“रेत मे
ज़िंदगी तलाशता हिन्दी सिनेमा”
आज प्रत्येक देश मे
मनोरंजन के रूप मे उस देश का सिनेमा उस देश की वर्तमान और भविष्य की संभावनाओं को
उकेरने का एक सशक्त माध्यम भर नहीं रह गया है वरन विदेशी सिनेमा मे अपनाई जा रही
नई तकनीक को आत्मसात करते हुए वह विश्वपटल पर अपनी उपस्थिती दर्ज करना चाहता है।
आखिर सिनेमा की शुरुआत कहाँ से हुई किस तरह समय के साथ कदमतल करते हुए विश्व
सिनेमा ने अपनी एक अलग पहचान बनाई साथ ही भारतीय सिनेमा की शुरुआत कैसे हुई। आइये
इस विषय मे कुछ सूक्ष्म द्रष्टि जाली डालते हैं ।
1890 मे जब मोशन पिक्चर ने
अपने प्रथम कैमरे का आविष्कार किया और एक बहुत ही छोटी फिल्म बना डाली। उसी को
लेकर मोशन पिक्चर के लुमियर ब्रदर्स पेरिस
पहुँच गए। वहाँ पर फिल्म को मिले अच्छे प्रसाद स्वरूप लुमियर ब्रदर्स ने लगभग 6
माह बाद भारत का रुख किया और बॉम्बे (मुंबई) के वाटकिंस हॉटल मे
6 मूक फिल्मों का प्रदर्शन कर डाला जिसे यहाँ हाथों हाथ लिया गया। 1927 तक लुमियर
ब्रदर्स ने अनेकों लघु मूक फिल्म बनाई और विश्व के विभिन्न देशों मे उन्हे
प्रदर्शित भी किया। यहाँ यह उल्लेख करना आवश्यक है कि पहला फिल्म स्टुडियो 1897 मे
बना। स्पेशल इफैक्ट और पहले close-up शॉट का श्रीगणेश करने
का श्रेय D.W. Griffith को जाता है। प्रथम विश्वयुद्ध के बाद और दूसरे विश्वयुद्ध के समय बनी
ज़्यादातर फिल्मों को “Chase Films” के नाम से भी जाना जाता
है। पहली एनिमेशन फिल्म 1899 मे,ऑस्ट्रेलियन प्रॉडक्शन के
तहत कई रीलों मे उपलब्ध प्रथम विशेषता (Feature) का प्रसार
1906 मे हुआ। 1905 मे पक्के तौर पर पहला थिएटर मे जिसमे “The Nickelodeon” फिल्म प्रदर्शित हुई और 1910 मे प्रथम बार किसी अभिनेता की स्क्रीन
क्रेडिट फॉर देयर roles की शुरुआत हुई।
जुलाई
1998 मे अल्बर्ट स्मिथ ने इंग्लैंड मे बाकी तकनीकों के अतिरिक्त एक Trick (करतब या हाथ की सफाई ) का इस्तेमाल ब्रिटिश फिल्म इंडस्ट्री के लिए किया।
1897 मे माहरानी विक्टोरिया की diamond
jubilee के अवसर पर रोबर्ट डबल्यू पॉल ने पहली बार शाट लेने के लिए
घूमते हुए कैमरे का इस्तेमाल किया था । 19वी शताब्दी के समाप्त होते होते फ्रेंच
फिल्म “जीसस क्राइस्ट” मे युक्ति (Trick) लगाकर कैमरे का
इस्तेमाल किया गया जो की ज्यादा प्रसिद्ध हुआ। इस फिल्म को देखते समय दर्शकों को
पता ही नहीं चलता था कि सीन कब बादल गया। G A Smith ने यूं
तो 1990 से ही क्लोज़ अप शॉट लेने मे महारत हासिल कर ली थी किन्तु 1901 मे आई उनकी feature
फिल्म “The Little Doctors” मे उन्होने दिखया
कि कैसे व्यक्तिपरक (subjective) और विषयनिष्ट/समान्य (objective) को बिन्दुवार कैसे उपयोग मे लाया जा सकता है। 1903 मे उन्होने इसका और
बेहतर प्रयोग “Mary Jane’s Mishap” मे किया।
जेम्स विल्यमसन ने 1901 मे
“Stop
Thief” नमक फिल्म मे एक्शन द्रश्यों मे एक स्थान से दूसरे स्थान तक
कैमरे को बड़ी सहजता से प्रयोग मे लाकर दिखाया। उन्होने अपनी एक फिल्म “The
Big Swallow” मे शायद सबसे अच्छा क्लोज़ अप शाट का प्रयोग किया। इस
समय छोटी छोटी फिल्मे बनती थी। 1906 मे ऑस्ट्रेलियन प्रॉडक्शन हाउस ने “The
Story of the Kelly Gang बनाई जिसे 26 दिसम्बर 1906 को
ऑस्ट्रेलिया के शहर मेलबोर्न मे athenaeum hall मे और जनवरी 1908 मे इंग्लैंड मे 4000 फीट यानि लगभग 1200 मीटर लंबी feature फिल्म का प्रदर्शन हुआ। मुनाफे के लिहाज से पहली फिल्म “The
Nickelodeon” रही जो कि 1905 मे पिट्सबर्ग मे प्रदर्शित हुई।
1907 मे मोशन पिक्चर ने
यूएसए,UK और फ़्रांच मे अपने सिनेमा को लोकप्रिय बनाने और
कमाई के लिहाज से कुछ थिएटर खोले। इसमे उन्होने तरह तरह के प्रयोग भी किए जिसमे
म्यूजिक के लिए अलग से प्रावधान रखा गया जो कि मूक सिनेमा देखते देखते पर्दे के
पीछे से बजता रहता था।1908 आते आते लगभग 30 मूक फिल्मे बनाने वाली कंपनियाँ
अस्तित्व मे आ गई। जिनमे प्रमुख Metro picture जो बाद मे
एमजीएमके नाम से जानी जाती रही ,एडीसन स्टुडियोस,मजेस्टिक फिल्म्स,किंग बी फिल्म कंपनी,विम कॉमेडी कंपनी,gaumont studios आदि आदि।



France Film Museum
China Film Museum
Oliver” Babe” हार्डी ने 1914 मे मोशन पिक्चर से अपने कैरियर कि शुरुआत की और उन्होने
36 मूक लघु फिल्मे बनाई।1915 मे ओलिवर न्यू यॉर्क चले गए और विम कंपनी मे काम
किया।1917 मे वे वापिस Jacksonville लौट आए। 19917 मे ही
मोशन पिक्चर ने पहली Technicolor फिल्म “The Gulf
Between” बनाई। Jacksonville अमेरिकी और
अफ्रीकन फिल्म इंडस्ट्री के लिए महत्वपूर्ण पड़ाव था। पहले विश्वयुद्ध के पश्चात
जहां यूरोपियन फिल्म इंडस्ट्री सकते मे थी वहीं अमेरीकन फिल्म इंडस्ट्री का केंद्र
कैलिफोर्निया “Hollywood” बन चुका था और वहाँ स्टुडियो और
स्टार कल्चर हावी होने लगा था।
1927 मे
वार्नस ब्रदर्स ने The Jazz Singer फिल्म प्रदर्शित की जो कि
एक मूक फिल्म थी,उसमे संवाद और संगीत को अलग से पिरोकर
संतुलित तरीके से प्रस्तुत किया गया। किन्तु ऐसा पहली बार 1914 मे चार्ल्स तज़े
रुसेल ने The Photo-Drama of Creation मे ज्यादा निपुणता के
साथ यह प्रयोग किया था। 1929-30 तक आते आते ये बदलाव सम्पूर्ण विश्व मे भी दिखाई
देने लगा जिनमे चीन और जापान प्रमुख थे।वास्तव मे इस तरह का प्रयोग Yasujiro
Ozu’s Was Born, But (जापान 1932) और
Wu Yonggang’s The Goddess
(चीन 1934)मे देखने को मिला।
London Film Museum
1950 से बाद के सिनेमा
ने होलीवूड ही नहीं वरन शेष विश्व के देशों ने भी काफी तरक्की की। फिर चाहे वो
इंग्लैंड,फ़्रांस, European
countries हो या भारत,जापान और चीन। धीरे धीरे
इस फील्ड मे विश्व के छोटे-छोटे देश भी अपनी सार्थक फिल्मों के माध्यम से विश्व
सिनेमा मे अपनी उपस्थिती दर्ज करने लगे।होलीवूड सिनेमा पर धीरे धीरे स्टार कल्चर
और समय से आगे की कहानी कहने का प्रचलन बड़ी तेजी से बढ़ा।मानव केन्द्रित कहानियाँ
हो या जानवरों के विषय मे फिर चाहे दूसरे गृहों के बाशिंदों का पृथ्वी पर आगमन।दूसरे
गृह से आए लोगों पर आधारित प्रथम feature film सही
मायने मे E.T. थी जो आज से लगभग 35 वर्ष पूर्व प्रदर्शित हुई । प्रथम एनिमेशन फिल्म
(चित्रों द्वारा कहानी कहना) को दर्शकों के सम्मुख प्रस्तुर करने का श्रेय भी
होलीवूड को ही ये जाता है।
भारतीय सिनेमा (हिन्दी फिल्म इंडस्ट्री)
दादा साहेब फाल्के को
भारतीय
सिनेमा के जनक के रूप में जाना जाता है।1969 मे भारतीय सिनेमा के लिए आजीवन
योगदान देने सम्मान स्वरूप भारत
सरकार द्वारा दादा
साहेब फाल्के पुरस्कार की स्थापना की गयी। यह भारतीय सिनेमा में सबसे प्रतिष्ठित और वांछित पुरस्कार माना
जाता है।
हिन्दी फिल्मों की शुरुआत कैसे हुई
और प्रथम हिन्दी फिल्म किसने बनाई इस पर चर्चा करने से पूर्व उपरोक्त लिखी हुई कुछ
पंक्तियों को पुन: उध्रत किया जाना अति आवश्यक है “1890 मे जब
मोशन पिक्चर ने अपने प्रथम कैमरे का आविष्कार किया और एक बहुत ही छोटी फिल्म बना
डाली। उसी को लेकर मोशन पिक्चर के लुमियर
ब्रदर्स पेरिस पहुँच गए। वहाँ पर फिल्म को मिले अच्छे प्रसाद स्वरूप लुमियर
ब्रदर्स ने लगभग 6 माह बाद भारत का रुख किया और बॉम्बे (मुंबई) के वाटकिंस हॉटल मे 7 जुलाई को 6
मूक फिल्मों का प्रदर्शन कर डाला जिसे यहाँ हाथों हाथ लिया गया।“
लुमियर ब्रदर्स द्वारा दिखाई गई लघु फिल्मों
का भारतीय दर्शकों का ऐसा चस्का लगा की कुछ समय बाद ही भारत मे भी फिल्मों को बनाए
की शुरुआत हो गई। इसकी शुरुआत का श्रेय श्री एच.एस. भटवडेकर,मुंबई
(बॉम्बे)और हीरालाल
सेन कोलकाता (कलकत्ता) को जाता है।प्रथम लघु फिल्म को बनाने का श्रेय हीरालाल सेन
जिसे उन्होने अथक प्रयासों से 1898 मे बनाया और उसे कुछ चुनिदा जगहों पर प्रदर्शित
भी किया। इसी प्रकार 1899 मे एच.एस. भटवडेकर ने भी लघु चित्र बनाकर उसे बॉम्बे मे प्रदर्शित
किया।हीरालाल और एच.एस.
भटवडेकर
यहीं नहीं रुके इसके बाद उन्होने एक के बाद एक क्रमश: 25 व लगभग 40 लघु फिल्मे
बनाई और उन्हे प्रदर्शित किया किन्तु अफसोस इस बात का है कि आज जब लुमियर ब्रदर्स की सभी फिल्में संरक्षित हैं एच.एस. भटवडेकर और हीरालाल सेन द्वारा बनाई गई एक भी फिल्म आज
उपलब्ध नहीं है।
14 साल
में बनी पाकीजा!
वर्ष 1972 में चित्रलेखा जैसी सुंदर
मीना कुमारी की 14 वर्षों
में बनी पाकीजा प्रदर्शित हुई। लोग कहने
लगे कमाल अमरोही दूसरी मुगले आजम बना रहे
हैं। मीना कुमार की लाजवाब अदाकारी वाली इस फिल्म
में राजकुमार के बोल गये संवाद आपके पैर देखे बहुत हसीन हैं जमीन पर मत रखियेगा मैले हो जाएंगे बहुत लोकप्रिय हुए।
जब हीरालाल और एच.एस. भटवडेकर एक के बाद एक
अपनी अपनी लघु फिल्मे बना रहे थे उसी दौर मे नासिक के रहने वाले दादा साहब फाल्के
ने हीरालाल और एच.एस.
भटवडेकर द्वारा बनाई गई फिल्मों से प्रभावित होकर लंदन का दौरा किया और
फिल्म तकनीक की बारीकियों को जानने का
प्रयास किया। लंदन मे अपने प्रवास के दौरान दादा साहब फाल्के ने ईसा मसीह के जीवन पर आधारित एक चलचित्र देखा। वह फिल्म लुमियर
ब्रदर्स की
फिल्मों की तरह लघु चलचित्र न होकर लंबी फिल्म थी। उस फिल्म को देख कर दादा साहेब
फालके के मन में पौराणिक कथाओं पर आधारित चलचित्रों के निर्माण करने की प्रबल
इच्छा उत्पन्न हुई। भारत वापिस आकर दादा साहब फाल्के राजा
हरिश्चंद्र बनाई जो कि भारत की पहली लंबी
फिल्म थी और सन् 1913 में प्रदर्शित हुई। उस मूक चलचित्र ने लोगों का भरपूर
मनोरंजन किया और दर्शकों ने उसकी खूब तारीफ भी की।
उपरोक्त घटना के पश्चात
भारत मे फिल्म (चलचित्र) बनाने ने एक इंडस्ट्री का रूप धारण करना शुरू कर दिया
जिसे हिमांशु राय जो की जर्मनी मे U.F.A. मे निर्माता के
रूप मे कार्य कर रहे थे ने इस इंडस्ट्री को एक नया रूप दिने का निश्चय किया और
अपनी पत्नी देविका रानी के साथ भारत वापिस लौट आए और फिल्म बनाने लगे। उनकी फिल्मों
मे उनकी पत्नी देविका रानी नायिका का रोल अदा करती थी। फिल्मों के प्रति उनकी
दीवानगी ने उन्हे शोहरत के साथ साथ अपर दौलत
से भी सराबोर कर दिया। और दोनों ने मिलकर बॉम्बे टॉकीज की स्थापना कर दी। इसके पश्चात
ही प्रभात और न्यू थियेटर्स का उदय हुआ।
1930 तक सिर्फ मूक फिल्मे ही बन रही थीं
परंतु 1930 के उतरार्ध मे फिल्मों मे ध्वनि (voice)के आ जाने से
सवाक फिल्मों का सफर शुरू हुआ और परिणाम स्वरूप 1931 मे पहली बोलती फिल्म (सवाक फिल्म)
आलम आरा के प्रदर्शन के साथ ही हिन्दी फिल्म इंडस्ट्री
ने एक ऊंची छलांग लगा ली और मूक फिल्मे अब गए जमाने की बाते हो गई। 1933 मे प्रदर्शित कर्मा फिल्म
इतनी ज्यादा लोकप्रिय हुई कि उस फिल्म कि नायिका देविका रानी को लोग एक स्टार के
रूप मे देखने और संबोधित करने लगे जिससे देविका रानी भारत कि पहली स्टार बन गई ।मूक फिल्मों के जमाने तक मुंबई
(पूर्व नाम बंबई) देश में चलचित्र निर्माण का केन्द्र बना रहा परंतु सवाक् फिल्मों
का निर्माण शुरू हो जाने से और हमारे देश में विभिन्न भाषाओं का चलन होने के कारण मद्रास (चेन्नई
) में
दक्षिण भारतीय भाषाओं वाली चलचित्रों का निर्माण होने लगा। इस तरह भारत की
फिल्म इंडस्ट्री दो टुकड़ों
मे बट गई ।
बांबे टाकीज,प्रभात, और न्यू
थियेटर्स भारत के प्रमुख स्टुडिओ और ये तीनों स्टुडिओ देश के बड़े
बैनर्स कहलाते थे। ये प्रायः गंभीर किंतु मनोरंजक फिल्में बना कर दर्शकों का मनोरंजन
किया करते थे।उन दिनों सामाजिक अन्याय के विरुद्ध आवाज उठाने वाली, धार्मिक तथा पौराणिक, ऐतिहासिक, देशप्रेम से सम्बंधित चलचित्रों
का निर्माण हुआ करता था और उन्हें बहुत अधिक पसंद भी किया जाता था। अशोक
कुमार और देविका रानी अभिनीत
फ्रैंज
ओस्टन की फिल्म "अछूत कन्या" , वी. शांताराम
की फिल्म
"दुनिया ना माने", स्वअभिनीत
"डॉ॰
कोटनीस की अमर कहानी",,विजय भट्ट की "भरत मिलाप" और "राम
राज्य", दामले और फतेहलाल की फिल्म "संत तुकाराम", मेहबूब खान की फिल्में, "रोटी"
और "वतन",
"एक ही
रास्ता" और "औरत", अर्देशीर ईरानी की फिल्म "किसान
कन्या" आदि। चेतन आनंद की "नीचा नगर", उदय शंकर की "कल्पना", ख्वाज़ा अहमद अब्बास की "धरती के लाल", सोहराब मोदी की "सिकंदर",
"पुकार" और "पृथ्वी
वल्लभ", जे.बी.एच. वाडिया की "कोर्ट डांसर", एस.एस. वासन की
"चंद्रलेखा", राज कपूर की "बरसात" और
"आग" उन दिनों की अविस्मरणीय फिल्में हैं|
शुरुआत मे स्टुडिओ पद्धति का प्रचलन रहा। हर स्टुडिओ के अपने वेतनभोगी
निर्माता, निर्देशक, संगीतकार, नायक, नायिका तथा अन्य कलाकार हुआ
करते थे। किन्तु समय के साथ साथ फिल्म निर्माण में रुचि रखने वाले लोग
स्वतंत्र निर्माता के रूप में फिल्म बनाने लगे। इन स्वतंत्र निर्माताओं ने
स्टुडिओं को किराये पर लेना तथा कलाकारों से ठेके पर काम करवाना शुरू कर दिया.
चूँकि ठेके में काम करने में अधिक आमदनी होती थी, कलाकारों ने वेतन लेकर काम करना
लगभग बंद कर दिया। इस प्रकार स्टुडिओ पद्धति का चलन समाप्त हो गया और स्टुडिओं को
केवल किराये पर दिया जाने लगा।
हिन्दी
फिल्म इंडस्ट्री के अतिरिक्त भी भारत मे विभिन्न भाषाओं मे सिनेमा बनता है।जिनमे आंध्र प्रदेश और तेलंगाना, असम, बिहार, गुजरात, हरियाणा,जम्मू एवं कश्मीर, झारखंड, कर्नाटक, केरल, महाराष्ट्र, ओडिशा, पंजाब, राजस्थान, तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल और बॉलीवुड शामिल है। भारतीय सिनेमा ने २०वीं सदी के आरम्भिक काल से
ही विश्व के चलचित्र जगत पर गहरा प्रभाव छोड़ा है। । भारतीय फिल्मों का अनुकरण
पूरे दक्षिणी एशिया, ग्रेटर मध्य पूर्व, दक्षिण पूर्व एशिया और पूर्व सोवियत संघ में भी होता है। बढ़ती हुई भारतीय प्रवासी जनसंख्या की वजह
से अब संयुक्त राज्य अमरीका और यूनाइटेड किंगडम भी भारतीय फिल्मों के लिए एक महत्वपूर्ण बाजार बन गए हैं। एक
माध्यम के रूप में सिनेमा ने देश में अभूतपूर्व लोकप्रियता हासिल की और भारत में
सिनेमा की लोकप्रियता का इसी से अन्दाजा लगाया जा सकता है कि यहाँ सभी भाषाओं में
मिलाकर प्रति वर्ष 1,600 तक फिल्में बनीं हैं।
20वी सदी में भारतीय सिनेमा, संयुक्त राज्य अमरीका का सिनेमा हॉलीवुड तथा चीनी फिल्म उद्योग के साथ एक वैश्विक
उद्योग बन गया। 2013 में भारत वार्षिक फिल्म निर्माण में पहले
स्थान पर था इसके बाद नाइजीरिया
सिनेमा,
हॉलीवुड और चीन के
सिनेमा का स्थान आता है। वर्ष 2012 में भारत में 1602 फ़िल्मों का
निर्माण हुआ जिसमें तमिल सिनेमा
अग्रणी रहा जिसके बाद तेलुगु और हिन्दी फिल्म इंडस्ट्री (बॉलीवुड) का स्थान आता है। भारतीय फ़िल्म इंडस्ट्री की वर्ष 2011 में कुल 93
अरब की आय हुई । जिसके वर्ष 2016 150 अरब तक पहुँचने का अनुमान है। बढ़ती हुई तकनीक और ग्लोबल प्रभाव ने भारतीय
सिनेमा का चेहरा पूरी
तरह बदल डाला है।
अब सुपर हीरो तथा विज्ञानं कल्प जैसी फ़िल्में न केवल बन रही हैं बल्कि ऐसी कई
फिल्में रोबोट, एंथीरन, रा.वन, ईगा और कृष-3 ब्लॉक बस्टर फिल्मों के रूप में सफल हुई है। भारतीय सिनेमा ने लगभग 100 से अधिक देशों मे
अपनी पैठ बनाई है
भारतीय
फिल्म इंडस्ट्री की चमक सिर्फ भारत ही नहीं वरन विश्व परिद्रशय पर
स्थापित बड़ी और नमी कंपनियों को अपनी ओर आकर्षित करने मे सफल रही है जिसकी बदोलत
अब भारतीय अभिनेताओं की हॉलीवुड फिल्मों मे भी
एंट्री हो पाई है।सत्यजीत रे, ऋत्विक घटक, मृणाल सेन, अडूर
गोपालकृष्णन, बुद्धदेव दासगुप्ता, जी अरविंदन, अपर्णा सेन, शाजी एन करुण, और गिरीश
कासरावल्ली जैसे निर्देशकों ने समानांतर सिनेमा में महत्वपूर्ण योगदान दिया है और वैश्विक
प्रशंसा जीती है। शेखर कपूर, मीरा नायर और दीपा मेहता सरीखे फिल्म निर्माताओं ने विदेशों में भी
सफलता पाई है। 100%
प्रत्यक्ष विदेशी निवेश
के प्रावधान से 20वीं सेंचुरी फॉक्स, सोनी पिक्चर्स, वॉल्ट डिज्नी पिक्चर्स और वार्नर ब्रदर्स आदि विदेशी उद्यमों के लिए भारतीय फिल्म बाजार
को आकर्षक बना दिया है। एवीएम
प्रोडक्शंस, प्रसाद समूह, सन पिक्चर्स, पीवीपी सिनेमा,जी, यूटीवी, सुरेश
प्रोडक्शंस, इरोज फिल्म्स, अयनगर्न
इंटरनेशनल,पिरामिड साइमिरा, आस्कार फिल्म्स पीवीआर सिनेमा यशराज फिल्म्स धर्मा
प्रोडक्शन्स और एडलैब्स आदि भारतीय उद्यमों ने भी फिल्म उत्पादन और
वितरण में सफलता पाई। [19] मल्टीप्लेक्स के लिए कर में छूट से भारत में
मल्टीप्लेक्सों की संख्या बढ़ी है और फिल्म दर्शकों के लिए सुविधा भी। 2003 तक फिल्म निर्माण / वितरण / प्रदर्शन से
सम्बंधित 30
से ज़्यादा कम्पनियां
भारत के नेशनल स्टॉक एक्सचेंज में सूचीबद्ध की गयी थी जो फिल्म माध्यम के
बढ़ते वाणिज्यिक प्रभाव और व्यसायिकरण का सबूत हैं।
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मुंबई। 1953 में आई सोहराब मोदी की फिल्म ‘झांसी की रानी’ पहली
फिल्म थी जो कलर में शूट की गई और अंग्रेजी और हिंदी में एक साथ रिलीज की गई। इसी साल रिलीज हुई बिमल रॉय की फिल्म ‘दो
बीघा जमीन’ को कांस फिल्म समारोह में सोशल प्रोग्रेस अवॉर्ड से सम्मानित किया गया। इस साल से
सेंसरशिप के नियमों में भी बदलाव होने
लगे। इसी साल से फिल्मफेयर अवॉर्ड्स का वितरण
भी शुरू किया गया। इस साल राजकपूर की फिल्म ‘आह’ भी रिलीज हुई।
अगर
भारत मे बनने वाली कुछ बेहतरीन फिल्मों की करें तो उनमे ऐसी बहुत सी मिल जाएंगी जो
अपनी भव्यता,बेहतरीन कहानी,बेहतरीन
अदाकारी और गीत संगीत के लिए अजर अमर हैं । इन्ही मे से वर्ष 1954 में पीके आत्रे की मराठी फिल्म ‘श्यामची
आई’ (1953)
को प्रेसिडेंट गोल्ड मेडल से नवाजा गया। इसी साल सोवियत संघ में
भारतीय फिल्म महोत्सव का आयोजन किया गया जहां राजकपूर की फिल्म ‘आवारा’ बड़ी हिट साबित हुई। इसी साल ख्वाजा अब्बास अहमद की फिल्म ‘मुन्ना’ रिलीज हुई जो बिना गानों
की दूसरी फिल्म थी।
वर्ष 1961 में प्रदर्शित
फिल्म ‘जंगली’ से शम्मी
कपूर चाहे कोई मुझे जंगली कहे गीत गाकर
याहू स्टार बने वही बतौर अभिनेत्री सायरा बानू की यह पहली फिल्म थी। वर्ष 1962 में गुरूदत्त की कालजयी ‘साहब बीबी
और गुलाम’ प्रदर्शित
हुयी। वर्ष 1963 में प्रदर्शित विमल राय की फिल्म ‘बंदिनी’ के लिये
गुलजार ने पहला गीत मेरा गोरा अंग लेई ले
लिखा। इसी साल देश के प्रथम राष्ट्रपति डा.राजेन्द्र प्रसाद की गुजारिश पर
प्रसिद्ध फिल्म निर्माता विश्वनाथ
शाहाबादी ने पहली भोजपुरी फिल्म ‘गंगा मइया तोहे पियरी चढ़ैबो’ का निर्माण
किया।
वर्ष 1955 को
कुछ बेहतरीन फिल्मों के जाना जाता है जिनमे सत्यजीत
रे की ‘पाथेर
पांचाली’ भारतीय फिल्म इतिहास की
पहली ट्रायलॉजी (तीन फिल्मों का समूह) थी जिसमें एक गरीब ब्राम्हण लड़के अप्पू
की कहानी थी। ये फिल्म 1955 में
रिलीज हुई। वी शांताराम की झनक झनक पायल बाजे भी इसी साल रिलीज हुई जो पूरी
तरह भारतीय तकनीशियनों द्वारा बनाई गई पहली टेक्नीकलर फिल्म थी। इस साल
राजकपूर की फिल्म श्री 420 इस साल रिलीज हुई। इसके अलावा ‘मि एंड
मिसेज 55’, ‘मुनीमजी’ और दिलीप कुमार अभिनीत ‘देवदास’ भी साल वर्ष 1956 में देवानंद की ‘सीआईडी’ और ‘फंटूश’ कामयाब फिल्में साबित
हुईं। राजकपूर और नर्गिस अभिनीत ‘चोरी-चोरी’ इस वर्ष की सबसे बड़ी फिल्म रही।
वर्ष 1957 हिंदी
सिनेमा के लिए बेहद खास रहा। इस साल महबूब खान की फिल्म मदर इंडिया रिलीज
हुई जो उस दशक की सबसे ज्यादा कमाई करने वाली फिल्म तो थी ही साथ ही ऑस्कर के लिए
फॉरेन लैंग्वेज फिल्म कैटगरी में नॉमीनेट होने वाली पहली भारतीय फिल्म बनी। इसी
साल दिलीप कुमार और वैजयंतीमाला स्टारर फिल्म ‘नया दौर’
भी रिलीज हुई जो क्लासिक मानी गई। साल 1957 में एक
और फिल्म रिलीज हुई जो बॉलीवुड के लिए मील का पत्थर साबित हुई। फिल्म थी गुरुदत्त
की ‘प्यासा’ जो न सिर्फ क्लासिक मानी गई बल्कि इसे टाइम मैग्जीन ने विश्व की 100 सबसे
बेहतरीन फिल्मों में शुमार किया है। इसके अलावा इस साल की ‘दो आंखें बारह हाथ’, ‘पेइंग गेस्ट’ जैसी फिल्में भी लाजवाब
थीं। साल 1958 में ‘मधुमती’, चलती
का नाम गाड़ी, यहूदी, फागुन, हावड़ा ब्रिज और दिल्ली
का ठग जैसी फिल्में काफी चर्चा में रही वहीं अनाड़ी, पैगाम, नवरंग, धूल का फूल(राजेंद्र
कुमार का इसी फिल्म से फिल्म जगत पर परचम फैला और उन्हे जुबली कुमार की उपाधि दी
गई) जैसी फिल्में 1959
की खास फिल्में रहीं।
वर्ष 1960 में
रिलीज हुई ऐतिहासिक फिल्म ‘मुगले
आजम’, इस
फिल्म में लीड रोल में थे दिलीप कुमार और मधुबाला। के आसिफ निर्देशित इस फिल्म को
बनने में 10 सालों
का वक्त लगा था। ये फिल्म अब भी बॉलीवुड की सबसे मशहूर और बेहतरीन फिल्मों में से
एक मानी जाती है। फिल्म को 2004
में रंगीन कर पेश किया गया। इसी साल बरसात की रात, कोहीनूर, चौदवी का चांद, जिस देश में गंगा बहती है, दिल अपना और प्रीत पराई
जैसी फिल्मों ने भी बॉक्स ऑफिस पर अच्छी कमाई की।भारतीय सिनेमा जगत में 1961-1970 के दशक
को जहां एक ओर रोमांटिक फिल्मों के स्वर्णिम काल के रूप मे याद किया जायेगा, वहीं दूसरी ओर इसे हिन्दी
सिनेमा के पहले सुपरस्टार राजेश खन्ना, सदी के महानायक अमिताभ बच्चन, जुबली कुमार उर्फ राजेन्द्र कुमार, .हीमैन धमेंद्र और जंपिक
जैक (ये उपाधि उन्हे फिल्म फर्ज़ प्रदर्शित होने के बाद दी गई)जितेंद्र
के इंडस्ट्री में आगमन का दशक भी कहा जायेगा।
1964 मे आई संगम पहली ऐसी feature फिल्म थी जिसे राज कपूर ने यूरोप मे फिल्माया था इसी फिल्म का एक गीत “ये मेरा
प्रेम पत्र पढ़कर तुम नाराज़ मत होना” गीतकार
हसरत जयपुरी ने युवावस्था मे लिखी अपनी एक
कविता जिसे उन्होने राधा नामक महिला को
लिखा था इस फिल्म मे गीत के रूप मे इस्तेमाल किया।
वर्ष 1965 में
भारत और पाकिस्तान के बीच युद्ध की समाप्ति के बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री
लालबहादुर शास्त्री ने देश में किसान और जवान की महत्वपूर्ण भूमिका को देखते हुये
जय जवान जय किसान का नारा दिया और मनोज कुमार से इसपर फिल्म बनाने की पेशकश की।
वर्ष 1967 में
मनोज कुमार ने इसपर अपनी पहली निर्देशित फिल्म ‘उपकार’ बनायी।इसी वर्ष प्रदर्शित फिल्म ‘ज्वैल थीफ’ में भारतीय सिनेमा के फोर्थ पिलर अशोक कुमार ने नेगेटिव किरदार
निभाकार दर्शकों को चौका दिया। इसी वर्ष सर्वश्रेष्ठ
अभिनेत्री का पहला राष्ट्रीय पुरस्कार नरगिस को रात और दिन के लिये दिया
गया।वर्ष 1968 में
सिनेमा जगत के इतिहास की सबसे लोकप्रिय हास्य फिल्म पड़ोसन में महमूद ने निगेटिव
किरदार निभाकर दर्शकों को अचरज में डाल दिया। वर्ष 1969 में प्रदर्शित ख्वाजा
अहमद अब्बास की फिल्म ‘सात
हिंदुस्तानी’ से सदी
के महानायक अमिताभ बच्चन ने रूपहले पर्दे पर एंट्री की थी। वहीं इसी वर्ष बिहारी
बाबू शत्रुध्न सिंहा ने भी ‘साजन’ में पहली बार एक छोटी
भूमिका निभायी थी। वहीं शक्ति सामंत की फिल्म ‘आराधना’ से
राजेश खन्ना के रूप में फिल्म इंडस्ट्री को अपना पहला सुपरस्टार मिला। इसी वर्ष
भारतीय सिनेमा जगत की पहली ड्रीम गर्ल कही जाने वाली देविका रानी को पहला दादा
साहब फाल्के पुरस्कार प्राप्त हुआ।
वर्ष 1970 में
राजकपूर ने अपनी महत्वाकांक्षी फिल्म ‘मेरा नाम जोकर’
का निर्माण किया। बेहतरीन
स्टोरी लाईन और राजकपूर समेत कई सितारों के होने के बावजूद यह फिल्म टिकट खिड़की पर बुरी तरह नकार दी गयी। यह अलग
बात है कि बाद में इसे कालजयी फिल्म का
दर्जा प्राप्त हुआ। भारतीय सिनेमा के इतिहास में यह दूसरी सर्वाधिक लंबी फिल्म है। यह फिल्म चार घंटा 14 मिनट
है। सबसे लंबी फिल्म एलोसी कारगिल है जो चार
घंटा 25 मिनट
की है।
उपरोक्त
के अतिरिक्त भी कुछ फिल्में ऐसी हैं जैसे 1971मे प्रदर्शित “मेरा गाँव मेरा देश” व
इसी को आधार बनाकर 1975 मे बनी “शोले”, दीवार हास्य फिल्म चुपके चुपके
इसके बाद आई अर्थ,सारांश,(महेश भट्ट)/
1978 मे आई “डॉन” जिससे अमिताभ बच्चन ने एक नई
ऊंचाई हासिल की।किन्तु इसके बाद 1980 से 2016 तक आते आते कुछ ही गिनी चुनी फिल्में
है जिनहे याद रखा जा सकता है। जिनमे 1989 मे “कयामत से कयामत तक”, December 29, 1989 को प्रदर्शित “मैंने प्यार किया” और 1994 मे
प्रदर्शित “हम आपके हैं कौन” 1995 मे आई “दिल वाले दुलहनियाँ ले जाएंगे” संजय दत्त
अभिनीत “मुन्ना भाई MBBS” और “लगे रहो मुन्ना भाई” 1992 मे “खिलाड़ी” फिल्म से शुरुआत करने वाले
अक्षय कुमार (राजीव भाटिया)ने अपनी प्रतिभा से अपने लिए एक अलग दर्शक वर्ग तैयार
किया है एक्शन के साथ साथ कॉमेडी मे महारत हासिल करने वाले अक्षय ने “हेरा फेरी”
और फिर हेरा फेरी जैसी कई कॉमेडी फिल्मे दी है। आज जब रियल फिल्मों को दौर चल रहा
है तो अक्षय स्पेशल 26”,”Babby” और “Airlift” जैसी फिल्मे देकर दर्शकों को सोचने पर मजबूर करते नज़र आते हैं।
अंत मे 1898 से 1930 तक बहुत सारी
(हजारों की संख्या मे ) लघु और मूक फिल्में विभिन्न निर्माताओ ने बनाई और उन्हे
प्रदर्शित भी किया जिसमे 1912 मे बनी श्री पुड़ालिक(पूरी लंबाई की फोटोग्राफिक
फिल्म) और 1913 मे बनी राजा हरिश्चंद्र (भारतीय सिनेमा की पहली पूरी लेंथ लिए हुए feature फिल्म)
किन्तु हमारी व्यवस्था कुछ इस तरह की है कि हम बना तो बहुत कुछ लेते हैं किंतु अपनी
विरासत को सहेज कर रखना हमे आज भी नहीं आया। फिर वो फिल्मे हों या महल,हवेली हो या कुछ और। और तो और 1931 मे बनी पहली बोलती फिल्म “आलम आरा” का
आज एक भी प्रिंट उपलब्ध नहीं है। अजीब स्थिति तो ये है कि 1898 से शुरू हुआ
फिल्मों का सफर जिसमे लघु, मूक और 1931 से शुरू हुई बोलती फिल्मों का दौर तक,सब
आज कि तारीख मे बेकार है क्यों कि 1950 तक बनी सभी फिल्मों के प्रिंटों के तौर पर
हमारे पास शायद सहेज कर रखी गई फिल्मों का यदि प्रतिशत मे हिसाब लगाए तो ये
प्रतिशत 15-20 के बीच ही रहेगा। बाकी फिल्मों का इतिहास समय के साथ धूल धूसरित हो
गया है। इस विषय मे गंभीर प्रयास किए जाने बहुत ज़रूरी हैं
::: प्रदीप भट्ट ::::
09.04.2016
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