“मेरा
प्यारा उत्तराखण्ड”
“देव-भूमि ये,तपो भूमि
ये,करें देवता भी वंदन,
जग से न्यारा, सबसे प्यारा
“उत्तराखण्ड”
(प्रदीप
भट्ट)
uttrakhand MAP
मैं कई माह से सोच रहा था कि उत्तराखंड मे जन्म तो हो गया किन्तु
मै उत्तराखंड के विषय मे कितना जनता हूँ।बस इसी विचार ने ये लेख लिखने के लिए
प्रेरित किया ।आखिर उत्तर प्रदेश से प्रथक हुए उत्तराखंड को 15 बरस से अधिक हो चुके हैं। मै इस विषय मे
जानकारी (नेट और अन्य तरीकों) जुटा ही रहा था तभी खबर आई कि उत्तराखंड के वनों मे
बड़े पैमाने पर आग लग गई है। स्वत: (प्राकार्तिक रूप से) से लग आग लगना समझ मे आता
है लेकिन आग का दायरा अगर 2500 हेक्टेयर वनों को लीलने लगे तो इसमे साज़िश की बू
आनी स्वाभाविक है। आज तक प्राप्त हुई सूचना अनुसार अब तक इस आग ने कई ज़िंदगियों को
लील लिया है।उत्तराखंड का कोई भी जिला इससे अछूता नहीं है। आज हालत बद से बदतर
होते जा रहे हैं। शनै: शनै: उत्तराखंड की
आग हिमाचल और जम्मू-काश्मीर के जंगलों को
भी अपनी चपेट मे लेने को आतुर नज़र आती है। चूँकि वर्तमान मे उत्तराखंड मे
राष्ट्रपति शासन लगा हुआ है अतएव राज्य और केंद्र सरकार की तमाम शक्तियाँ इस विपदा
से पार पाने को जूझ रही हैं। सरकार ने 2 MI-17 हैलिकोप्टर,NDRF,SDRF की
2-2 बटालिनों के अतिरिक्त सेना को भी इस काम मे सहयोग के लिए लगा दिया है। इसी के
साथ भारतीय वायु सेना की स्पेशल टीम नैनीताल के घोडाखाल और गढ़वाल के Air
force के हैलिकोप्टर से भीमताल और अन्य झीलों से पानी लेकर आग को
बुझाने का प्रयत्न कर रही है। इन सभी संबन्धित टीमों को satellite के जरिये जंगलों मे लगी आग पर पल प्रतिफल अपडेट किया जा रहा है। हम सब ईश्वर से प्रार्थना ही कर सकते है कि जितनी
जल्दी हो सके वर्षा (मौसम विभाग के अनुसार वेस्टर्न डिस्टर्बेंस के कारण)आ जाए और
इस आपदा से मुक्ति मिल जाए। चलिये अब उत्तराखंड के विषय मे कुछ जानकारी साझा करते
हैं।
बेरोज़गारी, ग़रीबी, पेयजल और उपयुक्त
आधारभूत ढांचे जैसी बुनियादी सुविधाओं
के अभाव और क्षेत्र का विकास न होने के कारण उत्तराखण्ड की जनता को आन्दोलन करना पड़ा। शुरुआत में आन्दोलन कुछ कमज़ोर रहा, लेकिन 1990 के दशक में यह ज़ोर पकड़ गया
और 1994 के मुज़फ़्फ़रनगर में इसकी परिणति चरम पर पहुँची। उत्तराखण्ड की सीमा से 20
किमी। दूर उत्तर प्रदेश राज्य
के मुज़फ़्फ़नगर ज़िले में रामपुर तिराहे पर स्थित शहीद स्मारक उस आन्दोलन का मूक गवाह है, जहाँ 2 अक्टूबर, 1994 को लगभग 40
आन्दोलनकारी पुलिस की गोलियों के शिकार हुए थे। लगभग एक दशक के दीर्घकालिक संघर्ष की पराकाष्ठा के रूप में पहाड़ी
क्षेत्र के सामाजिक-सांस्कृतिक मूल्यों की पहचान और बेहतर प्रशासन के लिए राजनीतिक स्वायत्तता हेतु उत्तरांचल राज्य का जन्म हुआ।
·
उत्तराखंड राज्य भारत के उत्तरी
भाग में स्थित है। इसका कुल इलाका 53,483 वर्ग किलोमीटर का है।
सन् 2011 की जनगणना के अनुसार राज्य की आबादी 1,00,86,292 है। पिछली
जनगणना के मुकाबले यह वृद्धि दर 19.17
प्रतिशत की थी। यहां पुरुषों
और महिलाओं का अनुपात 1000-963 है। उत्तराखंड का जनसंख्या घनत्व
189 प्रति वर्ग किलोमीटर है। राज्य की साक्षरता दर 79.63
प्रतिशत है। राज्य की सीमाएं तिब्बत, हिमाचल
प्रदेश और उत्तर प्रदेश के मैदानी इलाकों से जुड़ती हैं। राज्य की राजधानी
देहरादून देश की राजधानी दिल्ली से 240 किलोमीटर दूर स्थित है। उत्तराखंड में 13 जिले हैं: पिथौरागढ़, अल्मोड़ा, नैनीताल, बागेश्वर,
चंपावत, उत्तर काशी, उधम सिंह नगर, चमोली,
देहरादून, पौड़ी गढ़वाल, टिहरी गढ़वाल, रुद्रप्रयाग
और हरिद्वार।
·
कुमाऊँनी और गढवाली भाषाओँ का
उद्भव कैंतुरा शाशनकाल ( 650 ईस्वी से पूर्व) में हुआ। डा बिहारी लाल जालंधरी (2006) के गढ़वाली -कुमाउनी भाषाई ध्वनियों के अन्वेषण से भी सिद्ध हुआ है कि
कुमाउनी-गढवाली भाषाओं की माँ एक ही भाषा थीं। मध्य पहाड़ी की दो बोलियाँ कुमाऊँनी और गढ़वाली, क्रमशः कुमाऊँ और गढ़वाल में बोली जाती
हैं। जौनसारी और भोटिया दो अन्य बोलियाँ, जनजाति समुदायों
द्वारा क्रमशः पश्चिम और उत्तर में बोली जाती हैं। लेकिन हिन्दी पूरे
प्रदेश में बोली और समझी जाती है और नगरीय जनसंख्या अधिकतर हिन्दी ही बोलती है।
·
उत्तराखण्ड के मूल निवासियों को कुमाऊँनी या गढ़वाली
कहा जाता है जो प्रदेश के दो मण्डलों कुमाऊँ और गढ़वाल में रहते हैं। एक अन्य
श्रेणी हैं गुज्जर, जो एक प्रकार के चरवाहे हैं और दक्षिण-पश्चिमी
तराई क्षेत्र में रहते हैं।
देहारादून
उत्तराखंड
का नाम आते ही सुरम्य वातावरण, बड़े और आकर्षक हिमालयी पहाड़ों की श्रंखला का चित्रा आँखों के आगे तैर सा
जाता है। इस प्रान्त में वैदिक संस्कृति के कुछ सबसे महत्त्वपूर्ण
तीर्थस्थान हैं। अपनी भौगोलिक स्थिता, जलवायु,
नैसर्गिक, प्राकृतिक दृश्यों एवं संसाधनों की
प्रचुरता के कारण देश में प्रमुख स्थान रखता है। उत्तराखण्ड राज्य तीर्थ यात्रा और
पर्यटन की दृष्टि से विशेष महत्त्व रखता है। यहाँ चारों धाम बद्रीनाथ, केदारनाथ, यमुनोत्री और गंगोत्री हैं। पहाड़ों की रानी
के नाम से प्रसिद्ध “मसूरी”, झीलों की नगरी के नाम से प्रसिद्ध “नैनीताल”,IMA,एनडीए,देहारादून,जिम कॉर्बेट पार्क,सबसे
पवित्र नदी गंगा का उद्गम स्थल ‘गौमुख’,हरिद्वार,केदारनाथ बद्रीनाथ,एशिया
का सबसे बड़ा बांध “टिहरी” भी यहीं पर स्थित है। पहले पहाड़ी एरिया होने के कारण
उत्तराखंड का विकास केंद्र और राज्य सरकारों के उदासिनता के चलते नहीं हो रहा था। वर्तमान
उत्तराखंड राज्य 'आगरा और
अवध संयुक्त प्रांत' का हिस्सा था। यह प्रांत 1902 में बनाया गया। सन् 1935 में इसे 'संयुक्त प्रांत' कहा जाता था। जनवरी 1950 में 'संयुक्त प्रांत' का नाम 'उत्तर प्रदेश' हो गया।भारतीय गणतन्त्र में टिहरी राज्य का विलय अगस्त 1949 में हुआ और टिहरी को तत्कालीन संयुक्त प्रान्त
(उत्तर प्रदेश) का एक जिला घोषित किया गया। 1962 के भारत-चीन
युद्ध की पृष्ठ भूमि में सीमान्त क्षेत्रों के विकास की दृष्टि से सन 1960 में तीन सीमान्त जिले उत्तरकाशी,चमोली व पिथौरागढ़
का गठन किया गया। लोककथा के अनुसार पांडव यहाँ पर आए थे और विश्व के सबसे बड़े
महाकाव्यों महाभारत व रामायण की रचना यहीं पर हुई थी। हिन्दू धर्म के पुनरुद्धारक आदि शंकराचार्य के
द्वारा हिमालय में बद्रीनाथ
मन्दिर की स्थापना का उल्लेख आता है। शंकराचार्य द्वारा स्थापित इस
मन्दिर को हिन्दू मतानुसार चौथा और आख़िरी मठ मानते हैं।
gaumukh
भारतवर्ष के उत्तराखण्ड
में राजवंशों की शासन श्रृंखला के बारे में अनेक पत्र -पत्रिकाओं में
समय-समय पर जो लिखा जाता रहा है,
उसकी पांडुलीपियों और शिलालेखों से यहां के बारे में जो जानकारियां मिलती हैं वह
उत्तराखण्ड के प्राचीन इतिहास और सभ्यता को समृद्धशाली बनाती हैं। इतिहास के
जानकारों कि द्रष्टि में उत्तराखण्ड का इतिहास इतना समृद्धिशाली है और इसकी
पृष्ठभूमि इस तथ्य की पुष्टि करती है कि उत्तराखण्ड राज्य की आवश्यकता तो
स्वतंत्रता प्राप्ति के समय से ही थी। किन्तु दूरद्रष्टि ने होने और राजनैतिक
इच्छाशक्ति की कमी से यह महत्वपूर्ण हिम क्षेत्र उपेक्षा का शिकार होकर रह गया
अन्यथा यह क्षेत्र अब तक पर्यटन उद्योग का एक पमुख मॉडल होता और देश के अन्य
हिस्सों के लिए एक नजीर पेश करता।
आपको ये जानकार आश्चर्य होगा कि 1969 तक देहारादून को छोडकर सभी
जिलें कुमाऊँ मण्डल के अधीन थे।1969 मे गढ़वाल मण्डल की स्थापना की गई जिसका हैड
क्वार्टर पौड़ी को बनाया गया। देहारादून
जहां पर National Defiance Academy(एनडीए) और FRI
(फॉरेस्ट रेसेर्च इंस्टीट्यूट) जैसे प्रतिष्ठित संस्थान थे, के बावजूद भी 1975 तक देहारादून जिला
मेरठ प्रमंडल मे सम्मलित था।1975 के पश्चात ही देहारादून को गढ़वाल मण्डल मे
शामिल किया गया।विकास की बाट जोहते इस क्षेत्र के लोगों ने प्रथक राज्य कि मांग
रखी और आखिरकार लंबी लड़ाई के पश्चात नए राज्य के रुप में उत्तर प्रदेश के पुनर्गठन के
फलस्वरुप (उत्तर प्रदेश पुनर्गठन अधिनियम ,
2000) उत्तरांचल
राज्य का जन्म 9,नवम्बर -2000 को भारतीय गणतन्त्र के 27वें राज्य के
रूप मे इसका जन्म हुआ। किन्तु क्षेत्र के लोगों कि मांग को न मानते हुए केंद्र
सरकार ने इस प्रथक राज्य का नाम उत्तरांचल रख दिया जिसके लिए यहाँ के निवासियों ने
पुन: लड़ाई/आंदोलन का रास्ता चुना और अन्तत: लोगों की मांग का समर्थन करते हुए
केंद्र सरकार ने इसका नाम 1 जनवरी-2007 से उत्तरांचल से बदलकर उत्तराखंड कर दिया।
स्कन्द
पुराण के मुताबिक हिमालयी श्रंखला को पाँच भौगोलिक क्षेत्रों मे(खण्डा: पञ्च हिमालयस्य कथिताः नैपालकूमाँचंलौ केदारोथ जालन्धरोथ रूचिर
काश्मीर संज्ञोन्तिमः
विभाजित किया गया है। जिनका विवरण निमन्वत
हैं:-
1. हिमालय
क्षेत्र मे नेपाल
2. कुर्मान्चल(कुमाऊँ)
3. केदारखंड
यानि गढ़वाल
4. जालंधर
यानि हिमाचल प्रदेश
5. सुरम्य
यानि काश्मीर खण्ड
पुराणों के अनुसार राजा कुबेर के राज्य में आश्रम
में ऋषि - मुनि तप व साधना करते थे . अंग्रेज़ इतिहासकारों के अनुसार हुण , सकास , नाग , खश आदि जातियाँ भी हिमालय क्षेत्र में निवास
करती थी।पौराणिक ग्रन्थों में केदार खण्ड व मानस खण्ड के नाम से इस क्षेत्र का
व्यापक उल्लेख है ।इस क्षेत्र को देव - भूमि व तपोभूमि माना गया है। पौराणिक
ग्रन्थों में कुर्मांचल क्षेत्र मानसखण्ड के नाम से प्रसिद्व था . पौराणिक
ग्रन्थों में उत्तरी हिमालय में सिद्ध गन्धर्व, यक्ष,किन्नर , किन्नर
जातियों की सृष्टि और इस सृष्टि का राजा कुबेर बताया गया हैं . कुबेर की राजधानी
अलकापुरी (बद्रीनाथ से ऊपर) बताई जाती है। मानस खण्ड का कुर्मांचल व कुमाऊँ नाम
चन्द राजाओं के शासन काल में प्रचलित हुआ। ऐतिहासिक विवरणों के अनुसार केदार खण्ड
कई गढ़ों (किले) में विभक्त था। इन गढ़ों के अलग - अलग राजा थे, जिनका अपने अपने क्षेत्रों मे अपना - अपना आधिपत्य था। इतिहासकारों के
अनुसार पँवार वंश के राजा ने इन गढ़ों को अपने अधीनकर एकीकृत गढ़वाल राज्य की
स्थापना की और श्रीनगर को अपनी राजधानी बनाया। केदार खण्ड का गढ़वाल नाम
तभी प्रचलित हुआ। सन 1803 में नेपाल की गोरखा सेना ने
गढ़वाल राज्य पर आक्रमण कर उसे अपने अधीन कर लिया।यह आक्रमण यहाँ रहने वाले
बाशिंदों में गोरखाली के नाम से प्रसिद्ध है। महाराजा गढ़वाल ने नेपाल की गोरखा
सेना के आधिपत्य से राज्य को मुक्त कराने के लिए अंग्रेजो से सहायता मांगी थी
।अंग्रेजी सेना ने नेपाल की गोरखा सेना को
देहरादून के नजदीक 1815 में परास्त दिया। लेकिन गढ़वाल के तात्कालीक
महाराजा द्वारा युद्ध मे खर्च हुई निर्धारित धनराशि का भुगतान देने में असमर्थता जताने
पर अंग्रेजों ने सम्पूर्ण गढ़वाल राज्य को राजा गढ़वाल को न सौंप कर अलकनन्दा व मन्दाकिनी
के पूर्वी भाग को ईस्ट इण्डिया कम्पनी के शासन में सम्मिलित कर लिया गया और गढ़वाल के महाराजा को केवल टिहरी जिला जिसे वर्तमान
मे उत्तरकाशी जिला कहा जाता है के भू भाग सहित
वापस सौंप दिया गया। गढ़वाल के तत्कालीन महाराजा सुदर्शन शाह ने 28 दिसंबर 1815 को टिहरी नाम के स्थान पर जो भागीरथी
और भिलंगना नदियों के संगम पर छोटा सा गाँव था ने अपनी राजधानी स्थापित की ।कुछ
वर्षों के उपरान्त उनके उत्तराधिकारी महाराजा नरेन्द्र शाह ने ओड़ाथली नामक स्थान
पर नरेन्द्रनगर नाम से दूसरी राजधानी स्थापित की। 1815 मे देहरादून और पौड़ी गढ़वाल जिसे वर्तमान मे चमोली और रुद्रप्रयाग कहा
जाता है, अगस्त्यमुनि
व ऊखीमठ विकास खण्ड के साथ अंग्रेजो के अधीन हो गया एवम टिहरी- गढ़वाल महाराजा
टिहरी के अधीन हो गया।
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विलसन उत्तराखंड के कठिन तथा दुर्गम इलाकों में कीमती इमारती लकड़ी को प्राकृतिक जल-धाराओं, नदियों के जरिए बहाकर नीचे मैदान में ले जाने वाला पहला आदमी था। भागीरथी की वेगवती धारा के जरिए वह अपनी लकड़ी को नीचे हरिद्वार तक बहा ले जाता था।वन दोहन के इतिहास में यह युगान्तकारी कदम था।
विलसन उत्तराखंड के कठिन तथा दुर्गम इलाकों में कीमती इमारती लकड़ी को प्राकृतिक जल-धाराओं, नदियों के जरिए बहाकर नीचे मैदान में ले जाने वाला पहला आदमी था। भागीरथी की वेगवती धारा के जरिए वह अपनी लकड़ी को नीचे हरिद्वार तक बहा ले जाता था।वन दोहन के इतिहास में यह युगान्तकारी कदम था।
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बहाव को व्यवस्थित करने के लिए उसने भागीरथी और उसकी सहायक नदियों के प्रवाह के साथ बार-बार यात्रा करके विभिन्न महीनों में भागीरथी के स्वाभाविक स्वरूप का बारीकी से अध्ययन और मार्ग की सभी संभावित बाधाओं तथा कठिनाइयों का जायजा लिया और तब जलावतरण के लिए अनुकूलतम मौसम का सही-सही निर्धारण किया था।लंबे पेड़ों को काटकर वह बेलनाकार तने की डेढ़ से दो मीटर लंबी गेलियां बनवाता। सूख जाने पर गेलियों को नदी में बहा दिया जाता और फिर हरिद्वार में उन्हें पकड़ लिया। देवदार की एक गेली तीन दिन और तीन रात में हरसिल से हरिद्वार पहुंचती थी। उन दिनों आरे से चिरान करके पहाड़ में शहतीर नहीं बनाए जाते थे।पहाड़ों पर आने-जाने के परंपरागत मार्गों में जरूरत के अनुसार फेर-बदल कर विलसन ने अपने काम के लिए नए रास्ते, पगडंडियां बना ली थीं। उन पर पुल बनाए थे। हरसिल, कांट बंगाला (उत्तरकाशी), धरासू, धनोल्टी, काणा ताल, झालकी और मसूरी में उसने बंगले बनाए थे। उसके विकसित किए हुए मार्गों को विलसन मार्ग कहा जाने लगा था। मसूरी से मुखवा तक विलसन मार्ग कहलाता था। मसूरी- धनोल्टी- काणा ताल- बंदवाल गांव होते हुए भल्दियाणा। वहां से भागीरथी पार करके लंबगांव- नगुणा- नगुणासेधरासू-डुण्डा-उत्तरकाशी-मनेरी- भटवाड़ी-गंगनानी- सुक्खी-झाला-हरसिलमुखवा।
बहाव को व्यवस्थित करने के लिए उसने भागीरथी और उसकी सहायक नदियों के प्रवाह के साथ बार-बार यात्रा करके विभिन्न महीनों में भागीरथी के स्वाभाविक स्वरूप का बारीकी से अध्ययन और मार्ग की सभी संभावित बाधाओं तथा कठिनाइयों का जायजा लिया और तब जलावतरण के लिए अनुकूलतम मौसम का सही-सही निर्धारण किया था।लंबे पेड़ों को काटकर वह बेलनाकार तने की डेढ़ से दो मीटर लंबी गेलियां बनवाता। सूख जाने पर गेलियों को नदी में बहा दिया जाता और फिर हरिद्वार में उन्हें पकड़ लिया। देवदार की एक गेली तीन दिन और तीन रात में हरसिल से हरिद्वार पहुंचती थी। उन दिनों आरे से चिरान करके पहाड़ में शहतीर नहीं बनाए जाते थे।पहाड़ों पर आने-जाने के परंपरागत मार्गों में जरूरत के अनुसार फेर-बदल कर विलसन ने अपने काम के लिए नए रास्ते, पगडंडियां बना ली थीं। उन पर पुल बनाए थे। हरसिल, कांट बंगाला (उत्तरकाशी), धरासू, धनोल्टी, काणा ताल, झालकी और मसूरी में उसने बंगले बनाए थे। उसके विकसित किए हुए मार्गों को विलसन मार्ग कहा जाने लगा था। मसूरी से मुखवा तक विलसन मार्ग कहलाता था। मसूरी- धनोल्टी- काणा ताल- बंदवाल गांव होते हुए भल्दियाणा। वहां से भागीरथी पार करके लंबगांव- नगुणा- नगुणासेधरासू-डुण्डा-उत्तरकाशी-मनेरी- भटवाड़ी-गंगनानी- सुक्खी-झाला-हरसिलमुखवा।
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विलसन के
सभी मार्गों पर उसके गुमाश्ते लगातार तैनात रहते। हरसिल से हरिद्वार तक उसके हजारों लोग पेड़ों की
छपान-कटान, चिरान, बहान और ढुलान के कामों में लगे रहे। इस हलचल से सैकड़ों
लोगों का आना-जाना बढ़ गया था। विलसन
अपने हर काम के लिए पैसा देता था। बाद में तो उसने अपना ही सिक्का चला दिया था अब
तो क्षेत्र में लेन-देन में विलसन की हुंडी तथा सिक्का चलने लगा और हरिद्वार पार तक इनका प्रचलन हो गया था। विलसन की मुद्रा प्रणाली, टोकन को
लोग पहाड़ों के परिवेश और प्रतिकूल परिस्थितियों में व्यावहारिक और लाभदायक बताते थे। इस प्रणाली में एक, दो, पांच और दस रुपए
की मुद्राएं, टोकन जारी किए गए थे।
ईसा से 2500 वर्ष पहले पश्चिमी भू-भाग में कत्यूरी
वंश के शासकों का आधिपत्य था। प्रारंभ में इनकी राजधानी जोशीमठ थी जो
कि आज चमोली जनपद में है, किन्तु कुछ समय के बाद ये कार्तिकेयपुर हो
गई। कत्यूरी राजाओं का राज्य सिक्किम से लेकर काबुल तक था। उनके राज्य में
देल्ही व रोहेलखंड भी थे। पुरातत्ववेत्ता कनिंघम ने भी अपनी किताब में इस
तथ्य की पुष्टि की है। ताम्रपत्रों और शिलालेखों के अध्ययन से ज्ञात होता है कि कत्यूरी
राजा सूर्यवंशी थे। इसीलिए कुछ शोधकर्त्ताओं के विचार से अयोध्या के सूर्यवंशी
राजाओं का विस्तार कदाचित यहाँ तक हो गया होगा । यह निर्विवाद है कि कत्यूरी शासक
प्रभावशाली थे। उन्होंने खस राजाओं पर विजय पाकर अपने साम्राज्य का विस्तार
किया। आज दो राजस्व मण्डलों (कुमायूं, गढवाल) के 13 जिलों तक
सिमट कर रह गया है किंतु यह कत्यूरी तथा चन्द राजवंशों, गोरखा राज और
अंग्रेजों के शासन के अधीन रहा। ईसा पूर्व 2500 वर्ष से 770 तक कत्यूरी वंश, का वंश का राज रहा। सन् 777-1790 तक चन्द
वंश, सन् 1790 से 1815 तक गोरखा शासकों और सन् 1815 से भारत को
स्वतन्त्रता मिलने तक अंग्रेज शासकों के
अधीन रहा। कुमायूं और गढवाल मण्डल, का गठन अंग्रेज़ो ने
राजस्व ससुलने की द्रष्टि से बनाए थे। कत्यूरी शासकों की अवनति का कारण शक व
हूण थे। वे यहां के शासक तो रहे लेकिन अधिक समय नहीं। चंदेल वंश के चंदेलों
राजपूतों ने कटयूरी राजवंश को तहस नहस कर लगभग 1000 वर्ष तक राज किया।इसी बीच खस
राजाओं ने भी यहाँ लगभग 200 वर्षों तक राज किया। इसी कारण उत्तराखंड का यह भू-भाग
दो राजवंशों के बाद अनिश्चय का शिकार बना रहा।
ऐसा
माना जाता है कि कत्यूरी शासकों के मूल पुरुष शालिवाहन थे जो कुमाऊँ में पहले आए।
उन्होंने ही जोशीमठ में राजधानी बनाई। कहा जाता है कि वह अयोध्या के सूर्यवंशी
राजाओं में थे। अस्कोट (पिथौरागढ जनपद का एक कस्बा) रियासत के रजबार स्वयं को इसी
वंश का बताते हैं। हां, यह शालिवाहन इतिहास प्रसिद्ध
शालिवाहन सम्राट नहीं थे। ऐसा अवश्य हो सकता है कि अयोध्या का कोई सूर्यवंशी शासक
यहां आया हो और जोशीमठ में रहकर अपने प्रभाव से शासन किया हो। ऐसा भी उल्लेख मिलता
है कि जोशीमठ में राजधानी रखते हुए कत्यूरी राजा शीतकाल में ढिकुली (रामनगर
के पास) में अपनी शीतकालीन राजधानी बनाते थे। चीनी यात्री हवेनसांग के
वृत्तांतों से मिली जानकारी के अनुसार गोविषाण तथा ब्रह्मपुर (लखनपुर) में बौद्धों
की आबादी थी। कहीं-कहीं सनातनी लोग भी रहते थे। इसी कारण मंदिर व मठ साथ-साथ थे।
यह बात 7वीं सदी कि है। लेकिन 8वीं सदी में आदिशंकराचार्य की धार्मिक
दिग्विजय से यहां बौद्ध धर्म का ह्रास हो गया। शंकराचार्य का प्रभाव कत्यूरी
राजाओं पर भी पड़ा । कदाचित बौद्ध धर्म से विरक्त होने के कारण ही उन्होंने जोशीमठ
छोडकर कार्तिकेयपुर में अपनी राजधानी बनायी। जोशीमठ में वासुदेव का प्राचीन मंदिर
है, ऐसा माना जाता है कि इसे कत्यूरी राजा वासुदेव ने बनाया
था । इस मंदिर में श्री वासुदेव गिरिराज चक्र-चूडामणि स्वंम है।
कत्यूरी राजाओं ने गढवाल से चलकर बैजनाथ (बागेश्वर के निकट) गोमती नदी के किनारे कार्तिकेयपुर बसाया जो पहले करवीरपुर के नाम जाना जाता था। उन्होंने अपने ईष्टदेव कार्तिकेय का मंदिर भी वहां बनवाया। इस कारण इस घाटी को कत्यूर नाम दिया। कत्यूरी राजाओं के संबंध काश्मीर से आगे काबुल तक थे। काश्मीर के तुरुख वंश के एक राजा देवपुत्र वासुदेव के पुत्र कनक देव काबुल में अपने मंत्री के हाथों मारे गये। ऐटकिंसन का तो यहां तक मानना है कि काश्मीर के कठूरी वंश के राजाओं ने ही घाटी का नाम कत्यूर रखा। कई पीढियों तक कत्यूरी वंश के राजाओं का शासन रहा। दूरदूर के राजाओं के राजदूत कत्यूरी राजाओं के दरबार में आते रहते थे।
कत्यूरी राजाओं ने गढवाल से चलकर बैजनाथ (बागेश्वर के निकट) गोमती नदी के किनारे कार्तिकेयपुर बसाया जो पहले करवीरपुर के नाम जाना जाता था। उन्होंने अपने ईष्टदेव कार्तिकेय का मंदिर भी वहां बनवाया। इस कारण इस घाटी को कत्यूर नाम दिया। कत्यूरी राजाओं के संबंध काश्मीर से आगे काबुल तक थे। काश्मीर के तुरुख वंश के एक राजा देवपुत्र वासुदेव के पुत्र कनक देव काबुल में अपने मंत्री के हाथों मारे गये। ऐटकिंसन का तो यहां तक मानना है कि काश्मीर के कठूरी वंश के राजाओं ने ही घाटी का नाम कत्यूर रखा। कई पीढियों तक कत्यूरी वंश के राजाओं का शासन रहा। दूरदूर के राजाओं के राजदूत कत्यूरी राजाओं के दरबार में आते रहते थे।
अपने को कत्यूरी
राजाओं का वंशज बताने वाले अस्कोट के रजबार ऐतिहासिक कसौटी पर बंगाल के पालवंशीय
राजाओं के निकट कहीं बी नहीं ठहरते तब भी यह सत्य है कि कत्यूरी राजा प्रतापी और बलशाली
थे, कुछ खुदे हुए शिलालेखों से ऐसा आभास होता है कि कत्युरी राजाओं का साम्राज्य का विस्तार बंगाल तक रहा हो और वे पाल
राजाओं को परास्त करने में सफल हुए हों। कत्यूरी शासकों के बाद सन् 700-1790 तक
चन्द राजवंश का उत्तराखंड में आधिपत्य रहा। कुमायूं में गोरखों के राज को
अंग्रेजों को सौंपने में अपना योगदान देने वाले चर्चित पं हर्षदेव जोशी के
बारे में जो दस्तावेज मिलते हैं उनसे इस बात कि पुष्टि होती है कि हर्षदेव जोशी ने
अंग्रेज फ्रेजर को चंदों के पहले राजा मोहरचन्द के विषय मे बताया जो 16 वर्ष की
उम्र मे 1261 मे यहाँ आए थे। उसके पश्चात
मोहरचन्द के चाचा की संतानों में से एक ज्ञानचन्द को राजा बनाया गया।1374 मे
ज्ञानचंद गद्दी पर बैठे ऐसा इसलिए क्यों कि उनकी तीन पीढ़ियों तक कोई उत्तराधिकारी ही
नहीं था।इस बात को हैमिल्टन ने अपने लिखे इतिहास में स्थान दिया और ऐटकिंसन ने
उद्धृत किया। ऐसा भी माना जाता है कि सोमचन्द राजा के भानजे थे और अपने मामा से
मिलने आये थे।ऐसी भी किवदंती प्रचलित है कि कुमायूं के पुराने वाशिन्दे बोरा या
बोहरा जाति के लोगों के अधिकार कत्यूरी राजाओं द्वारा छीन लिए जाने से वे असंतुष्ट
थे, इसलिए वे चुपचाप चन्द वंश के राजकुमार सोमचन्द से झूंसी
में मिले और विस्तारपूर्वक सभी प्रकार का
ऊंच-नीच समझाकर उन्हें कुमायूं ले गए एवम कत्यूरी राजा के एक अधिकारी गंभीरदेव की
कन्या से उनका विवाह करवा दिया गया।
सोमचन्द
देखने में रूपवान, बुद्धिमान,
वाचाल, शरीर से बलवान व्यवहार में कुशल व चतुर
थे। उन्होंने चम्पावत पुरी को नया राज्य बनाया
और स्वयं राजा बन बैठे। प्राप्त दस्तावेजों से ज्ञात होता है कि सोमचन्द के गद्दी
पर बैठने कल700 ईस्वी के लगभग है। यहीं से चन्द वंश का शासन शुरू होता है।
कत्यूरी राजवंश के पतन के बाद थोडे वे इधर-उधर बचे कत्यूरी वंश के छोटे-छोटे
राजाओं को परास्त करने में चन्द वंश के उत्तराधिकारियों को कोई कठिनाई नहीं हुई।
कत्यूरियों के अलावा खस जाति के लोग भी बिखरे हुए ऊंचे टीलों पर रहते और लूटपाट से
अपना जीवन बिता रहे थे। इससे ऐसा प्रतीत होता है कि चन्द वंश ने जब राज्य स्थापित
किया तो उस समय अराजकता व्याप्त थीं। इस काल मे कन्नौज के राजा की प्रतिष्ठा अपने
चरम पर थे ।इसी कारण सोमचंद ने सलाह मशविरे के बाद अपना एक दल कन्नौज रवाना किया
ताकि उनसे मित्रता की जा सके इसी दौरान राजा सोमचंद ने चंपावत मे एक केले का
निर्माण कराया और उसे राजा बुंगा नाम दिया। जिसके कार्का, बोरा
तडागी, चौधरी फौजदार किलेदार थे। राजा सोमचन्द ने उस समय
नियमबद्ध राज्य प्रणाली अथवा पंचायती प्रणाली की स्थापना की।इसिस के साथ उन्होने
कुमायूं के दो जबर्दस्त दलों महर व फर्त्याल को भी अपने नियंत्रण में रखा। यह राजा
सोमचन्द की चतुराई तथा योग्य शासक होने का प्रमाण है। सामान्य मांडलीक राजा से
शुरू करके सोमचन्द जब सन् 731 स्वर्गवासी हुए तो उनके राज्य में काली-कुमाऊं परगना
के अलावा ध्यानीरौ, चौभेंसी, सालम व
रंगोड पट्टियां उनके अधीन थी। उन्होने कुल 21 वर्ष राज किया।।तत्पश्चात राजा
सोमचन्द के बाद आत्मचन्द ने सत्ता संभाली । 21 वर्ष राजा रहते हुए उन्होंने अपने
राज्य का विस्तार किया। कई छोटे छोटे सरदार उनके दरबार में सलामी बजाने आते थे।
धर्म कर्म में रूचि रखने वाले और प्रजा को प्यारे थे। सन् 740 में वे भी
स्वर्गवासी हो गये।आत्मचन्द के बाद पूर्णचन्द राजा हुए। वह शिकार के शौकीन थे। उनका
राजकाज में कम ही मन लगता था अतएव 18 वर्ष
राज करने के पश्चात उन्होने अपने पुत्र इन्द्रचन्द को राज्य सौंप दिया और 815
ईस्वी से वे पूर्णागिरी की सेवा में लग गये किन्तु एक वर्ष बाद ही उनकी मृत्यु भी
हो गयी।
ईश्वरचंद ने
लगभग 20 वर्ष राज किया। उनके शासन काल की
विशेष घटना रेशम का कारखाना खुलवाने की है। रेशम के कीडों के लिए शहतूत (कीमू) के
पेड लगवाए। बुनकरों (पटुवों) को रोजगार मिला।चन्द वंशावली के राजाओं में सबसे अधिक
समय 41 वर्ष राजा ज्ञानचन्द् ने राज किया।
उनके संबंध दिल्ली के तुगलक बादशाह से भी थे। जब रोहेलखंड के नवाबों ने माल (तराई)
का भू भाग चन्द राजा से छीन लिया तो ज्ञानचन्द ने इसकी शिकायत तत्कालीन बादशाह
मुहम्मद तुगलक से की। एक सर्प का शिकार कर उसे ले जा रहे गरुड को मारकर ज्ञानचंद
ने तुगलक बादशाह को पसन्न कर दिया। बदले में बादशाह ने उनका छीना भूभाग तो लौटाया
ही साथ में उन्हें गरुड ज्ञानचंद की उपाधि भी प्रदान की।
पौड़ी गढ़वाल
यह
कान्डोंलिया पर्वत के उतर तथा समुद्रतल से 5950 फुट की ऊँचाई पर स्थित है। यहां से मुख्य शहर
कोटद्वार, पाबौ, पैठाणी, थैलीसैण, घुमाकोट, श्रीनगर,
दुगड्डा, सतपुली इत्यादी हैं। ब्रिटीश शासनकाल
में यहाँ राज्सव इकट्ठा करने का मुख्य केन्द्र था। यहाँ पं. गोविन्द वल्लभ पंत
इंजिनियरिंग कालेज भी है। इतिहासकारों के अनुसार गढ़वाल में कभी 52 गढ़ थे जो गढ़वाल के पंवार पाल और शाह शासकों ने समय समय पर बनाये थे।
इनमें से अधिकांश पौड़ी में आते हैं। यहाँ से 2 कि. मी. की
दूरी पर स्थित क्युंकलेश्वर महादेव पौड़ी का मुख्य दर्शनीय स्थल है जो कि 8वीं शताब्दी में निर्मित भगवान शिव का मंदिर है। यंहा से श्रीनगर घाटी और
हिमालय का मनोरम दृष्य दिखाई देता है। यहाँ पर कण्डोलिया देवता और नाग देवता के
मंदिर भी धार्मिक आस्था के प्रतीक हैं। यहाँ से ज्वालपा देवी का मंदिर शहर से 34
कि. मी. दूर है। यहाँ प्रतिवर्ष नवरात्रियों के अवसर पर दूर दूर से
श्रद्धालु दर्शन और पूजा के लिए आते हैं। यहां का निकटतम रेलवे स्टेशन कोटद्वार 100
कि. मी. और ऋषिकेश से 142 कि. मी.की दूरी पर स्थित है।
टिहरी गढ़वाल-
महाराजा
प्रद्दुम्न शाह की मृत्यू के बाद इनके 20 वर्षिय पुत्र सुदर्शन शाह इनके उत्तराधिकारी बने।
सुदर्शन शाह ने बड़े संघर्ष और ब्रिटिश शासन की सहयाता से, जनरल
जिलेस्पी और जनरल फ्रेजर के युद्ध संचालन के बल पर गढ़वाल को गोरखों की अधीनता से
मुक्त करवाया। इस सहयाता के बदले अंग्रेजों ने अलकनंदा व मंदाकिनी के पूर्व दिशा
का सम्पूर्ण भाग ब्रिटिश साम्राज्य में मिला दिया, जिससे यह
क्षेत्र ब्रिटिश गढ़वाल कहलाने लगा और पौड़ी इसकी राजधानी बनी।महाराजा सुदर्शन शाह
ने भगिरथी और भिलंगना के सगंम पर अपनी राजधानी बसाई, जिसका
नाम टिहरी रखा। राजा सुदर्शन शाह के पश्चात क्रमशः भवानी शाह ( 1859-72), प्रताप शाह (1872-87), कीर्ति शाह (1892-1913),
नरेन्द्र शाह (1916-46) टिहरी रीयासत की
राजगद्दी पर बैठे। महाराजा प्रताप शाह तथा कीर्ति शाह की मृत्यु के समय
उत्तराधिकारियों के नबालिग होने के कारण तत्कालीन राजमाताओं ने क्रमशः राजमाता
गुलेरिया तथा राजमाता नैपालिया ने अंग्रेज रिजेडेन्टों की देख-रेख में (1887-92)
तथा (1913-1916) तक शासन का भार संभाला।
रियासत के अंतिम राजा मानवेन्द्र शाह के समय सन् 1949 में
रियासत भारतीय गणतंत्र में विलीन हो गई।
केदारनाथ मंदिर (12 ज्योतिर्लिंगों मे सबसे ऊंचाई पर )
केदारनाथ
मन्दिर
केदारनाथ
उत्तराखण्ड के रूद्रप्रयाग जिले में स्थित है। यह स्थान समुद्रतल से 3584 मीटर की ऊँचाई पर
हिमालय पर्वत के गढ़वाल क्षेत्र में आता है। हिन्दू धार्मिक ग्रंथों में उल्लिखित
बारह ज्योतिर्लिंगों में से सबसे ऊँचा ज्योतिर्लिंग यहीं पर स्थित है। चतुर्भुजाकार
आधार पर पत्थर की बड़ी-बड़ी पट्टिओं से बनाया गया यह मन्दिर करीब 1000 वर्ष पुराना है और इसमें गर्भगृह की ओर ले जाती सीढ़ियों पर पाली भाषा के
शिलालेख भी लिखे हैं। केदारनाथ मन्दिर गर्मियों के दौरान केवल 6 महीने के लिये खुला रहता है जो प्रसिद्ध हिन्दू संत आदि शंकराचार्य को देश
भर में अद्वैत वेदान्त के प्रति जागरूकता फैलाने के लिये जाना जाता है। यह स्थान
एक धार्मिक स्थल होने के साथ-साथ पर्यटन स्थल भी है। उत्तराखंड गठन के बाद यूँ तो कई घटनाएँ हुई किन्तु
प्रमुख घटना 17,
जून-2013 अचानक आई मूसलाधार बारिश हुई जो कि 340 मिनिमिटर रेकॉर्ड की गई। इस कारण
उत्तरकाशी मे बादल फटने के कारण असीगंगा और भागीरथी नदियों का जल स्तर तेजी से
बढ्ने के कारण नदियों ने अपने तटबंध तोड़ने शुरू कर दिये।इसी दौरान अधिक बारिश होने
से गंगा और यमुना का जल स्तर भी तेजी से बढ़ा जिस कारण गढ़वाल और कुमाऊँ मण्डल मे
बारिश के कारण तबाही शुरू हो गई। हिंदुओं के पवित्र तीर्थ स्थान केदारनाथ मंदिर स्थल
के ऊपरी भाग मे स्थित झील के अचानक फटने के कारण झील का पानी तेजी से नीचे की ओर
बह चला जिससे केदारनाथ मंदिर के पिछली दीवार के निकट एक बड़ी शिला आ जाने के कारण
पानी दो भागों मे विभक्त हो गया और तेजी से सब कुछ तहस नहस करता हुआ रामबाड़ा को लील
गया। भारी बारिश और हिम्स्लखन कारण मलबे और कीचड़ से
पूरा मंदिर प्रांगण क्षतिग्रस्त हो गया । जिसके परिणामस्वरूप मंदिर की दीवारें गिर
गई और बाढ़ में बह गयी अच्छी बात ये रही कि उस
बड़ी शिला के आ जाने के कारण मंदिर को अनुमान से कम नुकसान हुआ। इस ऐतिहासिक
मन्दिर का मुख्य हिस्सा और सदियों पुराना गुंबद सुरक्षित है लेकिन मंदिर का प्रवेश
द्वार और उसके आस-पास का इलाका पूरी तरह तबाह हो चुका है। इस आपदा ने
केदारनाथ धाम यात्रा के प्रमुख पड़ाव रामबाड़ा का नामोनिशान ही मिटा दिया। इस
तरह पूरा केदारनाथ धाम मलबे से पट गया है। धाम में मुख्य मंदिर के गुंबद के अलावा
कुछ नहीं बचा है। केदरानाथ धाम के पास बने होटल, बाजार,
दस-दस फीट चौड़ी सड़कें, विश्राम स्थल सब मलबे
से पट गए हैं।पत्थर और चट्टानें से पूरे धाम में फैल गई।
17,जून -2013 मे हुई तबाही की नासा द्वारा ली गई फोटो
उत्तराखंड राज्य में हुये इस अभूतपूर्व विनाश के लिए वैसे तो भारी वर्षा को
जिम्मेदार ठहराया गया था, किन्तु पर्यावरणविदों द्वारा, अपर
संपत्ति और व्यापक जन-जीवन के नुकसान के लिए हाल के दशकों में किए अवैज्ञानिक
विकासात्मक गतिविधियां, बेतरतीब शैली में निर्मित सड़क,
राज्य के जलाशय और नदियों के नाजुक किनारों और 70 से अधिक जल विद्युत परियोजनाओं पर निर्मित नए रिसॉर्ट और होटलों जिम्मेदार
ठहराया गया है। उल्लेखनीय है, कि कुछ पर्यावरणविदों द्वारा
इस आपदा के कारण को जानने के लिए विश्लेषक टीम का नेतृत्व किया। उन्होने पर्यावरण
विशेषज्ञों की मदद से सुरंगों का निर्माण किया और 70 जल
विद्युत परियोजनाओं के लिए किए गए विस्फोटों के पारिस्थितिक असंतुलन की सूचना दी
और कहा कि इससे नदी के पानी का प्रवाह सीमित हो गया है, जिससे
भूस्खलन और अधिक बाढ़ का खतरा लगातार बना हुआ है, जिसपर समय
रहते नियंत्रण आवश्यक है।
रोचक तथ्य
क्रम संख्या
|
घटना
|
घटना
|
1।
|
172
|
कुमाऊँ रेजीमेंट की स्थापना
|
2.
|
1815
|
नरेश पँवार द्वारा की
स्थापना
|
3.
|
1816
|
सिंगोली संधि के अनुसार आधा गढ़वाल अंग्रेज़ो के हवाले किया गया
|
4.
|
1834
|
अंग्रेज़ अधिकारी मिसटर ट्रेल द्वारा हल्द्वानी शहर बसाया गया
|
5.
|
1840
|
देहारादून मे चाय बागान की शुरुआत
|
6.
|
1841
|
नैनीताल शहर के खोजा गया
|
7.
|
1847
|
रुड़की इंजीनियर कॉलेज की स्थापना
|
8.
|
1850
|
नैनीताल शहर मे पीआरएटीएचएएम मिशनरी स्कूल खोला गया
|
9.
|
1852
|
रुड़की मे सैनिक छावनी का निर्माण
|
10.
|
1854
|
रुड़की गंग नहर मे
सिंचाई हेतु पानी छोड़ा गया
|
11.
|
1857
|
टिहरी नरेश सुदर्शन शाह ने काशी विश्वनाथ मंदिर का जीर्णोंद्धार
कराया
|
12.
|
1860
|
देहारादून मे अशोक शिलालेख की खोज हुई।1860 मे ही नैनीताल को
ग्रीष्मकालीन राजधानी घोषित
|
13.
|
1861
|
देहारादून सर्वे ऑफ इंडिया की स्थापना
|
14.
|
1865
|
देहारादून मे तार सेवा प्रारम्भ
|
15.
|
1874
|
अल्मोड़ा शहर मे पेयजल व्यवस्था का प्रारम्भ
|
16.
|
1877
|
प्रताप नगर की स्थापना
|
17.
|
1878
|
गढ़वाल के वीर सैनिक बलभद्र सिंह को ’आर्डर आफ़ मेरिट’ प्रदान किया गया।
|
18.
|
1887
|
लैन्सडाउन में गढ़वाल राइफ़ल रेजिमेंट का गठन
|
19.
|
1888
|
नैनीताल में सेंट जोजेफ़ कालेज की स्थापना।
|
20.
|
1891
|
हरिद्वार - देहरादून रेल मार्ग का निर्माण
|
21.
|
1894
|
गोहना ताल टूटने से श्रीनगर में क्षति
|
22.
|
1896
|
महाराजा कीर्ति शाह ने कीर्तिनगर का निर्माण
|
23.
|
1897
|
कोटद्वार - नज़ीबाबाद रेल सेवा प्रारम्भ
|
24.
|
1899
|
काठगोदाम रेलसेवा से जुड़ा
|
25.
|
1900
|
हरिद्वार - देहरादून रेलसेवा प्रारम्भ
|
26.
|
1903
|
टिहरी नगर में बिद्युत ब्यवस्था
|
27.
|
1905
|
देहरादून एयरफ़ोर्स आफ़िस में एक्स-रे संस्थान की स्थापना
|
28.
|
1912
|
भवाली में क्षय रोग अस्पताल की स्थापना एवं मंसूरी में
विद्युत योजना।
|
29.
|
1914
|
गढ़वाली वीर, दरबान सिंह नेगी को विक्टोरिया क्रास प्रदान
किया गया
|
30.
|
1918
|
सेठ सूरजमल द्वारा ऋषिकेश में ’लक्ष्मण झूला’ का निर्माण
|
31
|
1922
|
गढ़वाल राइफ़ल्स को ’रायल’ से सम्मानित किया
गया, नैनीताल विद्युत प्रकाश में नहाया।
|
32.
|
1926
|
हेमकुण्ड साहिब की खोज
|
33.
|
1930
|
चन्द्रशेखर आज़ाद का दुगड्डा में अपने साथियों के साथ शस्त्र
प्रशिक्षण हेतु आगमन एवं देहरादून में नमक सत्याग्रह, मंसूरी मोटर मार्ग प्रारम्भ।
|
34.
|
1932
|
देहरादून मे "इंडियन मिलिटरी एकेडमी" की स्थापना
|
35.
|
1935
|
ऋषिकेश - देवप्रायाग मोटर मार्ग का निर्माण।
|
36.
|
1938
|
हरिद्वार - गोचर हवाई यात्रा ’हिमालयन एयरवेज कम्पनी’ ने शुरू की
|
37.
|
1942
|
1942
7वीं
गढवाल रेजिमेंट की स्थापना
|
38.
|
1945
|
हैदराबाद रेजिमेंट का नाम बदलकर "कुमाऊं रेजिमेंट"
रखा गया।
|
39.
|
1946
|
डी.ए.वी. कालेज देहरादून में कक्षाएं शुरू हुई
|
40.
|
1948
|
रूढ़की इन्जीनियरिंग कालेज - विश्वविद्यालय में रूपांतरित
किया गया।
|
41.
|
1949
|
टिहरी रियासत उत्तर प्रदेश में विलय एवं अल्मोडा कालेज की
स्थापना।
|
42.
|
1953
|
बंगाल सैपर्स की स्थापना रूढ़की में की गई।
|
43.
|
1954
|
हैली नेशनल पार्क का नाम बदलकर जिम कार्बेट नेशनल पार्क रखा
गया।
|
44.
|
1958
|
मंसूरी में डिग्री कालेज की स्थापना
|
45.
|
1960
|
पंतनगर में कृषि एवं प्रोद्यौगिकी विश्वविद्यालय की आधारशिला
रखी गई।
|
46.
|
1973
|
गढ़वाल एवं कुमांऊ विश्वविद्यालय की घोषणा की गई।
|
47.
|
1975
|
देहरादून प्रशासनिक रूप से गढ़वाल में सम्मिल्लित किया गया
|
48.
|
1982
|
चमोली जनपद में 87 कि.मी. में फैली फूलों की घाटी को राष्ट्रीय
उद्यान घोषित किया गया
|
49.
|
1986
|
पिथौरागढ़ जनपद के 600 वर्ग कि.मी. में फैले अस्कोट वन्य जीव
विहार की घोषणा की गई
|
50.
|
1987
|
पौड़ी गढ़वाल में 301 वर्ग कि.मी. में फैले सोना-चांदी वन्य जीव
विहार की घोषणा की गई।
|
51.
|
1988
|
अल्मोडा वनभूमि के क्षेत्र बिनसर वन्य जीव विहार की घोषणा की
गई।
|
52.
|
1991
|
20 अक्तूबर को भूकम्प में 1500 व्यक्तियों की मौत।
|
53.
|
1992
|
उत्तरकाशी में गंगोत्री राष्ट्रीय उद्यान तथा गोविंद
राष्ट्रीय उद्यान की स्थापना।
|
54.
|
1994
|
उत्तराखण्ड प्रथक राज्य के मांग - खटीमा में गोली चली, अनेक व्यक्तियों की मौत। मुजफ़्फ़रनगर काण्ड
|
55.
|
1995
|
श्रीनगर में आंदोलनकारियों पर गोली चली।
|
56.
|
1996
|
रुद्रप्रयाग, चम्पावत, बागेश्वर व
उधमसिंह नगर, चार नये जनपद बनाये गये।
|
57.
|
1999
|
चमोली में भूकम्प। 110 व्यक्तियों की मौत
|
58.
|
2000
|
9 नबम्बर को उत्तरांचल राज्य की स्थापना हुई, व नित्यानन्द स्वामी (बीजेपी)ने
प्रदेश के प्रथम मुख्यमंत्री बने
|
59.
|
2001
|
30 ओक्टोबर ,2001 भगत सिंह कोशयरी (बीजेपी) प्रदेश के
दूसरे मुखमंत्री बने
|
60.
|
2002
|
2 मार्च ,2002-08 नारायण टत्त तिवारी (भारतीय राष्ट्रीय
काँग्रेस) तीसरे मुखमंत्री बने
|
61.
|
2007
|
1 जनवरी 2007 को उत्तरांचल का नाम बदलकर उत्तराखंड किया गया
|
62.
|
2008
|
8 मार्च,2008 भुवन चंद खंडुरी (बीजेपी ) ने चौथे
मुख्यमंत्री की शपथ ली
|
63.
|
2009
|
24 जून,2009 रमेश पोखरियाल ने पांचवे मुख्यमंत्री की
शपथ ली
|
64.
|
2011
|
11, सितंबर 2011 भुवन चंद खंडुरी (बीजेपी ) ने छटे
मुख्यमंत्री की शपथ ली
|
65.
|
2012
|
13 मार्च,2012 विजय बहुगुणा ने सातवें मुखमंत्री की शपथ
ली
|
66.
|
2014
|
1,फरवरी,2014 हरीश रावत ने
आठवें मुखमंत्री की शपथ ली
|
67.
|
|
28,मार्च,2016 से (ये लेख
लिखे जाने तक )राष्ट्रपति शासन लागू
|
स्थापना का दिन
|
9 नवम्बर 2000
|
|
क्षेत्रफल
|
53,483 वर्ग
किमी
|
|
घनत्व
|
189 प्रति
वर्ग किमी
|
|
जनसंख्या (2011)
|
10,086,292
|
|
पुरुष
|
5,137,773
|
|
महिलायेँ
|
4,948,519
|
|
जिले
|
कुल 13 जिले
·
गढ़वाल
मण्डल मे आने वाले जिले :चमोली,देहरादून,हरिद्वार,पौड़ी गढ़वाल,रुद्रप्रयाग,टिहरी गढ़वाल उत्तरकाशी
|
|
राजधानी
|
देहरादून
|
|
नदियाँ
|
गंगा, सरयू, अलकनंदा, भागीरथी, धौलीगंगा, रामगंगा, आसन बैराज आदि
|
|
वन एवं राष्ट्रीय उद्यान
|
राजाजी राष्ट्रीय पार्क,
कॉर्बेट टाइगर रिजर्व, गंगोत्री राष्ट्रीय
उद्यान
|
|
भाषाएँ
|
गढ़वाली, कुमाऊंनी, हिंदी, संस्कृत, अंग्रेजी
|
|
राजकीय पशु
|
कस्तूरी मृग
|
|
राजकीय पक्षी
|
हिमालयी मोनल
|
|
राजकीय वृक्ष
|
बुरांस
|
|
राजकीय फूल
|
ब्रह्म कमल
|
|
साक्षरता दर (2011)
|
86.27%
|
|
1000 पुरुषों
पर महिलायें
|
963
|
|
विधानसभा निर्वाचन क्षेत्र
|
70
|
|
संसदीय निर्वाचन क्षेत्र
|
5
|
|
नेट राज्य घरेलू उत्पाद (2011)
|
36368
|
|
पड़ोसी राज्य
|
हिमाचल प्रदेश,
हरियाणा, उत्तर प्रदेश
|
हिमालय स्थित ॐ पर्वत
उत्तराखण्डी सिनेमा और इसके नाट्य
पूर्ववृत्त उस जागृति के परिणाम हैं जो स्वतन्त्रता के बाद आरम्भ हुई थी और जिसका
उद्भव 60,70 एवं 70 के दशकों मे हुआ।देहरादून, श्रीनगर, अल्मोड़ा और नैनीताल में एक आन्दोलन का उभार हुआ जिसके
सूत्रधार “कलाकार, कवि, गायक और
अभिनेता थे जिन्होनें राज्य की सांस्कृतिक और कलात्मक रूपों का उपयोग राज्य के
संघर्ष को बल देने के लिए किया। उत्तराखंड की लोक सनस्क्र्ति सामाजिक और आर्थिक तकलीफ़ों को प्रदर्शित
करने का कार्य निरंतर चलता रहा और आखिरकार 1983 मे पाराशर गौर निर्मित प्रथम चलचित्र
“जगवाल’ से इसकी परिनिती हुई।ये सिलसिला तेरी सौं तक चलता रहा। “तेरी सौं’, उत्तराखण्ड आन्दोलन के संघर्ष पर
आधारित थी। इस चलचित्र में 1994 मे घाटी उस दुखदाई घटना का चित्रण किया गया था जिसने उत्तराखंड आंदोलन
की ज्वाला मे घी का काम किया।वर्ष 2008
मे उत्तराखण्ड
के कलात्मक समुदाय द्वारा उत्तराखण्ड सिनेमा की रजत जयंती मनाई गई।
नैनीताल स्थित नैनी झील
और
अंत मे आखिर 5 मई -2016 को प्रक्रति ने स्वंम ही उत्तराखंड के जंगलों मे लगी आग पर
बारिश के तेज बौछारें बिखेर दी। जिससे विकराल होती अग्नि स्वत: शांत होने लगी है। निश्चित
रूप से ये एक अच्छी खबर है क्यों कि जंगल अगर ज्यादा देर तक सुलगते रहे तो पर्यटक उत्तराखंड
आने से छिटक सकते हैं जब कि उत्तराखंड कि आय का ये एक बहुत बड़ा जरिया है ।आखिर ये सिद्ध
हो गया कि ईश्वर यानि प्रक्रति ने मनुष्य को सीमित शक्तियाँ ही प्रदान की हैं अन्यथा
क्या कारण है कि जब भी कोई प्राक्रतिक विपदा आती है मनुष्य एक निश्चित स्थिति से आगे
असहाय हो जाता है।
:::
प्रदीप भट्ट :::06,मई-2016
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