“निदा
(स्वर) फ़ाजली” एक अज़ीम शायर”
निदा फ़ाजली
(1938-2016)
इससे पहले कि मैं मरहूम
शायर निदा फ़ाजली के विषय मे कुछ
लिखने का प्रयत्न करूँ ये बता देना अपना फर्ज़ समझता हूँ कि मेरा उनसे कोई
व्यक्तिगत परिचय कभी नहीं रहा । जैसे भारतवर्ष मे उनको पसंद करने वाले बहुत से लोग
हैं मैं भी उनमे से एक हूँ । उनके विषय मे लिखने का खयाल भी इसलिए आया कि उनको
किसी धर्म या जाति से तौल कर कभी किसी ने नहीं देखा या ये कहें कि उन्होने इसका
मौका कभी भी किसी को दिया भी नहीं। अपनी बात तो सीधे और सरल शब्दों मे कैसे बयान
किया जा संकता है, ये उनको पढ़ने और पसंद करने वाले भली प्रकार जानते
हैं।
निदा के पुरखे कश्मीर के
फ़ाज़िला इलाके से दिल्ली मे आकार बस गए थे ।निदा का जन्म 12 अक्तूबर 1938 को दिल्ली
मे हुआ। ये अपने वालिद(श्री मुर्तुजा हसन व अम्मी फातिमा बेगम,जो बाद मे हिन्दू मुस्लिम दंगो से तंग आकार पाकिस्तान मे जाकर बस गए) की
वे तीसरी संतान थे। निदा दिल्ली से ग्वालियर आ गए उनका बचपन और शिक्षा
-दीक्षा ग्वालियर (मध्य प्रदेश) मे हुई।
विक्टोरिया कॉलेज से 1958 मे उन्होने बीए
की पढ़ाई पूरी की। लिखने का शौक़ निदा ने बचपन से ही पाल लिया था। कॉलेज की पढ़ाई के
दौरान एक दुखद घटना से वे बहुत व्यथित हुए। एक लड़की जिसका सरनेम टंडन था उसकी एक
दुर्घटना मे मृत्यु हो गई। अपने दुख को वे व्यक्त नहीं कर पा रहे थे उन्हे लगा की
उन्होने अभी तक जो कुछ भी लिखा है वो इस दर्द को कम करने के लिए नाकाफी है। उसी
दुख और विरह मे वे एक दिन एक मंदिर के पास से गुजर रहे थे कि उन्होने किसी को
सूरदास का भजन “ मधुबन तुम क्यों राहत हरे ? बिरह बियोग
स्याम सुंदर के ठाढ़े क्यों न जरे ?(इस गीत मे गोपिया और राधा
कृष्ण के मथुरा से जाने के पश्चात फूलो और से कह रही हैं कि तुम अभी तक कैसे हरी
हरी दिखाई क्यों दे रही हो तुम वियोग मे जल क्यों नहीं गई । इस गीत को सुनते -सुनते
ही निदा को अहसास हुआ कि उनकी उलझनों कि
सभी गिरह खुलती जा रही हैं। इसके बाद निदा ने तुलसी ,कबीर बाबा फरीद और अन्य कई महान कवियों को
पढ्न शुरू किया । यही उन्हे ये भी अहसास हुआ कि इन महान कवियों ने कैसे गूढ बातों
को बड़े ही सरलीय भाषा मे व्यक्त किया है।
1964 मे निदा मुंबई (तब
का नाम बॉम्बे) काम कि तलाश मे आ गए । उस समय बॉम्बे से प्रतिष्ठित साप्ताहिक
धर्मयुग और सारिका पत्रिका का प्रकाशन होता था वे धर्मयुग ब्लिट्ज़ के लिए लिखने
लगे उनकी सीधी और सरल शैली सभी को काफी पसंद आई । 1969 मे निदा के पहली उर्दू
कविता का संग्रह छपा। फिल्मों मे लिखने का मौका उन्हे कमाल अमरोही ने दिया जो उस
समय रज़िया सुल्तान बना रहे थे और जाँनिसार अख्तर (जावेद अख्तर के वालिद) के
असामयिक निधन के पश्चात सोच रहे थे कि बाकी गाने किससे लिखवाएँ तभी उन्हे जाँनिसार
अख्तर जो स्वम भी ग्वालियर से थे की बात याद हो आई जिसमे उन्होने निदा के ख़ालिस
उर्दू बोलने और लिखने के विषय मे बताई थी। उन्होने तुरंत उनसे संपर्क साधा और
रज़िया सुल्तान के बाकी बचे दो गाने लिखने का आग्रह किया। उनका पहला फिल्मी गीत “
तेरा हिज़्र मेरा नसीब है तेरा गम मेरी हयात है “
“और दूसरा आई जंजीर कि झंकार खुदा ख़ैर करे”(जिसे कब्ब्न मिर्जा ने गया है )
इसके बाद तो उनका ये हुनर चल निकला।अपनी पुस्तक “मुलाकातें” मे दरबारी कवियों
और लेखको का जिक्र किया है जिससे काफी लोग उनसे नाराज़ हो गए और उन्होने उनका
सामाजिक बहिष्कार कर दिया किन्तु निदा अपनी बात पर अड़े रहे और चाटुकारिता को कभी
तरजीह न दी । एक वाकया उनके साथ पाकिस्तान मे हुए एक मुशायरे मे हुआ जब उनके लिखे
एक शेर “ घर से मस्जिद है बहुत दूर, चलो कुछ यूं कर ले
/किसी रोते हुए बच्चे को हँसाया जाए।“इस शेर पर वहाँ के मुल्लाओं ने इसे खुदा कि
शान मे गुस्ताख़ी समझा और काफी हो हल्ला किया तब निदा ने कहा कि बच्चे तो खुद
अल्लाह का रूप हैं और मस्जिद को इंसान के हाथ चिनते हैं और साथ मे ये भी जोड़ दिया
कि अल्लाह कि एक ही बेटी है जिसका नाम है तहरीर।
उन्होने
कवि संग्रह “लफ़्जो के फूल, मोर नाच, आँख और ख़्वाब के
दरमियाँ ,खोया हुआ सा कुछ (1996,(1998 ) जिसे साहित्य अकादमी पुरुसकर से नवाजा गया। आंखो भर आकाश और सफर
मे धूप तो होगी । उनकी आत्मकथा दीवारों के बीच,दीवारों के
बाहर और निदा फ़ाजली जिसके संपादक –स्वर्गीय क्न्हैय्या लाल नंदन ) उनके लिखे
संस्मरण- सफर मे धूप तो होगी, तमाशा मेरे आगे और मुलाक़ातें।
1998 साहित्य अकादमी पुरस्कार - काव्य संग्रह खोया हुआ सा कुछ (1996) पर - Writing
on communal harmony National Harmony Award for writing on
communal harmony.2003 मे स्टार स्क्रीन पुरस्कार - श्रेष्टतम गीतकार - फ़िल्म 'सुर के लिए। 2003 मे ही बॉलीवुड मूवी
पुरस्कार - श्रेष्टतम गीतकार - फ़िल्म सुर के गीत आ भी जा' के लिए। मध्यप्रदेश सरकार
का मीर तकी मीर पुरस्कार (आत्मकथा रुपी उपन्यास दीवारों के बीच के लिए)। मध्यप्रदेश
सरकार का खुसरो पुरस्कार - उर्दू और हिन्दी साहित्य के लिए। महाराष्ट्र उर्दू
अकादमी का श्रेष्ठतम कविता पुरस्कार - उर्दू साहित्य के लिए।बिहार उर्दू अकादमी
पुरस्कार,उत्तर प्रदेश उर्दू अकादमी का पुरस्कार,हिन्दी उर्दू संगम पुरस्कार (लखनऊ) - उर्दू और हिन्दी साहित्य के
लिए।मारवाड़ कला संगम (जोधपुर),पंजाब एसोशिएशन (मद्रास -
चेन्नई)कला संगम (लुधियाना)। और अंत मे भारत सरकार द्वारा दिया जाने वाला
प्रतिष्ठित पुरुसकर पद्मश्री उन्हे 2013 मे प्रदान किया गया ।
निदा ने
उसे दौर मे फिल्मों मे लिखना शुरू किया जब फिल्मी गीत अपने पूरे शबाब पर थे, गीतो के कुछ माइने होते थे ।अल्फ़ाजों की अहमियत होती थी ।संगीतगर बिना
शायर की इजाजत के एक भी लफ़्ज़ इधर उधर नहीं कर सकता था क्यों की फिल्म की स्टोरी
लाइन पर फिल्मी गीत लिखे जाते थे। गीतों
या गजलों से ऐसा लगे कि फिल्म कि कहानी बयां की जा रही है । पिछले
एक दो दशक मे जो गीत (भोंडापन )लिखे जा रहे हैं उनका तो न सुनना ही कानो के लिए
अच्छा है । ऐसा भी नहीं कि आज के दौर मे शायर नहीं हैं लेकिन उनके लिखने लायक
फिल्मे भी कहाँ बनती हैं ।शुक्र है गुलजार और जावेद, इरशाद
कामिल और प्रसून जोशी उस मशाल को थामे रखने का प्रयास करते नज़र आ रहे हैं।
:::::प्रदीप
भट्ट ::::::::17.02.2016
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