“हिंदी की है आस, बनेगी एक दिन खास, यानि ‘लिंग्वा फ्रांका’”
हर वर्ष की भाँति इस वर्ष भी 14 सितम्बर को “हिंदी दिवस” के रुप में मनाया जाएगा। मुझे उम्मीद है कुछ मंत्रालयों में इस विषय में पत्रावलियाँ अंग्रेजी में ही प्रस्तुत की जाएगीं। हम जैसे हिंदी प्रेमियों को इससे कितना कष्ट होता है उनकी बला से। किंतु कहीं न कहीं दिल में ये आस अवश्य है कि एक न एक दिन हमारी हिंदी भाषा भी ‘लिंग्वा फ्रांका’ (प्रयोग में ली जाने वाली वह प्रभावशाली भाषा जो प्रयोग में लेने वालों की मातृ भाषा न हो) बनेगी)
मैं हिंदवी क़ी हिंदी हूँ
राष्ट्र भाल क़ी बिंदी हूँ
अंग्रेजी भाषा के समक्ष मैं
मात्र अब भी किंचित हूँ
हाँ मैं हिन्दी हूँ ...
विश्व परिदृश्य पर पिछले तीन हजार वर्ष के इतिहास में देखें तो ग्रीक, लैटिन, पॉर्च्युगीज, स्पैनिश, फ्रेंच और अंग्रेजी एथेंस की ग्रीक भाषा अलग-अलग दौर में प्रभावशाली रही हैं। 18वीं सदी के मध्य में फ्रांस के विद्वान वॉल्टेयर ने ‘फिलॉसफी ऑफ हिस्ट्री’ लिखी। इसका विषय संपूर्ण मानव जाति का इतिहास था। अध्ययन में यह तथ्य निकलकर आया कि ईसा पूर्व नौवीं सदी से लेकर चौथी सदी तक यूरोप, शहर रूपी कई साम्राज्यों में बंटा हुआ था। इनमें से एथेंस व्यापार और सैन्य ताकत बनकर उभरा। इसलिए प्रभावशाली एथेंस की ग्रीक भाषा यूरोप की लिंग्वा फ्रांका बनी। ईसा पूर्व 201 से आने वाले 600 वर्षों तक एथेंस यूरोप का सबसे शक्तिशाली साम्राज्य बना रहा। लिहाजा कैथोलिक चर्च की ताकत बढ़ी और रोमन भाषा लैटिन लिंग्वा फ्रांका बन गई। लेकिन लैटिन लिंग्वा फ्रांका बनी रही क्यों कि आने वाले एक हजार साल तक कोई नई वैश्विक शक्ति नहीं उभरी।
1492 में कोलंबस ने अमेरिका की खोज की और छह वर्ष बाद वास्कोडिगामा ने भारत में कदम रखा। ये दोनों यात्राएं पुर्तगाल के खर्चे पर हुई और इस तरह से पुर्तगाल साम्राज्य शक्तिशाली होने लगा। पुर्तगाल की देखा-देखी स्पेन और फ्रांस भी उप-निवेशवाद में कूदे। इस दौरान पॉर्च्युगीज, स्पेनिश और फ्रेंच भषा लिंग्वा फ्रांका की दौड़ में रहीं। इंग्लैंड में स्थिति ऐसी थी कि राजघराने में जो शिक्षा ली जाती थी उसका माध्यम फ्रेंच भाषा होती थी न कि अंग्रेगी। उस समय के सभ्य समाज में अंग्रेजी गरीबों की भाषा और दरिद्रता की निशानी मानी जाती थी।
वर्तमान में अंग्रेजी भाषा को ‘लिंग्वा फ्रांका’ का दर्जा प्राप्त है। ऐसा इसलिए कि पिछ्ले लगभग 600 वर्षो से ब्रिटेन आर्थिक, सामजिक,राजनैतिक बाजारी कारण व सैनिक शक्ति के लिहाज से विश्व के उन पाँच महत्वपूर्ण देशों में स्थान रखता है जो कि सीधे सीधे शेष विश्व पर अपना प्रभाव रखते हैं। चूँकि अमेरिका के अतिरिक्त विश्व में प्रमुख 7 देशों में अंग्रेजी ही बोली जाती है इसलिए वर्तमान दौर में अंग्रेजी ही लिंग्वा फ्रांका बनी हुई है। जहाँ तक अंग्रेगी का ताल्लुक है इसे प्रथम अंतर्राष्ट्रीय भाषा का दर्जा प्राप्त है। चूँकि ये एक पश्चिम जर्मेनिक भाषा है जिसकी उत्पती एंग्लो-सेक्सन इंग्लैंड में हुई। चूँकि ब्रिटिश हुकूमत कई देशों पर रही है अतएव जैसे जैसे अंग्रेगी का प्रचलन बढा ये उन देशों में भी ज्यादा बोले जाने लगी जहाँ उस देश की अपनी भाषा पहले से ही मौजूद थी। ऐसा इसलिए भी हुआ क्यों कि ब्रिटिश लोगों ने 18,19 एवम 20वीं शताब्दी में सैन्य, राजनितिक, आर्थिक, वैज्ञानिक एवम सांस्कृती पर अपनी पकड बनाने के उद्देश्य से अंग्रेगी भाषा के प्रयोग पर अधिक बल दिया जिससे इसे छटी भाषा के रुप में लिंग्वा फ्रांका होने का गौरव प्राप्त हुआ। कुछ देश ऐसे भी रहे जिन्होंने इसे अपनी मातृ भाषा के बाद दूसरी भाषा के रुप में मान्यता प्रदान की। अगर मैं इसे इस तरह पारिभाषित करूँ या कहूँ कि अंग्रेगी भाषा का उत्थान चौथी या शायद पाँचवी शताब्दी के मध्य में इंग्लैंड में एंग्लो- सेक्सन लोगों द्वारा शुरु हुआ तो ज्यादा बेहतर होगा। एंग्लो सेक्सन लोग कई तरह की बोलियों/ भाषाओं को बोलते थे,यहाँ यह कथन स्प्ष्ट है कि वाइकिंग हमलावरों द्वारा अपनाई गई प्राचीन नोर्स भाषा का प्रभाव वर्तमान अंग्रेगी भाषा पर ज्यादा है। ये विषय अलग है कि अंग्रेजी भाषा लगातार अपना विकास करती रही और अन्य देशों में बोले जाने वाली भाषा के शब्दों को स्वंय में समाहित करती रही जिससे इसकी ताकत में ज्यादा वृद्धि हुई। वर्तमान में जो हम अंग्रेजी बोलते हैं उसमें नोर्मन शब्दावली और वर्तनी के नियमों का भारी संख्या में उपयोग हुआ है। वर्तमान अंग्रेजी भाषा में प्राचीन ग्रीक और लैटिन का अत्याधिक प्रभाव दिखायी पडता है। अंग्रेजी बोलने वाले लगभग 53 प्रमुख देश हैं जिनमें संयुक्त राष्ट्र, यूरोपियन संघ,राष्ट्रमण्डल, नाटो देश व नाफ्टा के देश शामिल हैं। एक सर्वे के अनुसार पूरे विश्व में अंग्रेजी बोलने वाले देशों के क्रम में अमेरिका प्रथम स्थान भारत दूसरे स्थान पर ,नाइजिरिया तीसरे स्थान पर और आश्चर्यजनक रुप से ब्रिटेन चौथे स्थान पर आता है। इसके बाद फिलिपिंस कनाडा और आस्ट्रेलिया का नम्बर आता है। मतलब जिस अंग्रेजी भाषा की उतपत्ती ब्रिटेन में हुई वही देश अंग्रेजी बोलने वाले देशों में चौथे नम्बर पर है मतलब उसने अपना आधिपत्य जमाने के उद्देश्य से अंग्रेजी भाषा को इतना ताकतवर बना दिया कि समूचा विश्व बिना अंग्रेजी भाषा के चल नही सकता। किंतु हर जगह अपवाद होते हैं, जो यहाँ भी है। चीन में मंदारिन भाषा सबसे ज्यादा बोली जाती है किंतु चीन के बाहर न के बराबर किंतु चीन ने आज जो मुकाम हासिल किया है वह मंदारिन की बदौलत ही किया है। अंग्रेजी का उपयोग उतना ही किया गया जितना आव्श्यक था।
जहाँ तक हिंदी भाषा का प्रश्न है तो विश्व में अंग्रेजी, मंदारिन के बाद इसका स्थान तीसरा है। भारत में हिंदी के बाद सबसे अधिक बंगाली भाषा ( लगभग 30 करोड) बोली जाती है। जिस प्रकार आज अंग्रेजी वैश्विक भाषा के रुप में विश्व में प्रतिष्ठित है उसी प्रकार आने वाले समय में हिंदी भी वैश्विक भाषा के रुप में निश्चित अपना स्थान बनाएगी। हिंदी भारत के अतिरिक्त नेपाल, भूटान, बांग्लादेश, पाकिस्तान, तिब्बत, अफगानिस्तान, श्रीलंका इत्यादि देशों में प्रमुख रुप से बोली और समझी जाती है।पूरे भारतीय उपमहाद्वीप में हिन्दी धीरे धीरे सम्पर्क भाषा के रुप में अपना स्थान निश्चित करती जा रही है । भारत में इस समय कुल छ: कास्मोपोटिन शहर हैं जिनमें चेन्नई को छोडकर आपको हिंदी भाषा बोलने वाले समझने वाले देल्ही,मुम्बई, बंगलौर,कोलकत्ता और हैदराबाद में आसानी से मिल जायेंगे। चेन्नई में भी हिन्दी बोलने वाले मिलेंगे लेकिन वे तमिलियन न होकर हिन्दी बेल्ट से आकर बसे हिन्दी भाषी लोग हैं। एक सत्य और है कि व्यापार के सिलसिले में राजस्थान से बाहर निकले लोग भले ही घर में मारवाडी में बातचीत करते हैं किंतु अपनी व्यापारिक गतिविधियों में वे हिन्दी भाषा का ही प्रयोग करते हैं। इसका अनुभव मुझे अगस्त -2022 माह में अपने तीन दिवसीय साहित्यिक कार्यक्रम के दौरान देखने को मिला। एक कहावत प्रसिद्ध है “जहाँ न पहुँचे बैलगाडी वहाँ पहुँचे मारवाडी” ये सुखद अनुभव मुझे नेपाल में भी देखने को मिला और भूटान में भी। यहाँ तक कि पश्चिम बंगाल एवम नोर्थ ईस्ट के आठों राज्यों में भी।
भारत की संविधान सभा द्वारा 14 सितम्बर, 1949 को इसे राजभाषा के रूप में स्वीकार किया गया जिससे इसका प्रयोग और चौतरफा विकास हुआ। जैसे बंगला, तमिल, तेलुगु, कन्नड़, मलयालम आदि को क्रमश: बंगाल, तमिलनाडु, कर्नाटक, केरल आदि की राजभाषा (मुख्य प्रांतीय भाषा) बनाया गया है। ऐसा करने से किसी भी भाषा का महत्व कम नही हुआ है? निश्चित रुप से नही। बल्कि इससे उन सभी भाषाओं का उत्तरदायित्व और प्रयोग क्षेत्र पहले से अधिक बढ़ गया है। जहाँ पहले केवल परस्पर बोलचाल में ही इनका प्रयोग होता था या उसमें साहित्य की रचना होती थी, वहीं अब प्रशासनिक कार्य भी हो रहे हैं। यही स्थिति हिन्दी की भी है। इस प्रकार हिन्दी सम्पर्क और राष्ट्रभाषा तो है ही, राजभाषा बनाकर इसे अतिरिक्त सम्मान प्रदान किया गया है।द्वितीय महायुद्द की समाप्ति पर 1945 में जब सन्युक्त राष्ट्र की स्थापना हुई थी तो उसकी आधिकारिक भाषा के रुप में अंग्रेजी रशियन, फ्रेंच एवम मंदारिन को ही आधिकारिक भाषा के रुप में मान्यता मिली थी। हम भारतीयों के लिए 1991 में सन्युक्त राष्ट्र में स्व0 अटल बिहारी बाजपई जी द्वारा दिया गया भाषण ही एक मात्र गौरव का क्षण रहा है अन्यथा आज तक किसी अन्य नेता ने कभी सन्युक्त राष्ट्र संघ में हिन्दी में भाषण देना तो दूर “नमस्ते” भी कहना उचित नहीं समझा । फिर हिन्दी को सन्युक्त राष्ट्र की भाषा में सम्मलित कराने की बात तो दूर की कौडी ही रही। बिना किसी संकोच के कहा जा सकता है कि 2014 के बाद से स्थिति बहुत तेजी से बदली और 2018 में भारत सरकार की ओर से सन्युकत राष्ट्र संघ के वैश्विक संचार विभाग के साथ साझेदारी की गई । आज भारत सन्युकत राष्ट्र संघ के समाचार और मल्टी मीडिया के लिए फण्ड भी दे रहा है और परिणाम सामने है। जून-2022 में सन्युकत राष्ट्र संघ द्वारा जारी होने वाले सभी कागज़ातों को अन्य मान्य भाषाओं के अतिरिक्त हिन्दी में जारी करने की घोषणा की। निश्चित रुप से भारत के लिए ये गर्व का विषय है हिन्दी के अतिरिक्त बांग्ला एवम उर्दु भाषा को भी सन्युक्त राष्ट्र ने अपनी सहमती प्रदान की है। इसी क्रम में देश के सर्वोच्च न्यायालय ने भी कुछ माह पूर्व घोषणा की है कि उसके द्वारा दिये गये सभी निर्णयों का अनुवाद हिन्दी भाषा में किया जाएगा ताकि वादी को समझने में आसानी हो।
"सात कोस पर पानी बदले चार कोस पर भाषा जी
विश्व पटल पर छा जाएगी इक दिन हिन्दी भाषा जी "
आज का युवा निश्चित रुप से अंग्रेगी के साथ हिंदी भाषा को भी महत्व देने लगा है उसे अच्छी तरह से पता है कि विकास का पहिया केवल अंग्रेजी या प्रांतीय भाषा के सहारे नही घूम सकता। पिछ्ले कुछ वर्षो में देश में ही नही वरन विदेशों में हिंदी और संस्कृत भाषा सीखने की एक होड सी मची हुई है। मल्टीनेशनल कम्पनियाँ अच्छी तरह से जानती है कि भारत एक बहुत बडा बाज़ार है, अगर उन्हें अपना माल बेचना है तो उन्हें भारत की मुख्य भाषा हिन्दी को स्वीकार करना ही होगा, साथ ही इसी बहाने प्रांतीय भाषाओं का भी विकास हो रहा है। कुछ वर्ष पूर्ण एक आर्टिकल पढा था जिसमें बताया गया था कि दक्षिण कोरिया की कम्पनी जब किसी को भारत में अपना प्रतिनिधी बनाकर भेजती हैं तो वे एक शार्ट टर्म हिन्दी सेशन रखती हैं ताकि वे हिन्दी भाषा के कुछ शब्द वाक्य समझ व बोल सके ताकि कम्पनी को भारत में प्रतिनिधि के तौर पर यहाँ की बोल चाल को समझने में आसानी हो, लोगों से घुलने मिलने में आसानी हो, उनका उद्देश्य सिर्फ भारत में सिर्फ माल बेचने का ही नही वरन उनका उद्देश्य भारतीय समाज से जुडने का ज़ियादा रहता है। आज सिर्फ हिन्दी फिल्म उद्योग ही वरन प्रादेशिक फिल्म उद्योग भी अपनी सभी फिल्मों, वेब सीरिज़ को हिंदी के अतिरिक्त अन्य भाषाओं में डब कराके प्रदर्शित करता है ताकि ज्यादा से ज्याद लोगों तक उसकी पहुँच सुनिश्चित हो। भारत दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा देश है।
भारत का संविधान कुल 22 भारतीय भाषाओं को आधारिक भाषा का दर्ज़ा देता है. इन 22 भाषाओं में शामिल है :- हिंदी, तमिल, तेलुगु, मराठी, असमिया, बोडो, कन्नड़, मलयालम, मणिपुरी, मराठी, गुजराती, बांग्ला, उड़िया, पंजाबी, संस्कृत, सिंधी, डोगरी, संथाली, मैथिली, नेपाली, कोंकणी एवम उर्दू। किंतु हिंदी लगभग सब जगह बोली जाती है और यह सबसे अधिक तेजी से बढ़ भी रही है। पढाई का माध्यम भी धीरे धीरे हिंदी ,अंग्रेजी व एक प्रांतीय भाषा के इर्द गिर्द ही सिमटता जा रहा है जो कि एक अच्छा संकेत है। इस विषय में भारत सरकार द्वारा भी विभिन्न स्तरों पर प्रोत्साहन प्रदान किये जा रहे हैं साथ ही नई शिक्षा नीति भी इसमें एक कारगर भूमिका निभा रही है। पिछले दिनों विज्ञान पत्रिका करंट साइंस में प्रकाशित एक अनुसंधान में मस्तिष्क विशेषज्ञों का कहना है कि अंग्रेजी पढते समय हमारे दिमाग का केवल बाँया हिस्सा ही सक्रिय रहता है जब कि हिन्दी या संस्कृत पढते समय मस्तिष्क का दायाँ और बाँया दोनों हिस्से सक्रिय हो जाते हैं। इससे दिमाग की कसरत ज्यादा होती है और दिमाग ज्यादा तरोताज़ा रहता है। राष्ट्रीय मस्तिष्क अनुसंधान केंद्र की भविष्य में अन्य भारतीय भाषाओं के प्रभाव पर भी अध्य्यन करने की योजना है। अध्यान की प्रक्रिया के दौरान छात्रों को पहले चरण में जोर जोर से अंग्रेजी भाषा पढने के लिए कहा गया उसके पश्चात हिन्दी भाषा। इस समूची प्रक्रिया में दिमाग का एम आर आई किया गया तब उप्रोक्त रिजल्ट सामने आया। इसका कारण निश्चित रुप से हिन्दी बोलते समय मात्राओं के कारण दिमाग की सक्रियता ज्यादा होना था जब कि अंग्रेजी बोलते समय सीधा सीधा छब्बीस अल्फाबेट का रीपिटिशन ही रहा होगा। एक और अच्छी पहल हुई है वो ये कि इंजीनियरिंग एवं मेडिकल की पढ़ाई भी हिन्दी माध्यम से करायी जाने लगी है जो कि भारतीय शिक्षा के लिए एक शुभ संदेश है l मुझे विश्वास है 2040 तक हिन्दी अगली (सातवीं) लिंग्वा फ्रांका का होने का दर्जा अवश्य प्राप्त कर लेगी।
© प्रदीप देवीशरण भट्ट - 01:09:2024
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