“जैसा बोवोगे वैसा ही काटोगे”
"Humans are the only creatures in this world without the trees, make
paper from it and then writ “Save The Trees’ on it”
1997
मे मैंने आस्ट्रेलिया के एक वैज्ञानिक का लेख पढ़ा था जिसमे बताया गया था कि ओज़ोन
परत लगातार फैल रही है और उसके फैलने से पर्यावरण पर बुरा असर बढ़ रहा है। तभी पहली
बार अलनिनों नामक बला से भी परिचय हुआ कि जब जब अलनिनों सक्रिय होता है तब तब उसके
असर से सूखे जैसे हालत हो जाते हैं। उस लेख मे ये भी बताया गया था कि धीरे धीरे
समुद्र का जलस्तर बढ़ता जाएगा और और 30 सालों मे आधा इंग्लैंड, श्री लंका मलद्वीप, मौरिशश जैसे द्वीप व अमेरिका के
कुछ शहरों के अतिरिक्त जहां जहां समुद्र मौजूद है उन जगहों का नाम-ओ-निशान मिट
जाएगा। भारत के विषय मे बताया गया था कि भारत मे बंगाल की खाड़ी, बॉम्बे (मुंबई) तमिलनाडू, गोवा,उड़ीसा और आन्ध्र प्रदेश के कई बड़े हिस्से समुद्र मे समा जाएंगे।इसी के साथ
2008 मे इंडिया टुडे मेगज़ीन का कवर पेज मुझे आज भी याद है जिसमे गेटवे ऑफ इंडिया
को पानी मे आधा डूबे हुआ दिखाया गया था। इसी लेख से प्रभावित होते हुए मैंने सन
2000 मे “इक्कीसवीं सदी बनाम विकास और विनाश” से एक लेख तैयार किया था जिसे किसी
भी समाचार –पत्र या मेगज़ीन ने छापने का कष्ट नहीं किया। मैंने उसे जहां जहां भी
छपने हेतु भेजा उनमे से कुछ ने खेद के साथ वापिस कर दिया और एक मेगज़ीन ने तो मेरे
उठाए गए मुद्दे और पर्यावरण को हो रहे नुकसान की बात को कोरी गप्प मानकर खारिज कर
दिया।खैर ये लेख लिखने का विचार इस बात से आया कि कुछ दिनो पहले ही प्रधानमंत्री
महोदय विश्व पर्यावरण सम्मेलन से वापिस लौटे हैं । अच्छी बात ये है कि वो विश्व
बिरादरी को पर्यावरण को नुकसान न पहुंचे इस पर अपनी गहन चिंता से बखूबी अवगत करने
मे न केवल कामयाब हुए बल्कि उनके सौर ऊर्जा पर निर्भरता बढ़ाने को पूरा समर्थन भी
हासिल हुआ।
आखिर क्या है ये ग्लोबल वार्मिंग
पृथ्वी के वातावरण मे 78 प्रतिशत Nitrogen,और 21 प्रतिशत ओक्सीजन है।ग्रीन हाउस गैस मात्र 1 प्रतिशत है। पर्यावरण मे
यही 1 प्रतिशत ने उथल पुथल मचा रखी है। बात अगर अब से 60
वर्ष पूर्व की जाय तो ये समझ मे आता है कि पृथ्वी का लगभग 33 प्रतिशत हिस्सा ऊँचे
और घने जंगलों से आबाद था। और मनुष्य उन जंगलों को साथ लेकर ही अपने विकास पर ध्यान
केन्द्रित करता था किन्तु 1945 के पश्चात (6 अगस्त और 9 अगस्त-1945 दितीय विश्व
युद्ध के समय पर जापान पर अमेरिका द्वारा परमाणु बम गिराए गये थे) विज्ञान और
तकनीक अपने पूरे ज़ोर से उभर कर सामने आई। मनुष्य कि नज़र मे ये विकास का एक
महत्वपूर्ण दौर था जिसमे उसने आगे आने वाले विनाश की गूंज अनसुनी कर दी । इस समय
तक ओज़ोन परत से पृथ्वी तक सूर्य से निकालने वाली अल्ट्रा वायलेट किरणें पृथ्वी को
नुकसान नहीं पहुँचती थी किन्तु विकास की अंधाधुंद दौड़ ने ओज़ोन परत को छेदना शुरू
कर दिया।नये –नये ऐसे उद्योग लगने लगे और इस प्रक्रिया के दौरान उन उद्योगों ने CFC
(क्लोरो फ़्लोरो कार्बन) का उत्पादन जाने अनजाने शुरू कर दिया
परिणामस्वरूप लोगों को नई- नई बीमारियों ने घेरना शुरू कर दिया। जब तक CFC के परिणामों की समीक्षा का निर्णय लिया गया या ये कहे कि उस पर गौर किया
गया तब तक काफी देर हो चुकी थी।
16 सितंबर 1987 को
मोंट्रियल मे 189 देशो के मध्य इस विश्वव्यापी समस्या के निराकरण हेतु इस बात पर सहमति बनी कि ओज़ोन परत को और अधिक नष्ट
होने से बचाने के लिए उद्योगो से निकलने वाली गैसों ( हैलोन -1211,1301,2401) (सीएफ़सी-13,111,112) आदि पर चरणबद्ध ढंग से समाप्त
किया जाएगा।किन्तु ऐसा पूर्ण रुपेन हुआ नहीं। मनुष्य ने दूसरी जो सबसे बड़ी भूल की
वह यह थी कि उसने प्राकर्तिक संसाधनों को बेवजह दोहन किया जिससे हालत और ज्यादा
बिगड़ते चले गये ।यहाँ यह उल्लेखनीय है कि उद्योगों से कार्बन उत्सर्जन मे ओज़ोन परत
को सबसे ज्यादा नुकसान जीवाश्म ईंधन ही पहुंचाता हैं। एक रिसर्च के अनुसार आठ अरब
मीट्रिक टन से अधिक ग्रीन हाउस गैसें वायुमंडल मे छोड़ी जाती हैं। विवरण
निम्नप्रकार से है :
1. जीवाश्म
ईंधन - 57 प्रतिशत
2. सीएफ़सी
- 17 प्रतिशत
3. कृषि
गतिविधियां - 14 प्रतिशत
4. जंगलों
की कटाई इत्यादि - 09 प्रतिशत (Carbon- die- Dockside)
5. औद्योगिक
गतिविधि - 03 प्रतिशत (Carbon- die- Dockside)
16वीं सदी मे बारूद का आविष्कार हुआ था। वैसे
भी तापमान मे बढ़त सिर्फ उद्योगों से ही नहीं परमाणु परीक्षणों से आण्विक आयुधों की
होड भी ऐसे स्थिति उत्पन्न करने मे कम सहायक नहीं है। आजकल लड़ाई मे केवल बंदूक का ही प्रयोग नहीं
होता वरन बमो (जैविक और रसायनिक) का भी प्रयोग धड्ड्ले से प्रयोग किया जाता
है।इसलिय वायुमंडल मे Carbon- die- Dockside, Nitrogen, कार्बन Mono dockside,
Nitrogen-die- Dockside की मात्र अत्यधिक बढ़
जाती है जिसका प्रभाव घटक होता है। यह कार्बन वायुमंडल मे देर तक टीका रहता है कार्बन सौर किरणों के विकिरण को अपने
अंदर सोखने का विशिष्ट गुण रखते हैं इसी कारण सौर विकिरण शोषित करने के कारण
वायुमंडल का बढ़ा देते हैं। इसे ही वैश्विक स्तर पर ग्लोबल
वार्मिंग कहते हैं। विश्व स्वास्थ संगठन के मुताबिक 1710 से 1960 तक ग्रीन
हाउस गैसों मे Carbon- die- Dockside की बढ़ोत्तरी मात्र 20 प्रतिशत थी। इसके उलट
1960 से 1990 तक यही बढ़ोत्तरी 30 प्रतिशत हो गई। दुनिया मे ग्रीन हाउस गैसों के
उत्सर्जन मे अमेरिका सबसे आगे है । उसकी अकेले की भागीदारी 25 प्रतिशत से अधिक है।
कार्बन उत्सर्जन पर लगाम लगाने वाली कई योजनाओ का क्रियान्वयन भी किया जा रहा है
इनहि मे शामिल है कार्बन ट्रेडिंग या कार्बन क्रेडिट। इसके तहत हर देश एक तय सीमा
से अधिक कार्बन डाई डॉक्साइड का उत्सर्जन नहीं कार सकता अन्यथा उसे देश पर
जुर्माने का प्रावधान रखा गया हैं किन्तु एक सत्य यह भी है कि अगर कोई देश तय सीमा
से कम उत्सर्जन करता है तो वो देश अन्य देशों को बेच कार भरी धनराशि एकत्र कार
सकता है। 1990 के बाद मे विकसित किए गये
जंगलो को उनके विकास के आधार पर पर कार्बन डाई डॉक्साइडक्रेडिट दिया जाता हैं
इन जंगलों के स्वामी इस क्रेडिट को अधिक प्रदूषण फैलाने वाले ओद्योगिक संस्थानो को
बेचकर अच्छा खासा पैसा बना सकते हैं।मतलब ये कि जिस देश मे जितनी अधिक हरियाली
होगी, उस देश के आर्थिक खुशहली मे भी उतनी ही बढ़ोतती
होगी।1997 मे क्योटो संधि के अंतर्गत कार्बन क्रेडिट के अवधारणा बनी ।क्योटो संधि
के तहत कुल 38 ओद्योगिक देश कार्बन उत्सर्जन मे कटोती करने के लिए प्रतिबद्ध हुए ।
उपरोक्त सभी
कारणो से पृथ्वी का तापमान 1000 वर्षों मे 0.2 Degree Centigrade के हिसाब से बढ़ रहा है। अध्ययन से पता
चला है की 2006 से 2100 तक पृथ्वी के तापमान मे 1.1 degree centigrade की बढ़ोत्तरी होनी निश्चित है। पृथ्वी पर मौजूद 75000 से अधिक वन्यजीव
प्रजातियों मे से 50000 कीट वर्ग,140 मोलस्क व आक्षेरुकीय
प्रजातियों,420 से अधिक सरिसर्प,1200 से
अधिक पक्षी और 340 से अधिक स्तनधारियों का अस्तित्व खतरे मे पड़ गया है।2001 से
2005 तक पिछले रेकॉर्ड के मुताबिक 20000 वर्षों मे सबसे अधिक गरम समय रहा है। ताजा
आँकडों के अनुसार वर्ष 2015 अभी तक का सबसे अधिक गरम वर्ष रेकॉर्ड किया गया है।
नासा के गोडार्ड इंस्टीट्यूट फॉर स्पेस स्टडीस के अध्ययन के मुताबिक पृथ्वी का
तापमान यदि 1 Degree Centigrade और बढ़
गया तो यह पिछले 10 लाख वर्ष मे सर्वाधिक तापमान होगा। जलवायु परिवर्तन पर बने
अंतर्राष्ट्रीय पैनल ने सन 2001 मे अपनी पहली रिपोर्ट रखी थी जिस पर ज्यादा
तव्व्जो नहीं दी गई तत्पश्चात 8 अप्रैल-2007 को ब्रूसेल्स मे रखी गई रिपोर्ट मे
113 देशों के 620 शीर्ष वैज्ञानिकों ने अपनी सेवाएँ प्रदान की । उस रिपोर्ट का
लब्बो लुआब ये था की सन 2100 तक 2.8 लोग पेयजल संकट का सामना करेंगे।पृथ्वी के
तापमान मे 3 से 5 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी होगी व विश्व की आबादी का लगभग 60 प्रतिशत
भाग मरेलरिया,डेंगू और अन्य तरह की बीमारियों से ग्रस्त हो
जाएगा।समुद्र के जलस्तर मे 29 -45 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी होगी जिससे विश्व के प्रमुख
समुद्रतटीय महानगरों की 1.3 करोड़ आबादी इनके डूबने के कारण बेघर हो जाएगी। इस डूब
मे नीदरलैंड का 6 प्रतिशत,मिस्र का 1 प्रतिशत,मार्शल द्वीप का 80 प्रतिशत शामिल है । अकेले यूरोप मे 25 लाख लोग बाढ़ से
पीड़ित होने व 20 प्रतिशत जैव –प्रजातियाँ लुप्त
हो जाएंगी। भारत मे 25-30 प्रतिशत लोग भूख से मरने के लिए मजबूर होंगे।
पूरे विश्व मे जो पर्यावरण संरक्षण की मुहिम
चलाई जा रही है आखिर वो उपजी कैसे। इस समस्या को इतना पढ़ने से पूर्व ही रोका क्यों
नहीं गया। क्या विश्व मे अपने आप को दारोगा की हैसियत से स्थापित करने वाले
अमेरिका ने विकास की अंधी दौड़ की शुरुआत नहीं की और उसका साथ रूस (सोवियत संघ) और European देशो ने नहीं दिया ? आज हर देश का नागरिक डर केसाये
मे ज़िंदगी जी रहे हैं कि पता नहीं कब सुनामि आ जाए और लाखो लोगो कि ज़िंदगी लील
जाए।पता नहीं कब ज्वालामुखी सक्रिय हो और मिलों तक बस विनाश के ही अंश शेष रह जाएँ। आखिर क्यों नहीं हम अपनी
आकांशाओ पर काबू पाते। विकास कि अंधी दौड़ मे मनुष्य बस भागे जा रहा है बिना ये सोचे
कि इसके परिणाम कितने भयावह होते जा रहे हैं। आखिर रहने के लिए एक घर और खाने के
अनाज की ही तो दरकार है फिर अपनी अनंत इच्छाओ की पूर्ति हेतु मनुष्य क्यों इस
खूबसूरत पृथ्वी पर से सब जीव जन्तुओ पशु पक्षियों को नष्ट करने पर आमादा है।
इस बढ़ते प्रदूषण से क्या गाँव क्या शहर सब
प्रदूषित होते जा रहे हैं। जो प्रक्रति हमे इतना कुछ देती है हम उसे दिन ब दिन
नष्ट करने के नित नये उपाय अपना रहे हैं। सबसे बड़ी गलती मनुष्य ने वनों का संरक्षण
न करके उनके विनाश के बीज ज्यादा बोये हैं। भारत मे इस विषय मे चंडी प्रसाद भट्ट
(उत्तराखंड) जो की “चिपको आंदोलन” के जनक हैं ने
काफी प्रयास किए किन्तु ये प्रयास सिर्फ उत्तराखंड तक ही सीमित होकर रह गये । बड़े
बड़े बाँध बनाने से सिचाई की फौरी वयवस्था तो हो जाती है किन्तु उसके लिए लाखो
पेड़ों को काट दिया जाता है। उत्तराखंड और अन्य राज्यों मे जो बाढ़ ने जो तांडव किया है उसे अभी तक सहमे हुए हैं।नदियों
पर तटबंध बनाने से उंजौ मिट्टी मिलनी बंद हो जाती है। जिन भी इलाको के इसको आजमाया
गया है वहाँ पर भूजल का स्तर नीचे हो गया हैं और पेड़ खत्म होते जा रहे हैं।इस विषय
मे यह विशेष है कि लबे समय तक पेड़ कि जड़ मे एक निश्चित ऊंचाई पर पानी विद्यमान रहता
है उसके ऊपर से पेड़ कमजोर पड़ जाता है। जिससे तेज हवा या आँधी आने कि स्थिति मे वह
जड़ से ही उखड़ जाता है। बिहार राज्य की सरकार के वन विभाग ने बड़े पैमाने पर शीशम के पेड़ लगवाए थे किन्तु वे एक के बाद एक
सब सूख गये।मतलब पुराने काट लिए गये तो रहे नहीं और नये आए नहीं तो वर्षा का पानी
ठहरेगा कैसे । परिणाम स्वरूप वर्षा के लिए
आवश्यक कारक पेड़ों के नहीं होने से मौसम का मिजाज बादल गया है और कहीं
अतिव्रष्टि और कहीं सूखा पड़ रहा है।
श्रीमदभागवत गीता मे प्रलय के विषय मे
रोमांचक व भयावह वर्णन मिलता है । प्रलय चार प्रकार की होती है।
1.नित्य यानि
सुक्ष्तम स्तर (जीवों का जन्म-मरण,पदार्थों
की उत्पत्ति और विनष्टि) “यो यं सन्द्र्श्यते नित्य ,लोकं भूत्क्षयास्थितव्ह” (कूर्म पुराण)।
2.नैमित्तिक प्रलय – सभी पुराणो मे एक जैसा
ही वर्णन वर्णित है।युगांत –4 अरब 32 करोड़ वर्ष के पश्चात) अर्थात सूर्य की
सभी सातों रश्मियां सात सूर्यों मे
परिवर्तित हो जाती हैं व पाताल लोक तक सभी कुछ भस्म कर देती हैं।
3. एकार्णव-अर्थात –पृथ्वी कछुए की पीठ की
तरह कठोर हो जाती है और सब कुछ नष्ट
होने की शुरुआत होने लगती है।
4.-प्राक्रत- यानि जब विश्व मे क्षीणप्राय
पृथ्वी तल पर सौ वर्षो तक वर्षा नहीं
होगी। अतुपरान्त भाषण गर्जन के साथ पृथ्वी पर उपलब्ध सभी प्रकार की वनस्पतियों का अकाल पड़ जाएगा। तब पृथ्वी पर सर्वत्र जल ही जल होगा ।
कुछ इसी प्रकार का वर्णन अन्य धार्मिक ग्रंथो
मे भी विद्यमान है। अगर प्रलय होना निश्चित है तो होकर रहेगी लेकिन क्या आवश्यकता
है की हम उसे समय से पूर्व ही आमंत्रित करें।
No comments:
Post a Comment