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“तलाक तलाक तलाक”
भारतवर्ष मे आजकल पुन: तलाक का मसला गरमाया
हुआ है। लगभग 50 हजार मुस्लिम औरतें इसके विरुद्ध पूरी शिद्दत से आवाज को बुलंद
किए हुए हैं। अगर मैं गलत नहीं हूँ तो पूरे विश्व मे आदमी और औरत के मध्य जो
शादी/विवाह होते हैं उसे सभी धर्मों मे एक पवित्र रिश्ता माना गया है। जब पति और
पत्नी दोनों दोनों ही उस पवित्र रिश्ते से बाहर आना चाहते हैं तो धार्मिक पुस्तकों
और प्रत्येक देश के संविधान मे उन दोनों को अलग अलग होने की एक व्यवस्था दी गई है
उस व्यवस्था के तहत ही दोनों आपसी सहमति से संबंध विच्छेद कर सकते हैं किन्तु जहां
तक मेरी जानकारी हैं सिर्फ इस्लाम धर्म को मानने वाले लोग ही इस अपनी बीमार
मानसिकता के तहत औरतों को पैर के जूती से ज्यादा कुछ नहीं समझते ।अपवाद को छोडकर।
मुस्लिम पुरुष इसमे बड़ी कामयाबी समझता है कि लो “अब तुम मेरे किसी काम कि नहीं
रही” इसलिए मैं तुम्हें अपने से अलग करता हूँ और एक ही झटके मे तलाक तलाक तलाक
कहकर अपनी मर्दानगी का भोंडा प्रदर्शन करता हैं बिना ये सोचे समझे कि जिस औरत के
साथ वो 5,10,15 या
20 वर्षों से साथ रह रहा है ,जिसने उसके एक दर्जन बच्चों को
जन्म दिया है वो इस उम्र मे अब कहाँ जाएगी न ही वो ये सोचने का कष्ट करता है कि
उसने बच्चों कि जो फ़ौज खड़ी कर दी है उनका पालन पोषण कैसे और कौन करेगा । बस अपनी
महत्वकांक्षाओं की पूर्ति हेतु एक के बाद एक चार चार शादियों को करने के हक को
लेकर वो संजीदा रहता है। आखिर ये नौबत आती ही क्यूँ है और वास्तव मे इस्लाम मे
इसकी वयवस्था क्या है आइये कुछ इस पर प्रकाश डालते हैं।
वास्तविकता
विवाह
जिसे निकाह कहा जाता हैं एक पुरूष और एक स्त्री का अपनी आजाद मर्जी से एक दूसरें
के साथ पति और पत्नी के रूप मे रहने का फैसला हैं। इसकी तीन शर्ते हैं : पहली यह कि पुरूष वैवाहिक जीवन की जिम्मेदारियों को उठाने की शपथ ले, एक निश्चित रकम जो आपसी बातचीत से तय हो, मेहर के रूप में औरत को
दे और इस नये सम्बन्ध की समाज मे घोषणा हो जाये। इसके बिना किसी मर्द और औरत का
साथ रहना और यौन सम्बन्ध स्थापित करना गलत,
बल्कि एक बड़ा अपराध हैं। कुछ आधुनिक शिक्षा से प्रभावित व्यक्तियों का दावा
है कि पवित्र कुरान में तलाक को न करने लायक काम का दर्जा दिया गया है। यही वजह है
कि इसको खूब कठिन बनाया गया है। तलाक देने की एक विस्तृत प्रक्रिया दर्शाई गई है।
परिवार में बातचीत, पति-पत्नी के बीच संवाद और सुलह पर जोर दिया गया है।
पवित्र कुरान में कहा गया है कि जहां तक संभव हो, तलाक न दिया जाए और यदि
तलाक देना जरूरी और अनिवार्य हो जाए तो कम से कम यह प्रक्रिया न्यायिक हो। इसके
चलते पवित्र कुरान में एकतरफा या सुलह का प्रयास किए बिना दिए गए तलाक का जिक्र
कहीं भी नहीं मिलता। इसी तरह पवित्र कुरान में तलाक प्रक्रिया की समय अवधि भी
स्पष्ट रूप से बताई गई है। एक ही क्षण में तलाक का सवाल ही नहीं उठता। खत लिखकर या
टेलीफोन पर एकतरफा और जुबानी तलाक की इजाजत इस्लाम कतई नहीं देता। एक बैठक में या
एक ही वक्त में तलाक दे देना गैर-इस्लामी है।
मध्ययुगीन
भारत का इतिहास बताता है कि समाज के सभी क्षेत्रों में बढ़ी रूढ़िवादिता का प्रभाव
विवाह संस्था पर भी पड़ा। उस युग में स्थापित मूल्यों को आधार बनाकर हिंदू समाज में
विवाह विच्छेद को धार्मिक दृष्टि से अनैतिक घोषित किया गया और सामाजिक स्तर पर
हिंदू समाज में विवाह-विच्छेद पर प्रतिबंध लगा दिया गया। तलाक के निषेध के साथ यह
धार्मिक विश्र्वास प्रचलित किया गया कि पति-पत्नी का संबंध ईश्र्वरीय देन है और
इसे ईश्र्वर की अनुमति के बिना तोड़ना पाप है। मुस्लिम शासकों के राज्यकाल में
हिंदू समाज में विकसित हुई धार्मिक रूढ़िवादिता ने भी इस सोच को बल दिया कि
विवाह-विच्छेद की परंपरा हमारे धार्मिक संस्कारों को दूषित करती है। इस मानसिकता
के चलते मध्यकालीन भारत में हिंदू समाज में विवाह-विच्छेद की प्रथा लगभग समाप्त हो
चली थी। मुगल सल्तनत के पराभव के बाद जब भारत पर अंग्रेजों का राज्य हुआ तो
तत्कालीन हिंदू समाज पर विदेशी संस्कृति के प्रभाव स्पष्टतः दृष्टिगोचर होने
लगे। तथाकथित प्रगतिशील जीवन मूल्यों ने हिंदू समाज की परंपरागत विवाह संस्था के
समक्ष कई यक्ष प्रश्न खड़े कर दिए। इसके अतिरिक्त बदलती युगीन
परिस्थितियां और शिक्षा के प्रभाव से भारतीय जन-मानस में एक चेतना जागृत हुई। इन
हालातों में विवाह-विच्छेद अथवा तलाक की अवधारणा को धीरे-धीरे हिंदू समाज में पुनः
स्थान मिलने लगा।
विवाह
संस्था का मुख्य उद्देश्य मनुष्य के पारिवारिक जीवन को सुव्यवस्थित बनाकर एक
सामाजिक सुरक्षा का पर्यावरण प्रदान करना है। विवाह से पूर्व प्रायः प्रत्येक
मनुष्य मधुर और सुनहरे सपने देखता है,
लेकिन हर विवाह का यथार्थ किसी परी-कथा की
तरह सुखान्त नहीं होता। विवाह के कुछ समय पश्र्चात जब जिन्दगी की नंगी वास्तविकताएं
सामने आने लगती हैं, तो आदमी स्वयं को एक मोहभंग की स्थिति में फंसा
पाता है। यदि पति-पत्नी आपसी समझदारी,
तालमेल और परस्पर विश्र्वास से काम लें तो
वैवाहिक यथार्थ की उन चुनौतियों पर विजय प्राप्त कर लेते हैं। किन्तु जो दम्पति
सपनों के टूटने से उपजे आवेश को अपने जीवन में समायोजित नहीं कर पाते, उनके
कदम अनचाहे ही विवाह-विच्छेद अथवा तलाक की मंजिल तक बढ़ने लगते हैं। पति-पत्नी के
एक-दूसरे से अलग होने को ही तलाक कहा जाता है।यह सत्य है कि तलाक या विवाह-विच्छेद
की समस्या का वर्तमान स्वरूप हमारी आधुनिक सभ्यता की देन है, किन्तु
हमारी अत्यंत प्राचीन सांस्कृतिक विरासत में भी विवाह-विच्छेद की अवधारणा के
प्रमाण मिलते हैं। अथर्ववेद में वर्णन मिलता है कि एक स्त्री ने अपने पति से
विवाह-विच्छेद कर अन्य पुरुष के साथ विवाह किया। याज्ञवल्क्य, मनु
और वशिष्ठ ने अपने ग्रंथों में पुरुष को अपनी यौन रोग से पीड़ित पत्नी से
विवाह-विच्छेद करने का अधिकार दिया है। नारद और पाराशर ऋषियों ने पति के नपुंसक
होने, उसके लापता होने, संन्यासी हो जाने,
जाति से बहिष्कृत कर दिये जाने अथवा
देशद्रोही करार दिये जाने की स्थितियों में पत्नियों को पति से विवाह-विच्छेद कर
अन्य पुरुष से विवाह करने की अनुमति प्रदान की है।
महान
कूटनीतिज्ञ कौटिल्य ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक “अर्थशास्त्र’
में उस युग में प्रचलित विवाह-विच्छेद की
परंपरा का विशद वर्णन किया है। तलाक प्राप्त करने के आधारों का उल्लेख करते हुए
कौटिल्य ने बताया है कि सामान्यतः पति-पत्नी परस्पर सहमति से विवाह-विच्छेद कर
सकते हैं। अपवाद स्वरूप व यथोचित आधार मौजूद होने पर दोनों पक्षों में बिना
एक-दूसरे की सहमति और स्वीकृति के भी विवाह-विच्छेद हो सकता है। इस प्रकार प्राचीन
युग में भी तलाक की परंपरा या असफल विवाह के विघटन का उपचार उपलब्ध था। हालांकि उस
युग में विवाह विच्छेद के मामले बहुत ही समिति संख्या में होते थे।
स्वतंत्रता के पश्चात सरकार ने हिंदू समाज में व्याप्त विवाह संबंधी समस्याओं के निराकरण हेतु
1955 में हिंदू विवाह तथा विवाह-विच्छेद अधिनियम-1995 पारित किया। इस अधिनियम के पश्र्चात ही देश में हिंदू समाज को
विवाह-विच्छेद के मामलों में कानूनी उपचार उपलब्ध हो सका। यह अधिनियम एक व्यक्तिगत
विधि है, जो हिंदू धर्मावलंबियों पर ही लागू होता है। इस
अधिनियम की धारा 10 न्यायिक पृथक्करण से संबंधित है। इस धारा के अधीन पति
या पत्नी दोनों में से कोई भी पक्ष किसी अन्य पक्ष द्वारा दो साल से अधिक समय तक
बिना किसी उचित प्रयोजन के अलग रहने पर,
पति या पत्नी के अतिरिक्त किसी अन्य से
यौन संबंध स्थापित करने पर, एक वर्ष से किसी संाामक रोग से ग्रसित होने पर तथा
क्रूरतापूर्ण व्यवहार करने के आधार पर न्यायालय में प्रार्थनापत्र पेश कर पृथक्करण
की डिग्री प्रदान किये जाने का आवेदन कर सकता है। इसी प्रकार धारा 13 के
अंतर्गत कोई भी पक्ष अन्य पक्ष द्वारा धर्म परिवर्तन करने एवं अन्य व्यक्ति से यौन
संबंध स्थापित करने, क्रूरतापूर्ण व्यवहार करने तथा सात वर्ष से अधिक
समय से लापता होने की स्थिति में न्यायालय से विवाह-विच्छेद की प्रार्थना कर सकता
है। इसके अतिरिक्त यदि पति बलात्कार,
अप्राकृतिक मैथुन का अपराधी हो या उसने
किसी अन्य स्त्री से विवाह कर लिया हो तो पत्नी को उससे तलाक प्राप्त करने का हक
है।
“तलाक’
को निरुत्साहित करने के उद्देश्य से इस
अधिनियम की धारा 14 व 15
में कुछ प्रावधान किये गये हैं। विवाह के
एक वर्ष पश्चात ही विवाह-विच्छेद का आवेदन किया जा सकता है। ऐसा इसलिए किया गया है
कि भावुकता और जल्दबाजी में विवाह-विचछेद सरीखा गंभीर कदम उठाने से पूर्व दम्पति
एक-दूसरे को समझने का प्रयास कर सकें। पति या पत्नी के अतिरिक्त अन्य कोई व्यक्ति
किसी पक्ष की ओर से तलाक का मुकदमा दाखिल नहीं कर सकता। प्रारंभ में क्रूरता के
आधार पर तलाक प्राप्त नहीं किया जा सकता था। किंतु सन् 1976 में हिंदू विवाह तथा विवाह विच्छेद अधिनियम में अनेक महत्वपूर्ण संशोधन
किये गये तथा “क्रूरता’
को तलाक के आधारों में शामिल कर लिया गया।
इस अधिनियम में “क्रूरता’
को परिभाषित नहीं किया गया है। वस्तुतः
क्रूरता की अवधारणा समय, स्थान और व्यक्ति के अनुरूप परिवर्तनशील है। देखा
जाए तो क्रूरता कोई एक कार्य नहीं है बल्कि यह एक पक्ष द्वारा किए गए कई कार्यों
का सम्मिलित प्रभाव है, जिससे दूसरे पक्ष को चोट पहुँचती है। वैवाहिक
क्रूरता का न्यायिक निर्धारण करते समय स्वास्थ्य, मानसिकता, व्यक्तित्व, सामाजिक
और आर्थिक स्तर, शिक्षा एवं पारिवारिकता जैसी बातों को दृष्टिगत
रखा जाता है।
एक
सर्वेक्षण के मतानुसार हिंदू विवाह तथा विवाह-विच्छेद अधिनियम के अधीन
तलाक के लिए दायर किये गये मुकदमों में 27
प्रतिशत परगमन, 21 प्रतिशत नपुंसकता,
22 प्रतिशत परित्याग तथा 29 प्रतिशत
क्रूरता के आधार पर दायर किये जाते हैं। भारत में तलाकशुदा स्त्रियों की संख्या
पुरुषों के मुकाबले अधिक है। यह अनुपात 10:10.3
का है।तलाक की परिकल्पना पुरातन हिंदू
समाज के नैतिक प्रतिमानों और शताब्दियों पुरानी मानसिक स्थिति के कारण अस्वाभाविक
लग सकती है। किंतु वर्तमान सामाजिक परिस्थितियों को मद्देनजर रखतेहुए “तलाक’ की
व्यवस्था विवाह संस्था के हित में है। यह अवश्य होना चाहिये कि विवाह-विच्छेद केवल
उन्हीं परिस्थितियों में हो, जब अन्य सभी विकल्प निरर्थक सिद्ध हो चुके हों।
तलाक की स्थिति को यथासंभव टालना अधिक हितकर है। क्योंकि हमारे समाज में तलाकशुदा
स्त्रियों की कोई बेहतर स्थिति नहीं है और बहुधा उन्हें उचित सम्मान देने में समाज
अभी भी कोताही बरतता है। इस तार्किक परिणति
के रूप में सबसे पहले 1942 में बड़ौदा स्टेट ने विवाह विच्छेद कानून बनाया, जिसमें
कुछ आधारों पर पति-पत्नी को विवाह-विच्छेद का कानूनी अधिकार प्रदान किया गया। इसके
बाद बंबई राज्य ने 1946 में,
मद्रास राज्य ने 1949 में तथा सौराष्ट्र राज्य ने 1952
में विवाह-विच्छेद अधिनियम पारित किए।
लगभग 3 दशक पूर्व तलाक का एक केस बहुत ज्यादा चर्चा मे रहा था जिसकी भारत
मे ही नहीं बल्कि पूरे विश्व मे खूब चर्चा हुई और वो केस था “मोहम्मद अहमद खान
बनाम शाह बानो बेगम. इसी मामले को 'शाह बानो केस'
नाम से भी जाना जाता है। इस केस की जितनी अहमियत स्वतंत्र भारत के
न्यायिक इतिहास में है उतनी ही अहमियत राजनीतिक इतिहास में भी है। माना जाता है कि
देश में सांप्रदायिक तुष्टिकरण की राजनीति इसी मामले के बाद से शुरू हुई थी। इसे
समझने के लिए पहले संक्षेप में शाह बानो मामले को समझना आवश्यक है:-
शाह बानो मध्य प्रदेश के इंदौर की रहने वाली
एक मुस्लिम महिला थीं. उनके पति ने जब उन्हें तलाक दिया तब उनकी उम्र 60 वर्ष से ज्यादा हो चुकी
थी. इस उम्र में अपने पांच बच्चों के साथ पति से अलग हुई शाह बानो के पास कमाई का
कोई जरिया नहीं था। लिहाजा उन्होंने दंड प्रक्रिया संहिता CRP की धारा 125 के अंतर्गत अपने पति से भरण-पोषण भत्ता
दिए जाने की मांग की। न्यायालय ने शाह बानो के पक्ष में फैसला दिया। लेकिन उनके
पति ने इस फैसले के खिलाफ अपील की और अंततः यह मामला सर्वोच्च न्यायालय पहुंचा।शाह
बानो के पक्ष में आए न्यायालय के फैसले का भारी विरोध हुआ। आखिरकार, राजीव गांधी सरकार ने मुस्लिम धर्मगुरुओं के दबाव में आकर मुस्लिम महिला
अधिनियम, 1986 पारित कर दिया। इस अधिनियम के जरिये शाह बानो
के पक्ष में दिये गए न्यायालय के फैसले को ही पलट दिया गया। शाह बानो के पति का तर्क था कि मुस्लिम पर्सनल
लॉ के तहत तलाकशुदा महिलाओं को ताउम्र भरण-पोषण भत्ता दिए जाने का कोई प्रावधान ही
नहीं है. दूसरी तरफ शाह बानो का तर्क था कि दंड प्रक्रिया संहिता देश के प्रत्येक
नागरिक (चाहे वह किसी भी धर्म का हो) पर सामान रूप से लागू होती है लिहाजा उन्हें
भी इसका लाभ मिलना चाहिए। न्यायालय ने शाह बानो के तर्क को स्वीकार करते हुए 23
अप्रैल 1985 को उनके पक्ष में फैसला दे दिया।
इस फैसले को मुस्लिम महिलाओं के अधिकार सुनिश्चित करने के क्षेत्र में एक मील का
पत्थर माना गया और शाह बानो का नाम भारत के न्यायिक इतिहास में हमेशा के लिए दर्ज
हो गया।
इस फैसले के आने के बाद इस फैसले पर राजनीति
भी शुरू हो गई।तमाम मुस्लिम संगठन इस फैसले का विरोध करने लगे. उनका कहना था कि
न्यायालय उनके पारिवारिक और धार्मिक मामलों में हस्तक्षेप करके उनके अधिकारों का
हनन कर रहा है. जगह-जगह विरोध प्रदर्शन होने लगे. आखिरकार राजीव गांधी सरकार ने
मुस्लिम धर्मगुरुओं के दबाव में आकर मुस्लिम महिला (तलाक पर अधिकार संरक्षण)
अधिनियम, 1986 पारित
कर दिया। इस अधिनियम के जरिये सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को पलट दिया गया। ऐसा
होने पर हिंदूवादी संगठनों ने राजीव गांधी पर अल्पसंख्यक तुष्टिकरण के आरोप लगाए
और उनकी जमकर निंदा की किन्तु इससे राजीव गांधी इतने विचलित हुए कि वो तुरंत ही बहुसंख्यक
तुष्टिकरण की राह पर निकल पड़े। प्रसिद्द इतिहासकार राम चंद्र गुहा अपनी किताब 'इंडिया आफ्टर गांधी' में लिखते हैं कि शाह बानो
केस पर हुई राजनीति से नाराज चल रहे बहुसंख्यक समुदाय के तुष्टिकरण के लिए राजीव
गांधी ने राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद के ताले खुलवाने में अहम भूमिका निभाई थी।
लेकिन तुष्टिकरण की जिस राह पर राजीव गांधी निकल पड़े थे, उसके
नतीजे बेहद घातक सिद्ध हुए। इस पूरे प्रकरण का एक बेहद दिलचस्प पहलू यह भी है कि उस समय जब राजीव गांधी सरकार ने कानून
बनाकर न्यायालय के फैसले को पलटा तो तत्कालीन गृह राज्य मंत्री आरिफ मोहम्मद खान
ने अपनी ही सरकार के इस
फैसले का विरोध करते हुए इस्तीफ़ा तक दे दिया था। शाह
बानो केस जीतकर भी वह नहीं पा सकीं जिसकी लड़ाई वे लड़ रही थीं। पहले तो मुस्लिम
धर्मगुरुओं के दबाव में उन्हें स्वयं ही अपने पति से मिलने वाला भत्ता त्यागना पड़ा
और बाद में राजीव गांधी सरकार के द्वारा न्यायालय के फैसले को पलटने के स्वरूपशाह
बनो को फायदा बिलकुल नहीं हुआ हाँ नुकसान कुछ हद से ज्यादा हो गया। हालांकि साल
2001 में सर्वोच्च न्यायालय ने डेनियल लतीफी मामले की
सुनवाई के दौरान शाह बानो केस के फैसले को पुनः सही ठहराते हुए तलाकशुदा मुस्लिम
महिलाओं के लिए भत्ता सुनिश्चित कर दिया।
इस पूरे प्रकरण मे अगर कोई अच्छी और वजनदार
बात थी तो वो थी तत्कालीन राजीव गाँधी सरकार मे गृह राज्य आरिफ़ मोहम्मद खान जो कि शाह बानो केस के फैसले का तमाम मुस्लिम संगठन और
धर्मगुरुओं द्वारा विरोध करने के बावजूद स्वयं
एक मुस्लिम होकर भी इसका जमकर समर्थन कर रहे थे। बल्कि जब राजीव गांधी सरकार ने
कानून बनाकर न्यायालय के फैसले को पलटा तो आरिफ मोहम्मद खान ने इसके विरोध में
सरकार से इस्तीफ़ा तक दे दिया था। 'इंडिया आफ्टर गांधी' में इस बारे लिखा गया है कि तब
आरिफ ने एक साक्षात्कार में कहा था कि 'पूरी दुनिया में
सिर्फ भारतीय मुस्लिम महिलाएं ही ऐसी होंगी जिन्हें इस भत्ते से वंचित किया जा रहा
है।
मुस्लिम महिलाओं के साथ होने
वाले भेदभाव का जो सवाल लगभग तीस साल पहले आरिफ मोहम्मद खान ने उठाया था, वही सवाल आज फिर से सर्वोच्च न्यायालय में उठाया गया है। सर्वोच्च
न्यायालय इन दिनों शायरा बानो उत्तराखंड के काशीपुर की रहने वाली मुस्लिम महिला
हैं. साल 2002 में उनकी शादी इलाहाबाद में रहने वाले रिजवान
अहमद से हुई थी. शायरा का आरोप है कि उनके ससुराल वाले उनसे दहेज़ की मांग करते थे
और उनके साथ मारपीट भी किया करते थे. उनका यह भी आरोप है कि उन्हें ऐसी नशीली
दवाएं दी जाती थी जिनके कारण उनकी याददाश्त कमज़ोर होने लगी और अंततः वे गंभीर रूप
से बीमार पड़ गईं. शायरा के अनुसार अप्रैल 2015 में उनके पति
ने उन्हें जबरदस्ती मायके भेज दिया और कुछ समय बाद 'तीन तलाक'
देते हुए उनसे रिश्ता ही समाप्त कर दिया। इसी तलाक की वैध्यता को
चुनौती देते हुए शायरा सर्वोच्च न्यायालय पहुंची हैं. लेकिन शायरा की याचिका का
मुख्य पहलू यह भी है कि उनके माध्यम से 'मुस्लिम पर्सनल लॉ
(शरियत) एप्लीकेशन एक्ट, 1937' की धारा 2 की संवैधानिकता को भी चुनौती दी गई है. यही वह धारा है जिसके जरिये
मुस्लिम समुदाय में बहुविवाह, 'तीन तलाक' (तलाक-ए-बिद्दत) और 'निकाह-हलाला' जैसी प्रथाओं को वैध्यता मिलती है।इनके साथ ही शायरा ने 'मुस्लिम विवाह विघटन अधिनियम, 1939' को भी इस तर्क
के साथ चुनौती दी है कि यह कानून मुस्लिम महिलाओं को बहुविवाह जैसी कुरीतियों से
संरक्षित करने में सार्थक नहीं है।
बहुविवाह प्रथा को 'सती प्रथा' जितना ही घातक बताते हुए याचिका में कहा
गया है कि इससे मुस्लिम महिलाओं को सिर्फ नैतिक या भावनात्मक नुकसान ही नहीं बल्कि
आर्थिक और स्वास्थ्य संबंधी नुकसान भी हो रहे हैं. सर्वोच्च न्यायालय के ही कई
फैसलों का हवाला देते हुए याचिका में कहा गया है कि बहुविवाह प्रथा को उसी तरह
प्रतिबंधित कर दिया जाना चाहिए जैसे कभी सती प्रथा को किया गया था।शायरा का कहना
है कि पारंपरिक तौर पर भारत में कई अन्य समुदायों में भी बहुविवाह प्रथा का चलन
रहा है। लेकिन समय के साथ सभी ने इस प्रथा को समाप्त कर दिया।याचिका में सरला
मुद्गल केस का हवाला देते हुए कहा गया है कि 'इसाई समुदाय
में 1872 के अधिनियम के तहत बहुविवाह को दंडनीय माना गया है,
पारसियों में 1936 के अधिनियम के तहत यह
दंडनीय है और हिन्दू, बौध, सिख तथा
जैनियों में 1955 के अधिनियम के अनुसार बहुविवाह दंडनीय है। लेकिन 1939 का 'मुस्लिम विवाह विघटन
अधिनियम' बहुविवाह को दंडनीय नहीं मानता। लिहाजा, जहां भारत की सभी महिलाओं को बहुविवाह जैसी प्रथा से संवैधानिक सुरक्षा
प्राप्त है, वहीँ मुस्लिम महिलाओं को आज भी इस प्रथा से
बचाया नहीं जा रहा है।
तीन
तलाक के बारे में याचिका में कहा गया है कि सऊदी अरब और पकिस्तान जैसे कई
इस्लामिक देशों ने भी इस प्रथा पर पूर्ण या आंशिक प्रतिबंध लगा दिया है। लेकिन
भारतीय समाज में यह आज भी मौजूद है और भारतीय मुस्लिम महिलाओं को इसके दुष्परिणाम
भुगतने पड़ रहे हैं।शायरा की याचिका में यह भी कहा गया है कि विवाह संबधी कानून
धर्म का हिस्सा नहीं हैं और समय के साथ ऐसी प्रथाओं को बदलना जरूरी है जो लैंगिक
आधार पर भेदभाव करती हों। याचिका में मांग की गई है कि बहुविवाह जैसी प्रथा को समय
की जरूरत और सार्वजनिक व्यवस्था तथा स्वास्थ्य को ध्यान में रखते हुए समाप्त कर
दिया जाना चाहिए।'इस प्रथा के चलते पुरुष महिलाओं को संपत्ति
की तरह समझता है। यह प्रथा न सिर्फ मानवाधिकारों और लैंगिक समानता के विरुद्ध है
बल्कि कई प्रख्यात विद्वानों के अनुसार यह इस्लामी आस्था का अभिन्न हिस्सा भी नहीं
है। सऊदी अरब, पकिस्तान और इराक जैसे कई इस्लामिक देशों ने
भी इस प्रथा पर पूर्ण या आंशिक प्रतिबंध लगा दिया है। लेकिन भारतीय समाज में यह आज
भी मौजूद है। और भारतीय मुस्लिम महिलाओं को इसके दुष्परिणाम भुगतने पड़ रहे हैं।याचिका
में कुछ इस्लामिक विद्वानों के हवाले से यह भी कहा गया है कि 'कुरआन' में भी इस तरह के तलाक का जिक्र ही नहीं
मिलता । बल्कि 'कुरआन' के अनुसार तलाक
के वे ही तरीके सही हैं जिनमें तलाक के पुख्ता होने से पहले पुनः विचार करने की
संभावनाएं हों।
शायरा के अनुसार 'तलाक-ए-बिद्दत' और पुनर्विचार का मौका दिए बिना ही तलाक देने जैसी प्रथाएं मुस्लिम
महिलाओं के मौलिक अधिकारों के भी खिलाफ हैं। ऐसी प्रथाएं उनके सम्मान से जीने के
अधिकार का हनन कर रही हैं. याचिका में कुछ ऐसे भी मामलों का जिक्र किया गया है
जिनमें किसी मुस्लिम महिला को स्काइप, फेसबुक या एक एसएमएस
करके ही तलाक दे दिया गया था।उड़ीसा की रहने वाली नगमा बीबी का उदाहरण भी याचिका
में दिया गया है। नगमा के पति ने शराब के नशे में उसे तलाक दे दिया था। अगली सुबह
उसे अपने किये का पछतावा भी हुआ लेकिन स्थानीय धर्मगुरुओं के अनुसार उनका तलाक हो
चुका था। नगमा को उसके बच्चों के साथ वापस मायके भेज दिया गया और कहा गया कि वो
दोबारा अपने पति के साथ तभी रह सकती है जब 'निकाह-हलाला'
पूरा करे।ऐसे ही अन्य उदाहरण देते हुए याचिका में इस
तरह के तलाक पर रोक लगाने की मांग की गई है।याचिका में विधायिका
पर भी निशाना साधते हुए कहा गया है कि समान नागरिक संहिता आज के समाज की जरूरत है, लेकिन सरकार लगातार इससे बचना चाहती है।
याचिका के अनुसार निकाह-हलाला वह प्रथा है
जिसके अंतर्गत कोई तलाकशुदा मुस्लिम महिला यदि अपने पति से पुनः शादी करना चाहती
है तो पहले उसे किसी अन्य व्यक्ति से शादी करनी होती है। इसके बाद जब यह दूसरा
व्यक्ति भी उसे तलाक दे, तभी वह अपने पहले पति से पुनः शादी कर सकती है. इस प्रथा को महिलाओं के
लिए सबसे बुरा बताते हुए याचिका में कहा गया है कि यह प्रथा एक तरह से महिलाओं के
बलात्कार की अनुमति देती है. कोई व्यक्ति यदि नशे में भी अपनी पत्नी को एकतरफा
तलाक दे देता है तो उस महिला को या तो हमेशा के लिए अपने पति से अलग होना पड़ता है
या साथ रहने से पहले किसी अन्य व्यक्ति से शादी करने को मजबूर होना पड़ता है।इन सभी
प्रथाओं को मौलिक अधिकारों का हनन मानते हुए और शायरा ने इन्हें असंवैधानिक घोषित
करने की मांग की है। उन्होंने अपनी याचिका में यह तर्क भी दिया है कि भारतीय
संविधान का अनुछेद 25 जो धार्मिक स्वतंत्रता की बात करता है,
उसकी भी कुछ सीमाएं हैं. शायरा का कहना है कि यह अनुच्छेद तभी तक
सही कहा जा सकता है जब तक यह अन्य मौलिक अधिकारों का हनन न करे और मानवाधिकारों
के खिलाफ न हो।यह याचिका इसलिए भी काफी अहम मानी जा रही है क्योंकि यदि
इसमें फैसला शायरा बानो के पक्ष में आता है तो यह न सिर्फ न्यायिक तौर पर एक
ऐतिहासिक फैसला होगा बल्कि इसके निश्चित ही राजनीतिक परिणाम भी होंगे।
विधायिका पर भी निशाना साधते हुए इस याचिका
में कहा गया है कि समान नागरिक संहिता आज के समाज की जरूरत है लेकिन सरकार लगातार
इससे बचना चाहती है. सर्वोच्च न्यायालय स्वयं भी बीते कुछ समय से लगातार 'समान नागरिक संहिता' को लागू करने के लिए सरकार को इशारे करता रहा है. ऐसे में शायरा की याचिका
ने न्यायालय को एक और मौका दे दिया है। सर्वोच्च न्यायालय ने पिछले साल भी स्वतः
संज्ञान लेते हुए एक याचिका पर सुनवाई शुरू की थी जिसमें मुस्लिम महिलाओं के साथ
हो रहे भेदभाव चर्चा का विषय थे। उस याचिका को भी अब न्यायालय ने शायरा की याचिका
के साथ शामिल कर लिया है. जस्टिस ए आर दवे और जस्टिस ए के गोयल इस याचिका की सुनवाई
कर रहे हैं और उन्होंने केंद्र सरकार के विभिन्न मंत्रालयों से इस याचिका पर जवाब
दाखिल करने को कहा है।इसीलिए शायरा बानो की याचिका को बहुत ही अहम माना जा रहा है। यदि इस याचिका में फैसला शायरा बानो के पक्ष में आता है तो यह न सिर्फ न्यायिक तौर
पर एक ऐतिहासिक फैसला होगा बल्कि इसके निश्चित ही राजनीतिक परिणाम भी होंगे। भारतीय
न्यायिक और राजनीतिक इतिहास में जो जगह शाह बानो केस की है, शायरा
बानो केस भी लगभग वैसी ही जगह बनाने से बस एक कदम की दूरी पर खड़ा है।
भारतीय मुस्लिम महिला आंदोलन ने तीन बार तलाक कहने पर प्रतिबंध की मांग
करते हुए एक अभियान शुरू किया है। इसके तहत एक याचिका तैयार की गई है, जिसपर 50 हजार मुस्लिमों ने हस्ताक्षर किए हैं।गुजरात, महाराष्ट्र, यूपी समेत 13 राज्यों के मुस्लिमों ने इस पर हस्ताक्षर
किए है। हालांकि ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने इसके विरोध का ऐलान किया
है। भारतीय मुस्लिम महिला
आंदोलन ने नेशनल कमिशन फॉर वुमेन से भी इस अभियान को अपना समर्थन देने के
लिए संपर्क साधा है। याचिका पर गुजरात, महाराष्ट्र,
राजस्थान, मध्यप्रदेश, कर्नाटक, तमिलनाडु,
तेलंगाना, ओडिशा, पश्चिम बंगाल,
बिहार, झारखंड, केरल,
उत्तर प्रदेश राज्यों
के मुस्लिमों ने हस्ताक्षर किए हैं।भारतीय मुस्लिम महिला आंदोलन की संयोजक नूरजहां
साफिया नियाज के मुताबिक आने वाले दिनों में और लोग इस अभियान को अपना समर्थन
देंगे।
आज
जब चारों ओर भारतीय मुस्लिम महिलाएं पुरुष द्वारा किए जा रहे अमानवीय अत्याचार पर
एक जुट होने का प्रयास कर रही है तो एक भारतीय होने के नाते हम सब कि ये
ज़िम्मेदारी बनती है कि हम शायरा बानो केस मे हर तरह से भारतीय न्यायपालिका द्वारा
किए जा रहे अच्छे कार्यों को अगर भारतीय राजनीति उस पर कुठारघात करने का प्रयास
करे तो उसे रोकें ही नहीं वरन उसका पुरजोर विरोध करे। तभी हम महिलाओं के प्रति
अपनी जिम्मेदारियों और नजरिए दोनों को सही साबित कर पाएंगे।
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प्रदीप भट्ट :::
03.06.2016
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