"बुरे नहीं अच्छे फंसे"
"कथा रंग" नाम पढ़ते ही तिरोहित होने का अहसास हुआ। आमंत्रण मिला तो जा पहुंचे शंभू दयाल कॉलिज गाजियाबाद वो भी "गर्मी में गर्मी का अहसास लिए"😆। बेहतरीन कार्यक्रम का साक्षी होना भी अपने आप में अलग बात है। किसी भी कार्यक्रम की सफ़लता का दारोमदार संचालन पर निर्भर करता है संचालन के साथ यदि अपनी पुस्तक का प्रमोशन भी किया जाए तो 😊 सुनील बाबू कुछ ज्यादा ही बढ़िया है।इस विषय में रिंकल शर्मा को 10/8.5 नंबर दिए ही जाने चाहिए। 8 नंबर संचालन के लिए और 0.5 बुरे फंसे का बढ़िया प्रमोशन के लिए।
कार्यक्रम के समापन के पश्चात रिंकल जी ने अपनी पुस्तक "बुरे फंसे" जो की एक नाटक है मुझे सप्रेम भेंट की। अब पुस्तक लेकर उसे सिर्फ़ शेल्फ में नहीं सजा कर नहीं छोड़ा जाना चाहिए अपितु पहली फुर्सत में पढ़ने के पश्चात अपना मंतव्य भी लेखक को प्रकट/अग्रसारित किए जाने की आवश्यकता होती है। मैं व्यक्तिगत रूप से इस धर्म का पालन करता हुं वो भी पूरी ईमानदारी के साथ।
"बुरे फंसे"
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इससे पहले कि "बुरे फंसे" के विषय में कुछ लिखूं ये शेर आप सबकी सेवा में कारण "बुरे फंसे" नाटक जेठ की तपती जलती गर्मी से तन पर पड़ी हास्य की हल्की पुहार का अहसास कराता है। इसके लिए रिंकल शर्मा जी को हृदय तल से बधाई तो बनती है न जी।
"गम से आख़िर कब तलक यूं मुंह छुपाना चाहिए
रोज़ थोड़ी देर ही पर मुस्कुराना चाहिए"
बचपन से काका हाथरसी, शैल चतुर्वेदी,सुरेंद शर्मा, व्यंग्य गद्य लेखनी के सिरमौर भारतेंदु हरिश्चंद्र,हरिशंकर परसाई, शरद जोशी और मेरे पसंदीदा के पी सक्सेना । एक लंबे अरसे से देख रहा हूं कि हास्य व्यंग्य के नाम पर दर्शकों को कुछ भी परोस दिया जा रहा है। मुंबई में रहते हुए फिल्म राइटर एसोसिएशन की मीटिंग अटेंड करते हुए और डिस्कशन के दौरान ये पाया कि उपस्थित लोग हास्य के नाम पर लोग दादा कोंडके की पुहड़ कॉमेडी को पसंद करते हैं या प्रभावित हैं। चूंकि इस विधा में मेरा हाथ जरूरत से ज्यादा तंग है अतएव मैं मौन रहना ही पसंद करता हुए।
बुरे फंसे में रिंकल जी ने कुछ पात्रों का जमावड़ा किया है फिर हर पात्र की विशेषता दर्शाते हुए उसे एक मुकाम तक पहुंचाने में मदद की है। फिर वह कल्लन हो या दादी, छज्जू हो या शबनम, रहमत हो या फिर दुबे जी या अन्य क़िरदार। पूरे नाटक में सिर्फ़ एक क़िरदार है जो अपने चुटीले संवादो से पूरे नाटक में छाया रहता है और वह है ब्रजभूमि की महारानी चम्पा। नाटक का 70 प्रतिशत हास्य वहीं से उपजता है जब दरवाज़े पर दस्तक होती है तो सामने वाला पूछता है रहमत शेख घर पर हैं तो चंपा उत्तर देती है ।
"हां हते"। अंदर आ जाओ।
ऐसा कई मर्तबा होता है किन्तु पृष्ठ संख्या 142 पर जब फोटोग्राफर आता है तो चम्पा "हां हते" न कहकर बोलती है
"हां हैं"। अंदर आ जाओ
पढ़ने में तल्लीन पाठक तुरंत पकड़ लेता है और ख़ुद से पूछता है
"जे के भयो भैय्या"
"चम्पा का क़िरदार जिस तरह से बुना गया है मुझे बेसाख्ता संसार फिल्म में अरुणा ईरानी के क़िरदार की याद हो आईं "
नेहरू जैकेट 1947 से पूर्व लोकप्रिय नहीं थी वरन 60 के दशक में 70 लोकप्रिय करवाई गई या हुई।
मेरा मानना है कि जब लेखक के दिमाग़ में कोई विषय उपजता है तब वह कहानी हो या नाटक या फिर उपन्यास वह स्वेटर बुनने की प्रक्रिया से होकर गुजरता है। कभी दो फंदे सीधे कभी दो फंदे उल्टे। इसलिए मैं कहानी बुनने का पक्षघर रहा हूं। इतने सारे किरदारों को लेकर उसके हर क़िरदार के साथ न्याय करना लेखक के लिए चुनौती पूर्ण काम होता है। रिंकल शर्मा इसमें खरा उतरने का पूरा प्रयास करती नज़र आती हैं।
रिंकल जी का नाटक "बुरे फंसे" पढ़कर एक बात तो निश्चित कह सकता हूं कि उन्होंने इसे तह दर तह बुना है और वे एक विशुद्ध हास्य नाटक लिखने में कामयाब हुई हैं। रिंकल जी अपना काम ईमानदारी से कर चुकी हैं। अब बारी इसके सटीक मंचन की है।
ढेरों शुभकामनाओं के साथ
प्रदीप डी एस भट्ट.9524
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