Thursday, 12 May 2016

एक आईएएस






      एक IAS या एक महिला या एक दलित महिला IAS”

परसों यूपीएससी का रिज़ल्ट आउट हुआ। इस बार प्रथम स्थान पर डेल्ही की टीना डाबी रही। यहाँ यह विशेष है कि पिछले वर्ष भी डेल्ही की ही इरा सिंघल ने प्रथम स्थान को सुशोभित किया था। जहां तक यूपीएससी की परीक्षाओ का प्रश्न है महिलाए प्रथम व दितिय स्थान प्रात करती रही है। चौथे स्थान पर आर्तिका शुक्ल हैं। दितिय स्थान पर प्रथम बार जम्मू और कश्मीर से किसी युवक ने ये स्थान हासिल किया है। जो की प्रशंसनीय है। जहां तक टीना डाबी का सवाल है वो डेल्ही बेस्ड है।डेल्ही के ही लेडी श्रीराम कॉलेज से शिक्षा प्राप्त की है।मतलब ठीक ठाक परिवार से ताल्लुक रखती हैं, किन्तु परसों से ही चाहे वो एलेक्ट्रोनिक मीडिया हो या प्रिंट मीडिया या फिर सोशल मीडिया। कोई भी उस लड़की की मेहनत को तव्व्जो न देकर इस बात को ज्यादा तव्व्जो दे रहा है कि हिंदुस्तान के इतिहास मे पहली बार एक “दलित लड़की ने भारतीय सिविल सेवा मे प्रथम स्थान प्राप्त किया है। समझ नहीं आता आप उस लड़की का हौसला बढ़ा रहे हैं या उसे बार-बार ये याद दिला रहे हो कि तुम दलित हो, तुम दलित हो।क्या इस देशी मे हिन्दू,मुस्लिम,सिक्ख ईसाई ,जैन,पारसी और अन्य समुदाय के लोग नहीं रहते। क्या इस देश मे सिर्फ मुस्लिम और दलितों पर ही चर्चा की जानी चाहिए? क्या सिर्फ कहने भर से कोई भी जाति या समुदाय समाज की मुख्य धारा मे सम्मलित हो जाएगा। क्या आप दलित-दलित या मुस्लिम-मुस्लिम कहकर उस व्यक्ति की मेहनत और ईश्वर मे उसकी आस्था का मज़ाक नहीं उड़ा रहे। अब आप इसे मानसिक बीमारी नहीं तो और क्या कहेंगे कि हम टीना डाबी को एक महिला की कामयाबी न मानकर उसको दलित ग्रंथि से जकड़ने का प्रयास कर रहे हैं। वास्तव मे हम टीना डाबी को उस दलित ग्रंथि मे नहीं जकड़ रहे वरन हम हमारे अंदर घर कर चुकी उस सडी-गली मानसिकता वाली ग्रंथि को ही पाल पोस रहे हैं और इसमे सभी मण्डल कमंडल शामिल हैं। हरियाणा काडर चुनने की इच्छा जाहीर कर टीना ने अपनी द्रढ़ इच्छा शक्ति का परिचय दिया है जिसे सल्युट किया जाना चाहिए। 


                                 टीना डाबी(2015 ki topper )

     
     कितने लोगों को याद है कि इस वर्ष 12वीं आईसीएसआई की परीक्षा मे डेल्ही की ही आध्या मदी ने आल इंडिया टॉप किया था। मै तो पिछले लगभग डेढ़ दशक से हर बार बोर्ड की परीक्षाओ मे लड़कियों को ही बाजी मारते देखता हूँ ।मुझे याद है जब मेरी बेटी ने 2005 मे मुझसे सवाल किया था कि इस बार यूपीएससी कि परीक्षा मे प्रथम कौन आया तो मैंने अंजान बनते हुए कहा कि मुझे नहीं पता तो उसने बड़े गर्व के साथ मोना पूर्थी का नाम बताया और ये भी बताया कि वो 2004 मे IRS सिलैक्ट हो गई थी और फ़रीदाबाद मे अंडर ट्रेनिंग थी।ऐसा इसलिए क्यों कि 2004 मे जब कड़कड़डूमा कोर्ट के निकट स्थित केन्द्रीय विद्यालया मे उसका 6th मे एड्मिशन हो गया तो उसने मुझसे कहा था कि पापा आप क्या चाहते हो कि मै क्या बनू और मैंने भी झट से कहा IAS कह दिया और साथ ही ये भी बताया कि इस वर्ष सी नागराजन यूपीएससी टॉप किया है तो उसने मुझे गौर से देखा था और कहा था सोचूँगी। खैर बाद मे उसने सीए का ऑप्शन चुना। चलिये इसी बहाने आजादी से पहले और बाद मे कुछ विशिष्ट महिलाओं जिन्होने समाज मे एक अलग मुकाम हासिल किया प्रकाश डालते हैं।


                         (Mona pruthi-2005 topper)
      भारत में महिलाओं की स्थिति ने पिछली कुछ सदियों में कई बड़े बदलावों का सामना किया है।प्राचीन समय  में पुरुषों के साथ बराबरी की स्थिति से लेकर मध्ययुगीन काल के निम्न स्तरीय जीवन और साथ ही कई सुधारकों द्वारा समान अधिकारों को बढ़ावा दिए जाने तक। हिंदुस्तान मे महिलाओं का इतिहास काफी गतिशील रहा है। विशेष रूप से महिलाओं की भूमिका की चर्चा करने वाले साहित्य के स्रोत बहुत ही कम हैं ; 1730 ई. के आसपास तंजावुर के एक अधिकारी त्र्यम्बकयज्वन का स्त्री-धर्म पद्धति  इसका एक महत्वपूर्ण अपवाद है। इस पुस्तक में प्राचीन काल के अपस्तंब सूत्र (चौथी शताब्दी ईपू) के काल के नारी सुलभ आचरण संबंधी नियमों को संकलित किया गया है। इसका मुखड़ा छंद इस प्रकार है:-

      “ मुख्यो धर्मः स्मृतिषु विहितो भार्तृशुश्रुषानम हि :”
      (स्त्री का मुख्य कर्तव्य उसके पति की सेवा से जुडा हुआ है।)

      विद्वानों का मानना है कि प्राचीन भारत में महिलाओं को जीवन के सभी क्षेत्रों में पुरुषों के साथ बराबरी का दर्जा हासिल था। हालांकि कुछ अन्य विद्वानों का नज़रिया इसके विपरीत है। पतंजलि और कात्यायन जैसे प्राचीन भारतीय व्याकरणविदों का कहना है कि प्रारम्भिक वैदिक काल में महिलाओं को शिक्षा दी जाती थी। ऋग्वेदिक ऋचाएं यह बताती हैं कि महिलाओं की शादी एक परिपक्व उम्र में होती थी और संभवतः उन्हें अपना पति चुनने की भी आजादी थी। ऋग्वेद और उपनिषद जैसे ग्रंथ कई महिला साध्वियों और संतों के बारे में बताते हैं जिनमें गार्गी और मैत्रेयी के नाम उल्लेखनीय हैं।प्राचीन भारत के कुछ साम्राज्यों में नगरवधु  (नगर की दुल्हन”) जैसी परंपराएं भी मौजूद थीं। महिलाओं में नगरवधु के प्रतिष्ठित सम्मान के लिये प्रतियोगिता होती थी। आम्रपाली नगरवधु का सबसे प्रसिद्ध उदाहरण रही है।अध्ययनों के अनुसार प्रारंभिक वैदिक काल में महिलाओं को बराबरी का दर्जा और अधिकार मिलता था। किन्तु बाद में (लगभग 500 ईसा पूर्व में) स्मृतियों (विशेषकर मनुस्मृति) के साथ महिलाओं की स्थिति में गिरावट आनी शुरु हो गयी और बाबर एवं मुगल साम्राज्य के इस्लामी आक्रमण के साथ और इसके बाद ईसाइयत ने महिलाओं की आजादी और अधिकारों को सीमित कर दिया।हालांकि जैन धर्म जैसे सुधारवादी आंदोलनों में महिलाओं को धार्मिक अनुष्ठानों में शामिल होने की अनुमति दी गयी है, भारत में महिलाओं को कमोबेश दासता और बंदिशों का ही सामना करना पडा है। ऐसा माना जाता है कि बाल विवाह की प्रथा छठी शताब्दी के आसपास शुरु हुई थी।

      हमारे समाज में भारतीय महिलाओं की स्थिति में मध्ययुगीन काल के दौरान और अधिक गिरावट आयी। जब भारत के कुछ समुदायों में सती प्रथा, बाल विवाह और विधवा पुनर्विवाह पर रोक, सामाजिक जिंदगी का एक हिस्सा बन गयी थी। भारतीय उपमहाद्वीप में मुसलमानों की जीत ने पर्दा प्रथा को भारतीय समाज में प्रवेश  दिया. राजस्थान के राजपूतों में जौहर की प्रथा थी। भारत के कुछ हिस्सों में देवदासियां या मंदिर की महिलाओं को यौन शोषण का शिकार होना पड़ा था। बहुविवाह की प्रथा हिन्दू क्षत्रिय शासकों में व्यापक रूप से प्रचलित थी। कई मुस्लिम परिवारों में महिलाओं को जनाना क्षेत्रों तक ही सीमित रखा गया था।इन परिस्थितियों के बावजूद भी कुछ महिलाओं ने राजनीति, साहित्य, शिक्षा और धर्म के क्षेत्रों में सफलता हासिल की । रज़िया सुल्तान दिल्ली पर शासन करने वाली एकमात्र महिला सम्राज्ञी बनीं. गोंड की महारानी दुर्गावती ने 1564 में मुगल सम्राट अकबर के सेनापति आसफ़ खान से लड़कर अपनी जान गंवाने से पहले पंद्रह वर्षों तक शासन किया था। चांद बीबी ने 1590 के दशक में अकबर की शक्तिशाली मुगल सेना के खिलाफ़ अहमदनगर की रक्षा की।जहांगीर की पत्नी नूरजहाँ ने राजशाही शक्ति का प्रभावशाली ढंग से इस्तेमाल किया और मुगल राजगद्दी के पीछे वास्तविक शक्ति के रूप में पहचान हासिल की।मुगल राजकुमारी जहाँआरा और जेबुन्निसा सुप्रसिद्ध कवियित्रियाँ थीं और उन्होंने सत्तारूढ़ प्रशासन को भी प्रभावित किया शिवाजी की माँ जीजाबाई को एक योद्धा और एक प्रशासक के रूप में उनकी क्षमता के कारण क्वीन रीजेंट के रूप में पदस्थापित किया गया था। दक्षिण भारत में कई महिलाओं ने गाँवों, शहरों और जिलों पर शासन किया और सामाजिक एवं धार्मिक संस्थानों की शुरुआत की।
      भक्ति आंदोलन ने महिलाओं की बेहतर स्थिति को वापस हासिल करने की कोशिश की और प्रभुत्व के स्वरूपों पर सवाल उठाया। एक महिला संत-कवियित्री मीराबाई भक्ति आंदोलन के सबसे महत्वपूर्ण चेहरों में से एक थीं। इस अवधि की कुछ अन्य संत-कवियित्रियों में अक्का महादेवी, रामी जानाबाई और लाल देद शामिल हैं। हिंदुत्व के अंदर महानुभाव, वरकारी और कई अन्य जैसे भक्ति संप्रदाय, हिंदू समुदाय में पुरुषों और महिलाओं के बीच सामाजिक न्याय और समानता की खुले तौर पर वकालत करने वाले प्रमुख आंदोलन थे। भक्ति आंदोलन के कुछ ही समय बाद सिक्खों के पहले गुरु, गुरु नानक ने भी पुरुषों और महिलाओं के बीच समानता के संदेश को प्रचारित किया। उन्होंने महिलाओं को धार्मिक संस्थानों का नेतृत्व करने; सामूहिक प्रार्थना के रूप में गाये जाने वाले वाले कीर्तन या भजन को गाने और इनकी अगुआई करने; धार्मिक प्रबंधन समितियों के सदस्य बनने; युद्ध के मैदान में सेना का नेतृत्व करने। विवाह में बराबरी का हक और अमृत (दीक्षा) में समानता की अनुमति देने की वकालत की। इसके अतिरिक्त सिक्ख धर्म के अन्य गुरुओं  ने भी महिलाओं के प्रति भेदभाव के खिलाफ उपदेश दिए।
      सती प्रथा एक प्राचीन और काफ़ी हद तक विलुप्त रिवाज है, कुछ समुदायों में विधवा को अपने पति की चिता में अपनी जीवित आहुति देनी पड़ती थी। हालांकि यह कृत्य विधवा की ओर से स्वैच्छिक रूप से किये जाने की उम्मीद की जाती थी, ऐसा माना जाता है कि कई बार इसके लिये विधवा को मजबूर किया जाता था। 1829 में अंग्रेजों ने इसे समाप्त कर दिया. आजादी के बाद से सती होने के लगभग चालीस मामले प्रकाश में आये हैं। 1987 में राजस्थान की रूपकंवर का मामला सती प्रथा (रोक) अधिनियम का कारण बना। इसी प्रकार जौहर का मतलब सभी हारे हुए (सिर्फ राजपूत) योद्धाओं की पत्नियों और बेटियों के शत्रु द्वारा बंदी बनाये जाने और इसके बाद उत्पीड़न से बचने के लिये स्वैच्छिक रूप से अपनी आहुति देने की प्रथा है। अपने सम्मान के लिए मर-मिटने वाले पराजित राजपूत शासकों की पत्नियों द्वारा इस प्रथा का पालन किया जाता था। यह कुप्रथा केवल भारतीय राजपूतों शासक वर्ग तक सीमित थी प्रारंभ राजपूतों ने या किसी दूसरी जाति की स्त्री ने सति (पति/पिता की मृत्यु होने पर उसकी चिता में जीवित जल जाना) जिसे उस समय के समाज का एक वर्ग पुनीत धार्मिक कार्य मानने लगा था। कभी भी भारत की दूसरी लडाका क़ौमों  "मार्शल कौमे" माना गया उनमें यह कुप्रथा कभी भी कोई स्थान न पा सकी। जाटों की स्त्रीयां युद्ध क्षेत्र में पति के कन्धे से कन्धा मिला दुश्मनों के दांत  खट्टे करते हुए शहीद हो जाती थी। मराठा महिलाएँ भी अपने योधा पति की युधभूमि में पूरा साथ देती रही हैं।इसी प्रकार दक्षिण भारत के कुछ हिस्सों में एक धार्मिक प्रथा है “देवदासी “जिसमें देवता या मंदिर के साथ महिलाओं की शादीकर दी जाती है। यह परंपरा दसवीं सदी तक अच्छी तरह अपनी पैठ जमा जुकी थी। किन्तु  बाद की अवधि में देवदासियों का अवैध यौन उत्पीडन भारत के कुछ हिस्सों में एक रिवाज बन गया।

      यूरोपीय विद्वानों ने 19वीं सदी में यह महसूस किया था कि हिंदू महिलाएं स्वाभाविक रूप से मासूमऔर अन्य महिलाओं से अधिक सच्चरित्रहोती हैं। अंग्रेजी शासन के दौरान राम मोहन राय, ईश्वर चंद्र विद्यासागर, ज्योतिबा फ़ुले, आदि जैसे कई सुधारकों ने महिलाओं के उत्थान के लिये लड़ाइयाँ लड़ीं. हालांकि इस सूची से यह पता चलता है कि राज युग में अंग्रेजों का कोई भी सकारात्मक योगदान नहीं था, यह पूरी तरह से सही नहीं है क्योंकि मिशनरियों की पत्नियाँ जैसे कि मार्था मौल्ट नी मीड और उनकी बेटी एलिज़ा काल्डवेल नी मौल्ट को दक्षिण भारत में लडकियों की शिक्षा और प्रशिक्षण के लिये आज भी याद किया जाता है।यह एक ऐसा प्रयास था जिसकी शुरुआत में स्थानीय स्तर पर रुकावटों का सामना करना पड़ा क्योंकि इसे परंपरा के रूप में अपनाया गया था। 1829 में गवर्नर-जनरल विलियम केवेंडिश-बेंटिक के तहत राजा राम मोहन राय के प्रयास सती प्रथा के उन्मूलन का कारण बने. विधवाओं की स्थिति को सुधारने में ईश्वर चंद्र विद्यासागर के संघर्ष का परिणाम विधवा पुनर्विवाह अधिनियम 1956 के रूप में सामने आया। कई महिला सुधारकों जैसे कि पंडिता रमाबाई ने भी महिला सशक्तीकरण के उद्देश्य को हासिल करने में मदद की। कर्नाटक में कित्तूर रियासत की रानी, कित्तूर चेन्नम्मा ने समाप्ति के सिद्धांत (डाक्ट्रिन ऑफ़ लैप्स) की प्रतिक्रिया में अंग्रेजों के खिलाफ़ सशस्त्र विद्रोह का नेतृत्व किया। तटीय कर्नाटक की महारानी अब्बक्का रानी ने 16वीं सदी में हमलावर यूरोपीय सेनाओं, उल्लेखनीय रूप से पुर्तगाली सेना के खिलाफ़ सुरक्षा का नेतृत्व किया। झाँसी की महारानी रानी लक्ष्मीबाई ने अंग्रेजों के खिलाफ़ 1857 के भारतीय विद्रोह का झंडा बुलंद किया। आज उन्हें सर्वत्र एक राष्ट्रीय नायिका के रूप में माना जाता है। अवध की सह-शासिका बेगम हज़रत महल एक अन्य शासिका थी जिसने 1857 के विद्रोह का नेतृत्व किया था। उन्होंने अंग्रेजों के साथ सौदेबाजी से इनकार कर दिया और बाद में नेपाल प्रस्थान कर गयीं. भोपाल की बेगमें भी इस अवधि की कुछ उल्लेखनीय महिला शासिकाओं में शामिल थीं। उन्होंने पर्दा प्रथा को नहीं अपनाया और मार्शल आर्ट का प्रशिक्षण भी लिया।


                            चंद्रमुखी बसुकादंबिनी गांगुली
      आपको जानकार आश्चर्य होगा कि 1848 तक भारत मे लड़कियों का कोई भी स्कूल नहीं थाचंद्रमुखी बसु, कादंबिनी गांगुली और आनंदी गोपाल जोशी कुछ शुरुआती भारतीय महिलाओं में शामिल थीं जिन्होंने शैक्षणिक डिग्रियाँ हासिल कीं.1917 में महिलाओं के पहले प्रतिनिधिमंडल ने महिलाओं के राजनीतिक अधिकारों की माँग के लिये विदेश सचिव से मुलाक़ात की जिसे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का समर्थन हासिल था। 1927 में अखिल भारतीय महिला शिक्षा सम्मेलन का आयोजन पुणे में किया गया था। 1929 में मोहम्मद अली जिन्ना के प्रयासों से बाल विवाह निषेध अधिनियम को पारित किया गया जिसके अनुसार एक लड़की के लिये शादी की न्यूनतम उम्र चौदह वर्ष निर्धारित की गयी थी।  भारत की आजादी के संघर्ष में महिलाओं ने एक महत्वपूर्ण भूमिका निभायी. भिकाजी कामा, डॉ॰ एनी बेसेंट, प्रीतिलता वाडेकर, विजयलक्ष्मी पंडित, राजकुमारी अमृत कौर, अरुना आसफ़ अली, सुचेता कृपलानी और कस्तूरबा गाँधी कुछ प्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानियों में शामिल हैं। अन्य उल्लेखनीय नाम हैं मुथुलक्ष्मी रेड्डी, दुर्गाबाई देशमुख आदि. सुभाष चंद्र बोस की इंडियन नेशनल आर्मी की झाँसी की रानी रेजीमेंट कैप्टेन लक्ष्मी सहगल सहित पूरी तरह से महिलाओं की सेना थी। एक कवियित्री और स्वतंत्रता सेनानी सरोजिनी नायडू भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की अध्यक्ष बनने वाली पहली भारतीय महिला और भारत के किसी राज्य की पहली महिला राज्यपाल थीं।

      भारत का संविधान सभी भारतीय महिलाओं को सामान अधिकार (अनुच्छेद 14), राज्य द्वारा कोई भेदभाव नहीं करने (अनुच्छेद 15 (1)), अवसर की समानता (अनुच्छेद 16), समान कार्य के लिए समान वेतन (अनुच्छेद 39 (घ)) की गारंटी देता है। इसके अलावा यह महिलाओं और बच्चों के पक्ष में राज्य द्वारा विशेष प्रावधान बनाए जाने की अनुमति देता है। (अनुच्छेद 15(3)), महिलाओं की गरिमा के लिए अपमानजनक प्रथाओं का परित्याग करने (अनुच्छेद 51(ए)(ई)) साथ ही काम की उचित एवं मानवीय परिस्थितियाँ सुरक्षित करने और प्रसूति सहायता के लिए राज्य द्वारा प्रावधानों को तैयार करने की अनुमति देता है। (अनुच्छेद 42)]।भारत में नारीवादी सक्रियता ने 1970 के दशक के उत्तरार्द्ध के दौरान रफ़्तार पकड़ी. महिलाओं के संगठनों को एक साथ लाने वाले पहले राष्ट्रीय स्तर के मुद्दों में से एक मथुरा बलात्कार का मामला था। एक थाने (पुलिस स्टेशन) में मथुरा नामक युवती के साथ बलात्कार के आरोपी पुलिसकर्मियों के बरी होने की घटना 1979-1980 में एक बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शनों का कारण बनी।विरोध प्रदर्शनों को राष्ट्रीय मीडिया में व्यापक रूप से कवर किया गया और सरकार को साक्ष्य अधिनियम, दंड प्रक्रिया संहिता और भारतीय दंड संहिता को संशोधित करने और हिरासत में बलात्कार की श्रेणी को शामिल करने के लिए मजबूर किया गया। महिला कार्यकर्ताएं कन्या भ्रूण हत्या, लिंग भेद, महिला स्वास्थ्य और महिला साक्षरता जैसे मुद्दों पर एकजुट हुईं।

      चूंकि शराब की लत को भारत में अक्सर महिलाओं के खिलाफ हिंसा से जोड़ा जाता है। महिलाओं के कई संगठनों ने आंध्र प्रदेश, हिमाचल प्रदेश,हरियाणा, उड़ीसा, मध्य प्रदेश और अन्य राज्यों में शराब-विरोधी अभियानों की शुरुआत की। कई भारतीय मुस्लिम महिलाओं ने शरीयत कानून के तहत महिला अधिकारों के बारे में रूढ़िवादी नेताओं की व्याख्या पर सवाल खड़े किये और तीन तलाक की व्यवस्था की आलोचना की.। भारत सरकार ने 2001 को महिलाओं के सशक्तीकरण (स्वशक्ति ) वर्ष के रूप में घोषित किया था। महिलाओं के सशक्तीकरण की राष्ट्रीय नीति 2001 में पारित की गयी थी।2006 में बलात्कार की शिकार एक मुस्लिम महिला इमराना की कहानी मीडिया में प्रचारित की गयी थी। इमराना का बलात्कार उसके ससुर ने किया था। कुछ मुस्लिम मौलवियों की उन घोषणाओं का जिसमें इमराना को अपने ससुर से शादी कर लेने की बात कही गयी थी, व्यापक रूप से विरोध किया गया और अंततः इमराना के ससुर को 10 साल की कैद की सजा दी गयी। कई महिला संगठनों और ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड द्वारा इस फैसले का स्वागत किया गया। अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस के एक दिन बाद, 9 मार्च 2010 को राज्यसभा ने महिला आरक्षण बिल को पारित कर दिया जिसमें संसद और राज्य की विधान सभाओं में महिलाओं के लिए 33% आरक्षण की व्यवस्था है।
      अंत मे मै भारत वर्ष की कुछ ऐसी महिलाओं का संक्षिप्त परिचय दे रहा हूँ जिन्होने अपने अपने क्षेत्र मे उल्लेखनीय योगदान प्रदान किया है फिर वो खेल हो राजनीति हो युद्ध हो साहित्य हो या व्यवसाय उन्होने अपनी काबलियत का लोहा मनवाकर ही दम लिया है :-
Sr.
No.
नाम
उलब्धि
विशेष
1.
प्रथम महिला स्नातक
1883
2.
सरोजनी नायडू
प्रथम राज्यपाल, उत्तर प्रदेश
1949
3.
सुचेता कृपलानी
प्रथम मुख्यमंत्री  उत्तर प्रदेश
1949-63
4.
प्रथम महिला राष्ट्रपति
(2007-12)
5.
इन्दिरा गांधी
प्रधानमंत्री

6.
प्रथम महिला भारतीय आरक्षी सेवा (आई॰पी॰एस॰) अधिकारी।

7.
प्रथम महिला लोक सभा अध्यक्ष

8.
भारतीय वायु सेना में प्रथम महिला पायलट

9.
भारत की प्रथम महिला एयर वाइस मार्शल,

एयर कॉमॉडोर के पद पर पदोन्नत होने वाली प्रथम महिला, रक्षा सेवा स्टाफ कॉलेज कोर्स पूरा करने वाली प्रथम महिला अधिकारी,
उत्तरी ध्रुव में वैज्ञानिक अनुसंधान करने वाली प्रथम भारतीय महिला
10.
विश्व निशानेबाजी प्रतियोगिता विजेता।
उन्होंने म्युनिख में आयोजित विश्व निशानेबाजी प्रतियोगिता 2010 के 50 मीटर की स्पर्धा में स्वर्ण पदक जीतकर यह उपलब्धि प्राप्त की।
11.
कल्पना चावला
प्रथम अन्तरिक्ष यात्री

12.
पी.टी. उषा
प्रथम एथलीट
उड़न परी के नाम से प्रसिद्ध
13.
साइना नेहवाल
प्रथम बैडमिंटन खिलाड़ी

14.
साइना मिर्जा
टेनिस

15।
कावेरी कलानिधि
सीएमडी, सन टीवी

16.
किरण मजूमदार शॉ
सीएमडी बायोकॉन लिमिटेड

17.
3.  उर्वी ए पीरमल   
चेयरपर्सन,अशोक पीरमल ग्रुप

18.
चन्द्र कोचर  
सीएमडी, आईसीआईसीआई बैंक

19.
अरुंधरती भट्टाचार्य
सीएमडी, स्टेट बैंक ऑफ इंडिया

20.
शोभना भरतिय
चेयरपर्सन ,हिंदुस्तान टाइम्स

21.
प्रीथा रेड्डी
एमडी, अपोलो हॉस्पिटल

22.
विनीता सिंहानिया 
एमडी, जेके लक्ष्मी सीमेंट

23.
विनीता बाली
एमडी ब्रिटानिया

24.
9.  रेणु सूद
एमडी, एचडीएफ़सी बैंक

25.
सुनीता रेड्डी
जाइंट एमडी, अपोलो हॉस्पिटल

26.
सलमा सुल्तान
प्रथम न्यूज़ रीडर

27.
मैरी कॉम
प्रथम बॉक्सर

28.
दीपिका कुमारी
प्रथम तीरंदाज

29.
बुला चौधरी
तैराकी

30.
गीता फोगत
कुश्ती

31.
तेज सोनल सिंह
शूटिंग

32.
एम. एस. सुब्बुलक्ष्मी
कर्नाटक संगीत की महारथी
1954 में पद्म भूषण
1956 में संगीत नाटक अकादमी सम्मान
1974 में रैमन मैग्सेसे सम्मान
1975 में पद्म विभूषण
1988 में कैलाश सम्मान
1990 में राष्ट्रीय एकता के लिए उन्हें इंदिरा गांधी अवार्ड
1998 में भारत रत्न समेत कई सम्मानों से नवाजा गया। इसके अतिरिक्त कई विश्वविद्यालयों ने उन्हें मानद उपाधि से सम्मानित किया।
88 साल की उम्र में महान गायिका एम.एस. सुब्बुलक्ष्मी 11 दिसंबर, 2004 को दुनिया को अलविदा कह गयीं।
1972
The list of the persons who ranked first (the "topper") for each year, along with their opted service and home state:
Year
Topper
Home State
Service
2015
Tina Dabi
2014
2013
Gaurav Aggrawal
2012
Haritha V Kumar
2011
Shena Aggarwal
2010
S Divyadharsini
2009
2008
Shubhra Saxena
2007
Adapa Karthik
2006
Mutyalaraju Revu
2005
Mona Pruthi
2004
S Nagarajan
2003
Roopa Mishra
2002
Ankur Garg
2001
Alok Ranjan Jha
2000
Vijaylakshmi Bidari
1999
Sorabh Babu
1998
Bhawna Garg
1997
Devesh Kumar
1996
Sunil Kumar Barnwal
1995
Iqbal Dhaliwal
1994
Asutosh Jindal
1993
Srivatsa Krishna
1992
Anurag Srivastava
1991
1990
1989
Shashi Prakash Goyal
1988
1987
Amir Subhani
1979
Dr. Hrusikesh Panda
1977
Javed Usmani
1974
Bhaskar Balakrishnan
1973
1972

      नेट पर उपलब्ध 1972 से 2015 की सूची देखने से ज्ञात होता है कि लड़कियों ने यहाँ भी कई बार बाजी मारी है और प्रथम स्थान हासिल किया है किन्तु इतनी चर्चा शायद ही कभी हुई है। किन्तु इस बार चूंकि जिस 22 वर्ष की लड़की ने प्रथम स्थान हासिल किया है और वो दलित समाज से आती है इसलिए उसे इतनी प्राथमिकता दी जा रही है न कि एक महिला होने के कारण ? फिर हम बात करते हैं महिला सशक्तिकरण की और उस महिला सशक्तिकरण मे भी अपनी अपनी ढपली बजाने से बाज नहीं आ रहे।

::: प्रदीप भट्ट ::

12.05.2016

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