गोरखा यानि गोखारली यानि हटी/लड़ाकू
और जो मौत से नहीं डरता”
(If a man says he is not afraid of dying, he is either
lying or is a Gurkha)
"यदि कोई कहता
है कि मुझे मौत से डर नही लगता, वह या तो
वह झूठ बोल रहा है या वह गोरखा है।" (जनरल सैम
मानेक्षा- इंडियन आर्मी)
पिछले कुछ दिनों से पश्चिम बंगाल के सिलीगुड़ी से 47 किलोमीटर दूर स्थित दार्जिलिंग जिसे आम भाषा में गोरखालैंड भी कहा जाता
है गोरखा लैंड की मांग के कारण काफी चर्चा में रहा है। ऐसा पहली बार हुआ हो ऐसा भी नहीं है कुछ समय पहले भी गोरखालैंड की मांग
बहुत तेजी से हुई थी किन्तु बाद में यह राजनैतिक कारणों से या अन्य किसी करना से
स्वत: ही दब गई किन्तु इस बार इस मांग के पीछे पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता
बनर्जी का बेतुका और अड़ियल आदेश रहा जिसमें उन्होंने सभी स्कूलों में बांग्ला भाषा
पढना लाज़िमी करार कर दिया जिसके विरोध में लोग सड़कों पर उतर आये और लगभग एक माह से
पश्चिम बंगाल से निकलकर जाने वाले नेशनल हाइवे पर गोरखा जन मुक्ति मोर्चा का कब्ज़ा
हो गया है जिस कारण पडोसी राज्य सिक्किम भी संकट के दौर से गुजर रहा है जिसका कारण
नेशनल हाइवे का जाम होना है। हालांकि सिक्किम के मुख्यमंत्री पवन चामलिंग ने
गोरखालैंड की मांग का नैतिक समर्थन किया है किन्तु फ़िर भी सबसे ज्यादा परेशानी भी
सिक्किम जैसे छोटे पहाड़ी राज्य को भुगतनी पड़ रही है। सिक्किम की अर्थव्यवस्था
पूर्णतय: टूरिज्म पर निर्भर है जहाँ वर्ष में लगभग 1500 करोड़ का कारोबार होता है किन्तु आज स्थिति इसके बिलकुल विपरीत है। नेशनल
हाइवे पूरी तरह बंद या ये कहे कि उपद्रवियों के कब्जे में होने के कारण टूरिस्ट आने बंद हो गए हैं । सिक्किम में
एंट्री के लिए पश्चिम बंगाल के न्यू जलपाई गुडी रेलवे स्टेशन और बागडोगरा स्थिति
एक मात्र हवाई अड्डा है जहाँ से सड़क मार्ग से रास्ता तय करके ही सिक्किम में
एंट्री की जा सकती है। राज्य के लगभग 8000 होटल खाली पड़े हैं
यही हाल टैक्सी वालों का है लगभग 5 करोड़ रूपये का
नुकसान तो अकेले सिक्किम को हो रहा है। इस स्थिति को देखते हुए सिक्किम के
मुख्यमंत्री पवन चामलिंग ने सर्वोच्च न्यायालय में नेशनल हाइवे को खुलवाने के लिए
याचिका भी दायर की है इसके अतिरिक्त उन्होंने पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता
बनर्जी और केंद्र सरकार से इस विषय में
दखल देने का भी अनुरोध किया है।किन्तु अभी तक समस्या जस की तस ही है। आख़िर ये
समस्या कब और क्यों उत्पन्न हुई आइये इस एक नजर डालते हैं। राज्य की तत्कालीन वाममोर्चा सरकार ने सुभाष
घीसिंग के साथ एक समझौते के तहत दार्जिलिंग गोरखा पर्वतीय परिषद का गठन किया था.
घीसिंग वर्ष 2008 तक इसके अध्यक्ष रहे. लेकिन वर्ष 2007 से ही पहाड़ियों में गोरखा जनमुक्ति मोर्चा के बैनर तले एक नई क्षेत्रीय
ताकत का उदय होने लगा था. साल भर बाद विमल गुरुंग की अगुवाई में मोर्चा ने नए सिरे
से अलग गोरखालैंड की मांग में आंदोलन शुरू कर दिया।
लेकिन आखिर अबकी मोर्चा ने नए सिरे से गोरखालैंड की मांग उठाने का फैसला
क्यों किया है? विमल गुरुंग का आरोप है, "गोरखालैंड टेरिटोरियल एडमिनिस्ट्रेशन (जीटीए) को समझौते के मुताबिक विभाग
नहीं सौंपे गए. पांच साल बीतने के बावजूद न तो पूरा अधिकार मिला और न ही पैसा.
राज्य सरकार ने हमें खुल कर काम ही नहीं करने दिया. ऊपर से जबरन बांग्ला भाषा थोप
दी." मोर्चा के महासचिव रोशन गिरि कहते हैं, "यह हमारी अस्मिता का सवाल है. भाषा, संस्कृति और
रीति-रिवाजों में भिन्नता के बावजूद हमें नेपाली कहा जाता है." वह कहते हैं
कि नेपाली से पड़ोसी देश का नागरिक होने का संदेह होता है। दार्जिलिंग पर्वतीय
क्षेत्र में गोरखालैंड की मांग सौ साल से भी ज्यादा पुरानी है। इस मुद्दे पर बीते
लगभग तीन दशकों से कई बार हिंसक आंदोलन हो चुके हैं। ताजा आंदोलन भी इसी की कड़ी
है. दार्जिलिंग इलाका किसी दौर में राजशाही डिवीजन (अब बांग्लादेश) में शामिल था.
उसके बाद वर्ष 1912 में यह भागलपुर का
हिस्सा बना. देश की आजादी के बाद वर्ष 1947 में इसका पश्चिम
बंगाल में विलय हो गया. अखिल भारतीय गोरखा लीग ने वर्ष 1955 में तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरु को एक ज्ञापन सौंप कर बंगाल
से अलग होने की मांग उठायी थी.उसके बाद वर्ष 1955 में जिला मजदूर संघ के अध्यक्ष दौलत दास बोखिम ने राज्य पुनर्गठन समिति
को एक ज्ञापन सौंप कर दार्जिलिंग, जलपाईगुड़ी और
कूचबिहार को मिला कर एक अलग राज्य के गठन की मांग उठायी. अस्सी के दशक के शुरूआती
दौर में वह आंदोलन दम तोड़ गया. उसके बाद गोरखा नेशनल लिबरेशन फ्रंट (जीएनएलएफ) के
बैनर तले सुभाष घीसिंग ने पहाड़ियों में अलग राज्य की मांग में हिंसक आंदोलन शुरू
किया. वर्ष 1985 से 1988 के दौरान यह
पहाड़ियां लगातार हिंसा की चपेट में रहीं। इस दौरान हुई हिंसा में कम से कम 13 सौ लोग मारे गए थे उसके बाद से अलग राज्य की चिंगारी अक्सर भड़कती रहती
है। गोरखा मतलब क्या है पर भी सूक्ष्म प्रकाश डालते हैं।
गोरखा शब्द जैसे ही
जहन में आता है तुरंत पांच साढ़े पांच फुट का ऐसे व्यक्ति का चित्र आखों के सामने
तैर जाता है जो हटी है, निडर है, लड़ाकू है, ईमानदार है और साहस तो उसमें कूट कूट
कर भरा ही होता है। गोरखा जिन्हें
नेपाल में गोरखाली भी कहते है उनको ये नाम 8 वीं शताब्दी के महान हिंदू योद्धा संत गुरु गोरखनाथ से प्राप्त हुआ। संत गोरखनाथ के शिष्य बाप्पा रावल जिन्होंने कल्भोज और शैलाधिश जिनका
वास्तविक जन्मस्थान मेवाड़ राजपुताना (राजस्थान) था को बाद में बाप्पा रावल के वंश
लड़ाई के दौरान उनका वंश सुदूर पूर्व की तरफ़ बढ़ते रहे और गोरखा नामक स्थान में अपने
साम्राज्य स्थापित किया ततपश्चात् उन्होंने नेपाल अधिराज्य को भी स्थापित किया
इन्हीं के वंश के चित्तौडगढ़ के मन्मथ राणाजी
राव के पूत भूपाल राणाजी राव भी नेपाल पहुंचे। आधुनिक नेपाल के 75 जिलों में से एक गोरखा जिला भी है। गोरखा के राजा पृथ्वी नारायण शाह जो
बाद में नेपाल के शासक बने,उनकी सेना में जो सैनिक हुए बाद में उन्हें ही गोरखा या
गोरखाली कहा गया। खास्तोर्पे नेपाल के पश्चिम के पहाडी लड़ाकू जातियाँ जैसे कि मगर
,गुरुगं,पहाड़ी राजपूत जिनमें क्षेत्री और ठकुरी या ठाकुरी भी कहा जाता है साथ ही
पूर्व से किरात जातियाँ भी पाई जाती हैं।
गोरखली लोग अपने साहस और हिम्मत के लिए विख्यात हैं और वे नेपाल
आर्मी और भारतीय आर्मी के गोरखा रेजिमेंट और नेपाली आर्मी और भारतीय आर्मी में गोरखा रेजिमेंट और ब्रिटिश आर्मी के
गोरखा ब्रिगेड के लिए भी जाने जाते हैं। गोरखलियों को ब्रिटिश
भारत के अधिकारियों ने मार्शल रेस की उपाधि दी थी। उन लोगों का ऐसा मत रहा
है कि गोरखाली प्राकृतिक रूप से ही योद्धा
होते हैं और युद्ध में ये अत्यंत आक्रामक होते हैं,
वफादारी,साहस इनमें
जन्मजात गुण हैं। ये आत्म निर्भर होते हैं, भौतिक रूप से मजबूत और फुर्तीले, सुव्यवस्थित होते हैं, लम्बे समय तक कड़ी मेहनत करने वाले, हठी लड़ाकू, आर्मी की
रणनीति में ये महारत रखते हैं।ब्रिटिश आर्मी में इन गोरखाओं को “मार्शल
रेसेज़” कहा जाता था और इनकी विशेष रूप से भर्ती की जाती थी।महाराजा रणजीत
सिंह ने भी गोरखों को अपनी सेना में शामिल
दिया था क्यों कि वो इनके युद्ध कौशल से भली भांति परिचित थे। अंग्रेजों के लिए
गोरखों ने दोनों विश्व युद्धों में अपने अ-प्रतिम साहस और युद्ध कौशल का परिचय
दिया। पहले विश्व युद्ध में दो लाख गोरखा सैनिकों ने हिस्सा लिया था, जिनमें से लगभग 20 हजार ने रणभूमि में वीरगति प्राप्त की।दूसरे विश्वयुद्ध में लगभग ढाई लाख गोरखा जवान सीरिया, उत्तर अफ्रीका, इटली, ग्रीस व बर्मा भी भेजे गए थे। उस विश्वयुद्ध में 32 हजार से अधिक गोरखों ने शहादत दी थी। भारत के लिए भी गोरखा जवानों ने
पाकिस्तान और चीन के खिलाफ हुई सभी लड़ाइयों में शत्रु के सामने अपनी बहादुरी का
लोहा मनवाया था। गोरखा रेजिमेंट को इन युद्धों में अनेक पदको़ व सम्मानों से
अलंकृत किया गया, जिनमें महावीर चक्र
और परम वीर चक्र भी शामिल हैं। अंग्रेजों ने अपनी फौज में 1857 से पहले ही गोरखा
सैनिकों को रखना आरम्भ कर दिया था। 1857 के भारत के प्रथम
स्वतंत्रता संग्राम में इन्होंने ब्रिटिश सेना का साथ दिया था क्योंकि उस समय वे
ईस्ट इंडिया कम्पनी के लिए अनुबंध पर काम करते थे। वर्तमान में
हर वर्ष लगभग 1200-1300 नेपाली गोरखे भारतीय सेना में शामिल होते
है। गोरखा
रायफल में लगभग 80 हजार नेपाली गोरखा
सैनिक हैं, जो कुल संख्या का लगभग 70 प्रतिशत बैठता है। शेष 30 प्रतिशत में
देहरादून, दार्जिलिंग और धर्मशाला असम आदि के
स्थानीय भारतीय गोरखे शामिल हैं। इसके अतिरिक्त रिटायर्ड गोरखा जवानों और असम
राइफल्स में गोरखों की संख्या करीब एक लाख है।
वैश्विक योद्धा के रूप में मशहूर गोरखा
युद्धक्षेत्र में अपनी दिलेरी और सैन्य कुशलता के लिए जाने जाते हैं। गोरखाओं से
आप तीन चीजें कभी नहीं छीन सकते- उसकी खुखरी, मांदल
और रक्षी (एक प्रकार का नशीला... कहने की आवश्यकता नहीं कि वे अनेक निजी सेनाओं
में भाड़े के सैनिकों के रूप में भी काम करते हैं। उल्लेखनीय है कि एक समय में
क्यूबाई सेना को सोवियत साम्राज्य का गोरखा कहा जाता था। सोवियत संघ के लिए
क्यूबाई... विक्टोरिया
क्रॉस पलटन : नेपाल के लिए ये भाड़े के सिपाही या सौभाग्य के सिपाही पर्यटन के बाद
आय के दूसरे सबसे बड़े स्रोत हैं। सिर्फ भारतीय सेना में काम करने वाले गोरखाओं से
ही नेपाल को हर साल 1000 करोड़ की आमदनी होती है।
गोरखओं ने अनेक युद्ध किये और इन युद्धों
में अपने अभूतपूर्व साहस के बलबूते कुल तीन विक्टोरिया क्रॉस में से दो तो इसने
24 घंटे के अंदर सिर्फ एक अभियान में ही हासिल किए थे। यह कार्रवाई 1944 में इंफाल
के निकट मोर्टार ब्लफ में हुई थी। इसी कार्रवाई में सूबेदार नेत्र बहादुर थापा... की विधवा
पत्नी नामसारी थापिनी को दिया गया था, जो
नेपाल के कोल्मा नामक स्थान की रहने वाली थी।
ब्रिटिश साम्राज्य की ओर से पहले विश्वयुद्ध में नेपाल के दो लाख गोरखा
सैनिकों ने भी हिस्सा लिया. यह दक्षिण एशिया से बाहर उनकी पहली लड़ाई थी लेकिन
उनकी बहादुरी के किस्से आज भी कहे सुने जाते हैं हिमालय की तलहटी में बसे नेपाल
में एक जिला है गोरखा. वह आज भी अपने मशहूर योद्धाओं के लिए विख्यात है. गोरखा
किसी एक जाति के योद्धा नहीं, बल्कि उन्हें
पहाड़ों में रहने वाले सुनवार, गुरंग, राय, मागर और लिंबु जातियों से भर्ती किया जाता
है. "आयो गुरखाली" के युद्धनाद और "कायरता से मरना अच्छा" के
नारे के साथ उन्होंने खौफ पैदा करने वाली ख्याति पाई है. कहते हैं कि जब गोरखा
अपनी खुखरी निकाल लेता है तो वह खून बहाए बिना मयान में नहीं जाती। ब्रिटेन के
ब्रिटिश गोरखा वेल्फेयर सोसाइटी के टिकेंद्र दीवान कहते हैं, "हिम्मत और वफादारी के साथ जुड़ी मासूमियत उनकी ख्याति का कारण है."
उनकी निर्भीकता के बारे में भारत के सेनाध्यक्ष रहे सैम मानेकशॉ ने कहा था, "यदि कोई व्यक्ति कहता है कि उसे मरने से डर नहीं लगता तो वह या तो झूठा
है या गोरखा." मौजूदा समय में गोरखा सैनिक भारत की आजादी के समय में किए गए
एक समझौते के तहत नेपाल की सेना के अलावा भारत और ब्रिटेन की सेनाओं में काम करते
हैं. भारतीय सेना में 1,20,000 गोरखा सैनिक
हैं तो ब्रिटिश सेना में उनकी तादाद 3,500 है।
गोरखा सैनिकों का पश्चिम के साथ पहला संपर्क 1814-16 में तब हुआ जब ईस्ट इंडिया कंपनी ने नेपाल के खिलाफ लड़ाई लड़ी. हालांकि
इस लड़ाई का अंत अंग्रेजों की जीत के साथ हुआ लेकिन गोरखा जवानों ने उन्हें भारी
नुकसान पहुंचाया। एक ब्रिटिश सैनिक ने आत्मकथा में लिखा, "अपने जीवन में पहले कभी मैंने इतना जीवट और साहस नहीं देखा था. वे भागते
नहीं थे और मौत से उन्हें जैसे डर ही नहीं था हालांकि उनके आसपास उनके साथी मरे
पड़े थे अपने दुश्मनों की युद्धक्षमता से इस तरह प्रभावित अंग्रेजों ने नेपाल के
राजा के साथ हुई शांति संधि में यह भी जोड़ दिया कि वे गोरखा जवानों की भर्ती
ब्रिटिश सेना में कर सकेंगे। यह समझौता उसके बाद दोनों पक्षों के बीच 200 साल से ज्यादा से चल रहे सैनिक रिश्तों का आधार बन गया. हालांकि उस समय
किसी ने नहीं सोचा था कभी उन्हें अपने देश से हजारों किलोमीटर दूर यूरोप में पहले
विश्व युद्ध में ब्रिटिश सेना की ओर से लड़ना होगा।कुल मिलाकर दो लाख गोरखा
सैनिकों ने पहले विश्व युद्ध के दौरान फ्रांस से लेकर फारस तक की खाइयों में लड़ाई
लड़ी। 1914 से 1918 तक पहले विश्व
युद्ध के दौरान गोरखा सैनिकों के 33 राइफल बटालियन थे.
गोरखा सैनिकों पर लिखी किताब में बेनिटा एस्टेवेज ने लिखा है। "नेपाल की सरकार ने समझ लिया कि मित्र देशों की लड़ाई के लिए गोरखा जवान
कितने महत्वपूर्ण हैं और ब्रिटिश कमान को सभी मोर्चों पर लड़ने के लिए और
टुकड़ियां मुहैया करा दी।“
राजनीतिक रूप से देखें तो इस समस्या का समाधान निकलना इतना भी आसान नहीं
है किन्तु वर्तमान में जो परिस्थिति है उसे ज्यादा देर तक नकार पाना किसी भी सरकार
के लिए अच्छा नहीं होगा अतएव बेहतर तो यही होगा कि इस समस्या का समाधान तुरंत
निकाला जाये और ये जिम्मेदारी सिर्फ़ केंद्र सरकार की नहीं है इसमें पश्चिम बंगाल
की सरकार को ही पहल करनी होगी। अन्यथा जिस प्रकार बंद के दौरान सिक्कम और दार्जलिंग
से फंसे हुए सैलानियों को निकलने में फ़ोर्स की मदद लेनी पड़ी उस अवस्था में हिंसक आन्दोलन
के चले पश्च्चिम बंगाल सिक्किम और दार्जलिंग में आने वाले सैलानी कहीं और जाना
पसंद करेंगे।
- प्रदीप भट्ट -
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