Monday, 16 January 2017

चर्खा चला चूल्हा जला, खादी करती सबका भला




चर्खा चला चूल्हा जला
  खादी करती सबका भला
                                               -प्रदीप भट्ट-­



शनिवार, 7 जनवरी 2017 को खादी और ग्रामोद्योग के मुंबई स्थित केंद्रीय कार्यालय में नवनिर्मित खादी लाउन्ज के माननीय श्री हरिभाई पार्थी भाई चौधरी के करकमलों द्वारा उद्घाटन का साथ ही वर्ष -2017 की नयी डायरी और कैलंडर को भी उसी दिन जारी किये जाने का बुलाये गए सभी अतिथि एवं सम्माननीय पत्रकार भी इस अवसर पर मौजूद थे सब कुछ अपने नियत समय पर संपन्न हो गया और अगले दिन इस विषय में इक्की दुक्की ख़बरें समाचारपत्रों में प्रकाशित भी हो गई

खादी के धागे-धागे में
अपने-पन का अभिमान भरा,
माता का इसमें मान भरा
अन्यायी का अपमान भरा।

खादी के रेशे-रेशे में
अपने भाई का प्यार भरा,
माँ-बहनों का सत्कार भरा
बच्चों का मधुर दुलार भरा।

खादी की रजत चंद्रिका जब
आकर तन पर मुसकाती है,
तब नवजीवन की नई ज्योति
अन्तस्तल में जग जाती है।
                                       -कवि श्रेष्ठ सोहल्लाल द्विवेदी-


किन्तु अचानक 12 जनवरी -2017 को सभी प्रिंट और इलेक्ट्रोनिक मीडिया पर ये खबर तेजी से फ़ैलने लगी कि खादी और ग्रामोद्योग द्वारा जारी वर्ष -2017 की डायरी पर महात्मा गाँधी के स्थान पर प्रधानमंत्री मोदी की तस्वीर छापी गई है जो कि नियमत: गलत है। अब किसी भी समाचार समूह ने इस विषय में बिना कुछ सोचे समझे सिर्फ़ इस कारण से न्यूज़ चलानी शुरू कर दी ताकि  इससे प्रधानमंत्री मोदी की छवि को धूमिल किया जा सके? आखिर अब पत्रकारिता का स्तर कहाँ और कितना गिरेगा। इस पावन पर्व में सभी चैनल अपनी रोटियाँ सेंकते नज़र आये। आनन फानन में लगभग सभी चैनलों ने प्राइम टाइम तक में इसी विषय पर फोकस किया। पता नहीं कहाँ कहाँ से विद्वानों को इस पुनीत कार्य हेतु आमंत्रित किया गया किंतु अंत तक यही समझ नहीं आया कि ये सब विरोध किस बात का कर रहे थे खादी की डायरी और कैलंडर पर राष्ट्रपिता का चित्र न छपने का या प्रधानमंत्री मोदी का चित्र क्यों छाप दिया इसलिए। खैर इनमें से ज्यादातर को तो यही पता नहीं होगा कि खादी क्या है कुछ लोगों के लिए जहाँ ये एक कपडा मात्र हैं वहीँ कुछ जो कि गाँधी जी के सिधान्तों पर चलते हैं उनके लिए ये सिर्फ एक कपडा नहीं बल्कि एक विचार है जिसे सिर्फ़ पहना नहीं जाता वरन जिया जाता है। चलिए खादी को समझने का यत्न करते हैं
·         खादी या खद्दर भारत में हाँथ से बनने वाले वस्त्रों को कहते हैं। खादी वस्त्र सूती, रेशम या ऊन हो सकते हैं। इनके लिये बनने वाला सूत चर्खे की सहायता से बनाया जाता है।खादी वस्त्रों की विशेषता है कि ये शरीर को गर्मी में ठण्डे और सर्दी में गरम रखते हैं।
·         चर्खा एक हस्तचालित युक्ति है जिससे सूत तैयार किया जाता है। इसका उपयोग कुटीर उद्योग के रूप में सूत उत्पादन में किया जाता है। भारतवर्ष के स्वतन्त्रता संग्राम में यह आर्थिक स्वावलम्बन का प्रतीक बन गया था। चर्खा यंत्र का जन्म और विकास कब तथा कैसे हुआ, इस पर चर्खा  संघ की ओर से काफ़ी खोजबीन की गई थी। अंग्रेज़ों के भारत आने से पहले भारत भर में चर्खे  और करघे का प्रचलन था। 1500 ई. तक खादी और हस्तकला उद्योग पूरी तरह विकसित था। सन्‌ 1702 में अकेले इंग्लैंड ने भारत से 10,53,725 पाउंड की खादी ख़रीदी थी। मार्कोपोलो और टेवर्नियर ने खादी पर अनेक सुंदर कविताएँ लिखी हैं। सन्‌ 1960 में टैवर्नियर की डायरी में खादी की मृदुता, मज़बूती, बारीकी और पारदर्शिता की भूरि भूरि प्रशंसा की गई है।
·         सन्‌ 1920 में विनोबा जी और उनके साथी साबरमती आश्रम में कताई का काम सीखते थे। कुछ दिन बाद ही (18 अप्रैल सन्‌ 1921 को) मगनवाड़ी (वर्धा) में सत्याग्रह आश्रम की स्थापना हुई। उस समय कांग्रेस महासमिति ने 20 लाख नए चरखे बनाने का प्रस्ताव किया था और उन्हें सारे देश में फैलाना चाहा था। सन्‌ 1923 में काकीनाडा कांग्रेस के समय अखिल भारत खादीमंडल की स्थापना हुई, किंतु तब तक चरखे के सुधार की दिशा में बहुत अधिक प्रगति नहीं हुई थी। कांग्रेस का ध्यान राजनीति की ओर था, पर गांधी जी उसे रचनात्मक कार्यों की ओर भी खींचना चाहते थे। अत: पटना में 22 सितंबर 1925 को अखिल भारत चरखा संघ की स्थापना हुई।




बापू अपने उद्बोधन में कहते हैं कि सन् 1908 तक मैने चर्खा या करधा कहीं देखा हो। फिर भी मैने 'हिन्द स्वराज' मे यह माना था कि चरखे के जरिये हिन्दुस्तान की कंगालियत मिट सकती है । और यह तो सबके समझ सकने जैसी बात है कि जिस रास्ते भुखमरी मिटेगी उसी रास्ते स्वराज्य मिलेगा । सन् 1915 मे मै दक्षिण अफ्रीका से हिन्दुस्तान वापस आया , तब भी मैने चरखे के दर्शन नही किये थे । आश्रम के खुलते ही उसमें करधा शुरू किया था । करधा शुरू किया था । करधा शुरू करने मे भी मुझे बड़ी मुश्किल का सामना करना पडा । हम सब अनजान थे, अतएव करधे के मिल जाने भर से करधा चल नही सकता था। आश्रम मे हम सब कलम चलाने वाले या व्यापार करना जानने वाले लोग इकट्ठा हुए थे , हममे कोई कारीगर नही था । इसलिए करधा प्राप्त करने के बाद बुनना सिखानेवाले की आवश्यकता पड़ी । कोठियावाड़ और पालनपूर से करधा मिला और एक सिखाने वाला आया । उसने अपना पूरा हुनर नही बताया । परन्तु मगनलाल गाँधी शुरू किये हुए काम को जल्दी छोडनेवाले न थे । उनके हाथ मे कारीगरी तो थी ही । इसलिए उन्होने बुनने की कला पूरी तरह समझ ली और फिर आश्रम मे एक के बाद एक नये-नये बुनने वाले तैयार हुए।आगे गांधी जी लिखते हैं कि हमे तो अब अपने कपड़े तैयार करके पहनने थे । इसलिए आश्रमवासियो ने मिल के कपड़े पहनना बन्द किया और यह निश्यच किया कि वे हाथ-करधे पर देशी मिल के सूत का बुना हुआ कपड़ा पहनेगे । ऐसा करने से हमे बहुत कुछ सीखने को मिला ।
भारतवर्ष  के बुनकरों के जीवन की, उनकी आमदनी की, सूत प्राप्त करने मे होने वाली उनकी कठिनाई की, इसमे वे किस प्रकार ठगे जाते थे और आखिर किस प्रकार दिनों दिन  कर्जदार होते जाते थे, इस सबकी जानकारी हमे मिली । हम स्वयं अपना सब कपड़ा तुरन्त बुन सके, ऐसी स्थिति तो थी ही नही। कारण से बाहर के बुनकरों से हमे अपनी आवश्यकता का कपड़ा बुनवा लेना पडता था। देशी मिल के सूत का हाथ से बुना कपड़ा झट मिलता नही था । बुनकर सारा अच्छा कपड़ा विलायती सूत का ही बुनते थे , क्योकि हमारी मिलें सूत कातती नहीं थी । आज भी वे महीन सूत अपेक्षाकृत कम ही कातती है , बहुत महीन तो कात ही नही सकती । बडे प्रयत्न के बाद कुछ बुनकर हाथ लगे , जिन्होने देशी सूत का कपडा बुन देने की मेहरबानी की । इन बुनकरों को आश्रम की तरफ से यह गारंटी देनी पड़ी थी कि देशी सूत का बुना हुआ कपड़ा खरीद लिया जायेगा । इस प्रकार विशेष रूप से तैयार कराया हुआ कपड़ा बुनवाकर हमने पहना और मित्रो मे उसका प्रचार किया । यों हम कातने वाली मिलों के अवैतनिक एजेंट बने । मिलो के सम्पर्क मे आने पर उनकी व्यवस्था की और उनकी लाचारी की जानकारी हमे मिली । हमने देखा कि मीलों का ध्येय खुद कातकर खुद ही बुनना था । वे हाथ-करधे की सहायता स्वेच्छा से नही , बल्कि अनिच्छा से करती था । यह सब देखकर हम हाथ से कातने के लिए अधीर हो उठे। हमने देखा कि जब तक हाथ से कातेगे नही, तब तक हमारी पराधीनता बनी रहेगी।  लेकिन गांधी जी के अनुसार न तो कही चर्खा  मिलता था और न कही चरखे का चलाने वाला मिलता था । कुकड़ियाँ आदि भरने के चरखे तो हमारे पास थे, पर उन पर काता जा सकता है इसका तो हमे ख्याल ही नही था। एक बार कालीदास वकील एक वकील एक बहन को खोजकर लाये । उन्होने कहा कि यह बहन सूत कातकर दिखायेगी । उसके पास एक आश्रमवासी को भेजा , जो इस विषय मे कुछ बता सकता था, मै पूछताछ किया करता था । पर कातने का इजारा तो स्त्री का ही था । अतएव ओने-कोने मे पड़ा हुई कातना जानने वाली स्त्री तो किसी स्त्री को ही मिल सकती थी।
बापू स्पष्ट करते हैं कि सन् 1917 मे मेरे गुजराती मित्र मुझे भड़ोच शिक्षा परिषद मे घसीट ले गये थे । वहाँ महा साहसी विधवा बहन गंगाबाई मुझे मिली । वे पढी-लिखी अधिक नही थी , पर उनमे हिम्मत और समझदारी साधारणतया जितनी शिक्षित बहनो मे होती है उससे अधिक थी । उन्होंने अपने जीवन मे अस्पृश्यता की जड़ काट डाली थी, वे बेधड़क अंत्यजों मे मिलती थीं और उनकी सेवा करती थी । उनके पास पैसा था , पर उनकी अपनी आवश्यकताएँ बहुत कम थीं । उनका शरीर कसा हुआ था । और चाहे जहाँ अकेले जाने में उन्हें जरा भी झिझक नहीं होती थी । वे घोड़े की सवारी के लिए भी तैयार रहती थी । इन बहन का विशेष परिचय गोधरा की परिषद मे प्राप्त हुआ । अपना दुख मैंने उनके सामने रखा और दमयंती जिस प्रकार नल की खोज मे भटकी थी, उसी प्रकार चरखे की खोज मे भटकने की प्रतिज्ञा करके उन्होंने मेरा बोझ हलका कर दिया।
आखिर हमरी भरतीय संस्कॄति क्या सिखाती है ,यही न कि जब पुत्र पिता से आगे निकल जाये तो पिता को इस बात में असीम शांति और गर्व  का अनुभव होता है कि उसे दुनिया में उसके पुत्र के नाम से जाना जाये ।आज तक महात्मा गाँधी ही खादी के वास्तविक एम्बस्सडोर रहे हैं ।अब अगर प्रधनमन्त्री मोदी खादी के अंतर्रष्ट्रीय icon बन गये हैं तो सब विपक्षी पार्टियों के पेट में दर्द क्यों हो रह है । उन्हें  इस बत का आत्मचिंतन कर्ण चहिये कि 1947 से उनके नेताओं ने आज तक क्या किया है ।अगर मोदी खादी के अंतर्रष्ट्रीय icon हैं तो खादी की डायरी पर उनके चित्र से इतना बवाल क्यों ? वक्त के साथ जो व्यक्ति,संघठन अपनी गति नहीँ बदलते उन्हें वक्त पीछे धकेल देता है ।पिछले 70वर्षों में प्रधनमन्त्री के रुप मे मोदी अगर खादी को गाँव,राष्ट्रीय और अंतर्रष्ट्रीय स्तर पर पहचान दिलाने का प्रशंसनीय कार्य कर रहे हैं तो मेरी नज़र में इसमें गलत क्या है। जिनके दामन में जो होगा वो वही तो देगा एक ग़ज़ल का शेर याद आ रहा है

दर्द- ए-मिन्नत कशे दवा न हुआ
मैं न अच्छा हुआ बुरा न हुआ
कितने शीरी हैं तेरे लब के रकीब
गलियां खा के बे-मज़ा न हुआ
                                               
और आज जब बीबीसी न्यूज़ पर पाकिस्तान के राग अलापने का पता चला तो जहाँ तक पाकिस्तान का ताअल्लुक़ है ,एक कहावत याद हो आई।" घोड़े के पैर में तन्नाल ठुक रही थी,वहाँ बैठा एक मेढ़क बोल मेरे भी ठोको " अब पाकिस्तान को कौन बताये कि तँनाल और तेरी साइज़ एक जैस है।ठोका तो क्या होगा। अब भला जिन्ना को मानने वाले गाँधी जी की विचारधारा और उनके सत्य पर किये गये प्रयोग को समझने की चेष्टा न करें और खादी और ग्रमौद्यौग आयोग के अधिकारी और कर्माचारियों कि फिक्र में अपना वज़न न घटायें । हम और हमारा संस्थान गाँधी जी के संसकारों पर चलता है।गाँधी भी हमारे हैं और मोदी भी हमारे।


::: प्रदीप भट्ट :::

                                                     16.01.2017

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