Wednesday, 28 August 2024

कहानी दिमाग़ में जितना पकेगी उतना निखरेगी

रिपोतार्ज 
========

"कहानी दिमाग़ में जितना पकेगी उतना निखरेगी" 

 "आया हूं तो कुछ लेकर जाऊंगा"
=====================

       कुछ याद आया हुज़ूर!!!!😊 जी सही पकड़े हैं ये डायलॉग "अंदाज़ अंदाज़ अपना अपना" फिल्म का ही है। अगर इस फिल्म में से शक्ति कपूर का स्पेशल अपीरियंस वाला किरदार हटा दिया जाए तो ये फिल्म एक औसत फिल्म बनकर ही रह जाती इसलिए राज कुमार संतोषी ने इस क़िरदार को जीवंत बनाने के लिए शक्ति कपूर के गेटअप पर भी भरपूर मेहनत की। कुछ ऐसा ही अंदाज़ "कथा रंग"  का भी है जिससे जुड़े मुझे मात्र चार  माह ही हुए हैं किंतु ऐसा प्रतीत होता है कि चार बरस हो गए हैं। हर बार एक नया अनुभव होता लेकर घर लौटता हूँ। 😆हर मीटिंग के उपरांत जब मैं गाजियाबाद से वापिस मेरठ की यात्रा में होता हूं तो मेरे दिमाग़ में (वैसे सच तो ये है अपना ऊपर वाला माला खाली है) रिपोर्ताज की डार्क व पंच लाइन आकार ले लेती हैं किंतु मैं कम से कम 48 घंटे इसे दिमाग़ में ही सुरक्षित रख पकने देता हूं । वो सुना है न "Hurry will spoiled the carry"🌶️

       तो लब्बो लुआब ये है कि अगस्त के प्रथम सप्ताह में ही आलोक यात्री जी का आमंत्रण/निमंत्रण प्राप्त हो गया कि 25 अगस्त को कथा रंग की सभा होनी है आप तिथि रिज़र्व कर लें। ये एक बेहतरीन व्यवस्था है जिसका अनुपालन अन्य संस्थाओं को भी करना चाहिए। तो हुज़ूर हमने भी ये सुनिश्चित किया कि अन्य किसी कार्यक्रम की सहभागिता से बचा जा सके। आख़िर कमिटमेंट भी कोई चीज़ है प्रदीप बाबू। 😉

         पूरे भारत में बदरा सिर्फ़ गरज ही नहीं रहे बल्कि पूरे जोश-ओ - ख़रोश के साथ बरस भी रहे हैं सच कहूँ तो कुछ ज़्यादा ही बरस रहे हैं।  नदी हो या नाले सभी फूलम फुल,पर पता नहीं पश्चिमी उत्तर प्रदेश से और वो भी विशेष रूप से मेरठ से न जाने इंद्र देवता को क्या नाराज़गी हो गई है भैय्या बरस ही न रहे। अगर ग़लती से बरसने आ भी गए तो पवन महाराज साथ में उड़ाकर पता नहीं कहां ले जा रहे हैं। ख़ैर जलती भुनती गर्मी में 25 अगस्त को ग्यारह बजे निकले रास्ते में एक काम निपटाया और ठीक 2.30 होटल रेडबरी के सामने ऑटो से शाही सवारी उतरी। कार्यक्रम में समय से पहुंचना अपनी आदत में शुरु से शुमार रहा है सो 2.35 मीटिंग हॉल में पहुंचा तो बस हम ही हम तभी एक कुर्सी खिसकते हुए एक दम नज़दीक आकर बोली 'वेल्ले हो' हम समझे हमारा नाम पूछ रही है सो तुरन्त स्टाइल से बोले नहीं प्रदीप भट्ट हैं मेरठ से आ रहे हैं। अब कुर्सी को ताव आ गया बोली टाइम पे आना अच्छी बात है लेकिन इतनी जल्दी भी आना अच्छी बात नहीं।  लोग वेल्ला समझते हैं। सच कहें इतनी बढ़िया वाली बेइज्जती आज तक न हुई थी इसलिए खींसे निपोर कर बेइज्जती कम महसूस करने की कोशिश की किंतु जल्दी समझ में आ गया कि अगर और कटा जला नहीं सुनना चाहते तो बेटा वॉशरूम का बहाना करके खिसक लो, लेकिन अफ़सोस दिल गड्ढे में। बाथरूम में अलीगढ़ी ताला हमारा मुँह चिढ़ा रहा था😄 ख़ैर बाहर निकले दरयाफ़्त की फिर पुनः हॉल में आ लौटे।लौट के बुद्धू घऱ को आए वाली स्थिति में 🤣। 

         थोड़ी देर में प्रिय उत्कर्ष साथ में एक मोहतरमा हॉल में दाख़िल हुई ज़बरदस्त ड्रेस सेंस। थोड़ी देर में सुभाष जी शक़ील अहमद जी,रिंकल जी तेज सिंह जी रूबी भूषण जी, डॉक्टर देवेंद्र देवेश जी वगैरह वगैरह। अपरिहार्य कारणों से कार्यक्रम अध्यक्ष डॉक्टर शिव नारायण वरिष्ठ लेखक एवम संपादक "नई धारा"  डॉक्टर बलराम जी  वरिष्ठ लेखक एवम संपादक "समकालीन भारतीय साहित्य" देर से उपस्थित होने वाले थे। समय का सदुपयोग करते हुए प्रिय रिंकल ने माइक संभाला🙋‍♀️ और घोषणा की कि जब तक कार्यक्रम का शुभारंभ हो तब तक क्यों न सभी का एक दूसरे से परिचय हो जाएं। हाजरी के क्रम  संख्या के हिसाब से मैं क्रम संख्या 36 पर अंकित था सो आख़िरी में हमारा भी नंबर आ गया अभी हम हमने परिचय देकर माइक नीचे रक्खा ही था कि तभी आकाशवाणी हुई "मैं आलोक यात्री" पूरे हॉल में उपस्थित लोगों के होठों पर स्मित उभर आई। अगले दस मिनिट में हॉल लगभग पूरा भर चुका था। अध्यक्ष की बाट जोहते हुए कार्यक्रम प्रारम्भ हुआ और कहानी की पाठशाला/ कार्यशाला में मीना पाण्डेय जी की कहानी "आराम कुर्सी " 🦽से वाचन प्रारम्भ हुआ। मैं उन्हें पिछ्ले कार्यक्रम में सुन चुका हूँ । पढ़ने का अंदाज़ अंदाज़ है। बेहतरीन कहानी पर ज़बरदस्त टीका टिप्पणी हुई । हर व्यक्ति की अपनी दृष्टि है मुझे उनकी कहानी का अंत सिर्फ़ इसलिए पसंद आया क्यों कि उन्होंने बेलाग अंदाज़ में वही परोसा जो हमारे समाज में व्याप्त है। माता या पिता की लीगेसी कोई भी आगे बढ़कर लेना नहीं चाहता सभी जल्द से जल्द मुक्ति चाहते हैं किंतु माता पिता द्वारा अर्जित एसेट नहीं छोड़ना चाहते। 🏡कहानी को दर्शकों का अच्छा प्रसाद मिला। मंजू मन द्वारा प्रस्तुत कहानी "ड्रॉपर" सुधी पाठकों को रास नहीं आई। मुझे स्वयं भी सबसे ज़्यादा आपत्ति इसके शीर्षक को लेकर थी जो एक औसत कहानी को और ज़्यादा औसत बना रहा थी। लेखिका मंजू मोहन को आलोचनाओं से इतर भी सोचना होगा। तीसरी कहानी "सफ़ेद आकृति" जिसे संस्था के अध्यक्ष शिवराज जी ने रचा और मंच पर प्रस्तुत वागीश शर्मा ने किया। इस कहानी पर कोई भी टिप्पणी न करना इसलिए आवश्यक नहीं क्यूं कि हम बाहर जाकर फ़ुनवा सुनने में व्यस्त रहे जब अन्दर आए तो..... चौथी कहानी "बुधिया की दिहाड़ी"🧍‍♀️ जिसे विनय विक्रम सिंह जी ने न केवल बुना बल्कि बढ़िया बुना। सबसे ज़्यादा प्रसाद इसी कहानी को मिला। कहानी सुनना शुरु किया तो मुझे स्वयं रचित लघु कथा "दिहाड़ी" की याद हो आई जिसे मैं आगामी कहानी संग्रह में स्थान दूंगा। मैंने ईमानदारी से इस बात को विनय जी से स्वीकारा कि काश मैं अपनी कहानी को आपकी कहानी जैसा विस्तृत विस्तार दे पाता। ओ भैय्या इत्ती देर हो गईं बकर बकर करते 😹 हमारी ईमानदारी टिप्पणी पर ताली तो बजाओ। 👏

         कार्यक्रम के अंतिम सत्र में रूबी भूषण जी की पुस्तक "टेम्स नदी बहती रही" एवम आगरा से पधारे युवा लेखक संजय दत्त शर्मा की पुस्तक "कस्बा" का लोकार्पण भी मंचासीन विभूतियों द्वारा संपन्न हुआ। अपने उद्बोधनों में डॉक्टर बलराम जी की नसीहत "झूठ और सच को जानना ही लेखकीय कौशल है" डॉक्टर शिवनारायण" कहानी द्वंद से ही बनती है " डॉक्टर देवेश ने अपने उद्बोधन में " लेखक के झूठ से ही समाज का सच उजगार होता है" से अपने अनुभव साझा किए। डॉक्टर रूबी भूषण की  यह स्वीरोक्ति कि वे "कथा रंग में आकर अभिभूत हुई" कथा रंग परिवार के लिए किसी मेडल से कम नहीं है।  आलोक यात्री जी हों या सुभाष चंदर जी या अन्य सभी ने कहानी लिखने और कहने पर पर अपने अपने मत प्रस्तुत किए। डॉक्टर स्वाति चौधरी का यह कथन कि चूँकि वे एक संपादक हैं तो कहानियों पर  टिप्पणी में सम्पादकता का पुट आना स्वाभाविक है। उन्होंने खुलकर कहा भी कि मैं एक श्रोता के साथ एक लेखक भी हूँ और एक लेखक के साथ साथ  एक सम्पादक भी इसलिए चाहकर भी सिर्फ़ अच्छी टिप्पणी ही देना सम्भव नहीं है। उनकी ईमानदार टिप्पणी के लिए उनको साधुवाद।  जहां तक मेरा स्वयं का प्रश्न है "कहानी जितना दिमाग़ में पकेगी वो उतनी ज़्यादा निखरेगी"। कहानी लिखना अलग बात है उसे प्रस्तुत करना अलग है। कई बार सारा खेल "कहन" पर आकर सिमट जाता है। कई मर्तबा कमज़ोर कहानी भी 'कहन' से लोगों पर अपना असर छोड़ जाती है। मीना पाण्डेय और विनय विक्रम सिंह इस बात को बेहतर जानते प्रतीत होते हैं। 

         और अब अंत में हर माह कथा रंग की मीटिंग होनी ही है। मीटिंग होनी है तो कोई न कोई कार्यक्रम अध्यक्ष विशेष अतिथि होंगे ही। उन सभी को कार्यक्रम एवम कहानियों पर टिप्पणी देनी ही होगी। टिप्पणियां कभी गुड़ की तरह मीठी होंगी कभी नीम सी कड़वी। अब उन टिप्पणियों को लेखक कैसे लेता है ये उस पर निर्भर करता है। आख़िर अनुभव की कुछ तो क़ीमत होती है। ज़रूरी नहीं हर लेखक उसे सकारात्मक रूप में स्वीकर करे कुछ लोगों की प्रवृति ही नकारात्मकता को धारण करने में ज़्यादा होती है। ख़ैर अब हमें ये लेखक के विवेक पर छोड़ देना चाहिए कि वो क्या स्वीकर करता है। मुझे ये रिपोर्ताज लिखते हुए 2019 का एक किस्सा याद हो आया। कादम्बिनी क्लब हैदराबाद द्वारा हर माह काव्य गोष्ठी आयोजित होती है, पैटर्न के अनुसार प्रथम सत्र में किसी प्रसिद्ध लेखक की लेखकीय यात्रा पर चुनिंदा लोगों द्वारा विचार प्रकट किये जाते हैं फिर द्वितीय सत्र में कवि गोष्ठी। शायद माह अक्टूबर 2019 की बात है उस मीटिंग में शिवानी की लिखी कहानियों उपन्यासों में से किसी एक का चुनाव कर उस पर अपने विचार प्रकट करने थे सो जैसे ही ये सूचना प्राप्त हुई मैंने तुरन्त गोरा पंत उर्फ़ शिवानी की  "कृष्णकली" उपन्यास के लिए अपनी सहमति दे दी क्यों कि मैंने उसे पहली बार धर्मयुग में किस्तों में पढ़ा था। लेकिन बोलने के लिए बुलेट पॉइंट्स बनाने बैठा तो सब गड्ढामड हो गया पर चूंकि मैं ऑफिस में हिन्दी प्रकोष्ठ का प्रभारी भी था तो तुरन्त सहायक की मदद से भारती जी ( हैदराबाद में हिन्दी पुस्तकों के एक मात्र विक्रेता) से सम्पर्क किया और अगले दिन पुस्तक हाज़िर हो गई । पुस्तक को दो बार पढ़ा तब जाकर दस मिनिट कुछ बोल पाने का अच्छा मैटेरियल तैय्यार कर पाया। कुल जमा 50,55 लोगों की उपस्थिति में जब वाचन हुआ तो सिर्फ़ कृष्कली पर ही नहीं वरन धर्मयुग में किस्तों में प्रकाशन का पूरा ब्यौरा भी मैंने अपने उद्बोधन में समेट लिया साथ ही एक विशेष घटना का भी ज़िक्र किय़ा जिससे उपस्थिति लोगों में कृष्णकली पढ़ने की उत्कंठा उत्पन्न हुईं। शायद यही है 'कहन'  रिजल्ट आशा से अधिक रहा। ये किस्सा बयां करने का कारण भी यही है कि "कहन" से पहले दिमाग़ में उसका खाका तैयार होना ज़रूरी है। फ़िर भी यदि "कहन" के दौरान कुछ इधर उधर हो जाए तो वरिष्ठ लेखक हों या श्रोता समझ जाते हैं कि बंदे ने मेहनत तो पूरी की है लेकिन..... 🍁🌹🍁🌹🍁🌹🍁🌹


प्रदीप डीएस भट्ट -28824

No comments:

Post a Comment