Friday, 26 July 2024

" वादे हैं वादों का क्या "

    
       "  वायदे हैं वायदों का क्या "


        बचपन में घर का सामान लेने के लिए अम्मा जब परचूने की दुकान पर भेजती थी तब हम हर सामान अलग अलग दुकानदार से लेते थे ताकि समान लेने के बाद दुकानदार से ज्यादा से ज्यादा रूंगा यानि फ्री में कुछ ले पाएं और रुंगे में चने गुड़ मूंगफली वगैरह वगैरह। इसी के साथ बचपने में हमने विनिमय का पाठ भी सीखा कि आप गेंहू या अन्य अनाज देकर परचुने वाले से विनिमय एक्सचेंज के तहत सब्जी वाले से आइसक्रीम वाले से अपनी पसंद का सामान खरीदते थे इस पद्धति में फ़ायदा हमेशा दुकानदार का होता था और नुकसान हमेशा बच्चों का क्यों कि उन्हें समझ नहीं थी कि क्या देकर कितना लेना है।ये उस ज़माने के दुकानदारों की मार्केटिंग स्ट्रेजिटी होती थी ताकि ज्यादा से ज्यादा ग्राहकों को अपनी तरफ आकर्षित किया जा सके। और उन ग्राहकों में बच्चों की संख्या ज्यादा होती थी।

         अब इसी परम्परा का निर्वाह राजनैतिक पार्टियां अपने हित को सर्वोपरी मानते हुए वोटरों को लुभाने के लिए करने लगी हैं। जहां तक मुझे याद है यह दक्षिण भारत में महिलाओं को त्योहारों पर साड़ी बांटने से शुरु हुआ फिर शिवाजी गणेशन जया के समय दक्षिण की जनता को फ्री टी वी भी बांटा गया। सभी राजनैतिक दल एक दूसरे पर आपेक्ष तो लगाते किंतु स्वयं भी इस दलदल का हिस्सा बनने के लिए कोई कोर कसर न छोड़ते रहे। चूंकि मैं स्वयं दक्षिण में पांच वर्ष रहा हूं तो मैंने स्वयं से जाना कि वहां पंचायत से लेकर विधानसभा तक के चुनाव में फ्री की रेवड़ियां बांटने   का चलन किसी भी हद को पार करने को सदैव आतुर रहता है। सब पार्टियों का बस एक ही लक्ष्य कि किसी भी तरह सत्ता हथियानी है फिर चाहे राज्य पर कितना भी कर्ज़ चढ़ जाए। इसी के साथ तुष्टीकरण का छौंक लगाने में भी लगभग सभी पार्टियां एक दूसरे को पछाड़ती नजर आती हैं। कहीं मुस्लिम तुष्टीकरण तो कहीं ईसाई तुष्टीकरण। इसकी भी इंतेहा देखिए मंदिरों में ईसाई पुजारी नियुक्त कर दिए किन्तु चर्च और मस्जिद में हिंदू काज़ी या फादर नहीं मिलेगा।

         ऐसा भी नहीं है कि उत्तर भारत में फ्री की रेवड़ी बाँटने में राजनैतिक पार्टियों ने कोई कमी छोड़ी है यहाँ भी हमाम में सभी नंगे हैं। अगर एक राजनैतिक पार्टी फ़्री की रेवड़ी पर लंबे लंबे भाषण देकर दूसरे देशों की अर्थव्यवस्था का हवाला देती फिरती है फ़िर माहौल देखकर वह भी फ़्री बाँटने में मशगूल हो जाती है फ़िर वह चाहे फ़्री बिजली हो फ़्री राशन हो या किसान सम्मान निधि। लेकिन आम आदमी पार्टी के सर्वेसर्वा अरविंद केजरीवाल ने फ़्री की रेवड़ी की ऐसी ऐसी घोषणाएँ की कि कॉंग्रेस और बीजेपी की पेशानी पर भी बल पड़ गए। ये विषय अलहदा है कि दिल्ली वालों को ये फ़्री का चूरन पिछले दस साल से बेचा जा रहा है और tax पेयर की जान निकली जा रही है। तेलंगाना में के सी आर इसी फ़्री की पॉलिटिक्स से सत्ता पर दस साल काबिज रहे किंतु इस बार उन्हें मुँह की खानी पड़ी।

         कॉंग्रेस द्वारा इस बार के लोकसभा चुनाव में महिलाओं को एक लाख रुपये देने की खटाखट गारंटी दी ,युवाओं को एक साल के लिए प्रशिक्षुता कार्यक्रम के तहत एक लाख रुपये देने का वादा कर दिया साथ ही किसानों की कर्ज़ माफ़ी की गारंटी अलग से दे दी।  हर चुनावी सभा में राहुल गाँधी बिना माइक के भी खटाखट घोषणाएँ करते रहे। बिना किसी अर्थशास्त्री से परामर्श लिए। आख़िर इतनी सारी गारंटी पूरी करने पर कुल कितना खर्च आएगा।  एक अनुमान के अनुसार कम से कम 35 से 40 लाख करोड़ सालाना जब कि भारत का पूरे वर्ष का बज़ट ही केवल 47 लाख करोड़ का है तो कोई इन महानुभावों से पूछे कि 5, 7 लाख में ये क्या क्या कर पाएंगे। संविधान हमें बोलने की आजा़दी देता है तो इसका मतलब कुछ भी आएं शांए बकते रहो। आप हो या कॉंग्रेस ,समाजवादी पार्टी हो या टीएमसी या फ़िर दक्षिण की पार्टी वे अभी भी उसी 60,70 के दशक वाली सोच से बाहर नहीं आएं हैं उन्हें लगता है वादे हैं कर दो जीतने के बाद हमें कौन सा कोई वादा पूरा करना है। लेकिन स्थिति अब वैसी रही नहीं है। उदाहरण स्वरूप चुनाव ख़त्म होते ही उत्तर प्रदेश, कर्नाटक में लोग जिनमें स्त्रियों की संख्या ज्य़ादा थी पहुँच गईं कॉंग्रेस दफ़्तर कि लाओ भईय्या ज़ल्दी से हमार एक लाख रुपैय्या हमारे हवाले करो। अब बेचारे दफ़्तर के कर्मचारी उन्हें क्या जवाब दें कि वादा करने वाले तो दिल्ली के बंगले में AC में लोट मार रहे हैं।  निराश में मुँह लटकाए वो घरों को लौटते हुए सोच रहे थे "न ख़ुदा ही मिला, न विसाल ए सनम। न इधर के रहे, न उधर के रहे" घऱ जाकर गारंटी कार्ड देख रहे होंगे कि एक मोदी है जो बिना गारंटी दिए भी मकान राशन सब दे रहा है और एक ये चुरकट पार्टी है जिसे वोट देकर कुछ भी हासिल नहीं हुआ।       फ़्री की पॉलिटिक्स करके श्री लंका करके देख चुका है। उसकी अर्थव्यवस्था रसातल में चली ही गईं थी वो तो भारत ने उसे संभाल लिया। इससे पहले यही हाल वेनेजुएला का रहा है इस देश की अर्थव्यस्था आज भी पटरी पर नहीं लौटी है। जहाँ तक भारत गणराज्यों का प्रश्न है तो इसमें पंजाब, कर्नाटक, केरल, तेलंगाना एवम् उड़ीसा की हालात ज्य़ादा ख़राब है।  इन राज्यों का कर्ज़ निरंतर बढ़ता जा रहा है। रिजर्व बैंक इस विषय में इन राज्यों की सरकारों एवम् केंद्र सरकार को आगाह कर चुका है किंतु ये सभी राज्य अभी भी गहरी निंद्रा में लीन नज़र आते हैं। बज़ट में अगर संतुलन नहीं बिठाया जाएगा तो अर्थव्यस्था पटरी पर कैसे लौटेगी। व्यक्ति विशेष या समुदाय विशेष को ध्यान में रखकर फ़ैसले नहीं लिए जाते बल्कि राज्य को अपने पैरों पर खड़ा करने के लिए कुछ कठोर फैसलों की ज़रूरत होती है जिनका कड़ाई से पालन किया जाना भी अत्यंत आवश्यक है।

        प्रश्न फिर वही मुंह बाए खड़ा है कि आख़िर इस खटाखट पॉलिटिक्स पर कौन लगाम लगाएगा, क्यों कि जो इस फ्री की रेवड़ी बांटने के विरुद्ध में हैं वे अन्य पार्टियों द्धारा किए जा रहे लोकलुभावन वादों पर जनता में उठे उत्साह से निरुत्साह हो जा रहे हैं और मजबूरी में उन्हें भी न चाहते हुए इस बाजीगरी में शामिल होना पड़ता है। कुछ राजनैतिक पार्टियां तो इससे भी इतर नया राग अलापने में लगी हैं और वो है टैक्स पेयर के पैसे का दुरुपयोग करके वोट की खरीद फरोख्त करना वैसे तो ये ग्राम पंचायत के चुनाव से लेकर देश की सबसे बड़ी पंचायत के चुनाव में बरसों से हो रहा है किंतु यदि हम पिछ्ले दो तीन दशकों पर दृष्टिपात करेंगे तो पायेंगे कि अब बात सिर्फ़ वोटरों को लुभाने तक सीमित नहीं रह गई है वरन जीते हुए उम्मीदारों की खरीद फरोख्त तक भी पहुंच गई है। एक दो नहीं वरन निश्चित संख्या में आने वाले उम्मीदवारों को खरीदकर सत्ता हासिल की जा रही है। अब ज्यादातर पार्टियों की परंपरा, एथिक्स, विचारधारा सिर्फ़ किताबों तक ही सीमित रह गई है। निश्चित रूप से वोटरों को भ्रमित कर वोट हासिल करना, टैक्स पेयर के पैसे को सत्ता पाने की चाबी माना जाने लगा है जो कि एक स्वस्थ्य लोकतांत्रिक देश के लिए अच्छा नहीं है किंतु यहां किसको किसकी पड़ी है। सभी पार्टियां एक दूसरे के उम्मीदार को तोड़कर अपने दल में लाने के लिए जुगत लगा लगा रहे हैं भले ही वो पार्टी की विचार धारा से मेल खाए न खाए अंतिम और एक ही लक्ष्य है कि सत्ता पर कैसे काबिज़ हुआ जाए। बरसों से सुनते आ रहे हैं उम्मीद पर दुनियां कायम है। बस हम भी कुछ अच्छा होने की उम्मीद ही कर सकते हैं कि भारत के वोटर को अगले किसी चुनाव में इस खटाखट पॉलिटिक्स से मुक्ति मिले।

         अंत में ये ठीक है कि राजनैतिक पार्टियां अपनी स्वार्थ सिद्धि के लिए वोटरों को सिर्फ़ सत्ता तक पहुंचने का एक सुगम मार्ग समझती हैं। पार्टियां कभी खटाखट का वायदा करती हैं कभी चटाचट का कभी साड़ी का वायदा कभी कलर टी वी का वायदा कभी बच्चा के जन्म से लेकर मरण तक के इंतज़ाम का वायदा कभी फ्री बिजली का वायदा कभी फ्री पानी का वायदा और भी न जाने कितने किस प्रकार के वायदे। वायदे हैं वायदों का क्या? लेकिन क्या इन सब बेहदगियों के लिए वोटर ज़िम्मेदार नहीं हेयर। माना गरीबी रेखा से नीचे जीवन व्यापन करने वाले वोटर के लिए फ्री में कुछ भी मिल जाना उसके जीवन चक्र के लिए कुछ दिनों के लिए अच्छा होगा किंतु अगले पांच साल तक वही वोटर इस फ्री के लिए क्या क्या चुकाता है ये वो भी नहीं जानता। कभी किसी एनजीओ अब तक क्यूं ये ज़रूरत महसूस नहीं की कि भारतीय वोटरों के लिए कुछ काम किया जाए। और तो और हर राजनैतिक पार्टी अपने चुने हुए सांसदो और विधायकों के लिए संसद या विधायका में कैसे व्यवहार करना है इसके लिए प्रशिक्षण कार्यक्रम चलाती हैं किंतु जिन वोटरों के वोट से वो जीत कर आती हैं उसके लिए कोई कार्यक्रम किसी भी पार्टी के पास नहीं है। आख़िर देश में रहने वाले हर कैटेगिरी के वोटर कब अपनी जिम्मेदारी समझेंगे। और देश या राज्य को सफेद हाथी में तब्दील होने से रोकेंगे।


प्रदीप डीएस भट्ट 
कवि/लेखक
मेरठ (उत्तर प्रदेश)
Mob:9410677280

No comments:

Post a Comment