रिपोतार्ज
"छोटी छोटी बातें से उर नाद तक"
(भुट्टे ले लो भुट्टे बड़ा दस का छोटा बीस का)🤪🤪🤪🤪🤪🤪🤪🤪🤪🤪😝
पिछले वर्ष 20 जून-2023 को कर्नाटक के मैसूरु में मेरे प्रथम कहानी संग्रह "काला हंस" के लोकार्पण के पश्चात जुलाई में हैदराबाद को टाटा बॉय बॉय करने से पूर्व ही मैंने अपने तीसरे काव्य संग्रह "उर नाद" की भूमिका लिखने के लिए डॉक्टर प्रोफ़ेसर ऋषभ देव शर्मा जी से आग्रह किया जिसे उन्होंने सहर्ष स्वीकार कर तय समय में मुझे वापिस भी प्रेषित कर दी थी। जिसे मैंने हैदराबाद रवाना होने से पूर्व ही पब्लिशर को प्रेषित भी कर दिया था। हैदराबाद से मेरठ सेटेल होने में दो तीन महीने तो यूँ ही निकल गये। रिटायरमेंट के बाद एक बंधा बँधाया रूटीन डिस्टर्ब स्वाभाविक ही है किंतु हम ठहरे ज़रा दूसरे किस्म के बंदे 😏 सो अपनी सहित्य्यिक यात्राओं के द्वारा इससे निज़ात पाने की भरपूर कोशिश कर रहे हैं किंतु गर्मी भी इस बार सर्दी के बनाए अपने पुराने रिकार्ड तोड़ने पर आमादा है। अब अगर यही हाल बरख़ा रानी ने किया तो 😉....... तो भैया मई जून में नाम मात्र ही साहित्य सेवा में समय गुजारा। अब इस गर्मी में कहीं ऐसा न हो कि हम साहित्य सेवा करने बाहर निकालें और प्रचंड लू हमसे चिपटकर कहे "कैसे हो ठाकुर " 😄 सो भईय्या जून में न लोकल न वोकल और न ही ग्लोबल अज्जि छड्डो भी 🤗
अक्टूबर में पब्लिशर से "उर नाद" की प्रगति जाननी चाही तो उधर से कहा गया हुज़ूर पहले पाण्डुलिपि तो भेजें हमने अचकचा कर पूछा मतलब तो उधर से फ़िर दोहरा दिया गया हुज़ूर पहले पाण्डुलिपि तो भेजें तब तो न हम प्रगति बतावेंगे। जब हमने बताया कि हम फलानी तारीख़ को मेल से भेज चुके हैं तो चेक कर अपनी गल्ती मान ली फ़िर बताया इसे प्रोयरिटी पर छापेंगे। हमने कहा 5दिसंबर की फ्लाइट है हमें 3 दिसंबर तक कम से कम 10 प्रतियां भेज दें ताकि तिरुवनंतपुरम में इसका लोकार्पण हो सके। उन्होंने हाँ भरी लेकिन 3 क्या 30 दिसंबर तक भी वही मुर्गे की डेढ़ टाँग। 🥳 हमने फ़िर फ़ोन मिलाकर रिक्वेस्ट की तो हमें 5 जनवरी -2024 की अदालती तारीख़ पकड़ा दी। हमने सोचा 13, 14 जनवरी को मुंबई के कार्यक्रम में लोकार्पण करवा लेंगे। लेकिन लेकिन लेकिन पूरा जनवरी ग़ायब मुंबई क्या नागपुर कार्यक्रम भी चला गया लेकिन हाय हमारा "उर नाद" न छपा। डिले डिले डिले करते फ़रवरी मार्च अप्रैल मई यूँ निकल गये जैसे गधे के सिर से सींग। इस बीच हम देहरादून दिल्ली गुडगाँव रुड़की लखनऊ गोरखपुर और न जाने कहाँ कहाँ अपनी ग़ज़लों गीतों का परचम फैहराते रहे लेकिन उर नाद हाथ न आया। सच कहूँ तो एक बार तो हमने सोचा कि अबे तुमने ये क्या शीर्षक लिया है "उर नाद" यानि हृदय की आवाज़। पढ़ने वाले जब पढ़ेंगे तब पढ़ेंगे लेकिन पब्लिशर ने तो अभी तुम्हारा ख़ुद का सुर बिगाड़ दिया है। तो बेटा ख़ूब चीखो या screeming करो। तुम्हारे उर नाद को कोई न सुन रिया है।
मई के अंतिम सप्ताह में मुझे लखनऊ जाना था सो दिल्ली एक कार्यक्रम में सहभागिता के लिए सुबह मेरठ से प्रस्थान किया किन्तु वोटिंग डे होने के कारण कार्यक्रम मुल्तवी हो गया सो अपनी मित्र के साथ कनॉट प्लेस घूमा पिक्चर देखी। वहीं बातों बातों में पता चला कि उनकी पुस्तक जिसे 28 मई को लोकार्पित होना था लगातार डीले हो रही है तो जब हमने अपनी भी दास्तां शेयर कर दी और हँसते हुए कहा कि कहीं हम दोनों की मित्रता को ध्यान में रखते हुए दोनों पुस्तकें एक साथ तो लोकार्पित होना नहीं चाहती। वे फटाक से बोली जैसी रब की इच्छा। बात हँसी मज़ाक में हुई थी लेकिन रब की निश्चित यही इच्छा थी। मैं अगले दिन कार्यक्रम अटेंड कर रहा था कि मुबलिया घनघना उठा। उधर कोरियर वाला था बोला आपका बड़ा सा वाला पैकेट है और बहुत ही भारी भी कहां पहुंचाना है तो हम बोले भैय्या पता लिखा है न वहीं पहुंचा दो। वो फिर बोला सर जहां का पता लिखा है वो शहर से बाहर पड़ता है और हमारी वहां सेवा नहीं है। मैं उसकी सद इच्छा समझ गया और उसे भाई के घर ड्रॉप करने के लिए बोल दिया। भीषण गर्मी से दो चार होते हुए जब मैं वापिस घर पहुंचा तो "उर नाद" के बड़े से बॉक्स ने हमसे कहा "अबे इतना काहे उधम मचा रहे थे लो अब हम आ गए हैं कर लो जो करना है " हमने भी ताव में कह दिया सुनो बे फ्री में नहीं आए हो पूरम पट्ट 21600/= खर्च किये हैं समझें। अब जून की तपती जलती गर्मी में तुम्हारा लोकार्पण कहां और कैसे कराएं। ठहरो तनिक कुछ सोचते हैं।
बस यूं ही कुछ दिन सोचने में निकल गए। जून के तृतीय सप्ताह में साहित्य सृजन कुटुंब की सन्तोष संप्रीति का फ़ोन आया न उठाने पर मैसेज "अर्जेंट कॉल करें" शाम को फ़ोन किया तो डांट सुननी पड़ गई। क्या कर सकते थे सुनते रहे जब मित्र का क्रोध तनिक शांत हुआ तो बताया कि दोनों फ़ोन किसी की गाड़ी में रह गए थे कुछ देर पहले ही मिले हैं तब फोन पर एक गहरी श्वांस लेने की आवाज़ सुनाई दी। तब जाकर हमारी जान में जान आई। ख़ैर उन्होनें जल्दी जल्दी तफ्सील में सब कुछ समझाया और छोटी छोटी बातें के साथ ही उर नाद का लोकार्पण भी उत्तर प्रदेश भवन द्वारका में 30 जून को निश्चित हो गया। अब लगभग रोज़ ही कार्यक्रम के विषय में चर्चा हो रही थी बाहर से आने वाले अतिथियों की देखभाल की ज़िम्मेदारी मैंने ले ली। सब कुछ ठीक चल रहा था अचानक 26 जून को सूचना मिली कि किन्ही अपरिहार्य कारणों से उत्तर प्रदेश भवन में कार्यक्रम नहीं हो पाएगा। मैने सुझाव दिया इसे आगे सरका देते हैं किन्तु किन्तु किन्तु सन्तोष तो सन्तोष ठहरी ठेठ हरियाणवी अंदाज़ में बोली न भाई न तारीख़ न बदलने वाली यहां नहीं तो और किसी वैन्यू में प्रोग्राम होगा पर होगा 30 जून को ही। बिग सैल्यूट फॉर हर। आख़िर दो दिन की मेहनत रंग लाई और ईश कृपा से हिन्दी भवन फाइनल हो गया। अतिथियों के लिए गांधी शांति प्रतिष्ठान में कमरे बुक हुए। तय हुआ कि मैं शनिवार को ही जीपीएफ में रुकूंगा ताकि व्यवस्था पर नज़र रखी जा सके। हम तो हम ठहरे 29 को सुबह मेरठ से निकले एक बजे अतिथि गृह में एंट्री कर ली। चूंकि साहित्य अकादमी में एक कार्यक्रम में आमंत्रित थे सो तीन बजे फ्रेश होकर बाहर निकले जीपीएफ के पीछे ही तिलक ब्रिज है उसे क्रॉस कर ही रहे थे की भुट्टा बेचती मां बेटी पर निगाह ठहर गई। मां रोक रही थी लेकिन वो छोटी बच्ची अपनी धुन में आवाज लगा रही थी "भुट्टे ले लो भुट्टे बड़े वाला दस का छोटे वाला बीस का" वो लड़की गलत रेट कोट कर रही थी इसीलिए शायद उसकी मां उसे रोक रही थी। लेकिन बाल मन कब किसकी सुनता है सो मैंने बीस रूपये देकर एक भुट्टा खरीदा उस बच्ची के सर पर हाथ फेरा और तिलक ब्रिज की सीढियां चढ़ने लगा। सच कहूं श्वांस फूल गई लेकिन सीढियां उतरते हुए सामान्य भी हो गई। भुट्टे का आनंद लेते हुए मैं जैसे ही श्रीराम सेंटर पहुंचा बरखा रानी पूरी तड़क भड़क के साथ आ पहुंची। संभलने का मौका भी नहीं मिला बस एनडीएमसी का शायद स्टोर रूम था जिसकी तिरपाल ने मुझे कुछ अन्य लोगों के साथ आश्रय प्रदान किया। और हां तीन चार श्वानो को भी। प्रोग्राम तीन बजे से और मैं पौने तीन से साढ़े तीन तक वहीं फंसा हुआ। संबंधित को मैसेज कर बता दिया कि साहित्य अकादमी की सड़क के दूसरी ओर बारिश रुकने के इंतेज़ार में हूं। तभी एक ऑटो वाले को इशारो में रिक्वेस्ट किया कि मुझे उस पार छोड़ दें वो बोला साहब वो तो रहा सामने। हमने फिर इशारे में बरखा रानी के रौद्र रूप की तरफ़ इशारा किया तब बात उसके पल्ले पड़ी और उसने बरखा में नाव से नहीं ऑटो में हमें उस पार किया। कार्यक्रम सैनिकों की पत्नियों के संस्मरण पर आधारित पुस्तक के लोकार्पण का था। एक बेहतरीन कार्यक्रम के लिए पुस्तक की सम्पादक वंदना यादव जी को ग्रांड सैल्यूट। सायं 6 बजे जीपीएफ लौटे तो वहां के सभागार में भी दीक्षित दनकौरी जी को सम्मानित किया जा रहा था। लगभग नौ बजे फ्री होकर रूम में आए और उमस भरी गर्मी में सिर्फ पंखे के सहारे जैसे तैसे रात काटी। सुबह अक्षय बंसल जी भोपाल से आ पहुंचे। कुछ देर गूफ्तगू की फिर फ्रेश हुए और हिन्दी भवन।
हिन्दी भवन के तृतीय तल के सभागार में धीरे धीरे लोगों की आवाजाही शुरु हो गई। हल्के रिफ्रेशमेंट के बाद औपचारिक रूप से कार्यक्रम की शुरुआत दीप प्रज्ज्वलन से हुई। प्रथम सत्र में अतिथियों के परिचय के पश्चात
मेरे तीसरे काव्य संग्रह "उर नाद" एवम सन्तोष संप्रीति की दोहा पुस्तक छोटी छोटी बातें का लोकार्पण का लोकार्पण दिल्ली दिल्ली पुलिस के एसीपी आदेश त्यागी, प्रसिद्ध दोहाकर मनोज कामदेव, कर्नल प्रवीण त्रिपाठी, चेतन आनंद, ऋषि शर्मा, उप सचिव हिन्दी अकादमी दिल्ली, डॉक्टर प्रोफ़ेसर रवि शर्मा, रिटायर्ड मेट्रो पॉलिटियन जज ओम सपरा के कर कमलों द्वारा संपन्न हुआ।
संतोष संप्रिति की दोहा पुस्तक "छोटी छोटी बातें" की समीक्षा मनोज कामदेव जी ने की एवम प्रदीप डीएस भट्ट के तीसरे काव्य संग्रह "उर नाद" की समीक्षा डॉक्टर प्रोफ़ेसर रवि शर्मा मधुप द्धारा की गई। उसके अतिरिक्त कर्नल प्रवीण त्रिपाठी, सपरा जी, डॉक्टर ऋषि शर्मा एवम चेतन आनंद ने भी पुस्तकों पर अपने विचार प्रकट किए।
दूसरे सत्र में शैदा अमरोहवी की अध्यक्षता में कवि सम्मेलन का आयोजन किया गया जिसमें भोपाल से पधारे प्रसिद्ध शायर अक्षय बंसल, हश्मत भारद्वाज, जावेद अब्बासी, संजीव कुमार, सुनील शर्मा, कुमार राघव, संजय गिरी, सीमा वत्स, बबीता पांडेय, बलजीत, अमर पाल, श्रुति भट्टाचार्य, संगीता बिजारणियां, प्रवीण व्यास, गोल्डी, शैदा अमरोहवी, सुरेंद सिफ़र, वीणा अग्रवाल, सरिता गुप्ता, शकुन्तला मित्तल, फौजिया अफज़ल, रजनी बाला, विभा वैभवी, सुषमा गर्ग, वंदना चौधरी, रिंकल शर्मा, संतोष संप्रिति एवम मैंने भी अपनी एक ग़ज़ल प्रस्तुत की। जरा बानगी तो देखिए।
ग़ज़ल
1222 1222 1222 1222
क़िताबें दोस्त हैं मेरी, शिक़ायत कम नहीं करतीं
पढ़ूँ आधी कभी पूरी, मुहब्बत कम नहीं करतीं
बिना इनके अधूरा मैं, बिना मेरे अधूरी ये
मैं बोलूँ फिर भी ये अपनी, सदाकत कम नहीं करतीं
सुना बचपन से ये हमने, कसम झूठी नहीं खाना
अगर नाराज़ हों फिर ये, अदावत कम नहीं करतीं
भले कितना पढ़ो लेकिन, सलीका कुछ न सीखा तो
भरी महफ़िल में लोगों की, हज़ामत कम नहीं करतीं
कि लिखते लोग हैं ज्यादा, मगर पढ़ते हैं इतना कम
अगर मजमून हो अच्छा, जियारत कम नहीं करतीं
भले हो पाठ्यक्रम में या कि, पोथी गीत गज़लों में
किताबें तो किताबें हैं, तिजारत कम नहीं करतीं
क़िताबों में अगर रुक्का मिले प्रीतम का मत पूछो
दिलों को ये मिलाने में , मशक्कत कम नहीं करतीं
करो कुछ भी भले अच्छा, मगर दुनिया न पहचाने
छपे जब ये रिसालों में, बगावत कम नहीं करतीं
यही सीखा हमेशा 'दीप' ने, इज्ज़त करो सबकी
कि इसके करते रहने से,लियाक़त कम नहीं करतीं
प्रदीप डी एस भट्ट -10424
अंत में एक विषेष बात जिसका अभाव मैंने कई कार्यक्रमों में देखा कि सो कॉल्ड साहित्यिक मठाधीश लेखक की कृति पर बस नाम मात्र की चर्चा कर अपने दायित्व की इतिश्री समझ लेते हैं वहीं इस कार्यक्रम में "उर नाद" पर डॉक्टर प्रोफ़ेसर रवि शर्मा ने तफ्सील से पुस्तक की विशेषता पर दर्शकों का ध्यानाकर्षण किया। कुछ ऐसा ही दृश्य मनोज कामदेव जी द्वारा "छोटी छोटी बातें" पर उनके उद्बोधन में दिखा के अतिरिक्त भी अन्य विभूतियों ने भी दोनों ही पुस्तकों पर सार्थक चर्चा कर श्रोताओं का पुस्तकों के प्रति आकर्षण पैदा किया। चेतन आनंद जी ने दोनों ही पुस्तकों के लेखक को सौ रूपये देकर पुस्तक प्राप्त की जो कि एक अच्छी पहल है। चेतन जी उसके लिए बधाई के पात्र हैं। समय की बाध्यतता के बाबजूद भी सभी रचनाकार अपनी रचना पढ़ सकें इसीलिए हिंदी भवन के सभागार को अतिरिक्त एक घंटा बढ़वाना पड़ा।
विशेष टिप्पणी
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किसी काम का बीड़ा उठाना फिर उसे येन केन प्रकारेण कैसे पूरा किया जाता है ये मित्र सन्तोष संप्रीति से सीखा जा सकता है।
प्रदीप डीएस भट्ट -4724
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