Wednesday, 28 October 2015

छद्म साहित्यकार

छ्द्म साहित्यकार  बनाम वास्तविक साहित्कार
      अभी तक कुल 27 साहित्यकारों(?) ने अपने –अपने सम्मान सरकार को लौटा दिये हैं। उनमे 28 वां नाम जुड़वाने का प्रयास किया उर्दु के जाने माने शायर मुनव्वर राणा ने । उन्होने समय का भी बिलकुल सही चुनाव किया। कल ABP News चेनल ने कुछ जाने माने साहित्कारों और राजनीति से संबद्ध रखने वाले श्री संबित पात्रा,राकेश सिन्हा और अतुल अंजान शायद सीपीआई से, को चर्चा के लिए आमनत्रित किया था। सभी ने अपने- अपने विचार रखे। चर्चा का लाब्बोलुयाब यह कि वे सभी इस बात से दुखी थे कि देश मे इस समय साहित्यकार अपने आप को सुरक्षित महसूस नही कर पा रहे हैं।
      उपरोक्त मे ऐसे कई साहित्यकार भी थे जो कि सम्मान लौटने के पक्ष मे बिलकुल नही थे, उनमे पद्मा सचदेव जिनहे 1970 मे साहित्य सम्मान से नवाजा गया था प्रमुख रही।किन्तु श्री मुनव्वर राणा जिन शब्दो के साथ अपनी बात राखी उन शब्दो पर किसी ने भी आपत्ति दर्ज नही जिससे वहाँ बैठे अन्य साहित्यकारों(?) की दोहरी मानसिकता का परिचायक है। मै यहाँ मुनव्वर राणा के शब्दो को ज्यों का त्यों रखने का प्रयास कर रहा हूँ।
      “ मैंने अपने लड़के की शादी मे दहेज मे मिट्टी के बर्तन लिए थे जिनहे मैंने अपने घर मे शोकेस मे सज़ा रखा है। कोई भी आकार देख सकता है। मैंने जब इस पुरुसकर को लौटने का सोचा तो इसे ढूंढ कर निकाला ये कहीं कबाड़ मे पड़ा हुआ था। मै इसके साथ ये एक लाख रुपए का कोरा चेक आपको दे रहा हूँ इसे किसी किसी अस्पताल मे/ कोई मरीज मर रहा हो तो दे देवें। आगे से मै सरकार से कोई  पुरुसकर नही लूँगा, ये भी गलती से ले लिया। अंत मे उन्होने जो कहा वो और भी शर्मिंदगी भरा था कि साहब हम तो रायबरेली से ताल्लुक रखते हैं, सत्ता हमारे शहर कि नालियो से होकर दिल्ली पहुँचती है”।
      एक तो बेवजह उन्होने सहितयकारों को भी हिन्दू मुसलमान मे बांटने का एक असफल प्रयास किया जिस पर किसी ने भी तवज्जो नही दी।उनका ये कहना कि मुसलमान का लड़का पटाखा भी फोड़ दे तो ....... वो साबित क्या करना चाहते हैं। दादरी घटना से क्या वास्तव मे उनके अंदर बैठा साहित्यकार इतना विचलित हो गया कि पुरुसकर लौटने का निर्णय ले लिया तो फिर कश्मीर का कत्ल-ए-आम,संसद पर हमला, मुजफ्फर नगर दंगा,भागलपुर दंगा ,26/11 मुंबई पर आतंकवादी हमले से उनके अंदर बैठा साहित्कार विचलित नही हुआ ? फिर उनकी नज़र और इरादे पर भी प्रशवाचक चिन्ह है। उनका ये कहना की साहित्य की ट्राफी कबाड़ से निकाली इसका अर्थ ये हुआ की उनके लिए इस पुरुसकर की कोई कीमत नही है उन्हे दहेज मे मिले मिट्टी के बर्तन ज्यादा कीमती लगते हैं। फिर कोई मरता हुआ मरीज क्यो उनका चेक लेगा क्या उसका आत्म-सम्मान उसे इसकी इजाज़त देगा। मेरा मानना है हर्गिज नही। मैं उन्हे साहित्यकार मानने से ही इंकार करता हूँ और जिन्होंने ये पुरुसकर दिया है उनकी मंशा पर भी संदेह व्यकत  करता हूँ। अगर साहित्कारों का चरित्र इसी तरह दोतरफा है तो ऐसे साहित्कारों से तोबा। उनका यह कहना कि सत्ता रायबरेली शहर कि नालियों से होकर गुजरती है उनकी विदीर्ण मानसिकता को ही प्रदर्शित करती है।
      अंत मे मे निदा फाजली को इन सब छदम साहित्कारों से ऊपर रखता हूँ जिनहोने सिर्फ हिन्दू मुसलिमे से इतर भी  अपने बेबाक विचारो से उजाले की रोशने बनने का काम किया है। सम्मान न लौटा कर उन्होने इस छीजती हुई इस व्यवस्था पर एक नज़्म लिखकर अपना सही विरोध दर्ज कराया है।


              ::::::::::::: प्रदीप भट्ट :::::::::::::::: 28:10:2015

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