“आतंकवाद को समाप्त करने के लिए क्या युद्ध ही विकल्प है”
खादीऔर ग्रामोद्योग के मुख्यालय में दिनांक 27.09.2016 को आयोजित वाद-विवाद का विषय “आतंकवाद को समाप्त करने के लिए क्या युद्ध ही विकल्प है” विषय पर 19 में से 03 लोग इसके पक्ष में और 13 ने इसके विपक्ष में अपने विचार व्यक्त किये. ३-४ मिनिट का समय निर्धारित किया गया था । शुरुआत भी मुझी से हुई। मैंने जो भी विचार उस प्रतियोगिता में रक्खे उन्हें जस का तस रखने का प्रयास करूँगा।
पहले तो ये समझना आवश्यक है कि आतंकवादी
या आतंकवाद कोई एक देश नहीं है। जिसे कोई भी देश आमने सामने की लड़ाई में लड़ सके। आतंकवाद शब्द अगर मैं परिभाषित करने का यत्न करूँ तो पाउँगा कि आतंक नामक शब्द का पहली बार मेरा सामना बचपन में हुआ जब सुना कि सुन्दर डाकू ने उत्तर प्रदेश में बड़ा आतंक मचा रक्खा है फिर थाने में उसकी फोटो भी देखी तो लगा ये एक आदमी कैसे पुरे प्रदेश में आतंक मचा सकता है क्यों कि तब तक इतनी समझ ही नहीं थी कि इस आदमी का एक पूरा गिरोह है जिसने पुरे प्रदेश में आतंक/कोहराम मचा रक्खा था। उसके बाद इच्छा जागृत हुई और जाना कि मध्य प्रदेश के चम्बल में भी माधो सिंह, मलखान सिंह मोहर सिंह बाद में फूलन देवी ने भी अपना आतंक फैला रखा है। उसके बाद पंजाब में भिंडरेवाले के आतंक के विषय में सुना।
ऊपर जिनका भी जिक्र किया गया है वे सभी लोग मज़बूरी या अपनी इच्छा
से अपराधी बने और अपने आतंक को कायम किया किन्तु आज हम जिस आतंक की बात करते हैं
वो समाज के प्रति न होकर देश के विरुद्ध हो गया है शायद इसलिए इन्हें आतंकवादी कहा
जाने लगा है क्यों कि इन लोगों को किसी समाज, धर्म,जाति या समुदाय से कोई परेशानी
नहीं है वरन ये शांतिप्रिय देशों के आर्थिक तंत्र को नुकसान पहुँचाना चाहते है।
निश्चित रूप से इसके पीछे बहुत बड़ी-बड़ी ताकतें काम कर रही हैं जो कि नहीं चाहती कि
कोई भी उभरता हुआ देश उनके देश के वर्चस्व को चुनौती दे। पिछले दो दशकों में इन
आतंकवादी घटनाओं में जबरदस्त इजाफा हुआ है। आज विश्व के कई सम्रध देश भी इनकी
गतिविधियों से अछूते नहीं रहे हैं। फिर चाहे वो अमेरिका हो या ब्रिटेन,फ्रांस हो
या जर्मनी भारत हो या बंग्लादेश ,मिस्र हो या अफगानिस्तान। ऑर बस आतंक ही आतंक नज़र
आने लगा है।आखिर इस आतंक के कारोबार से किसे फायदा पहुंच रहा है क्यों कि
जिन्होंने इसको बढ़ावा दिया प्रश्रय दिया वो भी तो आज इसके दुष्परिणामों को भोगने
को अभिशप्त हो ही रहे है।
जहाँ तक भारत का प्रश्न है वह
१९८० से ही इस आग से झुलसता आ रहा है पहले पंजाब फिर कश्मीर आजकल नक्सली भी उसी
राह पर रहे हैं और NER पूर्वोत्तर के कुछ राज्य भी इस आग से अछूते नहीं रहे। भारत
में आतंकवाद को बढ़ावा देने और प्रश्रय देने का काम शुरू से ही पाकिस्तान करता आ
रहा है। १९७१ के युद्ध में पराजित होने के बाद से ही जनरल भुट्टो इंदिरा गाँधी के
आगे नतमस्तक हो गए थे और शिमला समझोते के तहत एक प्रकार से भीख मांग कर अपने लगभग
एक लाख सैनिकों को जिन्होंने युद्ध में आत्मसमर्पण किया था और युद्ध में ही भारत
द्वारा जीती गई ज़मीं भी लेकर वापिस पाकिस्तान गए ताकि वे वहां सर उठाकर अपने लोगों
के बीच जा सके। किन्तु भुट्टो ने इंदिरा गाँधी कि भलसमानत का गलत फायदा उठाया और
पाकिस्तान वापिस जाते ही बड़ी बड़ी डींगे हाँकनी शुरू कर दी कि हम घास कि रोटी
खायेंगे लेकिन एटम बम ज़रूर बनायेंगे। भारत ने जहाँ १९७४ में राजस्थान के पोखरण में
पहला परमाणु परिक्षण किया वहीँ पाकिस्तान ने १९८४ में इसे अंजाम दिया। तत्पश्चात
भारत और पाकिस्तान ने १९९८ में पुन: परमाणु परिक्षण किये। परमाणु संपन्न राष्ट्र
होने पर जो संजीदगी उस राष्ट में होने चाहिए उसका भारत तो अक्षरशः पालन करता है
किन्तु पाकिस्तान के रक्षामंत्री और जाने कितने ऐरे गैरे बार बार यही दोहराते रहते
हैं कि अगर भारत ने हमला किया तो पाकिस्तान ने अपने परमाणु हथियार ( techtikalटेकटीकल
वेपोन् ) सिर्फ सजावट के लिए रक्खे हैं वो इन्हें चलाएगा भी । अब आप इसे बन्दर घुड़की कहें या कुछ और
किन्तु पाकिस्तान ने ये तो साबित कर ही दिया कि वो कितना गैरजिम्मेदार देश है।
आखिर इन सब बातों से किसका
भला होने वाला है। क्या उन्हें बताने कि आवश्यकता है कि
techtikalटेकटीकल
वेपोन् क्या होते हैं और क्या कर सकते हैं क्या उन्हें सेकंड वर्ल्ड
वार में अमेरिका द्वारा जापान के दो शहरो हिरोशिमा और नागासाकी का ह्रष नहीं
मालूम? आतकवादियों और आतंक को पनाह देने वालों को विश्व स्तर पर अलग थलग करने, उन
पर आर्थिक प्रतिबन्ध लगाकर उनके साथ अब तक हुई सभी संधियों को पुन: आज के आलोक में
पुन: परिभाषित किया जाना अत्यंत आवश्यक है। जहाँ तक आतकवादियों के खात्मे का
प्रश्न है तो आतंक को पोषित करने वाले लोगों और देशों के विरुद्ध सर्जिकल स्ट्राइक
ज्यादा उम्दा विकल्प है न कि परोक्ष युद्ध।
-
प्रदीप भट्ट -
No comments:
Post a Comment