Monday, 9 November 2015

बीती ताहिं बिसार दे



“ बीती ताहीं बिसर दे आगे की सुध ले “
     चलिए पिछले कुछ दिनो से जारी महाभारत का आखिरकार पटापेक्ष हो ही गया । महागठबंधन ने 243 मे से 178 सीटें झटककर आने वाले दिनो मे देश की  राजनीति की कुछ कुछ दिशा और दशा दोनों ही बदलने के संकेत दिये हैं।

     आखिर बीजेपी से गलती कहाँ हो गई। शायद लोकसभा चुनाव जीतने के पश्चात बीजेपी मे कुछ लोगो को ये भरम हो गया है कि वो जो चाहें ,जैसा चाहे सबको तिगनी का नाच नाचते रहेंगे और और लोग लोकसभा कि तर्ज पर नाचते भी रहेंगे । किन्तु वे भूल गए कि राष्ट्रीय और प्रांतीय स्टार पर  होने वाले  चुनाव मे जमीन आसमान का अंतर होता है।  आश्चर्य तो इस बात का है कि वो दिल्ली मे लगभग सुपड़ा साफ होने के बाद भी बिहार चुनाव से पहले और चुनाव के दौरान भी वही सब गलतियाँ दोहराते रहे जिससे उन्हे बचने कि सख्त ज़रूरत थी।

     प्रशांत किशोर जिनहोने लोकसभा चुनाव मे यूएन कि सर्विस छोडकर श्री मोदी का पूरा साथ ही नहीं दिया वरन चुनाव कि पूरी व्हुहरचना रची उन्हे चुनाव उपरांत दूध मे से मक्खी कि तरह निकालकर फेंक दिया गया।जिसे बिहार चुनाव से पूर्व नितीश कुमार ने अपने गले लगा लिया । नतीजा सबके सामने है । लेकिन प्रशांत किशोर के रण–कौशल के अतिरिक्त भी नितीश कुमार कि जो अपनी छवि है कि वे बिहार मे विकास का रथ रुकने न देंगे का कथन महत्वपूर्ण रहा । जिनहोने भी 10 वर्ष पूर्व और हल के दिनो मे बिहार भ्रमण किया है उन्हे मानना पड़ेगा कि बिहार मे विकास का जो  रथ नितीश कुमार बीजेपी से साझीदार कि हैसियत से दौड़ा रहे थे उन्होने उसे बीजेपी से अलग होने के बाद भी मंथर नहीं पड़ने दिया ।

     राजनैतिक द्रष्टिकोण से असहिष्णुता और असंवेदनशीलता के मुद्दे को भले ही कुछ पार्टियो ने अपने –अपने फायदे के लिए भुनाया हो। किन्तु ये सही है कि वर्तमान मे या पिछले लगभग 18 माह मे देश का वातावरण ऐसा नहीं हुआ कि लोगो को अपनी बात कहने या लिखने मे परेशानी महसूस हुई हो। जिनको अपनी रोटियाँ सेकनी थी वो सेक चुके अब वो बीती बात हो जाएगी क्यो कि बिहार चुनाव समाप्त हो गया है ।
     बिहार चुनाव से बीजेपी को जो सबक लेने कि जरूरत है  वो है कि अनावश्यक रूप से अपने  सारे चैनल एक साथ न खोले क्यो कि आपके पास ज्यादा विकल्प नहीं हैं। किसी भी चुनाव मे सरकारी कर्मचारी एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं जिनहे नज़रअंदाज़ करना ठीक नहीं है सातवें वेतन आयोग कि जो सिफ़ारिशे छन छन कर आ रही हैं उनसे आक्रोश ही बढ़ रहा है। दिल्ली और अब बिहार की शह उसका जीता –जागता उदाहरण है।

     लोकसभा चुनाव मे दागी लोगो को भविष्य मे खड़ा न करने का प्राण लेकर भी दिल्ली और अब बिहार चुनाव मे ज्यादा दागी लोगो को खड़ा करना क्या दर्शाता है । बिहार चुनाव मे वोटो के बदले स्कूटी या अन्य प्रलोभन देने की घोषणा करने से नुकसान ही हुआ है। 150 digital रथ अगर 75 सीटे भी न दिलवा सके तो ऐसे डिजिटलीकरण का क्या फायदा । फिर माझी जैसे साथी जो अपनी  सीट भी न  निकाल सके वो आपके किस का। 


     2016 मे पश्चिम बंगाल मे चुनाव है और 2017 मे उत्तर प्रदेश मे अब समय है ठंडे दिमाग से सही गुना भाग करने का सही  आकलन करने का कि कहाँ भूल-चूक हुई और भविष्य मे इससे कैसे निपटा जाये। तभी बीजेपी अपनी खोई हुई प्रतिष्ठा बचाने मे सफल हो पायेगी।

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