Tuesday, 31 May 2016

बोलने की आज़ादी




         “बोलने की आज़ादी”

       आजकल ऑल इण्डिया बकचोद के तन्मय भट्ट द्वारा भारत रत्न लता मंगेशकर और भारत रत्न सचिन तेंदुलकर पर बनाया गया दो मिनिट का वीडियो जिसे उन्होने यू ट्यूब पर अपलोड किया है,चर्चा का विषय बना हुआ है। एमएनएस द्वारा तन्मय भट्ट और एआईबी के लोगों पर एफ़आईआर भी दर्ज कराई जा चुकी है। आखिर ऐसा क्या हो गया कि लगभग पूरा बॉलीवूड उनके द्वारा अपलोड किए गए इस वीडियो के विरूद्ध हो गया ? जब कि कुछ दिनों पूर्व बॉलीवूड के कुछ चुनिन्दा सितारे? उनके कार्यक्रम मे भाग लेकर अपने को धन्य समझ रहे थे। या तो उस समय वे लोग स्वस्थ हास्य, फूहड़ हास्य और बीमार मानसिकता के हास्य मे अंतर नहीं कर पा रहे थे या अब नहीं कर पा रहे थे। इस पर बहस करके मैं उनकी शैक्षिक योग्यता पर प्रश्न चिन्ह नहीं लगाना चाहता।

        मै पहले भी अपने लेखों मे इस बात का जिक्र कर चुका हूँ कि हर चीज कि एक लिमिट होती है और हमे उस लिमिट का ध्यान रखना ही चाहिए। शायद 3rd या 4th स्टैंडर्ड मे एक lesion बढ़ा था जिसे मैं स्वम भी लिखते हुए ध्यान मे रखता हूँ। lesion कुछ इस तरह है।

“एक व्यक्ति के आगे एक दूसरा व्यक्ति अपने हाथ मे लिए छाते को ज़ोर ज़ोर से दायीं और बायीं ओर तेजी से घूमा रहा है। पीछे आ रहा व्यक्ति इस पर ऐतराज जताता है तो आगे वाला व्यक्ति कहता है कि वह एक आजाद देश का नागरिक है अतएव वह अपनी आज़ादी का उपयोग कर रहा है इससे किसी को क्यों  परेशानी होनी चाहिए ? देश का सविधान भी मुझे आज़ादी से रहने और कुछ भी करने की इजाजत देता है तब पीछे चलने वाला व्यक्ति उसे बताता है महाशय अगर आप जैसी आज़ादी का सभी लोग इसी तरह इस्तेमाल करेंगे तो सभी को चोट लगनी स्वाभाविक है, और हाँ इस देश का सविंधान आपको आज़ादी से कुछ भी करने और रहने की आज़ादी तो देता है किन्तु वहीं तक जहां तक आप दूसरे किसी व्यक्ति की आज़ादी मे बाधक न बन रहे हों। ये सुनकर आगे चलने वाला व्यक्ति पीछे चलने वाले व्यक्ति से क्षमा मांगता है और भविष्य मे इस बात का ध्यान देने का वादा करता है।“



एक यही महतावपूर्ण बात एआईबी के कर्ता-धर्ताओ को समझनी चाहिए थी और अगर उन्हे इस बात का ज्ञान नहीं था तो एआईबी के कार्यक्रमों  मे जाने वालों और बेहूदे कमेंट पर दाँत निपोरने वालों की भी ये ज़िम्मेदारी बनती थी कि वे उन लोगों को स्वस्थ्य,फूहड़ और बीमार मानसिकता वाले हास्य मे अंतर करवाते किन्तु उन्होने ऐसा कुछ नहीं किया तो मुझे तो उनकी आईक्यू पर ही तरस आ रहा है।ख़ैर जो होना था हो चुका “अब पछताय क्या होत है जब चिड़िया चुग गई खेत”।

        एआईबी की स्थापना गुरसिमरन खंबा और तन्मय भट्ट ने की तत्पश्चात रोहन जोशी  और आशीष शाक्य,अबिश मैथ्यू और कनीज़ सुरका भी इससे जुड़ गए। इन लोगों ने राजनीति फिल्मी दुनियाँ और अन्य मुद्दों पर भी हास्य के नजरिए से कमेंट करने शुरू किए जिनहे यू ट्यूब पर अलग अलग माध्यमों से प्रस्तुत (अपलोड )किया जाता रहा किन्तु फ़ंड की कमी के चलते लोगों तक पहुँच नहीं बन पा रही थी। लेकिन 2015 आते आते इस ग्रुप के पास मार्च 2015 तक लगभग 100 मिलियन दर्शक जुड़ गए। धीरे धीरे ये ग्रुप लोकप्रियता के साथ साथ विवादों मे भी आने लगा। दिसम्बर-2014 मे एआईबी ने एक शो “ऑल इण्डिया बकचोद नॉकआउट चैम्पियनशिप का आयोजन किया जिसमे कारण जौहर रणवीर सिंह,अर्जुन कपूर ने इसमे भाग लिया। इसके आयोजन से इस ग्रुप को लगभग 40 लाख रुपए की आमदनी हुई।

       इसके अतिरिक्त इस ग्रुप ने यू ट्यूब पर अपना एक अलग चैनल “एआईबी दूसरा” खोला। इसे लगभग अड़तीस हजार दर्शक मिले। ओक्टोबर -2015 मे एआईबी ने एक नई कॉमेडी सिरीज़ “ON AIR With AIB” स्टार नेटवर्क के साथ लॉंच किया।इस सिरीज़ मे 20 एपिसोड जिनमे 10 इंग्लिश और 10 हिन्दी मे थे का प्रसारण hot star पर किया। AIB द्वारा कुछ प्रमुख एपिसोड जो प्रचारित और प्रसारित किए गए उनका विवरण इस प्रकार है।

एपिसोड
Name in English
हिन्दी मे नाम
1
Why be Good
जबान संभाल के
2
Aag - The Fire
आग – दी फायर
3
Cop Blocked
डर के आगे पुलिस है
4
Space - The Final Frontier
थोड़ा एडजस्ट करो Thoda Adjust Karo
5
HIV/AIDS - Red Ribbon Red Alert
एचआईवी –नज़र हटाओ जन गवाओं
6
Monumental Screw Up
पुराना क़िला नयी वाट
7
Delhi Smelly
काट कलेजा दिल्ली
8
Ignorth East
घरवाले बाहरवाले
9
Get High on Your Own Supply
आखरी नशा
10
Sex and the CSE
फूल और काँटे



      
        हास्य बिखेरना किसी भी कलाकार को तरोताजगी प्रदान करता है किन्तु कई बार देखा गया है कि हास्य बिखेरने वाला कलाकार जाने-अनजाने राजनीति का भी शिकार हो जाता है ऐसा पिछले दिनों किकू शारदा के साथ हो चुका है जब उन्होने राम रहीम के विषय मे कुछ कहा और उन्हे जेल भेज दिया गया।पालघर कि दो लड़कियों ने बाला साहब के बारे मे कुछ कहा और उन्हे जेल जाना पड़ा। इसी प्रकार कार्टूनिस त्रिपाठी को भी इसी से दो चार होना पड़ा ।इसमे दो बाते विशेष हैं पहली कि आप किसके लिए और कितना व्यंग्य कर रहे हो ।कई बार मीडिया भी जानबूझकर सामने वाले को इतना चिड़ा देता है जिससे कि वो गुस्से मे अपना आपा खो देता है और परिणिति स्वरूप उसे समाज के कुछ छद्म वेषी लोगों का कोपभाजन बनना पड़ता है।



        अनुपम खेर कहते हैं कि मैंने हास्य के लिए अनेकों पुरुस्कार प्राप्त किए है लेकिन फूहल हास्य के लिए नहीं।ये कुछ ज्यादा ही हो गया।उन्हे वो सभी फिल्मे देखनी चाहिए जिनके लिए उन्हे पुरुस्कृत किया गया है तब उन्हें स्वत: समझ आ जाएगा।इसी प्रकार राजू श्रीवास्तव ने लालू प्रसाद यादव कि नकल कर-कर के अपना कैरियर चमका लिया, ये और बात कि लालू ने कभी बुरा नहीं माना । किन्तु तन्मय ने स्वस्थ और बीमार मानसिकता वाले हास्य मे अंतर करने मे चूक कर दी। जिसका खामियाजा वे भुगत रहे हैं। कुछ लोगों का ये कहना कि तन्मय ऐसा करके सस्ती लोकप्रियता बटोर रहे हैं तो ऐसे लोगों को आत्मचिंतन कि आवश्यकता है।तन्मय पर अपनी भड़ास निकालकर वे भी लोकप्रियता ही बटोरना चाहते हैं। बेहतर हो तन्मय इस किस्से को जितनी जल्दी हो सके समाप्त करें। गलती कि है तो माफी मांगने मे कैसी शर्म?

::: प्रदीप भट्ट :::
31.05.2016



Saturday, 21 May 2016

बुद्ध मुस्कुराए

बुद्ध मुस्कुराए




आज बुद्ध पुर्णिमा है। यानि महात्मा बुद्ध का जन्मदिन। आखिर एक राजकुल मे पैदा हुआ व्यक्ति कैसे उस स्थान तक पहुँच गया जहाँ पहुँचने मे ऋषियों मुनियों को घोर तप से गुजरना पड़ता है।मुझे याद है 11 मई-1998 का वो दिन जब “बुद्ध मुस्कुराए थे “ और भारत ने पूरे विश्व को दूसरे परमाणु विस्फोट से चकित कर दिया था। इस कार्य को अंजाम तक पहुंचाने की ज़िम्मेदारी स्वर्गीय डॉक्टर अब्दुल कलाम जैसे प्रखर वैज्ञानिक को सौंपी थी और उन्होने इसे पूरी निष्ठा और गोपनियता बरतते हुए तात्कालिक प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपई को विस्फोट उपरांत इस  कूट वाक्य से सूचित किया कि बुद्ध मुस्कुराए यानि परमाणु परीक्षण सफल हुआ। इस पूरे मिशन को कैसे अंजाम दिया गया । इस पर तो बाद मे पूरी बहस चल निकली कि भारतीय वैज्ञानिकों ने कैसे अमेरिकी सेटेलाइट को धत्ता बताते हुए इस मिशन को सफलता पूर्वक कैसे अंजाम तक पहुंचाया।




                      11 मई-1998 को राजस्थान के पोखरण मे दूसरा परमाणु विस्फोट 

      वैसे तो बचपन मे जब हम शैक्षिक योग्यता प्राप्त कर रहे होते हैं तो हमारी इतिहास की पुस्तक मे गौतम बुद्ध के ऊपर पूरा एक पाठ होता है । जिससे प्रत्येक विद्यार्थी को जीवन उपयोगी बातों की जानकारी प्राप्त होती है किन्तु मुझे जो सबसे प्रभावित लाइन लगती है वह है  “ बुद्धम शरणम गच्छामी ” यानि बुद्ध की शरण मे चलो तो सबका कल्याण होगा। बुद्ध की शरण मतलब भगवान की शरण मे। वैसे भी हिन्दू धर्म ग्रंथो के अनुसार सिधार्थ सिद्धार्थ या गौतम बुद्ध या महात्मा बुद्ध को भगवान विष्णु का अवतार ही कहा जाता है। इससे पहले कि मई आगे चलूँ आइये  सिद्धार्थ या गौतम बुद्ध या महात्मा बुद्ध के जीवन पर कुछ प्रकाश डालते हैं।

      क्षत्रिय कुल के शाक्य नरेश शुद्धोधन के घर राजकुमार सिद्धार्थ  का जन्म 563 ईस्वी पूर्व मे तत्कालीन राजधानी कपिलवस्तु के निकट लुंबिनी, नेपाल में हुआ था। लुम्बिनी वन नेपाल के तराई क्षेत्र में कपिलवस्तु और देवदह के बीच नौतनवा स्टेशन से 8 मील दूर पश्चिम में रुक्मिन देई नामक स्थान के पास स्थित था। कपिलवस्तु की महारानी महामाया देवी के अपने नैहर देवदह जाते हुए रास्ते में प्रसव पीड़ा हुई और वहीं उन्होंने एक बालक को जन्म दिया। सिद्धार्थ  उनका बचपन का नाम था। सिद्धार्थ की माता मायादेवी जो कोली वन्श की थी का उनके जन्म के सात दिन बाद निधन हो गया था। उनका पालन पोषण उनकी मौसी और शुद्दोधन की दूसरी रानी महा-प्रजावती ने किया। शिशु का नाम सिद्धार्थ रखा गया, जिसका अर्थ है "वह जो सिद्धी प्राप्ति के लिए जन्मा हो"

      जन्म समारोह के दौरान, साधु द्रष्टा असित ने अपने पहाड़ के निवास से घोषणा की कि बच्चा या तो एक महान राजा या एक महान पवित्र पथ प्रदर्शक बनेगा।  शुद्दोधन ने पांचवें दिन एक नामकरण समारोह आयोजित किया और आठ ब्राह्मण विद्वानों को भविष्य पढ़ने के लिए आमंत्रित किया। सभी ने एक सी दोहरी भविष्यवाणी की, कि बच्चा या तो एक महान राजा या एक महान पवित्र आदमी बनेगा। दक्षिण मध्य नेपाल में स्थित लुंबिनी में उस स्थल पर महाराज अशोक ने तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व बुद्ध के जन्म की स्मृति में एक स्तम्भ बनवाया था। बुद्ध का जन्म दिवस व्यापक रूप से थएरावदा देशों में मनाया जाता है। सिद्धार्थ के मन मे बाल्यकाल से ही करुणा और दया भरी हुई थी । इसका परिचय उनके आरंभिक जीवन की अनेक घटनाओं से पता चलता है। घुड़दौड़ में जब घोड़े दौड़ते और उनके मुँह से झाग निकलने लगता तो सिद्धार्थ उन्हें थका जानकर वहीं रोक देते  और जीती हुई बाजी हार जाते। खेल में भी सिद्धार्थ को खुद हार जाना पसंद था क्योंकि किसी को हराना और किसी का दुःखी होना उनसे देखा नहीं जाता था। सिद्धार्थ ने चचेरे भाई देवदत्त द्वारा तीर से घायल किए गए हंस की सहायता की और उसके प्राणों की रक्षा की। इसी एक घटना से उनकी करुणामयी छ्वी उभरने लगी थी।

      सिद्धार्थ ने गुरु विश्वामित्र के पास वेद और उप-निषद्‌ तो पढ़े ही, राजकाज और युद्ध-विद्या की भी शिक्षा ली। कुश्ती, घुड़दौड़, तीर-कमान, रथ हाँकने में कोई उसकी बराबरी नहीं कर पाता। सोलह वर्ष की उम्र में सिद्धार्थ का कोली कन्या यशोधरा के साथ विवाह हुआ। पिता द्वारा ऋतुओं के अनुरूप बनाए गए वैभवशाली और समस्त भोगों से युक्त महल में वे यशोधरा के साथ रहने लगे जहाँ उनके पुत्र राहुल का जन्म हुआ। लेकिन विवाहके बाद उनके मन मे वैराग्य उत्पन्न हो गया जिस कारण उनका मन राज काज और घर परिवार मे नहीं लग पा रहा था ।जब इन सब बातों का पता      राजा शुद्धोधन को चला तो उन्होने सिद्धार्थ के लिए भोग-विलास का भरपूर प्रबंध कर दिया। तीन ऋतुओं के लायक तीन सुंदर महल बनवा दिए। वहाँ पर नाच-गान और मनोरंजन की सारी सामग्री जुटा दी गई। दास-दासी उसकी सेवा में रख दिए गए। पर ये सब चीजें सिद्धार्थ को संसार में बाँधकर नहीं रख सकीं। वसंत ऋतु में एक दिन सिद्धार्थ बगीचे की सैर पर निकले। उन्हें सड़क पर एक बूढ़ा आदमी दिखाई दिया जिसके दाँत टूट गए थे, बाल पक गए थे और शरीर भी टेढ़ा हो गया था। हाथ में लाठी पकड़े धीरे-धीरे काँपता हुआ वह सड़क पर चल रहा था। इसी प्रकार दूसरी बार जब वे  बगीचे की सैर को निकले , तो उनके सामने एक रोगी आ गया जिसकी साँस तेजी से चल रही थी,कंधे ढीले पड़ गए थे। बाँहें सूख गई थीं, पेट फूल गया था, चेहरा पीला पड़ गया था और वह दूसरे के सहारे वह बड़ी मुश्किल से चल पा रहा था इसी क्रम मे तीसरी बार सिद्धार्थ ने रास्ते मे एक अर्थी देखि जिसे लेकर चार आदमी जा रहे थे। पीछे-पीछे बहुत से लोग थे। कोई रो रहा था, कोई छाती पीट रहा था, कोई अपने बाल नोच रहा था। इन दृश्यों ने सिद्धार्थ को बहुत विचलित कर दिया और उन्होंने सोचा कि धिक्कार है ऐसी जवानी को, जो जीवन को सोख लेती है। धिक्कार है ऐसे स्वास्थ्य को, जो शरीर को नष्ट कर देता है। धिक्कार है ऐसे जीवन को, जो इतनी जल्दी अपना अध्याय पूरा कर देता है। क्या बुढ़ापा, बीमारी और मौत सदा इसी तरह होती रहेगी ? चौथी बार जब वे पुन: बगीचे की सैर को निकले तो उन्हें एक संन्यासी दिखाई पड़ा। संसार की सारी भावनाओं और कामनाओं से मुक्त प्रसन्नचित्त सन्यासी ने सिद्धार्थ को बहुत ज्यादा प्रभावित किया और इसी समय उन्होने परिवार त्यागने का निश्चय किया।

      पत्नी यशोधरा, दुध-मुँहे बच्चे राहुल और कपिल वस्तु जैसे राज्य का मोह छोड़कर सिद्धार्थ तपस्या के लिए चल पड़े । घर त्यागने के पश्चात वे  राजगृह नामक स्थान पर पहुंचे, सिद्धार्थ घूमते-घूमते आलार कालाम और उद्दक रामपुत्र के पास पहुँचे । उनसे उन्होने  योग-साधना और  समाधि लगाना सीखा। किन्तु संतुष्टि न मिलने पर उन्होने वहाँ से भी प्रस्थान किया और फिर वे  उरुवेला पहुँचे और तपस्या मे लीन हो गये । सिद्धार्थ ने पहले तो केवल तिल-चावल खाकर तपस्या शुरू की, बाद में कोई भी आहार लेना बंद कर दिया। शरीर सूखकर काँटा हो गया। छः वर्ष बीत गए तपस्या करते किन्तु उन्हे इससे भी संतुष्टि नहीं मिली। तभी एक दिन कुछ स्त्रियाँ किसी नगर से लौटती हुई वहाँ से निकलीं, जहाँ सिद्धार्थ तपस्या कर रहे थे । उनका एक गीत सिद्धार्थ के कान में पड़ा- वीणा के तारों को ढीला मत छोड़ दो/ ढीला छोड़ देने से उनका सुरीला स्वर नहीं निकलेगा/ पर तारों को इतना कसो भी मत कि वे टूट जाएँ। बात सिद्धार्थ को जँच गई।  इस गीत से उनके मन प्रफुल्लित हो गया और उन्होने  मान लिया कि नियमित आहार-विहार से ही योग सिद्ध होता हैअति किसी बात की अच्छी नहीं होती । किसी भी प्राप्ति के लिए मध्यम मार्ग ही ठीक होता है।

वैशाख पूर्णिमा के दिन सिद्धार्थ वटवृक्ष के नीचे ध्यानस्थ थे। समीपवर्ती गाँव की एक स्त्री सुजाता को पुत्र रत्न कि प्राप्ति हुई चूँकि उसने बेटे के लिए एक वटवृक्ष की मनौती मानी थी। अतएव वह मनौती पूरी करने के लिए सोने के थाल में गाय के दूध की खीर भरकर पहुँची और चूँकि वहाँ  सिद्धार्थ ध्यान कर रहा थे तो ऐसा प्रतीत हुआ कि जैसे वृक्ष देवता ही मानो पूजा लेने के लिए शरीर धरकर बैठे हैं। इसीलिए सुजाता ने बड़े आदर से सिद्धार्थ को खीर भेंट की और कहा- जैसे मेरी मनोकामना पूरी हुई, उसी तरह आपकी भी हो। उसी रात को ध्यान लगाने पर सिद्धार्थ की साधना सफल हुई और उन्हें  सच्चा बोध हुआ। तभी से सिद्धार्थ बुद्ध कहलाए। जिस पीपल वृक्ष के नीचे सिद्धार्थ को बोध मिला वह बोधिवृक्ष कहलाया और गया का समीपवर्ती वह स्थान बोधगया बन गया जो की आज बिहार राज्य मे स्थित है।हिन्दू धारग्रन्थोन मे मान्यता है कि श्राद्ध पक्ष मे यहाँ भोजन करने से पित्रों को मोक्ष कि प्राप्ति होती है और फिर उस परिवार को श्राद्ध करने की आवश्यकता नहीं होती जब तक कि उस परिवार मे अन्य किसी कि मृत्यु न हो। चार सप्ताह तक बोधिवृक्ष के नीचे रहकर धर्म के स्वरूप का चिंतन करने के बाद बुद्ध धर्म का उपदेश करने निकल पड़े। आषाढ़ की पूर्णिमा को वे काशी के पास मृगदाव (वर्तमान में सारनाथ) पहुँचे। वहीं पर उन्होंने सबसे पहला धर्मोपदेश दिया और पहले के पाँच मित्रों को अपना अनुयायी बनाया और फिर उन्हें धर्म प्रचार करने के लिये भेज दिया।

      80 वर्ष की उम्र तक उन्होने अपने धर्म का संस्कृत के बजाय उस समय की सीधी सरल लोक-भाषा पाली में प्रचार किया । उनके सीधे सरल धर्म की लोकप्रियता तेजी से बढ़ने लगी। पालि सिद्धांत के महा-परिनिर्वाण सुत्त के अनुसार 80 वर्ष की आयु में बुद्ध ने घोषणा की कि वे जल्द ही परिनिर्वाण के लिए रवाना होंगे। बुद्ध ने अपना आखिरी भोजन, जिसे उन्होंने कुन्डा नामक लोहार से एक भेंट के रूप में प्राप्त किया था, ग्रहण किया किन्तु उसे खाकर वे गंभीर रूप से बीमार पड़ गये। बुद्ध ने अपने शिष्य आनंद को निर्देश दिया कि वह कुन्डा को समझाए कि उसने कोई गलती नहीं की है। उन्होने कहा कि यह भोजन अतुल्य है। भगवान बुद्ध ने लोगों को मध्यम मार्ग का उपदेश दिया। उन्होंने दुःख, उसके कारण और निवारण के लिए अष्टांगिक मार्ग सुझाया। उन्होंने अहिंसा पर बहुत जोर दिया है। उन्होंने यज्ञ और पशु-बलि की निंदा की।

      बौद्ध धर्म सभी जातियों और पंथों के लिए खुला है। उसमें हर आदमी का स्वागत है। ब्राह्मण हो या चांडाल, पापी हो या पुण्यात्मा, गृहस्थ हो या ब्रह्मचारी सबके लिए उनका दरवाजा खुला है। उनके धर्म में जात-पाँत, ऊँच-नीच का कोई भेद-भाव नहीं है। बुद्ध के धर्म प्रचार से भिक्षुओं की संख्या बढ़ने लगी। बड़े-बड़े राजा-महाराजा भी उनके शिष्य बनने लगे। शुद्धोधन और राहुल ने भी बौद्ध धर्म की दीक्षा ली। भिक्षुओं की संख्या बहुत बढ़ने पर बौद्ध संघ की स्थापना की गई। बाद में लोगों के आग्रह पर बुद्ध ने स्त्रियों को भी संघ में ले लेने के लिए अनुमति दे दी, यद्यपि इसे उन्होंने विशेष अच्छा नहीं माना। भगवान बुद्ध ने बहुजन हिताय लोक कल्याण के लिए अपने धर्म का देश-विदेश में प्रचार करने के लिए भिक्षुओं को इधर-उधर भेजा। अशोक आदि सम्राटों ने भी विदेशों में बौद्ध धर्म के प्रचार में अपनी अहम्‌ भूमिका निभाई। मौर्यकाल के शासक सम्राट अशोक ने वास्तविक रूप से बौद्ध धर्म को विश्व के कोने कोने मे प्रचारित और प्रसारित किया और इसके लिए अपने पुत्र और पुत्री को नियुक्त किया।यही कारण है कि भारत से ज्यादा बौद्ध धर्म कि मान्यता  चीन, जापान, कोरिया, मंगोलिया, बर्मा, थाईलैंड,  श्रीलंका, नेपाल,भूटान मे ज्यादा है। इन देशों में बौद्ध धर्म बहुसंख्यक धर्म है।

      और अंत मे भारतवर्ष जो कि ऋषियों मुनियों का देश रहा है और एक समय मे पूरे विश्व का गुरु रह चुका है, जहाँ की परंपरा को पूरा विश्व मानता है। भारत मे जन्मे आर्यभट्ट  जिनहोने विश्व को शून्य से परिचय कराया बीजगणित और रेखागणित के ज्ञान से परिचित कराया जिस भारतवर्ष मे पैदा हुए महात्मा बुद्ध के प्रचारित- प्रसारित बौद्ध धर्म को चीन और जापान जैसे देश मानते हैं वही चीन जब भारत वर्ष पर हमला करता है तो प्रतीत होता है कि उसने धर्म तो अपना लिया किन्तु अपनी सोच को बादल नहीं पाया वरना क्या कारण है कि आज भी बौद्ध धर्म अपनाने वाले देश जहाँ भारत का सम्मान करते हैं वहीं चीन और श्रीलंका जब तक भारत को आँख दिखने से बाज नहीं आते। तालिबनों द्वारा अफगानिस्तान मे बुद्ध की प्रतिमाओं को कैसे खंडित (बारूद से उड़ा दिया गया था) किया गया था।

::: प्रदीप भट्ट :::

21.05.2016

Thursday, 12 May 2016

एक आईएएस






      एक IAS या एक महिला या एक दलित महिला IAS”

परसों यूपीएससी का रिज़ल्ट आउट हुआ। इस बार प्रथम स्थान पर डेल्ही की टीना डाबी रही। यहाँ यह विशेष है कि पिछले वर्ष भी डेल्ही की ही इरा सिंघल ने प्रथम स्थान को सुशोभित किया था। जहां तक यूपीएससी की परीक्षाओ का प्रश्न है महिलाए प्रथम व दितिय स्थान प्रात करती रही है। चौथे स्थान पर आर्तिका शुक्ल हैं। दितिय स्थान पर प्रथम बार जम्मू और कश्मीर से किसी युवक ने ये स्थान हासिल किया है। जो की प्रशंसनीय है। जहां तक टीना डाबी का सवाल है वो डेल्ही बेस्ड है।डेल्ही के ही लेडी श्रीराम कॉलेज से शिक्षा प्राप्त की है।मतलब ठीक ठाक परिवार से ताल्लुक रखती हैं, किन्तु परसों से ही चाहे वो एलेक्ट्रोनिक मीडिया हो या प्रिंट मीडिया या फिर सोशल मीडिया। कोई भी उस लड़की की मेहनत को तव्व्जो न देकर इस बात को ज्यादा तव्व्जो दे रहा है कि हिंदुस्तान के इतिहास मे पहली बार एक “दलित लड़की ने भारतीय सिविल सेवा मे प्रथम स्थान प्राप्त किया है। समझ नहीं आता आप उस लड़की का हौसला बढ़ा रहे हैं या उसे बार-बार ये याद दिला रहे हो कि तुम दलित हो, तुम दलित हो।क्या इस देशी मे हिन्दू,मुस्लिम,सिक्ख ईसाई ,जैन,पारसी और अन्य समुदाय के लोग नहीं रहते। क्या इस देश मे सिर्फ मुस्लिम और दलितों पर ही चर्चा की जानी चाहिए? क्या सिर्फ कहने भर से कोई भी जाति या समुदाय समाज की मुख्य धारा मे सम्मलित हो जाएगा। क्या आप दलित-दलित या मुस्लिम-मुस्लिम कहकर उस व्यक्ति की मेहनत और ईश्वर मे उसकी आस्था का मज़ाक नहीं उड़ा रहे। अब आप इसे मानसिक बीमारी नहीं तो और क्या कहेंगे कि हम टीना डाबी को एक महिला की कामयाबी न मानकर उसको दलित ग्रंथि से जकड़ने का प्रयास कर रहे हैं। वास्तव मे हम टीना डाबी को उस दलित ग्रंथि मे नहीं जकड़ रहे वरन हम हमारे अंदर घर कर चुकी उस सडी-गली मानसिकता वाली ग्रंथि को ही पाल पोस रहे हैं और इसमे सभी मण्डल कमंडल शामिल हैं। हरियाणा काडर चुनने की इच्छा जाहीर कर टीना ने अपनी द्रढ़ इच्छा शक्ति का परिचय दिया है जिसे सल्युट किया जाना चाहिए। 


                                 टीना डाबी(2015 ki topper )

     
     कितने लोगों को याद है कि इस वर्ष 12वीं आईसीएसआई की परीक्षा मे डेल्ही की ही आध्या मदी ने आल इंडिया टॉप किया था। मै तो पिछले लगभग डेढ़ दशक से हर बार बोर्ड की परीक्षाओ मे लड़कियों को ही बाजी मारते देखता हूँ ।मुझे याद है जब मेरी बेटी ने 2005 मे मुझसे सवाल किया था कि इस बार यूपीएससी कि परीक्षा मे प्रथम कौन आया तो मैंने अंजान बनते हुए कहा कि मुझे नहीं पता तो उसने बड़े गर्व के साथ मोना पूर्थी का नाम बताया और ये भी बताया कि वो 2004 मे IRS सिलैक्ट हो गई थी और फ़रीदाबाद मे अंडर ट्रेनिंग थी।ऐसा इसलिए क्यों कि 2004 मे जब कड़कड़डूमा कोर्ट के निकट स्थित केन्द्रीय विद्यालया मे उसका 6th मे एड्मिशन हो गया तो उसने मुझसे कहा था कि पापा आप क्या चाहते हो कि मै क्या बनू और मैंने भी झट से कहा IAS कह दिया और साथ ही ये भी बताया कि इस वर्ष सी नागराजन यूपीएससी टॉप किया है तो उसने मुझे गौर से देखा था और कहा था सोचूँगी। खैर बाद मे उसने सीए का ऑप्शन चुना। चलिये इसी बहाने आजादी से पहले और बाद मे कुछ विशिष्ट महिलाओं जिन्होने समाज मे एक अलग मुकाम हासिल किया प्रकाश डालते हैं।


                         (Mona pruthi-2005 topper)
      भारत में महिलाओं की स्थिति ने पिछली कुछ सदियों में कई बड़े बदलावों का सामना किया है।प्राचीन समय  में पुरुषों के साथ बराबरी की स्थिति से लेकर मध्ययुगीन काल के निम्न स्तरीय जीवन और साथ ही कई सुधारकों द्वारा समान अधिकारों को बढ़ावा दिए जाने तक। हिंदुस्तान मे महिलाओं का इतिहास काफी गतिशील रहा है। विशेष रूप से महिलाओं की भूमिका की चर्चा करने वाले साहित्य के स्रोत बहुत ही कम हैं ; 1730 ई. के आसपास तंजावुर के एक अधिकारी त्र्यम्बकयज्वन का स्त्री-धर्म पद्धति  इसका एक महत्वपूर्ण अपवाद है। इस पुस्तक में प्राचीन काल के अपस्तंब सूत्र (चौथी शताब्दी ईपू) के काल के नारी सुलभ आचरण संबंधी नियमों को संकलित किया गया है। इसका मुखड़ा छंद इस प्रकार है:-

      “ मुख्यो धर्मः स्मृतिषु विहितो भार्तृशुश्रुषानम हि :”
      (स्त्री का मुख्य कर्तव्य उसके पति की सेवा से जुडा हुआ है।)

      विद्वानों का मानना है कि प्राचीन भारत में महिलाओं को जीवन के सभी क्षेत्रों में पुरुषों के साथ बराबरी का दर्जा हासिल था। हालांकि कुछ अन्य विद्वानों का नज़रिया इसके विपरीत है। पतंजलि और कात्यायन जैसे प्राचीन भारतीय व्याकरणविदों का कहना है कि प्रारम्भिक वैदिक काल में महिलाओं को शिक्षा दी जाती थी। ऋग्वेदिक ऋचाएं यह बताती हैं कि महिलाओं की शादी एक परिपक्व उम्र में होती थी और संभवतः उन्हें अपना पति चुनने की भी आजादी थी। ऋग्वेद और उपनिषद जैसे ग्रंथ कई महिला साध्वियों और संतों के बारे में बताते हैं जिनमें गार्गी और मैत्रेयी के नाम उल्लेखनीय हैं।प्राचीन भारत के कुछ साम्राज्यों में नगरवधु  (नगर की दुल्हन”) जैसी परंपराएं भी मौजूद थीं। महिलाओं में नगरवधु के प्रतिष्ठित सम्मान के लिये प्रतियोगिता होती थी। आम्रपाली नगरवधु का सबसे प्रसिद्ध उदाहरण रही है।अध्ययनों के अनुसार प्रारंभिक वैदिक काल में महिलाओं को बराबरी का दर्जा और अधिकार मिलता था। किन्तु बाद में (लगभग 500 ईसा पूर्व में) स्मृतियों (विशेषकर मनुस्मृति) के साथ महिलाओं की स्थिति में गिरावट आनी शुरु हो गयी और बाबर एवं मुगल साम्राज्य के इस्लामी आक्रमण के साथ और इसके बाद ईसाइयत ने महिलाओं की आजादी और अधिकारों को सीमित कर दिया।हालांकि जैन धर्म जैसे सुधारवादी आंदोलनों में महिलाओं को धार्मिक अनुष्ठानों में शामिल होने की अनुमति दी गयी है, भारत में महिलाओं को कमोबेश दासता और बंदिशों का ही सामना करना पडा है। ऐसा माना जाता है कि बाल विवाह की प्रथा छठी शताब्दी के आसपास शुरु हुई थी।

      हमारे समाज में भारतीय महिलाओं की स्थिति में मध्ययुगीन काल के दौरान और अधिक गिरावट आयी। जब भारत के कुछ समुदायों में सती प्रथा, बाल विवाह और विधवा पुनर्विवाह पर रोक, सामाजिक जिंदगी का एक हिस्सा बन गयी थी। भारतीय उपमहाद्वीप में मुसलमानों की जीत ने पर्दा प्रथा को भारतीय समाज में प्रवेश  दिया. राजस्थान के राजपूतों में जौहर की प्रथा थी। भारत के कुछ हिस्सों में देवदासियां या मंदिर की महिलाओं को यौन शोषण का शिकार होना पड़ा था। बहुविवाह की प्रथा हिन्दू क्षत्रिय शासकों में व्यापक रूप से प्रचलित थी। कई मुस्लिम परिवारों में महिलाओं को जनाना क्षेत्रों तक ही सीमित रखा गया था।इन परिस्थितियों के बावजूद भी कुछ महिलाओं ने राजनीति, साहित्य, शिक्षा और धर्म के क्षेत्रों में सफलता हासिल की । रज़िया सुल्तान दिल्ली पर शासन करने वाली एकमात्र महिला सम्राज्ञी बनीं. गोंड की महारानी दुर्गावती ने 1564 में मुगल सम्राट अकबर के सेनापति आसफ़ खान से लड़कर अपनी जान गंवाने से पहले पंद्रह वर्षों तक शासन किया था। चांद बीबी ने 1590 के दशक में अकबर की शक्तिशाली मुगल सेना के खिलाफ़ अहमदनगर की रक्षा की।जहांगीर की पत्नी नूरजहाँ ने राजशाही शक्ति का प्रभावशाली ढंग से इस्तेमाल किया और मुगल राजगद्दी के पीछे वास्तविक शक्ति के रूप में पहचान हासिल की।मुगल राजकुमारी जहाँआरा और जेबुन्निसा सुप्रसिद्ध कवियित्रियाँ थीं और उन्होंने सत्तारूढ़ प्रशासन को भी प्रभावित किया शिवाजी की माँ जीजाबाई को एक योद्धा और एक प्रशासक के रूप में उनकी क्षमता के कारण क्वीन रीजेंट के रूप में पदस्थापित किया गया था। दक्षिण भारत में कई महिलाओं ने गाँवों, शहरों और जिलों पर शासन किया और सामाजिक एवं धार्मिक संस्थानों की शुरुआत की।
      भक्ति आंदोलन ने महिलाओं की बेहतर स्थिति को वापस हासिल करने की कोशिश की और प्रभुत्व के स्वरूपों पर सवाल उठाया। एक महिला संत-कवियित्री मीराबाई भक्ति आंदोलन के सबसे महत्वपूर्ण चेहरों में से एक थीं। इस अवधि की कुछ अन्य संत-कवियित्रियों में अक्का महादेवी, रामी जानाबाई और लाल देद शामिल हैं। हिंदुत्व के अंदर महानुभाव, वरकारी और कई अन्य जैसे भक्ति संप्रदाय, हिंदू समुदाय में पुरुषों और महिलाओं के बीच सामाजिक न्याय और समानता की खुले तौर पर वकालत करने वाले प्रमुख आंदोलन थे। भक्ति आंदोलन के कुछ ही समय बाद सिक्खों के पहले गुरु, गुरु नानक ने भी पुरुषों और महिलाओं के बीच समानता के संदेश को प्रचारित किया। उन्होंने महिलाओं को धार्मिक संस्थानों का नेतृत्व करने; सामूहिक प्रार्थना के रूप में गाये जाने वाले वाले कीर्तन या भजन को गाने और इनकी अगुआई करने; धार्मिक प्रबंधन समितियों के सदस्य बनने; युद्ध के मैदान में सेना का नेतृत्व करने। विवाह में बराबरी का हक और अमृत (दीक्षा) में समानता की अनुमति देने की वकालत की। इसके अतिरिक्त सिक्ख धर्म के अन्य गुरुओं  ने भी महिलाओं के प्रति भेदभाव के खिलाफ उपदेश दिए।
      सती प्रथा एक प्राचीन और काफ़ी हद तक विलुप्त रिवाज है, कुछ समुदायों में विधवा को अपने पति की चिता में अपनी जीवित आहुति देनी पड़ती थी। हालांकि यह कृत्य विधवा की ओर से स्वैच्छिक रूप से किये जाने की उम्मीद की जाती थी, ऐसा माना जाता है कि कई बार इसके लिये विधवा को मजबूर किया जाता था। 1829 में अंग्रेजों ने इसे समाप्त कर दिया. आजादी के बाद से सती होने के लगभग चालीस मामले प्रकाश में आये हैं। 1987 में राजस्थान की रूपकंवर का मामला सती प्रथा (रोक) अधिनियम का कारण बना। इसी प्रकार जौहर का मतलब सभी हारे हुए (सिर्फ राजपूत) योद्धाओं की पत्नियों और बेटियों के शत्रु द्वारा बंदी बनाये जाने और इसके बाद उत्पीड़न से बचने के लिये स्वैच्छिक रूप से अपनी आहुति देने की प्रथा है। अपने सम्मान के लिए मर-मिटने वाले पराजित राजपूत शासकों की पत्नियों द्वारा इस प्रथा का पालन किया जाता था। यह कुप्रथा केवल भारतीय राजपूतों शासक वर्ग तक सीमित थी प्रारंभ राजपूतों ने या किसी दूसरी जाति की स्त्री ने सति (पति/पिता की मृत्यु होने पर उसकी चिता में जीवित जल जाना) जिसे उस समय के समाज का एक वर्ग पुनीत धार्मिक कार्य मानने लगा था। कभी भी भारत की दूसरी लडाका क़ौमों  "मार्शल कौमे" माना गया उनमें यह कुप्रथा कभी भी कोई स्थान न पा सकी। जाटों की स्त्रीयां युद्ध क्षेत्र में पति के कन्धे से कन्धा मिला दुश्मनों के दांत  खट्टे करते हुए शहीद हो जाती थी। मराठा महिलाएँ भी अपने योधा पति की युधभूमि में पूरा साथ देती रही हैं।इसी प्रकार दक्षिण भारत के कुछ हिस्सों में एक धार्मिक प्रथा है “देवदासी “जिसमें देवता या मंदिर के साथ महिलाओं की शादीकर दी जाती है। यह परंपरा दसवीं सदी तक अच्छी तरह अपनी पैठ जमा जुकी थी। किन्तु  बाद की अवधि में देवदासियों का अवैध यौन उत्पीडन भारत के कुछ हिस्सों में एक रिवाज बन गया।

      यूरोपीय विद्वानों ने 19वीं सदी में यह महसूस किया था कि हिंदू महिलाएं स्वाभाविक रूप से मासूमऔर अन्य महिलाओं से अधिक सच्चरित्रहोती हैं। अंग्रेजी शासन के दौरान राम मोहन राय, ईश्वर चंद्र विद्यासागर, ज्योतिबा फ़ुले, आदि जैसे कई सुधारकों ने महिलाओं के उत्थान के लिये लड़ाइयाँ लड़ीं. हालांकि इस सूची से यह पता चलता है कि राज युग में अंग्रेजों का कोई भी सकारात्मक योगदान नहीं था, यह पूरी तरह से सही नहीं है क्योंकि मिशनरियों की पत्नियाँ जैसे कि मार्था मौल्ट नी मीड और उनकी बेटी एलिज़ा काल्डवेल नी मौल्ट को दक्षिण भारत में लडकियों की शिक्षा और प्रशिक्षण के लिये आज भी याद किया जाता है।यह एक ऐसा प्रयास था जिसकी शुरुआत में स्थानीय स्तर पर रुकावटों का सामना करना पड़ा क्योंकि इसे परंपरा के रूप में अपनाया गया था। 1829 में गवर्नर-जनरल विलियम केवेंडिश-बेंटिक के तहत राजा राम मोहन राय के प्रयास सती प्रथा के उन्मूलन का कारण बने. विधवाओं की स्थिति को सुधारने में ईश्वर चंद्र विद्यासागर के संघर्ष का परिणाम विधवा पुनर्विवाह अधिनियम 1956 के रूप में सामने आया। कई महिला सुधारकों जैसे कि पंडिता रमाबाई ने भी महिला सशक्तीकरण के उद्देश्य को हासिल करने में मदद की। कर्नाटक में कित्तूर रियासत की रानी, कित्तूर चेन्नम्मा ने समाप्ति के सिद्धांत (डाक्ट्रिन ऑफ़ लैप्स) की प्रतिक्रिया में अंग्रेजों के खिलाफ़ सशस्त्र विद्रोह का नेतृत्व किया। तटीय कर्नाटक की महारानी अब्बक्का रानी ने 16वीं सदी में हमलावर यूरोपीय सेनाओं, उल्लेखनीय रूप से पुर्तगाली सेना के खिलाफ़ सुरक्षा का नेतृत्व किया। झाँसी की महारानी रानी लक्ष्मीबाई ने अंग्रेजों के खिलाफ़ 1857 के भारतीय विद्रोह का झंडा बुलंद किया। आज उन्हें सर्वत्र एक राष्ट्रीय नायिका के रूप में माना जाता है। अवध की सह-शासिका बेगम हज़रत महल एक अन्य शासिका थी जिसने 1857 के विद्रोह का नेतृत्व किया था। उन्होंने अंग्रेजों के साथ सौदेबाजी से इनकार कर दिया और बाद में नेपाल प्रस्थान कर गयीं. भोपाल की बेगमें भी इस अवधि की कुछ उल्लेखनीय महिला शासिकाओं में शामिल थीं। उन्होंने पर्दा प्रथा को नहीं अपनाया और मार्शल आर्ट का प्रशिक्षण भी लिया।


                            चंद्रमुखी बसुकादंबिनी गांगुली
      आपको जानकार आश्चर्य होगा कि 1848 तक भारत मे लड़कियों का कोई भी स्कूल नहीं थाचंद्रमुखी बसु, कादंबिनी गांगुली और आनंदी गोपाल जोशी कुछ शुरुआती भारतीय महिलाओं में शामिल थीं जिन्होंने शैक्षणिक डिग्रियाँ हासिल कीं.1917 में महिलाओं के पहले प्रतिनिधिमंडल ने महिलाओं के राजनीतिक अधिकारों की माँग के लिये विदेश सचिव से मुलाक़ात की जिसे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का समर्थन हासिल था। 1927 में अखिल भारतीय महिला शिक्षा सम्मेलन का आयोजन पुणे में किया गया था। 1929 में मोहम्मद अली जिन्ना के प्रयासों से बाल विवाह निषेध अधिनियम को पारित किया गया जिसके अनुसार एक लड़की के लिये शादी की न्यूनतम उम्र चौदह वर्ष निर्धारित की गयी थी।  भारत की आजादी के संघर्ष में महिलाओं ने एक महत्वपूर्ण भूमिका निभायी. भिकाजी कामा, डॉ॰ एनी बेसेंट, प्रीतिलता वाडेकर, विजयलक्ष्मी पंडित, राजकुमारी अमृत कौर, अरुना आसफ़ अली, सुचेता कृपलानी और कस्तूरबा गाँधी कुछ प्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानियों में शामिल हैं। अन्य उल्लेखनीय नाम हैं मुथुलक्ष्मी रेड्डी, दुर्गाबाई देशमुख आदि. सुभाष चंद्र बोस की इंडियन नेशनल आर्मी की झाँसी की रानी रेजीमेंट कैप्टेन लक्ष्मी सहगल सहित पूरी तरह से महिलाओं की सेना थी। एक कवियित्री और स्वतंत्रता सेनानी सरोजिनी नायडू भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की अध्यक्ष बनने वाली पहली भारतीय महिला और भारत के किसी राज्य की पहली महिला राज्यपाल थीं।

      भारत का संविधान सभी भारतीय महिलाओं को सामान अधिकार (अनुच्छेद 14), राज्य द्वारा कोई भेदभाव नहीं करने (अनुच्छेद 15 (1)), अवसर की समानता (अनुच्छेद 16), समान कार्य के लिए समान वेतन (अनुच्छेद 39 (घ)) की गारंटी देता है। इसके अलावा यह महिलाओं और बच्चों के पक्ष में राज्य द्वारा विशेष प्रावधान बनाए जाने की अनुमति देता है। (अनुच्छेद 15(3)), महिलाओं की गरिमा के लिए अपमानजनक प्रथाओं का परित्याग करने (अनुच्छेद 51(ए)(ई)) साथ ही काम की उचित एवं मानवीय परिस्थितियाँ सुरक्षित करने और प्रसूति सहायता के लिए राज्य द्वारा प्रावधानों को तैयार करने की अनुमति देता है। (अनुच्छेद 42)]।भारत में नारीवादी सक्रियता ने 1970 के दशक के उत्तरार्द्ध के दौरान रफ़्तार पकड़ी. महिलाओं के संगठनों को एक साथ लाने वाले पहले राष्ट्रीय स्तर के मुद्दों में से एक मथुरा बलात्कार का मामला था। एक थाने (पुलिस स्टेशन) में मथुरा नामक युवती के साथ बलात्कार के आरोपी पुलिसकर्मियों के बरी होने की घटना 1979-1980 में एक बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शनों का कारण बनी।विरोध प्रदर्शनों को राष्ट्रीय मीडिया में व्यापक रूप से कवर किया गया और सरकार को साक्ष्य अधिनियम, दंड प्रक्रिया संहिता और भारतीय दंड संहिता को संशोधित करने और हिरासत में बलात्कार की श्रेणी को शामिल करने के लिए मजबूर किया गया। महिला कार्यकर्ताएं कन्या भ्रूण हत्या, लिंग भेद, महिला स्वास्थ्य और महिला साक्षरता जैसे मुद्दों पर एकजुट हुईं।

      चूंकि शराब की लत को भारत में अक्सर महिलाओं के खिलाफ हिंसा से जोड़ा जाता है। महिलाओं के कई संगठनों ने आंध्र प्रदेश, हिमाचल प्रदेश,हरियाणा, उड़ीसा, मध्य प्रदेश और अन्य राज्यों में शराब-विरोधी अभियानों की शुरुआत की। कई भारतीय मुस्लिम महिलाओं ने शरीयत कानून के तहत महिला अधिकारों के बारे में रूढ़िवादी नेताओं की व्याख्या पर सवाल खड़े किये और तीन तलाक की व्यवस्था की आलोचना की.। भारत सरकार ने 2001 को महिलाओं के सशक्तीकरण (स्वशक्ति ) वर्ष के रूप में घोषित किया था। महिलाओं के सशक्तीकरण की राष्ट्रीय नीति 2001 में पारित की गयी थी।2006 में बलात्कार की शिकार एक मुस्लिम महिला इमराना की कहानी मीडिया में प्रचारित की गयी थी। इमराना का बलात्कार उसके ससुर ने किया था। कुछ मुस्लिम मौलवियों की उन घोषणाओं का जिसमें इमराना को अपने ससुर से शादी कर लेने की बात कही गयी थी, व्यापक रूप से विरोध किया गया और अंततः इमराना के ससुर को 10 साल की कैद की सजा दी गयी। कई महिला संगठनों और ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड द्वारा इस फैसले का स्वागत किया गया। अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस के एक दिन बाद, 9 मार्च 2010 को राज्यसभा ने महिला आरक्षण बिल को पारित कर दिया जिसमें संसद और राज्य की विधान सभाओं में महिलाओं के लिए 33% आरक्षण की व्यवस्था है।
      अंत मे मै भारत वर्ष की कुछ ऐसी महिलाओं का संक्षिप्त परिचय दे रहा हूँ जिन्होने अपने अपने क्षेत्र मे उल्लेखनीय योगदान प्रदान किया है फिर वो खेल हो राजनीति हो युद्ध हो साहित्य हो या व्यवसाय उन्होने अपनी काबलियत का लोहा मनवाकर ही दम लिया है :-
Sr.
No.
नाम
उलब्धि
विशेष
1.
प्रथम महिला स्नातक
1883
2.
सरोजनी नायडू
प्रथम राज्यपाल, उत्तर प्रदेश
1949
3.
सुचेता कृपलानी
प्रथम मुख्यमंत्री  उत्तर प्रदेश
1949-63
4.
प्रथम महिला राष्ट्रपति
(2007-12)
5.
इन्दिरा गांधी
प्रधानमंत्री

6.
प्रथम महिला भारतीय आरक्षी सेवा (आई॰पी॰एस॰) अधिकारी।

7.
प्रथम महिला लोक सभा अध्यक्ष

8.
भारतीय वायु सेना में प्रथम महिला पायलट

9.
भारत की प्रथम महिला एयर वाइस मार्शल,

एयर कॉमॉडोर के पद पर पदोन्नत होने वाली प्रथम महिला, रक्षा सेवा स्टाफ कॉलेज कोर्स पूरा करने वाली प्रथम महिला अधिकारी,
उत्तरी ध्रुव में वैज्ञानिक अनुसंधान करने वाली प्रथम भारतीय महिला
10.
विश्व निशानेबाजी प्रतियोगिता विजेता।
उन्होंने म्युनिख में आयोजित विश्व निशानेबाजी प्रतियोगिता 2010 के 50 मीटर की स्पर्धा में स्वर्ण पदक जीतकर यह उपलब्धि प्राप्त की।
11.
कल्पना चावला
प्रथम अन्तरिक्ष यात्री

12.
पी.टी. उषा
प्रथम एथलीट
उड़न परी के नाम से प्रसिद्ध
13.
साइना नेहवाल
प्रथम बैडमिंटन खिलाड़ी

14.
साइना मिर्जा
टेनिस

15।
कावेरी कलानिधि
सीएमडी, सन टीवी

16.
किरण मजूमदार शॉ
सीएमडी बायोकॉन लिमिटेड

17.
3.  उर्वी ए पीरमल   
चेयरपर्सन,अशोक पीरमल ग्रुप

18.
चन्द्र कोचर  
सीएमडी, आईसीआईसीआई बैंक

19.
अरुंधरती भट्टाचार्य
सीएमडी, स्टेट बैंक ऑफ इंडिया

20.
शोभना भरतिय
चेयरपर्सन ,हिंदुस्तान टाइम्स

21.
प्रीथा रेड्डी
एमडी, अपोलो हॉस्पिटल

22.
विनीता सिंहानिया 
एमडी, जेके लक्ष्मी सीमेंट

23.
विनीता बाली
एमडी ब्रिटानिया

24.
9.  रेणु सूद
एमडी, एचडीएफ़सी बैंक

25.
सुनीता रेड्डी
जाइंट एमडी, अपोलो हॉस्पिटल

26.
सलमा सुल्तान
प्रथम न्यूज़ रीडर

27.
मैरी कॉम
प्रथम बॉक्सर

28.
दीपिका कुमारी
प्रथम तीरंदाज

29.
बुला चौधरी
तैराकी

30.
गीता फोगत
कुश्ती

31.
तेज सोनल सिंह
शूटिंग

32.
एम. एस. सुब्बुलक्ष्मी
कर्नाटक संगीत की महारथी
1954 में पद्म भूषण
1956 में संगीत नाटक अकादमी सम्मान
1974 में रैमन मैग्सेसे सम्मान
1975 में पद्म विभूषण
1988 में कैलाश सम्मान
1990 में राष्ट्रीय एकता के लिए उन्हें इंदिरा गांधी अवार्ड
1998 में भारत रत्न समेत कई सम्मानों से नवाजा गया। इसके अतिरिक्त कई विश्वविद्यालयों ने उन्हें मानद उपाधि से सम्मानित किया।
88 साल की उम्र में महान गायिका एम.एस. सुब्बुलक्ष्मी 11 दिसंबर, 2004 को दुनिया को अलविदा कह गयीं।
1972
The list of the persons who ranked first (the "topper") for each year, along with their opted service and home state:
Year
Topper
Home State
Service
2015
Tina Dabi
2014
2013
Gaurav Aggrawal
2012
Haritha V Kumar
2011
Shena Aggarwal
2010
S Divyadharsini
2009
2008
Shubhra Saxena
2007
Adapa Karthik
2006
Mutyalaraju Revu
2005
Mona Pruthi
2004
S Nagarajan
2003
Roopa Mishra
2002
Ankur Garg
2001
Alok Ranjan Jha
2000
Vijaylakshmi Bidari
1999
Sorabh Babu
1998
Bhawna Garg
1997
Devesh Kumar
1996
Sunil Kumar Barnwal
1995
Iqbal Dhaliwal
1994
Asutosh Jindal
1993
Srivatsa Krishna
1992
Anurag Srivastava
1991
1990
1989
Shashi Prakash Goyal
1988
1987
Amir Subhani
1979
Dr. Hrusikesh Panda
1977
Javed Usmani
1974
Bhaskar Balakrishnan
1973
1972

      नेट पर उपलब्ध 1972 से 2015 की सूची देखने से ज्ञात होता है कि लड़कियों ने यहाँ भी कई बार बाजी मारी है और प्रथम स्थान हासिल किया है किन्तु इतनी चर्चा शायद ही कभी हुई है। किन्तु इस बार चूंकि जिस 22 वर्ष की लड़की ने प्रथम स्थान हासिल किया है और वो दलित समाज से आती है इसलिए उसे इतनी प्राथमिकता दी जा रही है न कि एक महिला होने के कारण ? फिर हम बात करते हैं महिला सशक्तिकरण की और उस महिला सशक्तिकरण मे भी अपनी अपनी ढपली बजाने से बाज नहीं आ रहे।

::: प्रदीप भट्ट ::

12.05.2016