“शून्य
का आविष्कारक शून्यता में ’
“आर्यभट्ट के सिद्धान्त पर 'भास्कर
प्रथम' ने टीका लिखी । भास्कर के तीन अन्य महत्त्वपूर्ण ग्रंथ है- ‘ महाभास्कर्य‘, ‘लघुभास्कर्य‘ एवं ‘भाष्य‘। ब्रह्मगुप्त ने ‘ब्रह्म-सिद्धान्त‘
की रचना कर बताया कि ‘प्रकृति के नियम के अनुसार समस्त वस्तुएं पृथ्वी पर गिरती हैं,
क्योंकि पृथ्वी अपने स्वभाव
से ही सभी वस्तुओं को अपनी ओर आकर्षित करती है। यह न्यूटन के सिद्वान्त के पूर्व की
गयी कल्पना है। आर्यभट्ट, वराहमिहिर एवं ब्रह्मगुप्त को संसार के सर्वप्रथम
नक्षत्र-वैज्ञानिक और गणितज्ञ कहा गया है।‘
13 अप्रैल यानि बैसाखी यानि शून्य के आविष्कारक महान गणितज्ञ
और खगोलशास्त्री पण्डित आर्य भट्ट का जन्म दिवस था
। लेकिन किसे याद है। आज जब कुछ छद्म विभूतियों की जन्मशती और पुण्यतिथि मनाने का
चलन है, तब सम्पूर्ण विश्व को ज़ीरो यानि शून्य (0) से परिचित
करने वाले और और बीज गणित को पाई का मान
प्रदान करने वाले उस महान पण्डित आर्य भट्ट को कौन याद करना चाहेगा। कारण स्पष्ट
है आर्य भट्ट किसी समुदाय विशेष का प्रतिनिधित्व तो करते नहीं थे वरन उन्होने तो
सम्पूर्ण विश्व का ही प्रतिनिधित्व किया तो उसमे किसी व्यक्ति,समाज या राजनीति को क्या फायदा हो सकता था। अतएव किसी भी राजनैतिक पार्टी
को उन्हे याद करने की ज़रूरत नहीं पड़ी ?
·
19
अप्रैल-1975 को सोवियत संघ से आर्यभट्ट satellite को लॉंच किया गया।इससे अंतिम संपर्क 24 अप्रैल-1975 को हुआ।
·
12फरवरी 1992 को इस
satellite ने अपनी यात्रा पूरी की और पृथ्वी पर वापिस लौट आया।
आर्यभट्ट ने अपने ग्रन्थ ‘आर्यभट्टीय ’ में
अपना जन्मस्थान कुसुमपुर और जन्मकाल 13 अप्रैल शक संवत् 398 (476) हुई लिखा
है। इस जानकारी से उनके जन्म का साल तो निर्विवादित है परन्तु वास्तविक जन्मस्थान
के बारे में विवाद है। कुछ स्रोतों के अनुसार आर्यभट्ट का जन्म महाराष्ट्र के अश्मक प्रदेश में हुआ था और ये
बात भी तय है की अपने जीवन के किसी काल में वे उच्च शिक्षा के लिए कुसुमपुरा गए थे
और कुछ समय वहां रहे भी थे। यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि उनके माता-पिता और वंश की
कोई भी जानकारी उपलब्ध नहीं है । हिन्दू और बौध परम्पराओं के साथ-साथ सातवीं
शताब्दी के भारतीय गणितज्ञ
भाष्कर-(आर्यभट्ट के प्रथम शिष्य) ने कुसुमपुरा की पहचान पाटलिपुत्र
(आधुनिक पटना) के रूप में की है। यहाँ पर अध्ययन का एक महान केन्द्र, नालन्दा विश्वविद्यालय स्थापित था और खगोल शस्त्र के लिए एक अलग विभाग
था।उस समय जैन और बौद्ध धर्म अपने चरम पर था । आर्य भट्ट के लिखे श्लोकों से
स्पष्ट होता है कि वे सनातन धर्म का अनुसरण करते थे । प्राचीन कृतियों के रचनाकारों कि तरह वे भी श्लोकों के
प्रारम्भ मे इष्ट देव की स्तुति करते होंगे। ऐसा माना जाता है कि भगवान ब्रह्मा कि
कृपा से ही उन्होने सम्पूर्ण ज्ञान आदि की प्राप्ति की। आर्यभट्ट के समय मे
प्रचलित खगोल शास्त्र की स्थिति बहुत ही खराब थी। उस समय प्रचलित पितामह सिद्धांत,सौर्य सिद्धांत,वशिष्ठ सिद्धांत, रोमक सिद्धांत और पाली सिद्धांत पुराने हो चुके थे । इनसे गणित के
सिद्धांत हल नहीं हो पा रहे थे। ग्रहण की स्थिति की सही और सटीक जानकारी पाना कठिन
था जिससे लोगो का विश्वास भारतीय ज्योतिष से उठने लगा था ।तब आर्यभट्ट ने उसमे
मौजूद त्रुटियों को दूर करके उसे नवीन तथा प्रभावी रूप प्रदान किया। ऐसा संभव है
कि गुप्त साम्राज्य के अन्तिम दिनों में आर्यभट्ट वहां रहा करते थे। गुप्तकाल को
भारत के स्वर्णिम युग के रूप में जाना जाता है। भास्कर- प्रथम के अनुसार आर्यभट्ट
की मृत्यु 550 मे हुई।
आर्यभट्ट के कार्यों की जानकारी उनके द्वारा
रचित ग्रंथों से मिलती है। इस महान गणितज्ञ ने आर्यभट्टीय, दशगीतिका,
तंत्र और आर्यभट्ट सिद्धांत जैसे ग्रंथों की रचना की थी।
विद्वानों में ‘आर्यभट्ट सिद्धांत’
के बारे में बहुत मतभेद है । ऐसा माना जाता है कि ‘आर्यभट्ट सिद्धांत’ का सातवीं सदी में व्यापक उपयोग
होता था। सम्प्रति में इस ग्रन्थ के केवल 34 श्लोक ही उपलब्ध
हैं और इतना उपयोगी ग्रंथ लुप्त कैसे हो गया इस विषय में भी विद्वानों के पास कोई
निश्चित जानकारी नहीं है।
आर्यभट्ट
प्राचीन समय के सबसे महान खगोलशास्त्रीयों और गणितज्ञों में से एक थे। विज्ञान और
गणित के क्षेत्र में उनके कार्य आज भी वैज्ञानिकों को प्रेरणा देते हैं। आर्यभट्ट
उन पहले व्यक्तियों में से थे जिन्होंने बीजगणित (एलजेबरा) का प्रयोग किया। आपको
यह जानकार हैरानी होगी कि उन्होंने अपनी प्रसिद्ध रचना ‘आर्यभट्टीय’ (गणित की पुस्तक)
को कविता के रूप में लिखा। यह प्राचीन भारत की बहुचर्चित पुस्तकों में से एक है।
इस पुस्तक में दी गयी ज्यादातर जानकारी खगोलशास्त्र और गोलीय त्रिकोणमिति से संबंध
रखती है। ‘आर्यभट्टीय’ में अंकगणित, बीजगणित और त्रिकोणमिति के 33 नियम भी दिए गए हैं।
भारत के इतिहास में जिसे ‘गुप्त काल’ या ‘स्वर्ण युग’ के नाम से जाना जाता है, उस समय भारत ने साहित्य, कला और विज्ञान क्षेत्रों
में अभूतपूर्व प्रगति की। प्राचीन काल में भारतीय गणित और ज्योतिष शास्त्र अत्यंत
उन्नत था। गुप्त काल में ही महान गणितज्ञ आर्यभट्ट का जन्म माना जाता है।
आज हम सभी इस बात को जानते हैं कि पृथ्वी गोल
है और अपनी धुरी पर घूमती है और इसी कारण रात और दिन होते हैं। मध्यकाल में ‘निकोलस
कॉपरनिकस’ ने यह सिद्धांत प्रतिपादित किया था पर इस
वास्तविकता से बहुत कम लोग ही परिचित होगें कि ‘कॉपरनिकस’
से लगभग 1 हज़ार साल पहले ही आर्यभट्ट ने यह
खोज कर ली थी कि पृथ्वी गोल है और उसकी परिधि अनुमानत: 24,835 मील है। सूर्य और चन्द्र ग्रहण के हिन्दू धर्म की मान्यता को आर्यभट्ट ने
ग़लत सिद्ध किया। इस महान वैज्ञानिक और गणितज्ञ को यह भी ज्ञात था कि चन्द्रमा और
दूसरे ग्रह सूर्य की किरणों से प्रकाशमान होते हैं। आर्यभट्ट ने अपने सूत्रों से
यह सिद्ध किया कि एक वर्ष में 366 दिन नहीं वरन 365.2951
दिन होते हैं।
आर्यभट्टीय उनके द्वारा
किये गए कार्यों का प्रत्यक्ष विवरण प्रदान करता है। ऐसा माना जाता है कि आर्यभट्ट
ने स्वयं इसे यह नाम नही दिया होगा बल्कि बाद के टिप्पणीकारों ने आर्यभट्टीय
नाम का प्रयोग किया होगा। इसका उल्लेख भी आर्यभट्ट के शिष्य भास्कर- प्रथम ने अपने
लेखों में किया है। इस ग्रन्थ को कभी-कभी आर्य-शत-अष्ट (अर्थात आर्यभट्ट के 108 – जो की उनके पाठ में छंदों कि संख्या है) के नाम से भी जाना जाता है। आर्यभट्टीय
में वर्गमूल, घनमूल, समान्तर
श्रेणी तथा विभिन्न प्रकार के समीकरणों का वर्णन है। वास्तव में यह ग्रन्थ गणित और
खगोल विज्ञान का एक संग्रह है। आर्यभट्टीय के गणितीय भाग में अंकगणित,
बीजगणित, सरल त्रिकोणमिति और गोलीय
त्रिकोणमिति शामिल हैं। इसमे सतत भिन्न (कँटीन्यूड फ़्रेक्शन्स), द्विघात समीकरण (क्वड्रेटिक इक्वेशंस), घात श्रृंखला
के योग (sums of power serious) और ज्याओं की एक तालिका (Table of Sins) शामिल
हैं। आर्यभट्टीय में कुल 108 छंद है, साथ ही परिचयात्मक 13 अतिरिक्त हैं। यह चार पदों
अथवा अध्यायों में विभाजित है जिनका विवरण निम्नवत है :-
क)
गीतिकपाद
ख)
कालक्रियापद
ग)
गोलपाद
घ)
गणितपाद
उपरोक्त लिखे
पदों मे आर्यभट्ट ने ये माना है कि रचना महान होती है रचनकार नहीं ।अद्भुत प्रतिभा
के धनी आर्यभट्ट ने अनेक कठिन प्रश्नो के उत्तरों
को एक ही श्लोक मे समाहित करने का चमत्कार किया। गणित के पाँच नियमों को एक ही श्लोक मे प्रस्तुत कने वाले वे प्रथम
नक्षत्र वैज्ञानिक थे,
जिनहोने यह सिद्ध किया कि पृथ्वी अपनी धुरी पर घूमती है और सूर्य के चक्कर लगती है
साथ ही उन्होने चन्द्र ग्रहण और सूर्य ग्रहण होने के वास्तविक कारणो पर प्रकाश
डाला। आर्यभट्ट ने यह भी सिद्ध किया कि चंद्रमा और दूसरे ग्रह स्वम प्रकाशमान नहीं
होते बल्कि सूर्य की किरणों उसमे
प्रतिबिंबित होती हैं ।
Eclipses (ग्रहण)
·
Solar and lunar eclipses were scientifically
explained by Aryabhatt's. He states that the Moon and planets shine by reflected sunlight. Instead of the
prevailing cosmogony in which eclipses were caused by Rahu and Ketu (identified
as the pseudo-planetary lunar nodes), he
explains eclipses in terms of shadows cast by and falling on Earth. Thus, the
lunar eclipse occurs when the moon enters into the Earth's shadow (verse
gola.37). He discusses at length the size and extent of the Earth's shadow
(verses gola.38–48) and then provides the computation and the size of the
eclipsed part during an eclipse. Later Indian astronomers improved on the
calculations, but Aryabhatt's methods provided the core.
·
His computational paradigm was so accurate that
18th-century scientist Guillaume Le Gentil, during a visit to Pondicherry, India, found the Indian
computations of the duration of the lunar eclipse of 30 August 1765 to be short by 41 seconds, whereas his
charts (by Tobias Mayer, 1752) were long by 68 seconds.
·
Calendric
calculations devised by Aryabhatt’s and his followers have been in continuous
use in India for the practical purposes of fixing the Panchangam (the Hindu calendar). In the Islamic world, they formed
the basis of the calendar
introduced in 1073 CE by a group of astronomers including Omar Khayyam, versions
of which (modified in 1925) are the national calendars in use in Iran and Afghanistan today. The dates of the Jalali
calendar are based on actual solar transit, as in Aryabhatt’s and earlier Siddhanta calendars. This type of calendar
requires an ephemeris for calculating dates. Although dates were difficult to
compute, seasonal errors were less in the Jalali calendar than in the Gregorian
calendar.
23 वर्ष की आयु मे आर्यभट्ट ने आर्यभट्ट ग्रंथ लिखा जिससे
प्रभावित होकर राजा बुद्ध गुप्त ने उन्हे
नालंदा विश्वविद्यालया का प्रमुख घोषित किया।16वीं सदी तक के सभी गुरुकुल मे
आर्यभट्ट के श्लोक पढ़ाये जाते थे। आर्यभट्ट ने ही सबसे पहले ‘पाई’ का मान और साइन (sine) के बारे मे बताया ।गणित के जटिल प्रश्नो को सरलता से हल करने के लिए
उन्होने ही समीकरणों का आविष्कार किया जो पूरे विश्व मे प्रख्यात हुआ। एक के बाद
11(ग्यारह) शून्य जैसे संख्याओ को बोलने के लिए उन्होने नई पद्ति का आविष्कार
किया। बीज गणित मे भी उन्होने कई महत्वपूर्ण
संशोधन किए और गणित ज्योतिष का “आर्य सिद्धांत ‘प्रचलन मे
लाये।
·
विश्व के प्रथम गणितज्ञ
और खगोलशास्त्री (Astronaut) को सम्मान देते हुए वर्ष 2012
को गणित वर्ष मनाया गया । शिकागो से जारी वैज्ञानिकों की रिपोर्ट मे आर्यभट्ट का
नाम पूरे सम्मान से स्थापित किया गया।
·
13 अप्रैल-466 को आधार
मानकर ही प्रसिद्ध अंतर्राष्ट्रीय संस्था यूनेस्को ने आर्यभट्ट की 1500वी जयंती
मनाई।
आर्यभट्ट-सिद्धांत
आर्य-सिद्धांत खगोलीय गणनाओं के ऊपर एक कार्य
है। जैसा कि ऊपर बताया जा चुका है, यह ग्रन्थ अब लुप्त
हो चुका है और इसके बारे में हमें जो भी जानकारी मिलती है वो या तो आर्यभट्ट के
समकालीन वराहमिहिर के लेखनों से अथवा बाद के गणितज्ञों और टिप्पणीकारों जैसे
ब्रह्मगुप्त और भास्कर प्रथम आदि के कार्यों और लेखों से। हमें इस ग्रन्थ के बारे
में जो भी जानकारी उपलब्ध है उसके आधार पर ऐसा प्रतीत होता है कि यह कार्य पुराने
सूर्य सिद्धांत पर आधारित है और आर्यभटीय के सूर्योदय की अपेक्षा इसमें
मध्यरात्रि-दिवस-गणना का उपयोग किया गया है। इस ग्रन्थ में ढेर सारे खगोलीय
उपकरणों का भी वर्णन है। इनमें मुख्य हैं शंकु-यन्त्र, छाया-यन्त्र,
संभवतः कोण मापी उपकरण, धनुर-यन्त्र /
चक्र-यन्त्र, एक बेलनाकार छड़ी यस्ती-यन्त्र, छत्र-यन्त्र और जल घड़ियाँ। उनके द्वारा कृत एक तीसरा ग्रन्थ भी उपलब्ध है
पर यह मूल रूप में मौजूद नहीं है बल्कि अरबी अनुवाद के रूप में अस्तित्व में है –
अल न्त्फ़ या अल नन्फ़। यह ग्रन्थ आर्यभट्ट के ग्रन्थ का एक अनुवाद
के रूप में दावा प्रस्तुत करता है, परन्तु इसका वास्तविक
संस्कृत नाम अज्ञात है। यह फारसी विद्वान और इतिहासकार अबू रेहान अल-बिरूनी द्वारा
उल्लेखित किया गया है।
·
आर्यभट्ट के 'बॉलिस सिद्धांत' (सूर्य चंद्रमा ग्रहण के सिद्धांत) 'रोमक सिद्धांत'
और सूर्य सिद्धांत विशेष
रूप से महत्त्वपूर्ण हैं। आर्यभट्ट द्वारा निश्चित किया 'वर्षमान'
'टॉलमी' की तुलना में अधिक वैज्ञानिक है। गणित में योगदान विश्व गणित के इतिहास में भी आर्यभट्ट का नाम सुप्रसिद्ध है।
खगोलशास्त्री होने के साथ साथ गणित के क्षेत्र में भी उनका योगदान बहुमूल्य है। बीजगणित में भी सबसे पुराना ग्रंथ आर्यभट्ट का है। उन्होंने सबसे पहले 'पाई' (p) की कीमत निश्चित की और उन्होंने ही सबसे
पहले 'साइन' (SINE) के 'कोष्टक' दिए।
आर्यभट्ट का योगदान
आर्यभट्ट का भारत और
विश्व के गणित और ज्योतिष सिद्धान्त पर गहरा प्रभाव रहा है। भारतीय गणितज्ञों में
सबसे महत्वपूर्ण स्थान रखने वाले आर्यभट्ट ने 120 आर्याछंदों में
ज्योतिष शास्त्र के सिद्धांत और उससे संबंधित गणित को सूत्ररूप में अपने प्रसिद्ध
ग्रंथ ‘आर्यभट्टीय’ में प्रस्तुत किया
है।उन्होंने गणित के क्षेत्र में महान आर्किमिडीज़ से भी अधिक सटीक ‘पाई’ के मान को निरूपित किया और खगोलविज्ञान के
क्षेत्र में सबसे पहली बार यह घोषित किया गया कि पृथ्वी स्वयं अपनी धुरी पर घूमती
है। स्थान-मूल्य अंक प्रणाली आर्यभट्ट के कार्यों में स्पष्ट रूप से विद्यमान थी।
हालांकि उन्होंने शून्य दर्शाने के लिए किसी भी प्रकार के प्रतीक का प्रयोग नहीं
किया, परन्तु गणितज्ञ ऐसा मानते हैं कि रिक्त गुणांक के साथ,
दस की घात के लिए एक स्थान धारक के रूप में शून्य का ज्ञान आर्यभट्ट
के स्थान-मूल्य अंक प्रणाली में निहित था।त्रिकोणमिती के जनक आर्यभट्ट ने ही दशमलव
के बाद चार स्थानो तक मान निकाला।“आर्यभट्टीय’ पुस्तक को ही गणित की मूल व प्रथम
पुस्तक माना गया है इसी पुस्तक के माध्यम से पहली बार शून्य का उपयोग करना बताया
गया।
वृद्धावस्था में आर्यभट्ट ने 'आर्यभट्ट
सिद्धांत' नामक ग्रंथ की रचना की। उनके 'दशगीति सूत्र' ग्रंथों क ओ प्रा. कर्ने ने 'आर्यभट्टीय'
नाम से प्रकाशित किया।
आर्यभट्टीय संपूर्ण ग्रंथ है। इस ग्रंथ
में रेखागणित, वर्गमूल,
घनमूल, जैसी गणित की कई बातों के अलावा
खगोल शास्त्र की गणनाएँ और अंतरिक्ष से
संबंधित बातों का भी समावेश है। आज भी 'हिन्दू पंचांग' तैयार करने में इस ग्रंथ की मदद ली
जाती है। आर्यभट्ट के बाद इसी नाम का एक अन्य खगोलशास्त्री हुआ जिसका
नाम 'लघु आर्यभट्ट' था। भारत का प्रथम उपग्रह खगोल और गणितशास्त्र, इन दोनों क्षेत्र में उनके महत्त्वपूर्ण योगदान के स्मरणार्थ भारत के
प्रथम उपग्रह
का नाम आर्यभट्ट रखा गया।
The inter-school Aryabhatt’s is also named after him, as is Bacillus Aryabhatt’s, a species
of bacteria discovered in
the stratosphere by ISRO scientists in 2009
यह हैरान और आश्चर्यचकित करने वाली बात है कि
आजकल के उन्नत साधनों के बिना ही उन्होंने लगभग डेढ़ हजार साल पहले ही
ज्योतिषशास्त्र की खोज की थी। जैसा कि हम पहले ही बता चुके हैं, कोपर्निकस (1473 से 1543 इ.)
द्वारा प्रतिपादित सिद्धांत की खोज आर्यभट्ट एक हजार वर्ष पहले ही कर चुके थे। “गोलपाद” में आर्यभट्ट ने सर्वप्रथम यह सिद्ध किया कि
पृथ्वी अपने अक्ष पर घूमती है। इस महान गणितज्ञ के अनुसार किसी वृत्त की
परिधि और व्यास का संबंध 62,832 : 20,000 आता
है जो चार दशमलव स्थान तक शुद्ध है। आर्यभट्ट की गणना
के अनुसार पृथ्वी की परिधि 39,968.0582 किलोमीटर है,
जो इसके वास्तविक मान 40,075.0167 किलोमीटर से
केवल 0.2 % कम है।
बिहार सरकार ने “आर्यभट्ट नॉलेज विश्वविद्यालया” (AKU)“Development and Management of Educational Infrastructure related to Technical, Medical, Management and Allied Professional Educational”
की स्थापना सन 2008 मे पटना शहर की।इसके अतिरिक्त भारत सरकार ने आर्यभट्ट के
सम्मान मे अपने प्रथम उपग्रह का नाम आर्यभट्ट रखा जिसे रूस के सहयोग से 19
अप्रैल-1975 को छोड़ा गया। नैनीताल स्थित (ARIES) Aryabhatt’s
Research Institute of Observational Science द्वारा astronomy, Astrophysics
and atmospheric science पर एक कोर्स conduct करता
है।
अंतिम और महत्वपूर्ण प्रश्न यही है कि हम स्वतन्त्रता
प्राप्ति मे सहयोग प्रदान करने के लिए महात्मा गांधी को राष्ट्रपिता कि उपाधि दे देते
हैं उनके जन्मदिन को राष्ट्रीय अवकाश घोषित कर देते हैं उनकी पुण्यतिथि 30 जनवरी को
पूरा देश 2 मिनिट का मौन रखता है। इसके अतिरिक्त हम महावीर जयंती जैनियों को खुश करने के लिए,बुद्ध
पुर्णिमा बुद्धिष्टों को खुश करने के लिए,गुरुनानक जयंती सिखों
को खुश करने के लिए,मोहम्म्द साहब का जन्मदिन मुस्लिमों को खुश
करने के लिए,25 दिसम्बर ईसाइयों को खुश करने के लिए और पिछले
कुछ वर्षों से भारत सरकार द्वारा 14 अप्रैल को बाबा अंबेडकर जयंती को अवकाश घोषित किया
जाता है ताकि एससी/एसटी खुश हो जाएँ या नाराज़ न हों।
ऐसा क्या कारण है कि स्वतन्त्रता के पश्चात आई
ढेरों सरकारों को उस महान गणितज्ञ,ज्योतिश्चार्य और खगोलविद
आर्यभट्ट की जयंती मनाने का कभी खयाल क्यों कर नहीं आया। जिस व्यक्ति ने त्रिकोणमिती,बीजगणित
मे पाई का चौथे स्थान तक मान निकाला, जिसने सम्पूर्ण विश्व को
शून्य से परिचित करवाया उस महान शून्य के आविष्कारक
जिसकी 1500 वीं जयंती यूनेस्को मानता है परंतु भारत वर्ष के महान राजनीतिज्ञों और महान
पार्टी होने का तमगा लटकाए घूमने वाले कुछ छद्म राजनीतिज्ञों को महान आर्य भट्ट की
याद नहीं आती इसलिए की उनका जन्म ब्राह्मण कुल मे हुआ था। जो लोग,समाज,धर्म अपनी विरासत को संभालकर नहीं रखते वो जल्दी
ही विलीन हो जाते हैं।
::: प्रदीप
देवीशरण भट्ट :::::
गुरुवार,21 अप्रैल -2016
आपका पूरा आलेख पढ़ा . अत्यन्त शोधूर्ण होने के साथ साथ आलेख का उपसंहार वास्तव में चिंतनीय है की क्या वाकई में आर्यभट्ट जातिवाद के शिकार हो गए हैं? अगर ऐसा है तो इस से बड़ी बौद्धिक हत्या इस देश में दूसरी हो ही नहीं सकती. सुन्दर विचार .....
ReplyDeleteआपका आलेख अत्यंत ही शोधपूर्ण है। पढकर अच्छा लगा। आपकी चिंता भी जायज है।
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