाति धर्म में कुछ गलत होता है तो ये उस कौम के बुद्धिजीवियों की ज़िम्मेदारी होती है कि वे गलत को गलत और सही को सही कहें किंतु कुछ शूद्र स्वार्थ के कारण वे ऐसा नहीं करते और परिनिती यही होती है। लेकिन 1984 के नरसंहार के बाद 34 वर्ष बीत गए दोषी आज़ भी खुले आम और बेधड़क छुट्टे घूम रहे हैं और कोई भी उनका कुछ भी नहीं बिगाड़ पा रहा आखिर क्यों?

  किसी भी आतंकवादी को फांसी हो जाएँ तो कुछ गद्दार किस्म के लोग आधी रात को सूप्रीम कोर्ट खुलवा देते हैं, वर्तमान या भूतपूर्व मुख्यमंत्री को कहाँ दफनाना है इसके लिए भी सूप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश फैसला लेने देने के लिए आधी रात तक भी कार्य करेंगे किंतु 34 वर्ष पूर्व हुए जघन्य हत्याकांड के लिए इसकी ज़रूरत महसूस नहीं की जाती क्यों ? आखिर इन सब बातों से साबित क्या होना है कोई नहीं जनता और और कोई भी ये जानने की कोशिश नहीं करता  कि इस फालतू की बहस से उन हज़ारों  लोगों के दिलों पर क्या बीत रही होगी  जिनके साथ तीन दिनों तक बर्बरता होती रही और 34 वर्ष बीत चुकने के बाद भी आज़ भी उन परिवारों के लोग न्याय के लिए भटक रहें हैं।उस भयानक हादसे को जिसको याद करके सिर्फ़ पीड़ित ही नहीं वरन उन पीड़ितों के पड़ोसी  एवं मित्रों पर क्या बीतती होगी। कष्ट तब होता है जब इतने संवेदनशील मुद्दे पर भी लोग राजनीति करने से बाज़ नहीं आते।
-प्रदीप भट्ट –
29th अगस्त -2018  

Saturday, 14 July 2018

झिरिया -पानी पानी पानी

                                  “झिरिया
(पत्थरों के बीच अस्थायी गढ्ढे खोदकर पानी निकालना )
पाषण युग में बसे मुंबई शहर की कहानी भी अजीब है। 225 ईसा पूर्व इसे हैप्तानेसिया के नाम से पुकारा जाता था तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व में इस द्वीप समूह मौर्यों के साम्राज्य का एक विशिष्ट भाग रहा ।इसके बाद सिल्हारा वंश के हिंदू राजाओं ने इस पर शासन किया तत्पश्चात इस पर गुजरात के राजा ने इस पर अधिकार कर लिया।1534 में इस द्वीप को पुर्गालियों ने इसे अपने कब्जे में ले लिया जिसे बाद में इंग्लैंड के चार्ल्स द्वितीय को इसे उपहार स्वरूप प्रदान कर दिया गया। इसके बाद बड़ा फेर बदल 1668 में हुआ जब ब्रिटिश ईस्ट इण्डिया कंपनी को इसे नाम मात्र के 10 पौंड में पत्ते पर दे दिया गया । 1661 में इस द्वीप की आबादी मात्र 10 हजार ही थी। किन्तु 1675 आते आते इस द्वीप की आबादी आश्चर्यजनक रूप से 60 हजार हो गई ।इसी दौरान ईस्ट इण्डिया कंपनी ने सूरत से अपना मुख्यालय बम्बई में शिफ्ट कर लिया। 1817 से सभी द्वीपों को एक सूत्र में पिरोने का कार्य प्रारम्भ हुआ जिसमें सिविल कार्यों  द्वारा पुनर्स्थापन किया गया । इस परियोजना को होर्न्बोय वेल्लार्ड के नाम से पुकारा गया जो 1845 में पूर्ण हुआ। सभी द्वीपों को आपस में जोड़ने से इसका क्षेत्रफल लगभग 431 किलोमीटर के लगभग बैठता है ।इंग्लैंड से माहरानी मैरी  व जोर्ज पंचम के आगमन को उत्सव में तब्दील करने के उद्देश्य से ही 2 दिसम्बर 1911 को गेटवे ऑफ इण्डिया का निर्माण कार्य शुरू हुआ और अंतत: 4  दिसम्बर 1924को इसे पूरा कर लिया गया जो आज के मुंबई की एक विशेष पहचान बन गया है। 1906 आते आते इस शहर की आबदी बढ़कर 10 लाख हो गई थी जो  की जनसँख्या के लिहाज से कलकत्ता के बाद दूसरे नंबर पर थी। आज  2018 में आते आते  लगभग 2 करोड़ को पार कर गई है।   1947  में आज़ादी मिलने के बाद इसे बॉम्बे राज्य की राजधानी बनाया गया 1950 में उत्तरी ओर स्थित सैलसेट द्वीप के भागों को मिला लिया गया जो कि इस शहर की आज तक की स्थिति को दर्शाता है ।1955 के पश्चात् जब बॉम्बे राज्य को पुनर्व्यवस्थित किया गया तो इसे भाषा के आधार पर महाराष्ट और गुजरात दो भागों में विभक्त कर दिया गया । इस दौरान बॉम्बे को लेकर फ़साद भी हुए कि इसे किधर रखा जाना ठीक होगा इसी में लगभग 105 लोगों ने पुलिस फायरिंग में अपनी जान दे दी 1 मई 1960 को इस महाराष्ट और गुजरात दो राजों में पूर्ण रूप से बाँट दिया गया तथा बोम्बे को महाराष्ट की राजधानी घोषित कर दिया गया।
मुंबई शहर में कार्यरत्त Bombay Municipal Corporation यानि BMC जिसका वार्षिक बजट किसी छोटे मोटे देश के बराबर है हर वर्ष मुंबई शहर की सड़कों के गढ्ढे भरने का बीड़ा उठती है किंतु मुंबई की पहली ही बारिश में उसकी पोल खुल जाती है ये सिलसिला मैं व्यक्तिगत रूप से पिछले 12 वर्षो से देख रहा हूँ ऐसा ही कुछ हाल NDMC & MCD ट्रांस यमुना नमक अलग निगम बना दिया गया है किन्तु स्थिति जस की तस है। कल ही मिंटो ब्रिज के नीचे पानी भर गया और DTC की एक बस लगभग दो तिहाई तक डूब गई। बाकी इलाकों का जिक्र करना तो फ़िजूल ही है । मैं लगभग 25 वर्ष डेल्ही में रहा हूँ और मिंटो ब्रिज के पास ही मेरा ऑफिस होता था हर बरसात में मिंटो ब्रिज में पानी भरने के कारण कोई ना कोई दुर्घटना होती ही रहती थी कई मर्तबा तो मैंने रबर की नाव से पुलिस वालों को मिंटो ब्रिज के नीचे फंसे हुए वाहनों  से लोगों को निकलते हुए देखा है । शायद डेल्ही की बरसात का मिंटो ब्रिज ही बैरोमीटर में तब्दील हो गया है जिसे देखकर शहर के अन्य हिस्सों में हुई बारिश का अंदाजा लगाया जा सकता है। कुछ इसी तरह मुंबई की बारिश में भी वरली, जय हिन्द माता रोड मिलन सबवे  (26 july-2005 की बाढ़ का ट्रेड मार्क ) वगैरह में यदि बारिश का पानी जमा हो जाए तो मान लीजिए भयंकर बारिश हुई है। 

आख़िर आज मुझे ये मुंबई शहर के विषय में संक्षिप्त जानकारी क्यूँ देनी पड़ रही है तो इसका कारण है मुंबई शहर के लोगों को पानी की आपूर्ति करने वाली झीलों पर पड़ रहे अनवश्यक बोझ को कुछ समझा जा सके । जब से ये शहर अस्तित्व में आया है तब से यहाँ पर रहने वाले लोगों कुछ ना कुछ तो खा रहे होंगे और प्यास बुझाने के लिए कहीं ना कहीं से पानी प्राप्त कर ही रहे होंगे। इतिहास में झांक कर देखें तो पाएंगे कि मुंबई शहर को पानी सप्लाई करने वाली मुख्य झीलें किस कदर वर्ष दर वर्ष अपने ऊपर अतिरिक्त बोझ ढ़ोने को अभिशप्त हैं और इसका कारण है तेजी से बढती जनसँख्या जिसके लिए कोई उपाय नहीं किये जा रहे हैं आख़िर कब तक ये झीलें मुंबई का बोझ उठाएंगी ।
अपर वैतरणा :- अपर वैतरणा झील (डैम) महाराष्ट्र के इगतपुरी में स्थित है मुंबई से इसकी दूरी लगभग 100 K.M. है इसकी  ऊंचाई लगभग 41 मीटर या 135 फीट है,लम्बाई 2578 मीटर या 8304 फीट  भण्डारण क्षमता केवल 6038,046 मिलियन लीटर है। इसे 1973 में जनता के लिए खोला गया।
वैतरणा :- ये महाराष्ट के पालघर जिले में स्थित है जो कि मुंबई से लगभग 100 K.M. है इसकी ऊंचाई 82 मीटर यानि 269 फीट है इसकी लम्बाई 567.7 मीटर यानि 1860.5 फीट।इसकी भण्डारण क्षमता 174,790,000 m इसे 1957 में जनता के लिए खोला गया।

तानसा :-तानसा झील या डैम मुंबई से लगभग 90 किलोमिएटर दूर अटगाँव (महुली की पहाड़ियों  )में स्थित है। इसे एक ब्रिटिश इंजिनियर Mr.Tullock जो कि म्युनिसिपल कारपोरेशन ऑफ़ ग्रेटर मुंबई की देखरेख में १९८२ में शरू हुआ और १९२५ में पूर्ण हुआ २००१ से २००४ के मध्य में पुन: इसकी क्षमता बढाई गई है। इसकी ऊंचाई 41 मीटर,लम्बाई 2804 मीटर है । इसकी भण्डारण क्षमता 2,08,700 cubic meter है।
भातसा :- भातसा झील मुंबई से  लगभग दूर शाहपुर में स्थित है इसकी ऊंचाई 88.5 m (290 ft),लम्बाई 959m  or 3146 ft एवं  इसकी भण्डारण क्षमता 226,025 cu mi है इसे 1983 में पूरा किया गया 
तुलसी झील :-  तुलसी लेक मुंबई के संजय गाँधी नेशनल पार्क, बोरीवली में स्थित है।  इसे   1872 में बनाना शुरू किया गया एवं 1897 में इस झील का कार्य पूर्ण कर लिया गया इसका सरफेस एरिया 1.35 K.M. एवरेज डेप्थ 12 मीटर या 39 फीट है। तुलसी झील की भण्डारण क्षमता केवल 8,046 मिलियन लीटर है।

विहार झील :- 1845 में मुंबई के लोगों को जब पीने के पानी की ज़बरदस्त तंगी महसूस हुई तो इसके लिए उनके द्वारा बाकायदा आंदोलन किया गया तब  ब्रिटिश सरकार ने दो लोगों की एक समिति इस समस्या के समाधान के लिए बनाई , इस समिति के सदस्य कैप्टेन क्राफोर्ड ने मानसून के दौरान जल संग्रहण की योजना का खाका पेश किया  जिसकी अनुमति मिलने के पश्चात १८५६ में विहार लेक का कार्य शुरू हुआ व १८६० में यह कार्य पूर्ण हो गया। तब से इस लेक द्वारा मुंबई के लोगो की प्यास बुझाई जा रही है।  इस लेक का  केचमेंट एरिया 18.96 k.m. , surface area 2.7 sqa mi, Max depth 34 m (112 ft) एवं  विहार झील की भण्डारण क्षमता केवल  27,698 मिलियन लीटर है।
मोदक सागर:- मोदक सागर झील महाराष्ट्र के थाना जिला के अंतर्गत आती है, इसका सरफेस     एरिया 80.42 m  इसकी भण्डारण क्षमता 16,500,000,000 imp gal है ।
अब प्रश्न फिर वही है कि  2005 में जहाँ मुंबई की आबादी 1,78,91,000 (Growth-15,24,000)  2010 में  1,94,22,000 (Growth-15,31,000) 2015 में  2,10,43,000 (Growth-16,21,000) 2018 में  2,20,46,000 (Growth-10,03,000) की तेजी से दर्ज की जा रही है तो सरकार और BMC क्यों सोई हुई है। अगर मुंबई की जनसंख्याँ इसी तेजी से बढती रही तो वो दिन दूर नहीं जब लोग पानी के लिए त्राही त्राही करेंगे और मजबूर होकर लोग 1845 की तरह फिर से आंदोलन करने के लिए बाध्य होंगे ।सरकार कुछ  नई झीलें बनाने के विषय में क्यों नहीं सोच रही है । वर्तमान झीलें इस बढती आबादी को झेलने के लिए तैयार नहीं हैं हमें समय रहते चेतना होगा अन्यथा अपनी बर्बादी के लिए हम स्वंम जिम्मेदार होंगे। कहीं ऐसा ना हो कि बुंदेलखंड के पन्ना ( झिरिया यानि पत्थरों के बीच अस्थायी गढ्ढे खोदकर पानी निकालना ) में जिस प्रकार लोग दो बूंद पानी के लिए मोहताज हैं आज नहीं तो कल ये स्थिति यहाँ भी हो सकती है।

-प्रदीप भट्ट -