Saturday, 22 March 2025

"भ्रष्टाचार के भंवर में न्यायपालिका "

" भ्रष्टाचार के भंवर में या न्यायपालिका "

          बचपन से एक कहावत सुनते आ रहे हैं कि "justice delayed is justice denied" । यदा कदा ऐसा देखने सुनने में भी आ जाता था किंतु पिछले हफ़्ते अख़बार के प्रथम पृष्ठ पर जब सुबह-सुबह यह खबर " दिहुली नरसंहार: 44 वर्ष बाद इन्साफ़, 24 दलितों की हत्या में तीन को फांसी की सज़ा।" पढ़ने को मिली तो पूरी खबर पढ़ने पर मन अवसाद से भर गया। इस जघन्य नरसंहार की कहानी कुछ यूँ है कि 18 नवंबर-1981 को मैनपुरी जिला ( अब फिरोजाबाद जिला ) की जसराना तहसील के दिहुली गाँव में संतोष और राधे डाकू के गिरोहों ने मिलकर 24 दलित लोगों की हत्या कर दी थी। इस हत्याकांड में कई महिलाओं के अलावा दो बच्चे भी शामिल थे। इस हत्याकांड का कारण सिर्फ़ इतना था कि दोनों गिरोह के लोगों को शक था कि पुलिस से उन दोनों गिरोहों की मुखबिरी करने में दिहुली गाँव के लोगों का हाथ था। कुल 23 लोग गोली लगने से घटनास्थल पर ही काल का ग्रास बन गए थे। एक कि मृत्यु अस्पताल ले जाते समय रास्ते में हुई के अतिरिक्त 9 लोग गोली लगने से घायल भी हो गए थे। जब संतोष और राधे के गिरोहों ने दिहुली गाँव की बस्ती में हमला किया था उस समय सरस्वती देवी ने अपने पति कुमार प्रसाद को भूस के अंदर छुपा दिया था किन्तु स्वयं सीने में गोली खा बैठीं, गोली तो निकल गई किन्तु उसके छर्रे अभी भी उनके कन्धे में धंसे हुए हैं जो रह रह कर 19 नवंबर 1981 के ज़ख्मों की याद दिला जाते हैं।

अभिजात्यता हत्याकांड पर हावी 
-----------------------------------------
         इस जघन्य नरसंहार की गूंज उस समय देश भर में टॉप पर थी। जो हुआ उस पर राजनीति भी जमकर हुई। उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह इस जघन्य नरसंहार में भी अपनी फर वाली टोपी लगाना नहीं भूले साथ में उत्तर प्रदेश की गृहमंत्री स्वरुप कुमारी बख़्शी भी संग थीं। उस वक्त के गृहमंत्री ज्ञानी जैल सिंह जब पीड़ितों से मिलने हेलिकॉप्टर से दिहुली पहुँचे तो पीड़ितों से मिलकर स्तब्ध थे। उन्हें समझ नहीं आ रहा था कि वे कैसे पीड़ितों को ढांडस बधाएं। बकौल शंभू नाथ शुक्ला जिन्होंने दिहुली नरसंहार को कवर किया था बताते हैं कि जब जैल सिंह को कुछ न सूझा तो वे एक पीड़ित परिवार के घर की दहलीज पर बैठ गए और उन्होंने स्वरूप कुमारी को पानी लाने के लिए कहा तो आर्डर मैनपुरी के एसएसपी कर्मवीर सिंह से होता हुआ सिपाही दुबे तक आ पहुँचा। दुबे ने मुरादाबादी लौटे को घिसकर साफ़ किया फिर उसे ऑर्डर से होता हुआ वह पानी ज्ञानी जैल सिंह तक पहुँचा। तब तक उस  अनुसूचित जाति की स्त्री ने अल्यूमीनियम के बर्तन में काई लगे घड़े से पानी उड़ेल कर गृहमंत्री की सेवा में प्रस्तुत कर दिया। गृहमंत्री जैल सिंह ने पानी पी लिया फिर विश्वनाथ प्रताप सिंह से पूछा पानी पियेंगे विश्वनाथ प्रताप सिंह ने तब मुंडी हिलाकर मना कर दिया किन्तु जब दुबे द्वारा लाए गए कुंए के जल को करमवीर ने प्रस्तुत किया तो मुख्यमंत्री महोदया बिना संकोच के उस पानी को उदरस्थ कर लिया। जहाँ ज्ञानी जैल सिंह पीड़ितों को एक सकारात्मक संदेश देने में सफ़ल रहे वही विश्वनाथ प्रताप सिंह फ़र वाली टोपी को ही उच्चता का पैमाना बताने में व्यस्त रहे। पानी तो बस पानी ठहरा प्यास दोनों ने बुझाई लेकिन पानी पीने वालों की क्लास से हार गया। 

         इस जघन्य हत्याकांड में सरस्वती देवी ने अपने जेठ, जेठानी, देवर, देवरानी, ननद,ननदोई, पुत्र और भतीजे सभी मारे गए। बचा तो सिर्फ पति जिसको तब की प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी के निर्देश जिंदा बचे लोगों को प्रशिक्षण एवं सेवा योजन निदेशालय में चतुर्थ श्रेणी की नौकरी प्रदान करने के निर्देश दिए थे। इस हत्याकांड की गम्भीरता का अंदाज़ा इसी बात से होता है कि पीड़ित परिवारों से मिलने तात्कालिक प्रधानमन्त्री इंदिरा गाँधी को जाना पड़ा वरन नेता प्रतिपक्ष अटल बिहारी बाजपेई जी ने इस हत्याकांड के विरोध में पद यात्रा तक की थी। इस हत्याकांड के कुल 20 आरोपियों में 13 की मृत्यु हो चुकी है,  चार आरोपी लापता हैं। जीवित बचे कप्तान सिंह, राम सेवक एवं रामपाल को अपर जिला जज (एडीजे)इन्दिरा सिंह की अदालत ( विशेष डकैती ) ने अभियोजन और बचाव पक्ष की दलीलें सुनने के बाद उपरोक्त तीनों अभियुक्तों को फांसी की सजा सुनाई और जुर्माना अलग से लगाया है । इस फांसी के खिलाफ़ 30 दिनों के अंदर उच्च न्यायालय में अपील दायर की जा सकती है। बकौल शासकीय अधिवक्ता रोहित शुक्ला " चार दशक बादपीड़ित परिवारों को इन्साफ मिला है।इस ऐतिहासिक फ़ैसले से संदेश जाएगा कि कोई भी अपराधी कानून से ऊपर नहीं है"। मुझे तो ये टिप्पणी गंभीर तो कतई नहीं  हाँ हास्यास्पद जरूर लगती है।

कॉलोजियम सिस्टम ही भ्रष्ट्राचार की जड़ 
-------------------------------------------------
         अब बात करते हैं न्यायालयों व्याप्त भ्रष्टाचार की तो 14 मार्च ( होली ) जिस दिन पूरे देश में रंगोत्सव की धूम थी उसी दिन दिल्ली हाईकोर्ट में पदस्थ जस्टिस यशवंत वर्मा के नई दिल्ली स्थित सरकारी आवास में अचानक आग लग गई। फायर डिपार्टमेंट की टीम आई, आग बुझाई साथ ही दिल्ली पुलिस भी आई उसने मौक़ा- ए- वारदात पर पांच बोरों में जले हुए नोट देखे उसकी वीडियो बनाई और सीबीआई को जानकारी देकर अपने कर्तव्यों की इतिश्री समझ ली। कायदे से दिल्ली पुलिस को उस स्थान को जहाँ आग लगी और जहाँ पाँच बोरों में जले हुए नोट पाए गए थे उसको सील करना चाहिए था किन्तु इस पूरे प्रकरण में दिल्ली पुलिस ऐसा कुछ करना भूल गई या जानबूझ कर ये होने दिया गया। दिल्ली पुलिस से ये ग़लती अंजाने में हुई या किसी मजबूत व्यक्ति या संस्था का दबाव रहा। सामन्यतः ऐसा कई बार होता है कि जजिस पोलिस के अधिकारियों को अपने केबिन में बुलाकर धमकाते रहते हैं वैसे भी पुलिस और न्यायपालिका का चोली दामन का साथ रहता है।पुलिस अपराधियों को पकड़ती है और जजिस पुलिस को अपराधियों और जनता की निगाह में बकरा बनाकर माल कूट लेते हैं वरना पाँच बोरों में पन्द्रह करोड़ की राशि कहाँ से आई। यशवंत वर्मा 14 तारीख को भोपाल में थे वे पंद्रह या सोलह को दिल्ली वापिस लौटते हैं क्यों? जिसके घर में आग लगी हो वो तुरत फुरत भागेगा फ्लाईट, ट्रेन या सड़क द्वारा न कि आराम से सोच विचार कर आएगा। मजे की बात ये रही कि इस अग्नि दुर्घटना की जानकारी मीडिया में 22 मार्च को आई क्यूँ? फायर डिपार्टमेंट पहले कहता हैं हाँ जले नोट मिले फिर किसके दबाव में लिखित में कहता है कि उसे वहाँ कुछ नहीं मिला किन्तु बुराई बाहर आने का रास्ता ढूँढ ही लेती है सो जब सड़क की सफाई करने वालों को सड़क पर यशवंत वर्मा के घर के बाहर जले हुए नोट मिलते हैं और अखबारों में फ़ोटो छप जाती है तो उच्च न्यायालय के चीफ़ जस्टिस अपने सेक्रेट्री को यशवंत के घर भेजते हैं और खबर आती है कि यशवंत वर्मा के घर जले हुए नोट नहीं मिले साथ ही उच्च न्यायालय के चीफ़ जस्टिस एक कमेटी बनाकर पूरे प्रकरण की जाँच का आदेश देते हैं । दिल्ली उच्च न्यायालय के सुर में सुर मिलाते हुए सर्वोच्च न्यायालय भी उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश डी के उपाध्याय की अध्यक्षता में जस्टिस वर्मा प्रकरण की जाँच की पुष्टि करता है। प्रश्न फिर वही है कि ये जाँच क्यूँ?

इलाहाबाद हाईकोर्ट कोई डस्टबीन नहीं 
------------------------------------------------
          अभी ये सब चल ही रहा होता है तभी खबर आती है कि जस्टिस वर्मा का तबादला इलाहाबाद उच्च न्यायालय में कर दिया गया है। खबर आग की तरह फैलती है और सामने आता है कि जस्टिस वर्मा उन्नाव रेप की भी जाँच कर रहे थे सो अगले ही दिन प्रयाग राज के वकील इसका विरोध करते हुए सम्पूर्ण न्यायिक व्यवस्था पर प्रश्न चिह्न लगाते हुए जस्टिस वर्मा के तबादले का विरोध प्रकट  करते हुए कहते हैं कि इलाहाबाद हाईकोर्ट कोई डस्टबीन नहीं है जो दागी वर्मा को यहाँ टिकने देंगे। शाम  होते होते खबर आती है कि ऐसा कोई निर्णय नहीं हुआ है फिर पर्दे के पीछे से कॉलो- जियम सिस्टम जस्टिस वर्मा को पाक साफ़ दिखाने की कोशिश करता है किन्तु अगले  ही दिन पुलिस द्वारा जले हुए नोटों की वीडियो वायरल हो जाती है और मामला पूरी तरह से उजागर हो जाता है कि 14 मार्च को जस्टिस वर्मा के सरकारी आवास में आग लगी थी और जले हुए नोट भी मिले थे। ये सब यहीं नहीं रुकता सर्वोच्च न्यायालय के देश की सबसे बड़ी पंचायत यानि संसद भवन भी इस प्रकरण पर अपना रोष प्रकट करती है,  विपक्ष के नेताओं के अतिरिक्त उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड भी इसको लेकर अपनी चिंता प्रकट करते हैं। इन सबके बीच सर्वोच्च न्यायालय का रवैय्या देखकर लगता है कि वो अपने आपको भारत की सभी संस्थाओं से ऊपर समझ रहा है। निश्चित ही ये किसी भी देश की न्यायिक व्यवस्था की अराजकता का नमूना प्रतीत होता है। अन्यथा क्या कारण है कि ओपन एंड shat केस में भी सर्वोच्च न्यायालय द्वारा इतनी माथा पच्ची। पहली बात तो सर्वोच्च न्यायालय के चीफ़ जस्टिस किस कानून के तहत तीन सदस्यों की कमेटी बनाकर एक आपराधिक कृत्य की जाँच करा सकते हैं बाकी बातों को छोड़ भी दें तो क्या उन तीन सदस्यों में से कोई एक फॉरेंसिक एक्सपर्ट है फिर दस दिन बीतने के बाद उन पाँच बोरों के जले हुए नोट कहाँ गए उनकी रिकवरी कैसे होगी। अगर जजिस ही पुलिस का काम करेगी तो जजिस कमेटी द्वारा लिए गए निर्णयों की अनुपालना कौन सी संस्था कराएगी? अब जरा कोर्टों में लम्बित मुकदमों पर और इन न्यायधीशों को मिलने वाली तनख्वाह और पर्क पर भी नज़र डाल लें:-

पेंडिंग केस 
--------------
1. सुप्रीम कोर्ट- 81,598 केस 
2. हाई कोर्ट   - 62,50,367 केस 
3. लोअर कोर्ट- 4 करोड़ 55 लाख लगभग 

 चीफ जस्टिस                                जस्टिस
------------------                               ----------
1. सुप्रीम कोर्ट जज-2,80,000        2,50,000
2. हाई कोर्ट- जज  -2,50,000        2,25,000

         आज़ादी के 78 वर्षों में अभी तक एक भी ऐसा मौका नहीं आया जब किसी ज़ज को भ्रष्टाचार के आरोप में जेल भेज दिया गया हो। किसी भी लोकतांत्रिक देश में देश को सुचारू रूप से चलाने के लिए मुख्य चार स्तम्भ  होते हैं जो अपनी ईमानदारी एवं कर्तव्य परायणता के लिए जाने जाते हैं। कार्यपालिका जिसका काम है देश के अंदर एवं बाहर देश हित के कार्य करना, विधायिका जिसका कार्य देश के लोगों के क्या सही है क्या गलत है तय कर नियम कानून बनाना तीसरा है न्यायपालिका जिसका काम है कार्यपालिका और विधायिका के नियमों के तहत सभी आम या ख़ास को न्याय प्रदान करना चौथे और अंतिम स्तम्भ मीडिया का कार्य है इन तीनों की कमियों को उजागर करना किन्तु ऐसा होता दिखता नहीं है जिसका स्पष्ट कारण है भ्रष्टाचार भ्रष्टाचार और सिर्फ़ भ्रष्टाचार। सन 2000 में शमित मुखर्जी केस याद होना चाहिए जिसमें जस्टिस शमित मुखर्जी ने भ्रष्टाचार की सभी हदें पार करते हुए भ्रष्टाचार करने के लिए कोड नेम रखे हुए थे पैसे और जमीन जायदाद की बात छोड़ भी दें तो लड़की सप्लाई करने के लिए कोड था जापानी समोसा। अब आप स्वयं ही सोचें ऐसे जस्टिस किसी अबला की आबरू लूटने वाले को क्या सज़ा देते होंगे जो स्वयं इसमें शामिल हों।इसी प्रकार 2008 में पंजाब उच्च न्यायालय में तीन लाख की रिश्वत का मामला था जिस ज़ज् को रिश्वत दी जानी थी उसका नाम था निर्मल यादव किन्तु जो तीन लोग जज साहिबा को रिश्वत के 15 लाख रुपये देने गए थे वे ग़लती से दूसरी जज निर्मल कौर के घर पहुंच गए।निर्मल कौर ने पुलिस बुलाकर तीनों को अरेस्ट करा दिया।अरेस्ट के बाद मामला खुला कि ग़लती से कहाँ मिस्टेक हो गई थी। झारखण्ड नोट लेकर वोट का मामला हो या अन्य इसी तरह के केस सबके केस बस अनंत काल से चले जा रहे हैं शामित मुखर्जी के केस को 25 साल हो गए और निर्मल यादव के केस को 17 साल। अब ये कैसे संभव है कि जजिस ईमानदारी का ढोल पीटकर लोगों को गुमराह करते रहें।

एक मात्र विकल्प N J A C
-----------------------------------
       चलते चलते NJAC आयोग की स्थापना भारत के संविधान में 2014 के 99 संशोधन के माध्यम से 13 अगस्त लोकसभा एवं 14 अगस्त 2014 को राज्यसभा से पारित कराकर राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग की स्थापना करके पहला पड़ाव पार कर लिया। बीजेपी शुरू से ही कॉलोजियम सिस्टम के विरुद्ध है ऐसा इसलिए भी है कि इस क्लोजियम सिस्टम में जज की नियुक्ति जज ही करते हैं इस प्रक्रिया में भाई भतीजावाद की सौ प्रतिशत संभावना रहती है वैसे भी मुझे तो ये एक तरह का डीप स्टेट का मामला लगता है।

 "मुंसिफ ही मुंसिफ तय करेगा अगर, 
  तो क़ातिल को फिर कौर रोकेगा दीप "

निश्चित रूप से बीजेपी की नीयत इस विषय में ठीक थी तभी तो सर्वसम्मति से पास इस बिल को 2015 में इसे क्लोजियम कमेटी को भेजा गया किन्तु क्लोजियम सिस्टम को इसमें अपनी हार दिखाई दी और क्लोजि- यम ने इसे 4-1 से नामंजूर कर दिया और सरकार ने भी इसे ठंडे बस्ते में डाल दिया जिससे क्लोजियम सिस्टम की तो निकल पड़ी और वो पूर्व की भांति आधी रात को जघन्य अपराधियों ही नहीं  वरनन आतंकवादियों के लिए भी कोर्ट के दरवाज़े खोलने लगा क्या किसी की स्मृति में है कि किसी बलात्कार पीड़िता या किसी देशभक्त के लिए सर्वोच्च ने अपने दरवाज़े खोलें हों! चुनावी बॉन्ड पर स्यापा करने वाली सर्वोच्च अदालत ख़ुद ही जेम्स बॉन्ड समझने लगे तो फिर क्यूँ और कैसे लोग न्यायालय को न्याय का मन्दिर कहें या माने।

- प्रदीप डीएस भट्ट-25032025



No comments:

Post a Comment