‘बुद्ध मुस्कुराए’
आज बुद्ध पुर्णिमा है। यानि महात्मा बुद्ध का जन्मदिन।
आखिर एक राजकुल मे पैदा हुआ व्यक्ति कैसे उस स्थान तक पहुँच गया जहाँ पहुँचने मे
ऋषियों मुनियों को घोर तप से गुजरना पड़ता है।मुझे याद है 11 मई-1998 का वो दिन जब “बुद्ध
मुस्कुराए थे “ और भारत ने पूरे विश्व को दूसरे परमाणु विस्फोट से चकित कर
दिया था। इस कार्य को अंजाम तक पहुंचाने की ज़िम्मेदारी स्वर्गीय डॉक्टर अब्दुल
कलाम जैसे प्रखर वैज्ञानिक को सौंपी थी और उन्होने इसे पूरी निष्ठा और गोपनियता
बरतते हुए तात्कालिक प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपई को विस्फोट उपरांत इस कूट वाक्य से सूचित किया कि ‘बुद्ध मुस्कुराए’ यानि परमाणु परीक्षण सफल हुआ। इस पूरे मिशन को
कैसे अंजाम दिया गया । इस पर तो बाद मे पूरी बहस चल निकली कि भारतीय वैज्ञानिकों
ने कैसे अमेरिकी सेटेलाइट को धत्ता बताते हुए इस मिशन को सफलता पूर्वक कैसे अंजाम तक
पहुंचाया।
11 मई-1998 को राजस्थान के पोखरण मे दूसरा परमाणु विस्फोट
वैसे तो
बचपन मे जब हम शैक्षिक योग्यता प्राप्त कर रहे होते हैं तो हमारी इतिहास की पुस्तक
मे गौतम बुद्ध के ऊपर पूरा एक पाठ होता है । जिससे प्रत्येक विद्यार्थी को जीवन उपयोगी
बातों की जानकारी प्राप्त होती है किन्तु मुझे जो सबसे प्रभावित लाइन लगती है वह है
“ बुद्धम शरणम गच्छामी ” यानि बुद्ध
की शरण मे चलो तो सबका कल्याण होगा। बुद्ध की शरण मतलब भगवान की शरण मे। वैसे भी हिन्दू
धर्म ग्रंथो के अनुसार सिधार्थ सिद्धार्थ या गौतम बुद्ध या महात्मा बुद्ध को भगवान
विष्णु का अवतार ही कहा जाता है। इससे पहले कि मई आगे चलूँ आइये सिद्धार्थ या गौतम बुद्ध या महात्मा बुद्ध के जीवन
पर कुछ प्रकाश डालते हैं।
क्षत्रिय कुल के शाक्य नरेश शुद्धोधन के घर राजकुमार सिद्धार्थ का जन्म 563 ईस्वी पूर्व मे तत्कालीन
राजधानी कपिलवस्तु के निकट लुंबिनी, नेपाल में हुआ था। लुम्बिनी
वन नेपाल के तराई क्षेत्र में कपिलवस्तु और देवदह के बीच नौतनवा स्टेशन से 8
मील दूर पश्चिम में रुक्मिन देई नामक स्थान के पास स्थित था। कपिलवस्तु
की महारानी महामाया देवी के अपने नैहर देवदह जाते हुए रास्ते में प्रसव पीड़ा हुई
और वहीं उन्होंने एक बालक को जन्म दिया। सिद्धार्थ उनका बचपन का नाम था। सिद्धार्थ की माता मायादेवी जो कोली वन्श की थी का उनके जन्म के सात दिन बाद निधन हो गया था। उनका पालन पोषण
उनकी मौसी और शुद्दोधन की दूसरी रानी महा-प्रजावती ने किया। शिशु का नाम सिद्धार्थ
रखा गया, जिसका अर्थ है "वह जो सिद्धी प्राप्ति के
लिए जन्मा हो"।
जन्म समारोह के दौरान, साधु द्रष्टा असित ने
अपने पहाड़ के निवास से घोषणा की कि बच्चा या तो एक महान राजा या एक महान पवित्र पथ प्रदर्शक बनेगा। शुद्दोधन ने पांचवें दिन एक नामकरण समारोह आयोजित किया और आठ ब्राह्मण
विद्वानों को भविष्य पढ़ने के लिए आमंत्रित किया। सभी ने एक सी दोहरी भविष्यवाणी
की, कि बच्चा या तो एक महान राजा या एक महान पवित्र आदमी
बनेगा। दक्षिण मध्य नेपाल में स्थित लुंबिनी में उस स्थल पर महाराज अशोक ने तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व बुद्ध के जन्म की स्मृति में एक स्तम्भ बनवाया
था। बुद्ध का जन्म दिवस व्यापक रूप से थएरावदा देशों में मनाया जाता है। सिद्धार्थ
के मन मे बाल्यकाल से ही करुणा और दया भरी हुई थी । इसका परिचय उनके आरंभिक जीवन
की अनेक घटनाओं से पता चलता है। घुड़दौड़ में जब घोड़े दौड़ते और उनके मुँह से झाग
निकलने लगता तो सिद्धार्थ उन्हें थका जानकर वहीं रोक देते और जीती हुई बाजी हार जाते। खेल में भी सिद्धार्थ
को खुद हार जाना पसंद था क्योंकि किसी को हराना और किसी का दुःखी होना उनसे देखा नहीं
जाता था। सिद्धार्थ ने चचेरे भाई देवदत्त द्वारा तीर से घायल किए गए हंस की सहायता
की और उसके प्राणों की रक्षा की। इसी एक घटना से उनकी करुणामयी छ्वी उभरने लगी थी।
सिद्धार्थ
ने गुरु विश्वामित्र के पास वेद और उप-निषद् तो पढ़े ही, राजकाज और युद्ध-विद्या की भी शिक्षा ली। कुश्ती, घुड़दौड़, तीर-कमान,
रथ हाँकने में कोई उसकी बराबरी नहीं कर पाता।
सोलह वर्ष की उम्र में सिद्धार्थ का कोली कन्या यशोधरा के साथ विवाह हुआ। पिता द्वारा ऋतुओं के अनुरूप बनाए
गए वैभवशाली और समस्त भोगों से युक्त महल में वे यशोधरा के साथ रहने लगे जहाँ उनके
पुत्र राहुल का जन्म हुआ। लेकिन विवाहके बाद उनके मन मे वैराग्य उत्पन्न हो गया जिस कारण उनका मन राज काज और घर परिवार मे नहीं लग
पा रहा था ।जब इन सब बातों का पता राजा शुद्धोधन को चला तो उन्होने
सिद्धार्थ के लिए भोग-विलास का भरपूर प्रबंध कर दिया। तीन ऋतुओं के लायक तीन सुंदर
महल बनवा दिए। वहाँ पर नाच-गान और मनोरंजन की सारी सामग्री जुटा दी गई। दास-दासी
उसकी सेवा में रख दिए गए। पर ये सब चीजें सिद्धार्थ को संसार में बाँधकर नहीं रख
सकीं। वसंत ऋतु में एक दिन सिद्धार्थ बगीचे की सैर पर निकले। उन्हें सड़क पर एक
बूढ़ा आदमी दिखाई दिया जिसके दाँत टूट गए थे, बाल पक गए थे और शरीर भी टेढ़ा हो गया था। हाथ में
लाठी पकड़े धीरे-धीरे काँपता हुआ वह सड़क पर चल रहा था। इसी प्रकार दूसरी बार जब वे
बगीचे की सैर को निकले , तो उनके सामने एक रोगी आ गया जिसकी साँस तेजी से चल रही थी,कंधे ढीले पड़ गए थे। बाँहें सूख गई थीं, पेट फूल
गया था, चेहरा पीला पड़ गया था और वह दूसरे के सहारे वह बड़ी
मुश्किल से चल पा रहा था इसी क्रम मे तीसरी बार सिद्धार्थ ने रास्ते मे एक अर्थी देखि
जिसे लेकर चार आदमी जा रहे थे। पीछे-पीछे बहुत से लोग थे। कोई रो रहा था, कोई छाती पीट रहा था, कोई अपने बाल नोच रहा था। इन
दृश्यों ने सिद्धार्थ को बहुत विचलित कर दिया और उन्होंने सोचा कि ‘धिक्कार है ऐसी जवानी को, जो जीवन को सोख लेती है।
धिक्कार है ऐसे स्वास्थ्य को, जो शरीर को नष्ट कर देता है।
धिक्कार है ऐसे जीवन को, जो इतनी जल्दी अपना अध्याय पूरा कर
देता है। क्या बुढ़ापा, बीमारी और मौत सदा इसी तरह होती
रहेगी ? चौथी बार जब वे पुन: बगीचे की सैर को निकले तो उन्हें
एक संन्यासी दिखाई पड़ा। संसार की सारी भावनाओं और कामनाओं से मुक्त प्रसन्नचित्त
सन्यासी ने सिद्धार्थ को बहुत ज्यादा प्रभावित किया और इसी समय उन्होने परिवार त्यागने
का निश्चय किया।
पत्नी यशोधरा, दुध-मुँहे
बच्चे राहुल और कपिल वस्तु जैसे राज्य का मोह छोड़कर सिद्धार्थ तपस्या के लिए चल पड़े
। घर त्यागने के पश्चात वे राजगृह नामक स्थान
पर पहुंचे, सिद्धार्थ घूमते-घूमते आलार कालाम और उद्दक
रामपुत्र के पास पहुँचे । उनसे उन्होने योग-साधना और समाधि लगाना सीखा। किन्तु संतुष्टि न मिलने पर उन्होने
वहाँ से भी प्रस्थान किया और फिर वे उरुवेला पहुँचे और तपस्या मे लीन हो गये । सिद्धार्थ
ने पहले तो केवल तिल-चावल खाकर तपस्या शुरू की, बाद में कोई
भी आहार लेना बंद कर दिया। शरीर सूखकर काँटा हो गया। छः वर्ष बीत गए तपस्या करते किन्तु
उन्हे इससे भी संतुष्टि नहीं मिली। तभी एक दिन कुछ स्त्रियाँ किसी नगर से लौटती
हुई वहाँ से निकलीं, जहाँ सिद्धार्थ तपस्या कर रहे थे । उनका
एक गीत सिद्धार्थ के कान में पड़ा- ‘वीणा के तारों को
ढीला मत छोड़ दो’/ ढीला छोड़ देने से उनका सुरीला
स्वर नहीं निकलेगा/ पर तारों को इतना कसो भी मत कि वे
टूट जाएँ।’ बात सिद्धार्थ को जँच गई। इस गीत से उनके मन प्रफुल्लित हो गया और उन्होने
मान लिया कि नियमित आहार-विहार से ही
योग सिद्ध होता है। अति किसी बात की अच्छी नहीं होती । किसी भी
प्राप्ति के लिए मध्यम मार्ग ही ठीक होता है।
वैशाख
पूर्णिमा के दिन सिद्धार्थ वटवृक्ष के नीचे ध्यानस्थ थे। समीपवर्ती गाँव की एक स्त्री सुजाता को पुत्र रत्न कि प्राप्ति
हुई चूँकि उसने बेटे के लिए एक वटवृक्ष की मनौती मानी थी। अतएव वह मनौती पूरी करने
के लिए सोने के थाल में गाय के दूध की खीर भरकर पहुँची और चूँकि वहाँ सिद्धार्थ ध्यान कर रहा थे तो ऐसा प्रतीत हुआ कि
जैसे वृक्ष देवता ही मानो पूजा लेने के लिए शरीर धरकर बैठे हैं। इसीलिए सुजाता ने
बड़े आदर से सिद्धार्थ को खीर भेंट की और कहा- ‘जैसे मेरी
मनोकामना पूरी हुई, उसी तरह आपकी भी हो।’ उसी रात को ध्यान लगाने पर सिद्धार्थ की साधना सफल हुई और उन्हें सच्चा बोध हुआ। तभी से सिद्धार्थ बुद्ध कहलाए।
जिस पीपल वृक्ष के नीचे सिद्धार्थ को बोध मिला वह बोधिवृक्ष कहलाया और गया का
समीपवर्ती वह स्थान बोधगया बन गया जो की आज बिहार राज्य मे स्थित है।हिन्दू धारग्रन्थोन
मे मान्यता है कि श्राद्ध पक्ष मे यहाँ भोजन करने से पित्रों को मोक्ष कि प्राप्ति
होती है और फिर उस परिवार को श्राद्ध करने की आवश्यकता नहीं होती जब तक कि उस परिवार
मे अन्य किसी कि मृत्यु न हो। चार सप्ताह तक बोधिवृक्ष के नीचे रहकर धर्म के स्वरूप का चिंतन करने
के बाद बुद्ध धर्म का उपदेश करने निकल पड़े। आषाढ़ की पूर्णिमा को वे काशी के पास
मृगदाव (वर्तमान में सारनाथ) पहुँचे। वहीं पर उन्होंने सबसे पहला धर्मोपदेश दिया
और पहले के पाँच मित्रों को अपना अनुयायी बनाया और फिर उन्हें धर्म प्रचार करने के
लिये भेज दिया।
80 वर्ष की उम्र तक उन्होने अपने
धर्म का संस्कृत के बजाय उस समय की सीधी सरल लोक-भाषा पाली में प्रचार किया
। उनके सीधे सरल धर्म की लोकप्रियता तेजी से बढ़ने लगी। पालि सिद्धांत के महा-परिनिर्वाण
सुत्त के अनुसार 80 वर्ष की आयु में बुद्ध ने घोषणा की कि वे जल्द ही परिनिर्वाण के लिए रवाना होंगे।
बुद्ध ने अपना आखिरी भोजन, जिसे उन्होंने कुन्डा नामक
लोहार से एक भेंट के रूप में प्राप्त किया था, ग्रहण किया किन्तु
उसे खाकर वे गंभीर रूप से बीमार पड़ गये। बुद्ध ने अपने शिष्य आनंद को निर्देश
दिया कि वह कुन्डा को समझाए कि उसने कोई गलती नहीं की है। उन्होने कहा कि यह भोजन
अतुल्य है। भगवान बुद्ध ने लोगों को मध्यम मार्ग का उपदेश दिया।
उन्होंने दुःख, उसके कारण और निवारण के लिए अष्टांगिक
मार्ग सुझाया। उन्होंने अहिंसा पर बहुत जोर दिया है। उन्होंने यज्ञ और पशु-बलि
की निंदा की।
बौद्ध धर्म सभी जातियों और पंथों के लिए
खुला है। उसमें हर आदमी का स्वागत है। ब्राह्मण हो या चांडाल, पापी हो या
पुण्यात्मा, गृहस्थ हो या ब्रह्मचारी सबके लिए उनका दरवाजा
खुला है। उनके धर्म में जात-पाँत, ऊँच-नीच का कोई भेद-भाव
नहीं है। बुद्ध के धर्म प्रचार से भिक्षुओं की संख्या बढ़ने लगी। बड़े-बड़े
राजा-महाराजा भी उनके शिष्य बनने लगे। शुद्धोधन और राहुल ने भी बौद्ध धर्म की
दीक्षा ली। भिक्षुओं की संख्या बहुत बढ़ने पर बौद्ध संघ की स्थापना की गई। बाद में
लोगों के आग्रह पर बुद्ध ने स्त्रियों को भी संघ में ले लेने के लिए अनुमति दे दी,
यद्यपि इसे उन्होंने विशेष अच्छा नहीं माना। भगवान बुद्ध ने ‘बहुजन हिताय’ लोक कल्याण के लिए अपने धर्म का
देश-विदेश में प्रचार करने के लिए भिक्षुओं को इधर-उधर भेजा। अशोक आदि सम्राटों ने
भी विदेशों में बौद्ध धर्म के प्रचार में अपनी अहम् भूमिका निभाई। मौर्यकाल के शासक
सम्राट अशोक ने वास्तविक रूप से बौद्ध धर्म को विश्व के कोने कोने मे प्रचारित और प्रसारित
किया और इसके लिए अपने पुत्र और पुत्री को नियुक्त किया।यही कारण है कि भारत से ज्यादा
बौद्ध धर्म कि मान्यता चीन,
जापान, कोरिया, मंगोलिया,
बर्मा, थाईलैंड, श्रीलंका, नेपाल,भूटान मे ज्यादा है। इन देशों में बौद्ध धर्म
बहुसंख्यक धर्म है।
और अंत मे भारतवर्ष जो कि ऋषियों मुनियों का
देश रहा है और एक समय मे पूरे विश्व का गुरु रह चुका है, जहाँ की परंपरा को पूरा
विश्व मानता है। भारत मे जन्मे आर्यभट्ट जिनहोने
विश्व को शून्य से परिचय कराया बीजगणित और रेखागणित के ज्ञान से परिचित कराया जिस भारतवर्ष
मे पैदा हुए महात्मा बुद्ध के प्रचारित- प्रसारित बौद्ध धर्म को चीन और जापान जैसे
देश मानते हैं वही चीन जब भारत वर्ष पर हमला करता है तो प्रतीत होता है कि उसने धर्म
तो अपना लिया किन्तु अपनी सोच को बादल नहीं पाया वरना क्या कारण है कि आज भी बौद्ध
धर्म अपनाने वाले देश जहाँ भारत का सम्मान करते हैं वहीं चीन और श्रीलंका जब तक भारत
को आँख दिखने से बाज नहीं आते। तालिबनों द्वारा अफगानिस्तान मे बुद्ध की प्रतिमाओं
को कैसे खंडित (बारूद से उड़ा दिया गया था) किया गया था।
::: प्रदीप भट्ट
:::
21.05.2016
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